गुरुवार, 12 मई 2022

अवैध गिरफ्तारी (?) से मुक्ति के लिए की गई ‘‘अवैध कार्रवाई‘‘ ’’क्या वैधानिक’’ हो जाएगी?

‘'पुलिस बनाम पुलिस का अभूतपूर्व शर्मनाक शर्मसार कर देने वाला संग्राम’’
क्रमशः शेष गतांक से आगे 
द्वितीय भागः- 
आइए! इस पूरी घटना के कानूनी व स्थापित प्रक्रिया के पहलू पर गंभीरता पूर्वक विस्तृत विचार करें। जहां पूरा प्रकरण अपराध पंजीयत होने से लेकर रिहाई तक राजनैतिक उद्देश्य से विद्वेष निकालने के लिये समस्त पक्षों अर्थात् आप-भाजपा द्वारा बेशर्मी के साथ कार्यान्वित किया गया। भाजपा द्वारा तेजिंदर पाल को निर्दोष बताते हुए ‘‘आप’’ व अरविंद केजरीवाल पर सत्ता का राजनैतिक दुरुपयोग कर पंजाब पुलिस पर दबाव डालकर बग्गा के विरुद्ध झूठा प्रकरण दर्ज कराने का गंभीर आरोप लगाया गया। वैसे अरविंद केजरीवाल जो राजनीति के प्रारंभिक चरण में भाजपा एवं नरेंद्र मोदी पर किस तरह से मीडिया की ब्रांडिंग व सत्ता तथा संवैधानिक संस्थागत संस्थाओं का विपक्षी विरोधियों के विरुद्ध दुरुपयोग के आरोप लगाते थकते नहीं थे। सत्ता में आने के बाद आज केजरीवाल का भी चरित्र अपने प्रतिद्वंदी भाजपा से ज्यादा एक कदम आगे ही हो गया है। जहां अब स्वयं उन पर आरोपी की झड़ी लग रही है। कपिल मिश्रा, अलका लांबा, कुमार विश्वास आदि उनके राजनीतिक विरोधी इसके जीवंत उदाहरण जो केजरीवाल द्वारा राजनैतिक द्विवेश से अपने साथियों द्वारा की गई कार्यवाही को झेल रहे हैं। दिल्ली अर्ध-राज्य के विज्ञापन खर्चे की तुलना देश के किसी भी राज्य से कर लीजिए, स्थिति आपके सामने स्पष्ट हो जाएगी। 
कृपया बग्गा द्वारा किए गए विभिन्न ट्वीट्स की भाषा को पढ़ लें। इनमें से कुछ तो मीडिया भी भाषा के निम्न स्तर को देखते हुए पूरे ट्वीट्स नहीं दिखा रहा है, और पूर्व में उस पर दर्ज कई अपराधिक मामलों को देखते हुए हिस्ट्रीशीटर होकर भाजपा द्वारा बग्गा को बेगुनाह बतलाना तो बिल्कुल भी सही  प्रतीत नहीं लगता हैं। उच्चतम न्यायालय में प्रशांत भूषण के चेंबर में जाकर थप्पड़ मारना, अरुन्धिति राय के पुस्तक विमोचन कार्यक्रम में हंगामा, राजीव गांधी के विरूद्ध अपमानजनक टिप्पणी के लिये छत्तीसगढ़ में प्रकरण दर्ज हुआ। पश्चिमी बंगाल में अमित शाह की रोड़ शो में हिंसा फैलाना, पटियाला हाउस कोर्ट द्वारा दंगा फैलाने की नीयत से भड़काऊ भाषण देने पर सजा देना आदि अनेकानेक आपराधिक घटनाएं बग्गा के सिर पर मुकुट धारण किये हुयी हैं। तथापि बंदूक से निकली गोली जैसी तेजी से पुलिसिया तरीके से की गई कार्यवाई व प्रति कार्यवाई ने पूरे प्रकरण को संदेह के दायरे में जरूर ला दिया है।
यह तो प्रकरण का एक पक्ष हुआ जिसकी रचयिता ‘‘सिंर मुंडाते ही ओले पड़ने’’ वाली पंजाब पुलिस रही। परंतु इसका दूसरा पक्ष दिल्ली पुलिस व हरियाणा सरकार व पुलिस का भी इस हाई वोल्टेज ड्राजा में गजब का रोल रहा, जो आज तक के आपराधिक न्यायशास्त्र (क्रिमिनल जूरिसप्रूडेंस) के इतिहास में कभी भी नहीं हुआ। आज तक आपने कभी सुना है कि एक आरोपी के पिता की शिकायत के आधार पर आरोपी को गिरफ्तार करके ले जा रही पुलिस के विरुद्ध अपहरण व मारपीट के अपराध को दूसरी पुलिस द्वारा तुरंत-फुरंत बिना जांच के प्रकरण दर्ज कर ले? परंतु दिल्ली पुलिस ने न केवल ऐसा किया, बल्कि हरियाणा पुलिस को तदनुसार सूचित भी किया। आरोपी के पिता प्रीति पाल सिंह बग्गा के मीडिया में दिए गए बयानों पर थोड़ा गौर तो कर लीजिए। वे कहते हैं कि सुबह पंजाब पुलिस के कुछ आदमी जो पूर्व में भी आ चुके हैं, मेरे बेटे, को पगड़ी पहनने का समय दिए बिना ही उठाकर ले गए। (पंजाब पुलिस उनके घर पांच बार नोटिस देने जा चुकी है)। मेरे को थ्प्पड़ मारा व परिवार के साथ मारपीट भी की। फिर किसी बयान में वह यह कहते दिखते हैं कि कुछ गुंडे आए थे, जो उठाकर ले गए। फिर यह भी कहते हैं, दिल्ली पुलिस को बताए बिगर मेरे लड़के को ले गए। (यह तथ्य उन्हे कैसे मालूम? क्या दिल्ली पुलिस उनसे मिली हुई है?) इन सब कथनों से आप स्वयं ही निष्कर्ष निकाल सकते हैं। 
अपहरण के अपराध की उक्त परिभाषा कानून की किस किताब में लिखी है जरा बताएं तो? पंजाब पुलिस को अच्छी तरह से पहचान करने वाले व्यक्ति द्वारा आधिकारिक कर्तव्य के निर्वहन में आयी पुलिस के विरुद्ध अपहरण सहित धारा 452, 342, 365, 295 एवं 34 के अंतर्गत प्रकरण न्यायालय द्वारा नहीं, बल्कि अपनी ही दूसरे राज्य के थाने की पुलिस द्वारा दर्ज कराना सातवें आश्चर्य से कम नहीं है? पुलिस टीम तो अपने आला आंका अधिकारियों के निर्देश पर कर्त्तव्य (ड्यूटी) निर्वाह करने गयी थी। क्या आंकाओं के विरूद्ध भी मारपीट व अपहरण का मामला दर्ज किया गया? हां पंजाब पुलिस की अवैधानिक निरोध की कार्रवाई की स्थिति में सक्षम न्यायालय में उनके विरुद्ध आवश्यक कार्यवाही अवश्य की जा सकती है। परंतु दिल्ली पुलिस को बगैर किसी न्यायालीन आदेश के पंजाब, पुलिस की आपराधिक के तारतम् में की गई कार्यवाही भी प्रांरभ से ही शून्य के बावजूद भी उसमें हस्तक्षेप करने का कोई कानूनी अधिकार कदापि नहीं था। 
दिल्ली पुलिस की सूचना पर हरियाणा पुलिस ने ‘‘मुद्दई सुस्त, गवाह चुस्त’’ की तर्ज पर उसी तत्परता से दिल्ली पुलिस जो केंद्रीय गृह मंत्रालय के अधीन है, के अनुरोध/आदेश पर कार्रवाई करते हुए बग्गा को पंजाब पुलिस की हिरासत से कुरुक्षेत्र में छुड़ाकर दिल्ली पुलिस को (हिरासत में नहीं) सौप कर उसकी गैरकानूनी रूप से छीनी गई व्यक्तिगत स्वतंत्रता को वापस प्रदान कर दिया। इस प्रकार एक बार पुनः कुरुक्षेत्र की महाभारत की लड़ाई की याद ताजा हो गई। ‘‘एक ही परिवार के कौरव पांडव’’ के बीच महाभारत की कुरुक्षेत्र की लड़ाई में तो धर्म की जीत हुई। परंतु यहां पर एक ही वर्ग दो पुलिस थानों के बीच अधिकारों  साथ राजनैतिक वर्चस्व की लड़ाई में कानूनी रूप से कौन जीतेगा, इसका अंतिम निराकरण तो अभी न्यायालय द्वारा होना शेष है। 
