शनिवार, 30 मई 2015

Can I start exercising at 7-9 months pregnant?

Can I start exercising at 7-9 months pregnant?

You must learn that the first of the techniques is a traditional squat. With this technology, you often place high on the back. Sometimes you will hear bodybuilding slut is being called. Time for you to help support your shoulder blades should hold back. You can keep your wrist rigid or power-lifter in style just depends on your personal ability, enhanced. This is what you can do if you rotate your shoulders, because you need to keep your elbows under your wrists. If this happens, you would be likely to pinch a nerve in turn, your rotator cuff, can hit. For some people, making their arms go numb.

Focus on concentration, breathing and exercising the perineum muscle for the later stage of your pregnancy. These will give strength and prepare your body for delivery. All dad-to-be can also involve in these exercises.

Play Exercises For 7-9 Months Pregnant video

Exercises in Preparation for Delivery for 7-9 months pregnant

Traditional barbell squat

To perform this exercise proper alignment of the hips is something that has been the subject of considerable debate. Generally, you should keep your back slightly curved inwards, rather than circular. It will attach to muscles that protect the spine. You can also use of the hip in a neutral position. With this situation, you turn your back to the top of the pelvis and flatten your back to push forward his lower pelvis. You exaggerate the movement and pushing too much, you can complete your back. Create your neutral spine Use only enough rotation. Keep your head in line with your torso forward. You keep your head up, looking forward rather than up or down Also, if you keep your spine aligned and can avoid injury.

If you go down as if sitting in a chair.

They measure your knees pass your toes Do not allow to expand. This particular exercise is under some pressure on your knee joint, and your knees go forward more stress you put on them. If you sit a little, giving more stress on your weight, your knees, your quads, your heels instead will be transferred through your toes. Correctly in order to execute this movement, you have to balance and flexibility. You can try to place your heel on the block. This improves your balance, it takes a little flexibility. You better pull the ankle rather than eliminate symptoms by using the blocks to respond to its lack of flexibility.

Next of The Best Exercise

 

शनिवार, 9 मई 2015

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न्याय की अवधारणा! सबको समान न्याय ! कठोर सजा! अपराधी प्रवृत्ति में कमी ?

सलमान खान के हिट एंड़ रन मामले में आये निर्णय के झरोखे से यदि न्याय की उक्त अवधारणा को देखा जाय तो लगभग 13 साल बाद एक बिग सेलिब्रिटी सलमान खान का निर्णय आ ही गया जो न्याय की इस मूलभूत अवधारणा को प्राथमिक रूप से सही सिद्ध करता है कि (जस्टिस डिलेड इज जस्टिस डिनाइड) न्याय में देरी होना अन्याय तुल्य है।  

सामान्य रूप से जब किसी रोड़ दुर्घटना में कोई व्यक्ति या व्यक्तियों की मृत्यु हो जाती है तो चालक पर लापरवाही का प्रकरण धारा 304 अ के अन्तर्गत दर्ज कर आरोपी को जमानत पर छोड़ दिया जाता है जिसमें अधिकतम तीन साल की सजा का प्रावधान है। धारा 304 (2) में अपराध दर्ज होने पर अपराध गैर जमानती होकर उसमें दस साल तक की सजा का प्रावधान है। तदनुसार उक्त पुराने प्रकरण में सलमान खान को दी गई सजा यदि बहुत कठोर नहीं है तो कम भी नहीं कही जा सकती है। भारतीय आपराधिक जूरी एडेन्स का एक आधार यह भी है कि कड़ी सजा होने के प्रावधान से अपराधी डरंे जिससे अपराध में कमी आयेगी। क्या उक्त सिंद्धान्त केे लक्षण सलमान खान के केस के निर्णय में दिख रहे है? 

जब से सलमान खान को सजा मिली है तब से इलेक्ट्रानिक मीडिया व प्रिन्ट मीडिया ने उन्हें लगातार सुर्खियों में रखकर अपनी न केवल टीआरपी बढाने का प्रयास किया बल्कि जाने अनजाने में घोषित अपराधी की टीआरपी भी बढाई है। मीडिया चेनल्स यदि निर्णय के पूर्व व बाद के सलमान के चहेतों की तुलना करें तो पाएॅगे कि निर्णय के बाद सलमान के चहेते बहुत ज्यादा बढ़ गए है।  अर्थात् कठोर सजा होने के बावजूद समाज ,सेलेब्रिटीज ,राजनीतिज्ञ फिल्मी क्षेत्रों से लेकर प्रश्ंासक हर कोई के दिल में सलमान खान के प्रति अपराध बोध या अपराधी होने के भाव आये हे ऐसा लगता नहीं है। पं्रशसक सहित सभी क्षेत्रों के व्यक्तियों ने सलमान की लगभग प्रशंसा ही की है आलोचना नहीं। अपितु इन सभी के मन में सलमान के प्रति पीड़ित दया भाव ही ज्यादा झलकता है। इस अपराध के संबंध में न तो उन्हे सीख दी गई, न ही ,उन्हें कोसा गया, न ही उनमें स्वयं में कोई सीख लेने की तत्परता ही दिखी जैसा कि सजा देने के प्रभाव से उत्पन्न होना चाहिए था। हमारी भारतीय संस्कृति में जब कोई हमारा परिचित व्यक्ति स्वर्गवासी हो जाता है तो उसकी अवगुणों की आलोचना करने के बजाय उसके सदगुणों की प्रशंसा ही करते हैं। सलमान के संबंध में भी शायद इसी सास्ंकृतिक मनोदशा को अपनाया गया है। यदि यह सही है तो न्याय प्रक्रिया की इस अवधारणा पर पुर्नविचार करना आवश्यक होगा कि कठोर सजा से अपराधिक प्रवृत्ति को कैसे रोका जा सकता है। 

