बुधवार, 15 मई 2019

‘‘ममता बनर्जी’’ का बयान ‘‘मैं मोदी को प्रधानमंत्री नहीं मानती’’ क्या संघ वाद पर कुठाराघात नहीं?

भारत देश कुल 29 राज्य व 7 केन्द्र शासित प्रदेशों को मिलाकर संघ (यूनियन) बना है। देश का एक प्रमुख पूर्वी राज्य पश्चिम बंगाल की तेजतर्राट मुख्यमंत्री दीदी का यह क्षोभ पैदा करने वाला बयान आया कि नरेन्द्र मोदी को मैं प्रधानमंत्री नहीं मानती हूँ। उनका यह बयान जम्मू-कश्मीर के राजनैतिक नेताओं महबूबा मुफ्ती, फारूख अब्दुल्ला के तथाकथित अलगावादी कहेे जाने वाले बयानों के साथ अलगाव कार्य नेताओं से भी ज्यादा खतरनाक नहीं है? हम सब जानते है कि भारत में संघीय लोकतंात्रिक संसदीय व्यवस्था है। वर्ष 2014 में हुये पिछले आम चुनाव में प्रधानमंत्री के रूप में देश की जनता ने पहली बार पूर्ण बहुमत से नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी को विजय श्री दिलाई और संवैधानिक रूप से नरेन्द्र्र मोदी हमारे देश के प्रधानमंत्री चुने गये। 
देश की लोकतंात्रिक व्यवस्था के द्वारा चुने गये प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के प्रति दूसरी चुनी हुई मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का उक्त कथन निश्चित रूप से पूर्णतः अराजक व संवैधानिक व्यवस्था की चूल को हिलाने वाला है। आश्चर्य तो इस बात का है उनके इस अमर्यादित व अलोकतांत्रिक कथन पर पूरे देश के मीडिया से लेकर राजनैतिक विश्लेषको, राजनैतिक नेताओं, पार्टियांे व विशाल बुद्धिजीवी वर्ग की जो त्वरित प्रतिक्रिया होनी चाहिए थी, वैसी न होना भी एक निराशा लिये हुये आश्चर्य जनक दुखद पहलू है। यही देश की राजनीति का दुर्भाग्य भी है। 
अभी-अभी आया ममता का यह बयान न केवल वास्तव में बहुत ही नग्न है, बल्कि कल्पना से परे राजनीति के निम्नतर स्तर का है कि जहाँ उन्होंने यह कहा कि नरेन्द्र मोदी बंगाल में आकर झूठ बोलते है और हाथ उठाते हुई वह यह कहती है कि ‘‘मन करता है मैं उन्हे लोकतंत्र का जमकर थप्पड़ मारू’’ मैं समझता हूँ कि अब वे दीदी कहलाने की अधिकारी भी नही रही है। इसके पूर्व वे पीएम के मुह पर सर्जिकल टेप व उनके होठो पर ब्यूकोप्लास चिपकाने की बात कह चुकी है। ताकि  मोदी झूठ न बोल सके। जय श्री राम के नारे पर उनकी घुड़की को भी सारा देश देख चुका है। अमित शाह ने आज जो ममता को लेकर बयान दिया है, वह शायद भविष्य की कार्यवाही की ओर इंगित करता है जब चुनाव के बाद ममता की सरकार को कहीं भंग न कर दिया जाये। ममता के द्वारा इस आम चुनाव में अभी तक जो बहुत ही ‘‘प्रिय ममतामयी वाणी’’ का उद्गार उदघोषित हो रहा है उसके लिये उक्त कार्यवाही ही शायद अंतिम विकल्प व सही जवाब होगा।