क्या आप केन्द्रीय गृह मंत्रालय को बधाई नहीं देना चाहेगे? 75 वें स्वाधीनता वर्ष में किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता, यदि एक पुलिस बल के हत्थे अवैधानिक चढ़ जाए और केंद्रीय गृह मंत्रालय बचा नहीं पाए तो अमृत महोत्सव मनाने का फायदा क्या? और यदि ऐसी त्वरित कार्रवाई नहीं होती तो, क्या अमृत महोत्सव मनाने का उद्देश्य सफल कहलाता? इसलिए केंद्रीय गृह मंत्रालय के अधीन दिल्ली पुलिस को तुरंत-फुरंत कार्यवाही करनी पड़ी। एक महत्वपूर्ण प्रश्न यहां उत्पन्न होता है, हरियाणा पुलिस ने अपहरणकर्ता से अपहृत व्यक्ति की बरामदी के बाद अपहरणकर्ताओं को गिरफ्तार कर कानूनी कार्रवाई क्यों नहीं की? यदि हरियाणा पुलिस ने अपहरणकर्ता को गिरफ्तार नहीं किया तो, दिल्ली पुलिस ने उन अपहरणकर्ताओं के पीछे जाकर उन्हें गिरफ्तार करने का प्रयास क्यों नहीं किया? इसके जवाब में ही दिल्ली व हरियाणा पुलिस की बेगुनाही (यदि है?) छुपी हुई है। चोरी का माल बरामद होने पर चोर को भी तो गिरफ्तार किया जाता है। मतलब साफ है, अपहरण की धारा का सहारा लेकर दिल्ली व हरियाणा पुलिस ने जिस तरह से पंजाब पुलिस की कस्टडी से गिरफ्तार आरोपी को छुड़ाया, वह दिल्ली पुलिस की अपनी कार्यवाही को कानूनी रूप देने का बेशर्मी पूर्वक असफल प्रयास मात्र है, लेकिन ‘‘सूरदास खल कारी कमरी, चढ़े न दूजो रंग’’ तो क्या किया जा सकता है?
दिल्ली पुलिस की इस कार्य पद्धति ने देश की स्वाधीनता के 75 वर्ष में न्यायालय के अतिरिक्त एक नया न्याय तंत्र स्थापित किया है। जहां पुलिस द्वारा स्वयंमेव ही न्यायिक अधिकार अपने में आत्मसात कर त्वरित न्याय दिला देना। एक राज्य की पुलिस द्वारा तथाकथित अवैध रूप से गिरफ्तार व्यक्ति को दूसरे राज्य की पुलिस गिरफ्तारी को अवैध मानकर पुलिस बल की कस्टडी से छुड़ाकर कर मामले को समाप्त कर सकती है, यह नई न्यायिक पद्धति व प्रणाली है। इसे तो ‘‘अंधों का हाथी’’ कहना ज्यादा उचित होगा। वैसे आपको इस तथ्य से अवगत करा दूं कि दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 48 के अनुसार प्राइवेट व्यक्ति, एक नागरिक को भी किसी अन्य व्यक्ति को कुछ परिस्थितियों में हिरासत में रखने का अधिकार है। शायद यह अधिकार जो पुलिस के अधिकार क्षेत्र में एक हस्तक्षेप के समान है, के प्रतिकार में तो पुलिस ने स्वयं-मेव यह न्यायिक अधिकार प्राप्त तो नहीं कर लिया है? निश्चित रूप से न्यायालय की न्यायिक प्रक्रिया में कई बार समय लगता है। इससे कई बार न्याय पाने का उद्देश्य ही समाप्त हो जाता है। परंतु इस तरह की पुलिस की अन्याय के खिलाफ न्याय दिलाने की तुरंत प्रक्रिया का संदेश निश्चित रूप से न केवल जनता के बीच बल्कि अन्य पुलिस प्रशासन के बीच भी जाएगा? अभी तक तो पुलिस की भूमिका जांच के द्वारा न्याय दिलवाने की (देने की नहीं) रही है। परंतु अब वह स्वयं न्यायिक पुलिस अधिकारी भी बन गई है, यह उक्त घटना की एक बड़ी उपलब्धि नहीं क्या है?
अब दिल्ली पुलिस द्वारा पंजाब पुलिस से अपहृत किए गए अपराधी को छुड़ाने के पश्चात घटनाक्रम में न्यायालय के प्रवेश, न्यायालीन प्रक्रिया व आदेश पर भी कुछ गंभीर विचार करने की आवश्यकता हैं। 7 तारीख शुक्रवार सुबह लगभग 8.30 बजे पंजाब पुलिस के द्वारा बग्गा की गिरफ्तारी के बाद बग्गा के पिताजी द्वारा पंजाब पुलिस के विरुद्ध उनके बेटे के अपहरण की शिकायत करने के बाद तुरंत एफ आईआर दर्ज कर लगभग 1.00 बजे द्वारका न्यायालय के मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट के समक्ष दिल्ली पुलिस द्वारा आवेदन प्रस्तुत कर सर्च वारंट जारी कराया गया। पंजाब पुलिस से बग्गा को हरियाणा पुलिस के सहयोग से छुड़ाने के बाद ड्यूटी मजिस्ट्रेट के समक्ष रात्रि में बग्गा को प्रस्तुत किया गया जिन्होंने दोपहर में मेट्रोपोलिन मजिस्ट्रेट द्वारा जारी सर्च वारंट के अनुपालन में बग्गा को वयस्क होने के कारण दिल्ली पुलिस से भी न केवल स्वतंत्र करने का आदेश दिया बल्कि आरोपी को आवश्यक अस्थाई सुरक्षा प्रदान करने के आदेश भी दिए। (आजकल यह बहुत चलन मैं हो रहा है कि कोई स्क्रीन (पर्दे) पर चलने वाला अभियुक्त को न्यायालय या केंद्रीय राज्य सरकारें आनन-फानन में ‘‘अंधा बांटे रेवड़ी’’की तर्ज पर सुरक्षा उपलब्ध करा देती हैं।) माननीय ड्यूटी मजिस्ट्रेट ने उक्त तथ्य का कोई संज्ञान नहीं लिया कि अभियुक्त को मोहाली थाने में दर्ज एफआईआर के सिलसिले में पंजाब पुलिस ने दिल्ली आकर उसके निवास से उसको गिरफ्तार कर मोहाली कोर्ट के समक्ष प्रस्तुत करने के लिए ले जा रही थी। एक तरफ पंजाब सरकार द्वारा उच्च न्यायालय में दायर हैबीएस कॉरपस सहित दो पिटिशन पर सुनवाई 7 तारीख को की जाकर 8 तारीख को हरियाणा सरकार को शपथ पत्र प्रस्तुत करने के निर्देश दिए गए। परंतु तुरंत कोई भी अंतरिम आदेश पारित नहीं हुआ, बल्कि याचिका सुनवाई हेतु 10 तारीख के लिए निश्चित की गई। बावजूद इसके बग्गा की पंजाब उच्च न्यायालय में मोहाली थाने में दर्ज एफआईआर को निरस्त करने के लिए दायर याचिका में  अंतरिम आवेदन पर अर्ध रात्रि में सुनवाई कर गिरफ्तारी वारंट रोकने के आदेश जारी किये गये।
अंत में जैसे लोहा लोहे को काटता है, हीरा(डायमंड) हीरे को काटता है, उसी प्रकार दो (-) क्या प्लस (+) हो जाएगा? नहीं! न्यायालीन प्रक्रिया में तो कम से कम ऐसा नहीं चलता है। स्पष्ट है, इस बात का दुख होता है कि राजनेताओं के शह पर ‘‘पुलिस तंत्र’’ को अपनी राजनीति का तंत्र बनाने वाले वे सत्ता नायक ही कसूरवार है, जिनके मजबूत कंधों पर इस प्रवृत्ति को विराम लगाने की जिम्मेदारी है। और जनता? वह तो हमेशा के समान ‘‘निरीह’’ है।