हमारे देश में कानून का मूलमंत्र ही यह है कि कानून सबके लिए एक ही है व बराबर है। चूंकि सलमान खान एक सेलेब्रिटी है तो यह भी देखना होगा कि उसके केस में क्या कानून के इस आधार का पालन हो पाया है। सेलेब्रिटी होने से लाभ व नुकसान दोनो होते है। उपरोक्त निर्णय पर यदि इस आधार पर विचार किया जाय तो सेलेब्रेटी होने के कारण सलमान खान की सजा कुछ

कठोर लगती है जैसा कि सलमान खान के डिफेन्स वकील ने दो निर्णयों (परेरा व नन्दा केस ) का उदाहरण देकर जताने का प्रयास किया है। दूसरी ओर सेलेब्रिटी होने से उन्हें यह फायदा भी मिला कि उसी दिन उनको अंतरिम जमानत दे दी गई जहॉ न्यायालय देर शाम तक ही बैठी रही जिसमें सामान्यतया दो चार दिन लग जाते है तथा सजायाप्ता अपराधी को तुरन्त जेल जाना पड़ता है। सलमान पर दिया गया निर्णय न्याय प्रणाली को यह अवसर प्रदान करता है कि उसको हम और ज्यादा जनहितैषी व सुलभ तथा शीघ्र प्राप्य बनाने के लिये क्या प्रयास कर सकते है। इस विषय पर समस्त संबधित आवश्यक पक्षों को गहनता से विचार करना चाहिए। 

‘‘अपराध’’ की नई ‘‘परिभाषा’’! ‘कुमार’ ‘विश्वास’ के ‘‘कुमार’’ पर ‘‘पूर्ण‘‘विश्वास’’...! लेकिन..... ?

राजीव खण्डेलवाल:
Domo picture: theguardian.com
हमारे देश भारत में हर कुछ सम्भव है। मीडिया भी किसी भी तथ्य को वास्तविक घटना का रूप देने में पूर्णतः सक्षम है फिर चाहे वह घटना भले ही वास्तविक रूप में घटित ही न हुई हो। पिछले दो दिनो से एक महिला द्वारा कुमार विश्वास के संबध में लिखा गया पत्र (शिकायत ?) जो किसी भी रूप में कुमार विश्वास के विरूद्ध अपराध तो दूर कोई आरोप भी नहीं जड़ता है। पर   इलेक्ट्रानिक मीडिया ने पुलिस ट्रायल के पूर्व ही मीडिया ट्रायल कर विश्वास को अपराधी घोषित कर सजा तक दे डाली और अब शायद मीडिया का अगला कदम विश्वास द्वारा तथाकथित सजा न भुगतने कि स्थिति पर केन्द्रित होगा?

आखिर उक्त महिला द्वारा पुलिस को दिये गये आवदेन पर प्राथमिक स्ूाचना तक दर्ज कर डाली गई जिसमें यह कथन किया गया है कि कुमार विश्वास आगे आकर कहे कि उक्त महिला से उनका कोई अवैध संबंध नहीं है। इस तरह से सोशल मीडिया में इस तथाकथित अवैध संबंध कोे लेकर झूठी अफवाह फैल रही है जिसे कुमार विश्वास खारिज नहीं कर रहे है। उक्त झूठी अफवाह के कारण उनका दाम्पत्य जीवन टूट गया है और उनके पति ने उन्हें घर के बाहर कर दिया है। महिला का कहीं भी यह आरोप नहीं है कि यह झूठी अफवाह कुमार विश्वास ने फैलायी है। उन्हे व उनके पति का कुमार विश्वास पर इतना गहरा विश्वास है कि उनके कथन (खंडन) मात्र से उनके पति उस (झूठी) अफवाह को झूठी मान लेगें और वह फिर से अपने पति के साथ रहने लग जायेगी। उनके पति का उनकी पत्नी पर ‘‘विश्वास’’ नहीं है जिसे वह स्वयं एक झूठी अफवाह कह रही है बल्कि उसके पति को ‘‘कुमार विश्वास’’ के खंडन पर जरूर ‘‘विश्वास’’ है शायद इसलिए क्योकि उनका नाम ‘‘कुमार’’ ‘‘विश्वास’’ है। पत्नी को भी ‘‘विश्वास’’ पर ‘‘विश्वास’’ है कि उनके खंडन मात्र से पति को अफवाह के संबंध में ‘‘अविश्वास’’ हो जायेगा।  