ममता का मोदी के चक्रवाद फानी के संबंध पर फोन पर बात न करने के बयान को लेकर जो पलटवार किया है कि मैं मोदी की नौकर नहीं हूँ राजनैतिक अशिष्टता की निम्नतर श्रेणी है। चक्रवाद फानी के संबंध में सहायता देने के संबंध में बुलाई मीटिंग में मुख्यमंत्री के बदले मुख्य सचिव को बुलाये जाने पर ममता ने यह तर्क देकर कि यह एक संघीय ढाचा हैं, आप मुख्यमंत्री के बिना मिटिंग कैसे कर सकते है, बयान देकर जो पलटवार किया, वह उनकी दोगली व दोहरी नीति को ही दर्शाता है। एक तरफ संघीय ढ़ाचे के होते हुये चुने हुये प्रधानमंत्री मोदी को न केवल एक्सपायरी प्रधानमंत्री कह रही है बल्कि उन्हे प्रधानमंत्री मानने से ही इंकार कर दिया है। वहीं दूसरी ओर मुख्यसचिव को बुलाने पर संघीय ढाचे की दुहाई का तर्क दे रही है।  
वर्तमान राजनीति में खासकर चुनावी दौर में मतभेदों का मनभेदों की सीमा तक ले जाना भी सामान्य प्रक्रिया मानकर उसे सहन किया जा सकता है। लेकिन यदि इसे उस सीमा तक ले जाया जाये कि वह देश व संविधान के अस्तित्व पर ही प्रश्न चिन्ह खड़ा कर दे, संवैधानिक व्यवस्था को आखंे दिखाने वाला हो, तो यह स्थिति किसी भी रूप में स्वीकार योग्य नहीं हो सकती हैं। एक समय एनडीए के सदस्य रही ‘‘प्रिय’’ भाजपा के नेतृत्व में बनी सरकार में मंत्री रही ममता दीदी का भाजपा व मोदी के विरूद्ध इस तरह की लगातार घृणा-स्पद लिये हुये बयान क्या उनकी निराशा हताशा को नहीं दिखाता है? खासकर उक्त बयान पर तो राजनीति से परे सार्वजनिक जीवन के समस्त पक्षों को उनके विरूद्ध कानूनी व कड़े राजनैतिक कदम उठाये जाने की आवश्यकता नहीं है क्या? वर्ष 2019 के आम चुनाव में सत्ता व विपक्ष के बीच सबसे ज्यादा खटास लिये हुये रण उत्त्तर-प्रदेश, बिहार से भी ज्यादा जो दिखाई दे रहा हैं वह पश्चित बंगाल ही है। इस तूनक मिजाजी मुख्यमंत्री ममता के बयान पर देश के उन तथाकथित लेखक बुद्धिजीवियों व अवाडऱ् वापसी गैंग के बयान नहीं आये जो पूर्व में देश में घटित हुई कई घटनाओं के चलते जैसा सेना शोर्य का चुनाव में उपयोग पर आये हुआ बयान हो या मीटू का मामला हो, या असहिष्णुता के मुद्दे पर राष्ट्रीय पुरस्कार पद्म-श्री लौटाने का मामला हो, इत्यादि-इत्यादि घटनाओं के संबंध में बयान देने में एक मिनट की भी देरी नहीं करते रहे है।  