स्वाधीनता के ‘‘अमृत महोत्सव वर्ष’’ में कमजोर होता ‘‘गण’’ व ‘‘तंत्र’’।

पतन पर तेजी से जाती हुई ‘‘राजनीति’’ का ‘‘हाई वोल्टेज ड्रामा’’।

विषय लेख लम्बा होने से पाठकों की सुविधा की दृष्टि से इसे दो भागों में लिखा जा रहा हैंः-   प्रथम भाग

30 नवंबर को दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के निवास के समक्ष दिल्ली युवा मोर्चा के प्रदर्शन में दिल्ली भाजपा के प्रवक्ता, युवा इकाई के सचिव तेजिंदर पाल सिंह बग्गा, निवासी जनकपुरी, दिल्ली ने फिल्म ‘‘द कश्मीर फाइल्स’’ पर की गई केजरीवाल की टिप्पणी से नाराज होकर बग्गा द्वारा अरविंद केजरीवाल के प्रति कुछ आपत्तिजनक टिप्पणी की थी। इसे लेकर आप पार्टी के प्रवक्ता मोहाली निवासी सनी अहलूवालिया द्वारा तेजिंदर पाल द्वारा सोशल मीडिया पर सांप्रदायिक सौहाद्र व सद्भाव बिगाड़ने की शिकायत की गई। जिस पर मोहाली पुलिस द्वारा 3 अप्रैल (कुछ मीडिया रिपोर्ट में 1 अप्रैल बतलाया है) को थाना पंजाब स्टेट साइबर क्राइम में एक एफआईआर दर्ज की गई। दर्ज मुकदमें के सिलसिले में जांच में शामिल होकर सहयोग देने के लिए पंजाब पुलिस द्वारा दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 41 ए के अंतर्गत 5 बार नोटिस भेजने के बावजूद बग्गा के जांच में उपस्थित न होने पर पंजाब पुलिस ने दिल्ली आकर भा.द.स. की धारा 153 ए, 505 व 506 के अंतर्गत आरोपित बग्गा को जनकपुरी स्थित स्थित, उनके निवास से  गिरफ्तार कर लिया। यहां यह उल्लेखनीय है कि प्रस्तुत प्रकरण में पुलिस को संज्ञेय अपराधों में बिना वारंट के अपराधी को गिरफ्तार करने का कानूनी अधिकार है।

इस पर जिस तरह ‘‘ढाई हाथ की ककड़ी और नो हाथ के बीज’’ समान राजनैतिक भूचाल पैदा किया गया और पुलिस तंत्र किस तरह से निरुत्साहित (पंजाब पुलिस) व अति-उत्साहित (दिल्ली व हरियाणा पुलिस) होकर कानून की धज्जियां उड़ाते हुए बदनाम पुलिसिया अंदाज में कार्रवाई करके संघीय ढांचे पर हथौड़े चलाकर तार-तार करते रहे, वह देश व राजनीति के लिए अत्यंत ही शर्मसार है। हद तो तब और हो जाती है जब बेशर्म होकर राजनीतिज्ञगण बेशर्मी से आरोप-प्रत्यारोप लगाकर सिर्फ उसी राजनीति को चमकाने में लग जाते हैं, जो उनके कार्यकलापों से शर्मसार हुई जा रही है। क्या आजकल देश को हाई वोल्टेज ड्रामा की ओर तो ले जाने का प्रयास तो नहीं किया जा रहा है? जैसे उपरोक्त पुलिसिया के हाई वोल्टेज ड्रामे के साथ वर्तमान में बुलडोजर का भी हाई वोल्टेज ड्रामा, बेरोजगारों की विभिन्न क्षेत्रों में भर्ती न निकालने का, उच्चतम महंगाई को शांतिपूर्ण सहने का भी हाई वोल्टेज ड्रामा देश में चल रहा है? जिनके पीछे राजनीतिक दलों का ही तो हाथ हैं?

उक्त पूरी घटनाक्रम देश के स्वतंत्र भारत के इतिहास की अभी तक की इस तरह की एकमात्र अनोखी घटना होकर 75 वें स्वतंत्रता वर्ष के लिए ‘‘न भूतो न भविष्यति’’ एक कलंक होकर सिर झुकाने के लिए मजबूर करने के साथ गंभीर चिंतन के लिए विवश कर देती है।  किसी अपराध व तदनुसार अपराधी से निपटने के लिए अभी तक की अपने तरह की यह प्रथम बिल्कुल ही असामान्य व अस्वाभाविक पुलिसिया प्रक्रिया से कई गंभीर व अनुतरित प्रश्न उत्पन्न होते हैं। यह घटना इस बात को भी सिद्ध करती है कि हमारे देश के गणतंत्र व संघीय ढांचे में अभी भी आधारभूत मूल कमियां हैं, जो मात्र एक व्यक्ति की गिरफ्तारी पर उजागर हो जाती है। इस पूरी घटना ने प्रारंभिक अवस्था में न्यायालय को तो लगभग एक तरफ दरकिनार ही कर दिया। दिल्ली पुलिस जो केंद्रीय गृह मंत्रालय के अधीन है और हरियाणा पुलिस दोनों मिलकर पंजाब पुलिस पर बुरी (पूरी) तरह से हावी हो गए। परिणाम स्वरूप दिल्ली पुलिस पंजाब पुलिस से एक आरोपी को ठीक उसी प्रकार से छुड़ा कर ले आती है, जिस प्रकार किसी जमाने में ‘‘एक बंधक को माधोसिंह गैंग के कब्जे से मोहर सिंह गैंग अधिक बल के आधार पर छुड़ाकर ले आता रहा होगा’’। मानो दिल्ली पुलिस यह दर्शना चाह रही होगी कि ‘‘बाज के बच्चे मुंडेरो पर नहीं उड़ा करते’’। कानून के राज की बात तो कोई कर ही नहीं रहा है, तो पालन करना तो दूर की बात हो गई।   

सर्वप्रथम आरोपी तेजिंदर पाल सिंह बग्गा के खिलाफ मोहाली पुलिस द्वारा दर्ज की गई ‘‘प्रथम सूचना पत्र’’ जिसे कानून में कहीं परिभाषित नहीं किया गया है, ठीक उसी प्रकार  गिरफ्तारी को भी परिभाषित नहीं किया गया है। को ही ले ले। दर्ज एफआईआर गलत है या सही, इसे निरस्त (नस्ति) करने का अधिकार क्षेत्राधिकार प्राप्त न्यायालय को ही है। किसी थाने या राजनेताओं को नहीं। हां अवश्य जांच के दौरान पर्याप्त आवश्यक साक्ष्य न मिलने पर जांच अधिकारी प्रकरण को समाप्त करने के लिए क्लोजर रिपोर्ट (प्रकरण बंद करना) संबंधित मजिस्ट्रेट के पास अवश्य भेज सकता है। तब भी जांच अधिकारी अपने स्तर पर प्रकरण नस्ती नहीं कर सकता है। यही कानूनी स्थिति है। 

यहां पर न तो जांच अधिकारी ने ऐसा किया और न ही आरोपी को निचली अदालते तथा पंजाब उच्च न्यायालय से इस संबंध में कोई अंतरिम सहायता मिली। जहां तक पंजाब पुलिस की उक्त कार्रवाई करने के आशय या राजनीतिक दबाव के चलते दुरूराशय का प्रश्न है, जैसा कि आरोपी व उसका परिवार लगातार लगा रहे हैं और अब तो यह भाजपा-आप के बीच यह एक राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप के युद्ध में परिवर्तित हो गया है। पंजाब पुलिस की सदृशयता का अंतिम निराकरण तो न्यायालय के द्वारा ही निर्णीत होगा और तब तक पंजाब पुलिस को न्यायालीन आदेश के बिना आगे कार्रवाई करने से रोका नहीं जा सकता था। तब तक तत्समय  ऐसा कोई आदेश नहीं था।

मतलब राजनैतिक उद्देश्य व विद्वेष को लेकर (यदि ऐसा मान भी लिया जाए तो भी) दर्ज की गई एफआईआर पर मोहाली पुलिस द्वारा की गई कार्यवाही प्रथम दृष्टया दंड प्रक्रिया संहिता व भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत अधिकार क्षेत्र में व वैध थी, तथापि वह देखने की न्यायालय की नज़र में नहीं बल्कि दिल्ली और हरियाणा पुलिस के लिए। आरोपी को जांच में शामिल होकर सहयोग देने के लिए पंजाब पुलिस द्वारा 5 बार नोटिस दिए जाने के बावजूद ‘‘अपने खोल में मस्त रहने वाला’’ बग्गा उपस्थित नहीं हुआ। जहां तक अंर्तप्रातींय पुलिस कार्यवाही के लिए अभियुक्त को एक राज्य से दूसरे राज्य में ले जाने के लिए नियमों की बात है, द.प्र.स. की अध्याय (सेम)V(5)की धारा 41 से 60 में आवश्यक सक्षम प्रावधान दिए गए हैं।