आपराधिक दंड प्रक्रिया में आरोपित हुये बगैर स्वयं को ही आरोप - हीन सिद्ध करने का यह नया फंडा आखिर पूरी मीडिया को खूब भाया है। इसी कारण से कुमार विश्वास का उसी तरह से चरित्र हनन हो रहा है जिस तरह से उक्त महिला का झूठी अफवाह फैलने के कारण हुआ है। जब महिला खुद मात्र खंडन का विश्वास से अनुरोध कर रही है तब मीडिया स्वयं कुमार विश्वास से सूचक (लीडिग) प्रश्न पूछकर कर उनके चऱित्र हनन का ‘‘ताल ठोक के’’ ‘‘हल्ला बोल’’ कर (मीडिया चेनल के प्रोग्राम) प्रयास क्यों किया जा रहा है। यद्यपि कुमार विश्वास को महिला की इच्छा अनुसार एक सामान्य खण्डन जारी करने में कोई परहेज नहीं होना चाहिए था। जब महिला खुद अरविन्द केजरीवाल के पास उस अफवाह के संबंध में मिली और अरविन्द केजरीवाल ने इस संबंध में स्वयं तुरन्त खंडन कर दिया तब उसे ही युक्तियुक्त खंडन क्यो नहीं मान लिया जाता है। मीडिया ने सीधे उस महिला के पति से भी सम्पर्क क्यो नहीं किया कि क्या आपने अपनी पत्नी को अपने से अलग कर  दिया है जिसका आधार मात्र वह अफवाह है जो आपकी पत्नी आरोपित कर रही है। पुलिस  भी एफआईआर दर्ज करने के बाद महिला के पति और कुमार विश्वास से इस संबंध में सीधा प्रश्न क्यों नहीं कर रही है। इसका जवाब तुरन्त मिल जाता तो महिला को समाधान मिल जाता, एफआईआर फाईल हो जाती व प्रकरण समाप्त हो जाता तथा मीडिया ट्रायल को भी अपना आयना दिख जाता। 

यहॉ फिर यही प्रश्न पैदा होता है जो प्रश्न अरविन्द केजरीवाल ने उठाया कि मीडिया का पब्लिक ट्रायल होना चाहिए। जब मीडिया इस तरह से एक नागरिक के व्यक्तिगत प्राइवेसी का   अधिकार व नागरिक अधिकार का हनन कर सकता है तब मीडिया की जवाबदेही व जिम्मेदारी क्यों नहीं निश्चित कीे जानी चाहिए ? जब इस देश के संविधान में विधायिका, कार्यपालिका,न्यायपालिका और मीडिया को लोकंतत्र के चार स्वतंत्र स्तम्भ व एक दूसरे के पूरक मानकर प्रत्येक की जवाबदारी व जवाबदेही निश्चित की गई है तब मीडिया की स्वतंत्रता के नाम पर मीडिया को उच्छ्रंखल नहीं होने दिया जा सकता है। लोकंतात्रिक देश होने के कारण न्यायपालिका और विधायिका के साथ मीडिया की जिम्मेदारी अंततः जनता के प्रति ही होती है। जनता का मतलब भीडतंत्र नहीं हो सकता है। बल्कि प्रत्येक नागरिक की व्यक्तिगत स्वंतत्रता व नागरिक अधिकारो की सुरक्षा का दायित्व मीडिया पर भी है, और मीडिया अपनी इस जिम्मेदारी से बच नहीं सकता है।

यह आपराधिक दंड सहिंता का अनोखा उदाहरण होगा जहॉ कोई आवेदिका किसी व्यक्ति के विरूद्ध भारतीय दंड सहिता या अन्य किसी अधिनियम के अन्तर्गत आरोप लगाये बिना अनावेदक के साथ मीडिया सहित राजनैतिक पार्टियॉं राजनीति का गंदा खेल खेलकर कुमार विश्वास पर    वे सब आरोप  मढ़ने का प्रयास कर रहे है जो स्वयं आवेदिका नहीं लगा रही है तथा आरोपित हुये बिना व्यक्ति को अपनी सफाई देने के लिए मजबूर किया जा रहा है। महिला आयोग की अभी तक की गई सम्पूर्ण कार्यवाही के तरीके को भी देखा जाय तो उसमें भी राजनीति की बू ही आती है। जब 21 वी सदी में हर क्षेत्र में विकास हो रहा हो, तब न्याय के विकास की शायद यह एक नई परिभाषा है।       

                               (लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार एवं पूर्व नगर सुधार न्यास अध्यक्ष हैं)   

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