सामान्यतया एक राज्य की पुलिस को दूसरे राज्य में जाकर अभियुक्त को गिरफ्तार करने के लिए सामान्य प्रक्रिया के तहत उस राज्य की स्थानीय पुलिस को (प्रशासनिक, सुरक्षा व कानून व्यवस्था की दृष्टि से) सूचित करना आवश्यक होता है। परंतु यदि दूसरे राज्य की पुलिस को स्थानीय पुलिस पर विश्वास न हो तो, वह बिना सूचना के भी सीधे आरोपी को गिरफ्तार कर सकती है, ताकि स्थानीय पुलिस द्वारा आरोपी को सूचना देने की आशंका की स्थिति में उसके फरार होने की संभावना न हो। जिसकी संभावना प्रस्तुत मामले में पूरी तरह से थी, जो बात के घटनाक्रम से सिद्ध भी होती है। यदि पुलिस गिरफ्तार आरोपी को गिरफ्तारी के 24 घंटे के भीतर धारा 57 (76 वारंट निष्पादन की दशा में) के अंतर्गत सक्षम/निकटतम न्यायालय में रिमांड हेतु प्रस्तुत कर देती है, तो दं. प्र. सं. की धारा 167 के अनुसार ट्राजिस्ट रिमांड लेने की कतई आवश्यकता नहीं है। 

गिरफ्तार अभियुक्त को एक राज्य से दूसरे राज्य ले जाने में यदि 30 किलोमीटर से अधिक दूरी पर जाना पड़ता है तो ट्राजिस्ट पास लेना चाहिये। ऐसा मीडिया के कुछ भाग में बताया जा रहा है। परंतु 30 किलोमीटर का ऐसा कोई प्रावधान मेरी नजर में नहीं आया। यूपी के महत्वपूर्ण बहु चर्चित विकास दुबे प्रकरण में भी अभियुक्त को उज्जैन से गिरफ्तार कर उत्तर प्रदेश बिना ट्रांजिट रिमांड के ले जाया गया था ऐसा म.प्र. पुलिस का कहना था। जबकि उल्ट इसके यूपी पुलिस ने ट्रांजिस्ट रिमांड लेने का दावा किया था। तथापि अधिकतम यह एक नियम है, कानून नहीं। अर्थात् यह एक अनियमितता(इररेगुलारिटी) हो सकती है, लेकिन गैरकानूनी अवैध(इलेगलिटी)नहीं और अनियमितता के लिये पुलिस के विरूद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाही अवश्य की जा सकती है। परंतु गैरकानूनी होने पर अभियुक्त को मुक्ति का अधिकार मिल जाता है। दोनों में अंतर को समझना होगा।

अतः जब तक एफआईआर दर्ज है और वह सक्षम न्यायालय द्वारा निरस्त नहीं की गई है, तब तक मोहाली पुलिस को अभियुक्त को गिरफ्तार करने का वैधानिक अधिकार था। जहां तक 7 साल से कम सजा वाले मामलों में गिरफ्तारी न करने के उच्चतम न्यायालय के निर्देश की बात की जा रही है, उसमें भी कुछ परिस्थितियों में ही गिरफ्तारी न करने के निर्देश है। वैसे हम जानते हैं कितने मामलों में उच्चतम न्यायालय के निर्देशों का पालन होता है। उच्चतम न्यायालय के निर्देश तो ‘‘अरहर की टटिया में अलीगढ़ी ताले’’ के समान होकर रह गए हैं। ठीक उसी प्रकार जैसे कि अपराधी को हथकड़ी पहनाकर कोर्ट के अनुमति के बिना पुलिस को अधिकार न होने के उच्चतम न्यायालय के निर्देश के बावजूद दैनंदिन पुलिस द्वारा बेशर्मी के साथ अपराधियों को हथकड़ी पहना कर न्यायालय की ठीक नाक के नीचे प्रस्तुत किया जाता है। गिरफ्तारी के समय व उसके बाद उच्चतम न्यायालय के ऐतिहासिक निर्णय डी.के.बसु वि. पश्चिम बंगाल सरकार (ए.आई.आर.1997 एस.सी. 610 में) दिया गया 11 सूत्रीय निर्देशों का आज भी कितना पालन होता है, यह हमसे छुपा नहीं है। वास्तविकता में तो जैसे कानूनी अधिकार कानूनी किताबों पर सुशोभित देखते है, धरातल पर नहीं। उच्चतम न्यायालय के निर्देशों की भी लगभग वही स्थिति है। 

शेष अगले अंक में.......

शुक्रवार, 6 मई 2022

‘‘अशांत’’‘प्र‘’शांत’ किशोर को स्वयं एक ‘‘रणनीतिकार’’ की आवश्यकता?

पूर्व केन्द्रीय मंत्री असलम शेर खान ने आज सुबह मुझे मैसेज कर प्रशांत किशोर के बाबत् राय पूछी। तदानुसार उन्हे अपनी बेबाक राय लिखते-लिखते वह एक लेख के रूप में ही परिवर्तित हो गयी, जो रूबरू प्रस्तुत है। 

प्रशांत किशोर राजनीति के खेल में ‘‘ब्रांडिंग’’ लाने के लिए जाने जाएंगे।   

2014 के लोकसभा चुनाव के परिणाम के बाद प्रथम बार प्रशांत किशोर का नाम सार्वजनिक रूप से आया व एक रणनीतिकार के रूप में चर्चित हुआ। मोदी की जीत में प्रशांत किशोर की नई नीति ब्रांडिग की रणनीति का महत्वपूर्ण योगदान माना गया। तब से प्रशांत किशोर भारतीय राजनीति में ‘‘विभिन्नता में एकता’’ लिये हुये ‘‘नीतिगत मूल्यों की सिंद्धान्त की राजनीति से एकदम दूर’’ एक रणनीतिकार के रूप में विभिन्न राजनीतिक दलों के लिए चुनावी जीत के लिए एक तुरुप के इक्के के रूप में चल निकले हैं। उन्होंने बहुत ही चतुराई से उन्हीं राजनीतिज्ञ व राजनीतिक दलों जेडीयू, आप, तृणमूल कांग्रेस, वाईएसआर कांग्रेस, से डीएमके तक विभिन्न परस्पर विरोधी विचारधाराओं के लिए रणनीतिकार होकर रणनीति बनाई, जिनकी राजनीतिक जमीनी धरातल पूर्व से ही काफी मजबूत रही है। इसलिए वे राजनैतिक ‘‘दलों व व्यक्तियों’’ के चुनाव करने की अपनी ‘नीति’(रण नीति नहीं?) में वे असफल नहीं रहे, और विजय पथ पर पूर्व से चली आ रही विजयी पार्टी की सफलता का श्रेय सफलतापूर्वक अपने सिर लेते रहे। 

परंतु वर्ष 2017 में जब वे कांग्रेस के लिए उत्तर प्रदेश में  रणनीतिकार बने तो कांग्रेस का जमीनी आधार लगभग समाप्त की ओर हो जाने के कारण प्रशांत किशोर उत्तर प्रदेश कांग्रेस में कोई नई परिणामोंन्मुख जान नहीं ड़ाल पाये। पिछले आम चुनावों से भी बहुत कम सीटें मिली।अतंतः वे कांग्रेस को सफलता नहीं दिला पाय एव बुरी तरह से असफल हो गए।  परन्तु उक्त असफलता का ‘ठीकरा’ न तो कांग्रेस ने और न ही राजनैतिज्ञ विश्लेषकों व पंडितों ने उनके सिर पर फोड़ा। वो इसलिए कि कांग्रेस की जमीनी सच्चाई को सब जानते थे कि रेत से तेल निकालना आसान काम नहीं है। इसलिए मैं प्रशांत किशोर को शुद्ध रणनीतिकार के रूप में स्वयं के लिए मानता हूंय दूसरों के लिए रणनीतिक सलाहकार के रूप में नहीं। क्योंकि रणनीतिकार बनते समय उन्होंने राजनीतिक दलों को चुनने की सही नीति अपनायी जहां उनकी रणनीति से ज्यादा पूर्व से ही पार्टियों की मजबूत जमीन जीत का आधार विद्यमान थी।

आज की भारतीय राजनीति में सिर्फ एक ‘‘कला’’ (रणनीति) से राजनैतिक युद्ध नहीं जीता जा सकता है। साम, दाम, दंड, भेद रण (युद्ध) जीत के पुराने हथियार रहे हैं, जो आज भी उतने ही प्रासंगिक है। ‘‘चार एम’’ अर्थात मनी पावर, मसल पावर, मांब पावर व मीडिया पावर के साथ ही अच्छी रणनीति सफल हो सकती है, यह आज की राजनीति की कड़वी सच्चाई है। प्रशांत किशोर ने 2 अक्टूबर गांधी जयंती से पूर्वी चंपारण के गांधी आश्रम से तीन हजार किलोमीटर की सुराज पद यात्रा शुरू करने की घोषणा की है। जब वे यात्रा पर निकलेंगे और जनता से सीधे रूबरू होंगे, तब वह स्थिति, अभी तक की उनकी कार्यप्रणाली के बिल्कुल विपरीत होगी। क्योंकि रणनीतिकार तो बंद कमरों के अंदर अपने कुछ सलाहकारों के साथ बैठकर ही रणनीति बनाता है। इसलिए प्रशांत किशोर के जनता के बीच जाने पर ही वे धरातल पर मौजूद राजनीतिक सच्चाई को जान पाएंगे, जो उनके लिए एक नया अनुभव भी होगा। और तब वे यदि आगे राजनीतिक रणनीतिकार के रूप में काम करना चाहेंगे, तो ज्यादा सफल हो सकते हैं। 

प्रशांत किशोर ने पत्रकारवार्ता में नीतीश कुमार पर निशाना साधते हुये बेरोजगारी व ध्वस्त होती शिक्षा व्यवस्था पर प्रश्नचिंह लगाया। एक रणनीतिकार के रूप में व जेडीयू के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष के रूप मेें तब वे नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनाने की पूरी रणनीति बनाते रहे। पिछले 15 दिनों से 600 से ज्यादा स्लाइड़ दिखाकर वे कांग्रेस के लिए मुख्य रणनीतिकार बनने के लिए शर्तो के साथ बातचीत कर रहे थे। लेकिन अंततः बात बन नहीं पायी। यहां यह उल्लेखनीय है कि ये वही प्रशांत किशोर हैं जिन्होंने पिछले साल अक्टूबर में मोदी के नेतृत्व की बढ़ाई करते हुए सोनिया और राहुल गांधी के नेतृत्व की आलोचना की थी। प्रशांत किशोर की उपरोक्त मनः स्थित को देखते हुए वे एक भ्रांत (कन्फ्यूज्ड) व्यक्तित्व हो गए हैं। और शायद इसीलिए वे एक नई राजनीतिक पार्टी बनाने के लिए रणनीतिकार से राजनेता बनने की और स्वयं की रणनीति बनाने में जुट गये है। यहां प्रशांत किशोर का दोहरा परस्पर विरोधी ‘चेहरा’ दिखता सा है। अब उनका व्यक्तित्व उनके नाम प्रशांत किशोर के विपरीत हो गया है। अर्थात न तो वे शांत (प्र शांत) और न ही किशोर (अनुभवी होने के कारण) रह गए हैं। स्पष्ट है, राजनीति में आने की संभावना टटोलते व बनाते हुए उन्हे कमरे के अंदर की ब्रांडिग की रणनीति के बजाय जनता के बीच राजनैतिक मुद्दों को तलाशने की रणनीति बनानी की नई पारी खेली होगी। तभी तो वे किशोर रह पाएंगे। (अनुभवी व्यक्ति तो प्रोड हो जाता है।)

प्रशांत किशोर ने फरवरी 2020 में ‘‘बात बिहार की’’ कार्यक्रम की घोषणा की थी लेकिन वे शुरू नहीं कर पाये जो उनकी विश्वसनीयता पर एक प्रश्नचिंह अवश्य लगाता है। क्योंकि इस संबंध में उनका स्पष्टीकरण बेहद घिसा-पिटा कोरोना संक्रमण काल का कारण बताया जो गुणदोष (मेरिट) पर आधारित नहीं है।  

राजनीति में एक राजनीतिज्ञ रणनीतिकार दूसरों को सफलता अवश्य दिला सकता है, परंतु वह स्वयं के लिए रणनीति लागू करके राजनीति में सफलता दिला दें, ऐसा अवश्यंभावी होना संभव नहीं हो पाता है। ठीक उसी प्रकार जैसे घर का वकील और डॉक्टर सामान्यतया स्वयं के ‘प्रकरण’ और ‘रोगी’ को देखने की बजाय दूसरे विशेषज्ञों की सहायता अपने आत्मविश्वास को बल देने के लिए लेते हैं। ऐसा ही राजनीति में भी कुछ विशिष्ट योग्य लोग दूसरों को तो ‘‘राजा’’ बनाने की क्षमता रखते है, परन्तु स्वयं नहीं बन पाते है, ‘‘प्रजा’’ ही बने रहना पड़ता है।  इस सत्य को शायद प्रशांत किशोर ने नई पारी खेलने के पहले ही स्वीकार कर लिया है जब  वे यह कहते हैं कि यदि नई पार्टी बनी भी तो मैं एक साधारण सदस्य रहूंगा।

राजनैतिक युद्ध के पटल में रणनीति एक हिस्सा अवश्य व आवश्यक होती है। परन्तु यदि आपके पास युद्ध लड़ने के समस्त साधन, संसाधन, शस्त्र-अस्त्र, तंत्र नहीं है तो, न तो रणनीतिकार रणनीति बना पाएगा और न ही रण में विजय दिला पाएगा। प्रशांत किशोर की यही सच्चाई व वास्तविक स्थिति है। पर्दे के पीछे काम करना अलग बात है और पर्द से निकलकर जनता के बीच सीधे जाकर काम करना अलहदा कार्य प्रणाली है। इस सच्चाई से प्रशांत किशोर जल्दी ही वाकिफ और रूबरू हो जाएंगे। ईश्वर प्रशांत किशोर को इस नई पारी खेलने के लिए पहली पारी समान ही सफलता प्रदान करें। इन्हीं शुभकामनाओं के साथ!

बुधवार, 4 मई 2022

राणा दंपत्ति का जमानती आदेश! कितना न्यायिक! कितना संवैधानिक!

राजीव खण्डेलवाल                    
(लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार एवं पूर्व सुधार न्यास अध्यक्ष हैं)                                                        
मुम्बई सत्र न्यायाधीश ने राणा दंपत्ति के जमानत आदेश मंे जो शर्ते लगायी है, उनमें अन्य शर्तो के साथ आगे उल्लेखित दो शर्ते महत्वपूर्ण है। प्रथम राणा दंपत्ति उक्त विषय पर कोई ‘‘पत्रकार वार्ता’’ अर्थात् मीडिया से चर्चा नहीं करेगें। दूसरा वे भविष्य में ‘‘इस तरह का दोबारा विवाद आगे नहीं करेंगे ’’ अर्थात् इस ‘‘अपराध की पुनरावृत्ति नहीं करंेगे’’, जैसा कि मीडिया द्वारा कहा गया है। 
प्रश्न यह है कि मीडिया से बातचीत करने का जो प्रतिबंध माननीय न्यायालय ने लगाया है, वह कितना न्यायिक, संवैधानिक होकर संविधान में दी गई बोलने के ‘‘प्रतिबंध के साथ दी गई सीमित (पूर्ण नहीं) स्वतंत्रता’’ के अंतर्गत आता है? बड़ा प्रश्न यहां इस कारण से भी हो जाता है कि माननीय न्यायाधीश ने पटल (काॅउटर) में मीडिया को इस विषय पर कोई स्टोरी प्रसारित करने पर प्रतिबंध नहीं लगाया है। अर्थात् यदि मीडिया एक तरफा उक्त घटना पर अपनी स्टोरी आरोपी के विरूद्ध मिर्च-मसाला के साथ प्रसारित करता है, जैसा कि प्रायः मीडिया हमेशा से प्रायः करते आये हैं। तब उस स्टोरी के तथ्यों के गलत होने पर आरोपी मीडिया में जाकर अपने बचाव में अपना पक्ष नहीं रख सकते हंै। यह क्या बात हुई ‘‘किसी पर करम, किसी पर सितम’’।
निश्चित रूप से मेरा ऐसा मानना है कि इस तरह का प्रतिबंध आरोपी की स्वतंत्रता के संवैधानिक अधिकार पर एक प्रकार का कुठाराघात सा है। पुलिस प्रशासन को इस बात का अविरल कानूनी अधिकार ही नहीं है, बल्कि यह उसका दायित्व भी है कि यदि अपराधी/अभियोगी मीडिया से बात करते समय स्थापित सीमाओं का अथवा किसी कानून का उल्लघंन करते हैं, तो पुलिस उनके खिलाफ नई एफआईआर दर्ज करके आवश्यक कानूनी कार्यवाही कर गिरफ्तार कर सकती है। (चारा मामले में लालू यादव पर एक नई कई एफआईआर दर्ज हुई थी)
आज कल व्यक्ति के संवेदनशील मामलों में अपराधी बनने पर राज्य सरकारों को अपराधी की ‘‘सम्पत्ति के अतिक्रमण का ख्याल’’ आ जाता है। और यह ख्याल दिलाने के लिये ‘‘अहो दुर्रताबलन दिरेधिता’’ और वह अपने कानूनी अधिकारों का अतिक्रमण कर अपराधी के तथाकथित अतिक्रमण पर तुरंत-फुरंत बुलडोजर चला देते है। क्योंकि आज की राजनीति में यह एक वोट प्राप्त करने का मुद्दा जो हो गया है। जैसा कि प्रस्तुत मामले में भी मुम्बई महानगर पालिका ने राणा दंपत्ति के खार स्थिति फ्लैट पर अगली कार्यवाही करने के लिए नोटिस चिपका दिया है। उक्त अपराध घटने के पूर्व क्यों नहीं? महानगर पालिका द्वारा की कार्यवाही कानून सम्मत व अधिकार सम्पन्न होने के बावजूद ‘‘समय के चुनाव’’ में महानगर पालिका के ’’दुरा’’/’’आशय ’’ को स्पष्ट रूप से इंगित करता हैं? यह प्रतिबंध कहीं न कही संविधान में दी गई सीमित (असीमित नही) स्वतंत्रता को भी उल्लंघन करता हुआ प्रतीत होता हैं, जो कार्य शायद पुलिस प्रषासन का है। 
एक उल्लेखनीय बात यह भी है कि माननीय सत्र न्यायाधीश ने इस विषय पर मीडिया से बातचीत करने पर प्रतिबंध राणा दंपत्ति पर लगाया। परन्तु उनके परिवार के सदस्य व सहयोगियों पर कोई प्रतिबंध न लगाने के कारण यदि वे लोग इस विषय पर मीडिया से बातचीत करे, तो क्या प्रतिबंध अप्रभावी होकर ‘‘बालू की दीवार’’ नहीं हो जायेगा? और क्या वह न्यायिक अवमानना की सीमा में आयेगा? 
जहां तक पुनः अपराध न करने की दूसरी शर्ते है, वास्तव में वह भी सामान्य शर्त नहीं है। माननीय सत्र न्यायालय ने यह कहकर कि वे दोबारा इस तरह का विवाद नहीं करेगें, उन्हे प्रथमदृष्ट्यिा एक तरह से अपराधी ही मान लिया है, जो कि जमानत के मूल सिंद्धातों के विरूद्ध है। जमानत प्रकरण में मुख्य रूप से यह देखा जाता है कि अभियोगी जमानत मिलने पर गवाहों को ड़राये-धमकाये नहीं, उसके भागने की संभावनाएं न हो और वह जांच में पूर्ण सहयोग करे। प्रथमदृष्ट्यिा यदि अपराधी गंभीर अपराध को अंजाम देने वाला माना जा रहा है, तो न्यायालय द्वारा सामान्यतः जमानत ही नहीं दी जाती है। आरोपी ने अपराध किया या अथवा नहीं, यह अवधारित करना सामान्यतः जमानत आवेदन की सुनवाई के समय नहीं बल्कि यह तो मुकदमें का ट्रायल होने पर ही निर्णित होगा। परन्तु जमानत आवेदन पर सुनवाई के दौरान माननीय सत्र न्यायाधीश की टिप्पणी निचली ट्रायल कोर्ट में चलने वाली कार्यवाही को अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करने वाली हो सकती है, इस बात को भी ध्यान में रखने की आवश्यकता है। 
जमानत के मामलों में सामान्यतः सत्र न्यायधीश के समक्ष बहस होने के बाद जमानत देने अथवा न देने का निर्णय ले लिया जाता है। कभी समय की कमी के कारण विस्तृत निर्णय अगले दिन के लिये रख दिया जाता है। परन्तु 30 तारीख को बहस समाप्ति के बाद प्रकरण आदेशार्थ बंद करने के बाद दो तारीख तक निर्णय सुरक्षित रख कर निर्णय देने कहा गया। फिर 4 तारीख के लिए निर्णय को बढ़ा दिया गया। इस प्रकार अभियुक्तों की तीन दिन की स्वतंत्रता के अधिकार का हनन हुआ है। सेशंन कोर्ट तत्काल ही बहस के बाद जमानत देने की घोषणा करके अगले दिन विस्तृत निर्णय दे सकती थी, ताकि उन्हे दूसरे दिन समस्त औपचारिकता पूरी करने पर जमानत मिल जाती। माननीय सत्र न्यायाधीश से यह जानकारी ली जानी चाहिए कि इस तरह का जमानती आदेश कितने अन्य प्रकरण में दिये गयें, जहां प्रकरण आदेशार्थ वह होने के बाद 3-4-5 दिन बाद निर्णय दिये गये हों। जमानत का एक अधिकार है व अस्वीकार एक अपवाद है, उच्चतम न्यायालय का यह एक प्रतिपादित सिंद्धान्त है और जैसा कि कहा गया हैः ‘‘दीर्घसूत्री विनश्यति’’। यहां पर न्यायालय की शायद उपरोक्त समय लगने वाली प्रक्रिया के कारण उक्त सिंद्धान्त की भावना को कहीं न कहीं हल्की सी चोट जरूर पहंुची है। 
राजनैतिक आपराधिक मामलों में न्यायालय के शायद अतिरिक्त सावधानी और सुरक्षा बरतने के कारण वह एक सामान्य न्यायिक प्रक्रिया नहीं रह पाती है। अतः इस पर उच्चतम न्यायालय को कोई न कोई स्पष्ट निर्देश और सिंद्धान्त जारी करना चाहिए। ताकि निचली अदालतें संवेदनशील मामलों में अपराध की घटना व अपराधियों के वजूद के कारण अपने आस-पास उत्पन्न परिस्थितियों से अप्रभावित हुये बिना निश्चित होकर ड़रे बिना, निर्भिक, निर्विकार भाव से पूर्ण कौशल व बुद्धि का उपयोग कर अपनी न्यायिक कर्तव्यों को निभा सकें।

‘‘तेल नीति’’ पर ‘‘राजनीति’’ नहीं, बल्कि दृढ़ राष्ट्रहित, जनहित व ‘‘पारदर्शी नीति’’ की आवश्यकता है।

‘‘तेल का खेल’’, ‘‘न खेला होवे कब’’?

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने  कोरोना के विषय पर बुलाई गई मुख्यमंत्रियों की मींटिग में समस्त राज्यों के मुख्यमंत्रियों को सहकारी संघवाद की याद दिलाते हुये कहा कि वे अपने-अपने प्रदेशों में वेट को घटाकर अपने राज्य के नागरिकों को तेल की मंहगाई से राहत प्रदान करें। प्रधानमंत्री ने तेल कीमतों में ‘‘मंहगाई की आग’’ का कारण ‘‘रूस-यूक्रेन युद्ध’’ को बतलाया। पिछले 8 वर्षो में पेट्रोल 70-75 रू. से बढ़कर सैकड़ा (100) पार कर गया, जबकि अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल का मूल्य 130-135 डॉलर प्रति बैरल से घटकर 40-60 डॉलर तक आ गया था। रूस व यूक्रेन के बीच युद्ध प्रारंभ होने के पूर्व 24 फरवरी तक क्रुड़ आईल की कीमत अंर्तराष्ट्रीय बाजार में 100 डॉलर से भी कम लगभग 95 डाॅलर रहने के बावजूद भी हमारे देश में औसत 100 रू. से ऊपर पेट्रोल के दाम पहुंच गये थे। परन्तु प्रधानमंत्री की इस बेतहाशा तूफानी बढ़ोतरी पर कोई नजर नहीं गई। भले ही इसका कोई कारण नहीं बतलाया हो, परन्तु इस बढ़ोतरी का कारण ‘‘न वित्तेन तर्पणीयो मनुष्यः‘‘, अर्थात धन से कभी तृप्त न होने वाली लालसा के अलावा और क्या हो सकता है? यद्यपि यह कारक देश के खजाने में वृद्धि करने में निसंदेह बहुत सहायक रहा।

केन्द्रीय सरकार द्वारा नवम्बर 2021 में एक्साइज ड्यूटी घटाकर राज्य सरकारों से वेट कम करने की अपील की गई थी। तब समस्त बीजेपी शासित राज्यों ने अपने राज्यों में वेट की दर घटा दी थी। परन्तु विपक्षी राज्योें ने नहीं घटाई। सिवाएं पंजाब को छोड़कर जहां चुनाव होने वाले थे, वहां पर वेट अवश्य घटाया गया। उक्त बैठक में ही विपक्षी राज्यों पर तंज कसते हुये प्रधानमंत्री ने एक महत्वपूर्ण आक्षेप यह लगाया कि वेट कम न करना एक तरह से राज्यों के लोगों के साथ अन्याय है। यानी ‘‘जबरा मारे और रोने भी न दे‘‘

आपको याद होगा, देश के उपभोक्ताओं के लिये पेट्रोलियम उत्पादों के मूल्य निर्धारण की नीति को यूपीए सरकार ने सरकारी ‘‘नियंत्रण से मुक्त‘‘ कर कंपनियों के पाले में ड़ाल दिया था, यह कहकर कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चा तेल (क्रूड़ ऑयल) के बढ़ते घटते मूल्य के आधार पर पेट्रोलियम कंपनीयां देशी बाजार में पेट्रोल-डीजल के दाम को तदनुसार निर्धारित कर सकेगीं और इस तरीके से तकनीकि रूप से पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़ने के लिए सरकार ने स्वयं को जिम्मेदारी से मुक्त कर लिया था। इसे डायनमिक प्राइसिंग कहते है। यह ‘‘आधिकारिक सैंद्धातिक’’ स्थिति है। परन्तु वास्तविक रूप से धरातल पर उतरी हुई नहीं है। बल्कि यह जैसी ‘‘बहे बहार पीठ तब वैसी दीजे’’ की नीति अपना लेती है। यह इस बात से सिद्ध होती है कि दिन-प्रतिदिन, हफ्ता-पख़वाड़ा डीजल-पेट्रोल के मूल्यों में होने वाली वृद्धि ‘‘चुनाव के समय’’ बिना किसी रूकावट के पूरी चुनावी अवधि में बिना नागा ‘‘अवकाश’’ ले लेती है। यह छुट्ठी सरकार ही तो देगी? अंर्तराष्ट्रीय बाजार नहीं? ‘‘आदर्श चुनाव संहिता लागू‘‘ होते ही मूल्य वृद्धि भी ‘‘आदर्श‘‘ दिखाने के लिए ‘‘रुक‘‘ जाती है?

 देश की राजनीति में पेट्रोलियम उत्पाद के मूल्यों को लेकर क्या पक्ष क्या विपक्ष दोनों ने ही सत्ता के समय की अपनी नीति व विपक्ष के रूप में अपनी आलोचनात्मक नीति को देश हित में सही ठहराया है। इसे ही कहते है ‘‘कालस्य कुटिला गति’’ मतलब पक्ष से विपक्ष या ‘विपक्ष’ से ‘पक्ष’ होने पर राजनैतिक दलों द्वारा तेल की अपनी मूलभूत नीति में भी बहुत आसानी से सुविधाजनक परिवर्तन कर लिया जाता है। जनता द्वारा समस्त दलों को गिरगिट समान बदलती इस तेल नीति का आईना दिखाना आवश्यक है, ताकि वे अपने गिरेबानों में झांक सके। दुर्भाग्यवश यह संभव नहीं हो पा रहा है। इसलिए उक्त शीर्षक दिया गया है।

प्रधानमंत्री की राज्यों को वेट कम करने की सलाह की इस दोहरी नीति पर नागरिकों को ध्यान देने की अति आवश्यकता है। प्रधानमंत्री जब राज्यों को वेट घटाने की बात कहते है, तो वे यह कहना नहीं भूलते हैं, बल्कि इस बात पर जोर देते हैं कि इन छः महीनों में कर्नाटक को 5 हजार करोड़ व गुजरात (दोनो भाजपा शासित राज्य) को 3-4 हजार करोड़ का राजस्व का घाटा वेट घटाने के कारण उठाना पड़ा। तथापि उक्त राज्यों के पड़ोसी राज्यों (विपक्षी शासित) ने 5 हजार करोड़ का अतिरिक्त राजस्व वेट न घटाने के कारण कमा लिया। प्रधानमंत्री ने यह भी माना कि टैक्स में कटौती करने से राजस्व की हानि होती है, लेकिन आम जनता को राहत मिल जाती है। बड़ा प्रश्न यह है कि प्रधानमंत्री इस सिद्धांत को ‘‘चैरिटी बिगत्स एट होम’’ की तर्ज पर एक्साइज ड्यूटी के संबंध में क्यों नहीं अच्छी तरह से लागू करते है? पिछले 8 सालों में पेट्रोल-डीजल में क्रमशः 45%, 75% तक की एक्साइज ड्यूटी में वृद्धि (लगभग 30 रू. प्रति लिटर) होकर केन्द्र सरकार के राजस्व में चार गुना इजाफा हुआ। नवम्बर 2021 में मात्र 5 रू. व 10 रू. प्रति लिटर पेट्रोल-डीजल में कमी की गई थी। तथापि यह भी एक तथ्य है कि इसका 42 प्रतिशत राज्यों के पास चला जाता है। अब शायद 100 रू. जिसमें 100 प्रतिशत अर्थात 50 रू कीमत व 50 रू समस्त करो के करारोपण का योग शामिल हैं मूल्य को आधार मूल्य मानकर तेल के मूल्यों में वृद्धि की तुलनात्मक निष्कर्ष निकाले जाकर जनता को गुमराह किया जा रहा हैं। एक्साइज ड्यूटी बढ़ातेे समय प्रधानमंत्री को सहकारी संघवाद की याद व जनता को राहत देने का ख्याल शायद नहीं आया? यही ‘‘एक आंख से हसने और एक आंख से रोने वाली’’ दोहरी नीति है। ऐसी स्थिति में एक्साइज ड्यूटी में अल्प कमी कर सरकार राहत देने का दावा कैसे कर सकती है? अतः एक्साइज ड्यूटी बढ़ाते समय उसे अन्याय नहीं माना है। जब बढ़ोत्री ‘अन्याय’ ही नहीं तब ‘न्याय’ (छूट) की आवश्यकता कहां है? 

इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता है, जब भी पेट्रोल उत्पादकों पर खासकर डीजल पर करारोपण चाहे एक्साइज ड्यूटी हो अथवा वेट, उसका केसकेड़िंग प्रभाव होता है। अर्थात 2ग2त्र 4 न होकर 5 हो जाता हंै। क्योंकि अधिकतम परिवहन साधनों में फ्ूयल डीजल का उपभोग (कंजूमशन) होने के कारण भाडे़ में वृद्धि होने से समस्त जीवनपयोगी वस्तुओं के मूल्य में भी वृद्धि हो जाती है और इस प्रकार 10 रू. मूल्य की वृद्धि अंत में जाकर 12-13 रू. की वृद्धि में परिवर्तित हो जाती है। यह 2 से 3 रू. की अतिरिक्त वृद्धि जो ट्रान्सपोटेशन के कारण हो जाती है, वह देश के विकास में खर्च नहीं होती जैसा कि केन्द्रीय सरकार एक्साइज ड्यूटी बढ़ाते समय जनता से अपील करती है या दावा करती है कि बढ़ा हुआ टैक्स देश के विकास में खर्च होगा। यह बढी हुई वृद्धि ट्रान्सपोर्ट के लागत में ही लग जाती है।

 प्रश्न यह है देश को चलाने वाले देश के राजनैतिज्ञ जो जनता की सेवा के नाम पर राजनैतिक क्षेत्र में आते है, और जैसा कि कहा भी जाता हैः-‘‘परोपकाराय सताम् विभूतयः’’ और जनता की सेवा के लिए पक्ष व विपक्ष के सौंपे गये दायित्व का बीड़ा उठाने का संकल्प लेते है, वे तेल की इस दोहरी नीति को कब छोड़ेगें? और देश का उद्धार करेंगें? और इस दुमही नीति के लिए देश से वे कब माफी मागेंगें? 

यूपीए सरकार के प्रथम कार्यकाल (2004 से 2009) में अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत 50 डाॅलर से बढ़कर 160 डाॅलर प्रति बैरल तक पहंुच गई थी। जबकि पेट्रोल का दाम तब भी 45-50 रू. प्रति लिटर ही था। परन्तु कम्यूनिष्टिों के दबाव के आगे सरकार ने तेल की कीमत लगभग नहीं बढ़ाई। आर्थिक मंदी के कारण जनवरी 2009 में कच्चे तेल की कीमत घटकर 50 डाॅलर हो गयी। 2014 में एक पत्रकार वार्ता में मनमोहन सिंह का यह कथन बहुत महत्वपूर्ण है कि ‘‘इतिहास मेरे प्रति दयालु’’ होगा। एनडीए सरकार के समय कच्चे तेल के मूल्य में भारी गिरावट के बावजूद भी तेल के महगे होने के कारण भारी अंतर से हुये मुनाफे को वह कम कर जनता को राहत क्यों नहीं दे पा रही है? बल्कि जनता से बढ़ी कीमतों का भार देशहित में बुनियादी ढांचों के विकास के लिए सहने को कह रहे है। लोकोक्ति (मुहावरा) ‘‘तेल देखों; तेल की धार नहीं’’ के अर्थ को ही तेल की कीमत ने बदल दिया है। वास्तव में जनता का ही ’’तेल’’ निकल रहा है। कयोंकि तेल मतलब सिर्फ पेट्रोल-डीजल ही नहीं, बल्कि खाद्य तेलों के मूल्यों में बढ़े हुयें आयात के बावजूद भी अंगार लगी हुयी है। 56 इंच सीना लिये हुये प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जब सालों से चले आ रहे कठिन, बेहद विवादस्पद विषयों तीन तलाक व अनुच्छेद 370 को समाप्त कर सुलझा सकते है और किया है। इस प्रकार देशहित में साहसपूर्ण निर्णय के लिए स्वयं को सिद्ध कर चुके है। तब पेट्रोलियम उत्पादकों को जीएसटी में शामिल क्यों नहीं कर रहे हैं? पहली बार जीएसटी की जब अवधारणा आई थी, तब ‘‘एक राष्ट्र-एक दर’’ के सिद्धांत के आधार पर उसमें समस्त वस्तुओं पेट्रोल उत्पाद सहित (माल) को शामिल किया जाना था। जिस प्रकार यूपीए सरकार के समय भाजपा शासित सरकारांे के मुख्यमंत्रियों ने जीएसटी का अप्रत्यक्षतः विरोध किया था। उसी प्रकार आज पेट्रोलियम उत्पादों को जीएसटी के दायरे में लाने के लिए कुछ विपक्षी सरकारें भी अपनी अनिच्छा व्यक्त कर चुकी है। तथापि विगत दिवस ही झारखड़ के वित्तमंत्री ने पेट्रोल-डीजल कोे जीएसटी में लाने का स्वागत किया है। 

पेट्रोलियम उत्पादकों को जीएसटी मंे लाने से वास्तव में किसी भी राज्य का नुकसान नहीं होगा। क्योंकि जिस प्रकार वस्तु के क्रय-विक्रय पर ‘वेट’ जिससे राज्यों को सीधे राजस्व मिलता है को समाप्त कर जीएसटी लागू करने पर वस्तुतः उससे होने वाला राजस्व का तय फ्रामूले के अनुसार राज्य कोे अपना हिस्सा केन्द्र सरकार से मिलता है। मतलब राजस्व में हानि नहीं होती है। इसका एक प्रत्यक्ष राजनैतिक फायदा यह है कि राज्य सरकारें तेल पर कर बढ़ने की स्थिति में जिम्मेदारी व बदनामी से भी बच जायेगी। यदि केेन्द्र सरकार ‘‘ओस चाट कर प्यास बुझाने वाली‘‘ नहीं बल्कि दृढ़ता से एक्साईज ड्यूटी में उद्देश्यपूर्ण राहत पहंुचाने वाली कमी करे जिससे नागरिकों को वास्तविक राहत महसूस हो तब विपक्षी शासित राज्यों पर भी नैतिक रूप से दबाव बढ़ जायेगा। और आज नहीं तो कल जब चुनाव का समय आयेगा तब निश्चित रूप से पंजाब के समान अन्य राज्य भी वेट कम करने के लिए मजबूर होगें। क्योंकि ‘‘खरबूजे को देख कर खरबूजा रंग बदलता है‘‘। 

आप जानते है कच्चे तेल का देश में उत्पादन यूपीए सरकार के समय 30 प्रतिशत होता था पिछले तीन वर्षो से लागत कच्चे तेल के चाल उत्पादन के लागत जिसका आयात जो अभी एनडीए सरकार के समय घटकर 15 प्रतिशत के आस-पास रह गया। वर्ष 2013-14 में 77 प्रतिशत से बढ़कर 84 प्रतिशत रह गया। प्रधानमंत्री ने 10 प्रतिशत आयात कम करने का लक्ष रखा था। भारत विश्व का सबसे बड़ा कच्चे तेल का आयातक देश है। जहां घरेलू मांग की पूर्ति अधिकतम अंर्तराष्ट्रीय बाजार से आयात कर ही की जाती है, इस कारण हमारे देश की मेहनत से कमाई गई विदेशी मूद्रा भंडार का भारी मात्रा में खर्च होता है। यह हमारे बजट, जीडीपी मतलब देश के विभिन्न आर्थिक पहलुओं को किसी न किसी तरह से नकारात्मक रूप से प्रभावित करता है। वैसे आपको यह जानकर भी आश्चर्य होगा कि भारत रिफाइड़ कच्चे तेल का दुनिया में शीर्ष 10 देशों में शामिल है। क्या अब भी सरकार तेल के आयात कम करने के लिए वैकल्पिक उर्जा स्त्रोतों के विकास के अतिरिक्त तेल पर एक आवश्यक नई नीति नहीं बनानी चाहिए? 

 प्रथम तो देश में नये तेल कुओं की खोजकर नई तकनीक का उपयोग कर कच्चे तेल के धरेलु उत्पादन को बढ़ाना आवश्यक है, ताकि आयात पर निर्भरता कुछ कम हो सके। पिछले 7 सात सालों से अंर्तराष्ट्रीय बाजार में कीमत कम होने के कारण तेल पूल में संग्रहित अतिरिक्त राजस्व की कुछ राशी तेल के शोध, रिसर्च पर खर्च किया जाना चाहिए। दूसरी बात हमें कहीं न कहीं देश के भीतर कन्यजूम्शन की मांग को नियंत्रित करना होगा। जिस प्रकार हमने जनसंख्या को नियंत्रित करने के लिए आवश्यक कदम उठाये है। उसी प्रकार तेल के उपभोग को नियंत्रित करने के लिए राशनिंग एक तरीका हो सकता है। दूसरा तरीका सार्वजनिक व वाणिज्यिक परिवहन को छोड़कर प्रत्येक व्यक्ति की तेल के उपभोग की एक अधिकतम सीमा तय कर उससे उपर जाने वाले तेल के उपयोग पर अतिरिक्त कर लगाकर उपभोग को निरूतासित किया जा सकता है। जैसे बिजली की दरों की बात हो, अधिक उपभोग  पर सरकार अधिक कर लगाती है। यह काम आसान नहीं होगा। परन्तु जब तब सोचेगें नहीं तो उसका हल कैसे निकलेगा? आयात पर खर्च होने वाली महत्वपूर्ण मंहगी विदेशी मूद्रा के कारण इस मुद्दे पर भी गहनता से  त्वरित विचार करेने की आवश्यकता है। 

अंत में एक बात और भाजपा प्रवक्ता यह कहते-कहते नहीं थकते है, देशहित में बढ़ा हुआ कर देश के विकास में खर्च होगा। देश की आय जब किसी भी भी स्त्रोत या करारोपण से हो तो उसका उपयोग अंततः देश के विकास में ही तो खर्च होता है। पेट्रोलियम में सेस का मामला ही ले लीजिये। कैग (सीएजी)  ने एक रिपोर्ट में सेस की राशी जिस के अंतर्गत वसूली गयी है, उसका उपयोग उस तरह नहीं हुआ है। मात्र 21 प्रतिशत राशि ही अपेक्षित उद्देश्य के लिए की गई। अतः सरकार का जनता से उक्त आव्हान भी तथात्मक रूप से गलत सिद्व होता हैं। चंूकि बात हमेशा देश के विकास की जाती है। परन्तु देश को निर्मित व अंशदान देने वाले नागरिकों के विकास की बात पर कोई दल ध्यान नहीं दे रहा है। तो क्या देश और नागरिक का विकास अलग-अलग है? नागरिक है, तभी तो देश हैः ‘‘सर सलामत तो पगड़ी हजार‘‘!

तेल की महंगाई की जनता की इस सहनसीलता को देखते हुए एक टीवी चैनल ने तो राष्ट्रीय सहनशक्ति सूचकांक की नई अवधारणा की ही घोषणा कर दी है।

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