शुक्रवार, 3 मई 2019

2019 के आम चुनाव के मुद्दे, क्या ‘‘स्थापित चुनावी मुद्दों से’’ हटकर हैं।

स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् वर्ष 2019 में देश का यह 17 वाँ आम चुनाव हो रहा है। प्रारंभ में स्वतंत्रता संग्राम में बढ़ चढ़ कर भाग लेने वाली पार्टी (सत्य से परे) एक मात्र कांग्रेस ही मानी जाती रही। वर्ष 1952 के प्रथम आम चुनाव से वर्ष 1962 तक के हुये आम चुनावों में विकल्प की राजनीति के न रहते मुद्दों को विवादित किये बिना कांग्रेस ही चुनाव जीतती रही। वर्ष 1967 में आयाराम-गयाराम की राजनीति के चलते देश की राजनीति में विरोधी दलों के अस्तित्व को पहली बार एक सुदृढ़ विपक्ष के रूप में स्वीकार किया गया। वर्ष 1971 में पहली बार समय से पूर्व कराये गये मध्यावति चुनाव में इंदिरा गांधी ने गरीबी हटाओं का नारा देकर कांग्रेस को बड़ी सफलता दिलाई। वर्ष 1974 में जेपी आंदोलन के चलते (पूरे देश में इंदिरा गांधी के विरोध की लहर होने के कारण उत्पन्न)  परिस्थितियों से निपटने के लिये विरोधी दलों के दमन के उद्देश्य से, निरंकुश सत्ता व तानाशाही प्रवृत्ति के चलते इंदिरा गांधी ने देश में (पहली व आखरी बार) आपातकाल लागू करके लोकतंत्र की हृदय गति को अत्यंत बीमार बना कर लगभग मरणासन्न स्थिति में पहुँचा दिया था। इसलिए वर्ष 1977 का आम चुनाव आपातकाल के कारण स्थगित (सस्पेंड़ेड़) ‘‘व्यक्तिगत स्वतंत्रता के मूलभूत संवैधानिक अधिकार’’ के मुख्य मुद्दे को लेकर ‘‘लोकतंत्र बचाओं’’ का नारा देकर लड़ा गया। ऐसी विषम स्थिति में वर्ष 1977 के चुनाव में स्वतंत्र भारत के अब तक के इतिहास मंे कांग्रेस की इस बुरी तरह से ऐतिहासिक हार हुई कि जिसमें स्वयं इंदिरा गांधी अपनी परम्परागत रायबरेली सीट से राजनारायण से चुनाव हार गई। तब वर्ष 1977 में मोरारजी भाई देसाई के नेतृत्व में प्रथम बार जनता पार्टी की गैर कांग्रेसी सरकार बनी थी।  
वर्ष 1980 में हुये मध्यावति चुनाव में कम्युनिष्टों को छोड़कर बचे लगभग सभी विपक्षी दलों को मिलाकर बनी जनता पार्टी से तीन सालों में ही जनता का मोह भंग हो गया था जिस कारण वर्ष 1977 में सत्ता से बेदखल की गई इंदिरा गांधी की सत्ता में पुनः वापसी हो गई। फिर वर्ष 1984 में इंदिरा गांधी की दर्दनाक विश्वास-घाती हत्या के कारण उत्पन्न सहानुभूति लहर की सुनामी के बाद हुए चुनाव में राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस को स्वतंत्र भारत के इतिहास में अभी तक का अधिकतम ऐतिहासिक बहुमत प्राप्त हुआ। लेकिन यह बहुमत भी अगले आम चुनाव में धराशाई हो गया व वीपी सिंह के नेतृत्व में जनता मोर्चा को बहुमत मिला। उसके बाद से लोकसभा के हुये मध्यावधि अथवा आम चुनाव सामान्यतया मुख्य रूप से एंटी इन्कंबेसी (सत्ता विरोधी लहर) के आधार पर होते रहे है। लेकिन इन सभी चुनावों में कभी भी व्यक्तिवाद (चेहरे) (एक मात्र) को मुख्य प्रमुखता नहीं मिली। यद्यपि भाजपा के एक बड़े चेहरा रहे अटल बिहारी बाजपेयी को पार्टी ने आगे कर ‘‘अबकी बारी अटल बिहारी’’ के नारों के साथ अटल जी के नाम पर वोट मांगे थे। बावजूद इसके लालकृष्ण आडवानी के व्यक्तित्व के कारण ‘‘पार्टी गौण नहीं हो पाई’’ और भाजपा ने संयुक्त रूप से ‘‘पार्टी व अटल जी’’ के नाम पर चुनाव लड़ा। 
पहली बार वर्ष 2014 के आम चुनाव में जब भारतीय जनता पार्टी ने नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री के रूप में उतारा तो बहुत ही कम समय में उन्होेने अपने आपको पार्टी का एक सर्वमान्य चेहरा बना कर जनता के बीच भी स्वयं को स्वीकृत लोकप्रिय चर्चित चेहरा स्थापित कर लिया। स्वतंत्र भारत के इतिहास में पहली बार भाजपा को लोकसभा में पूर्ण बहुमत प्राप्त हुआ और ‘‘मोदी’’ अटलजी (बीमार) के रहते हुये भारतीय राजनीति में एक सशक्त व सर्वमान्य व्यक्तित्व वाला चेहरा बन कर उभर गये।   
विचारणीय यहाँ यह है कि वर्ष 2019 का चुनाव, पिछले चुनावों के संदर्भ में किस हद तक अलग पहचान लिये हुये है अथवा पिछले चुनावी मुद्दों का सम्मिश्रण मात्र है? अभी तक दो तिहाई से अधिक लोकसभा सीटों के चुनाव संपन्न हो चुके हैं। तब राजनैतिक पंडितो के बीच यह गहन चर्चा का विषय बन रहा है कि इस चुनाव में प्रमुख मुद्दे क्या है? व परिणाम क्या आयेंगे? क्या मोदी की फिर पहले से ज्यादा ऐतिहासिक जीत होगी या विरोधी दलों की सरकार बन जायेगी। विभिन्न विशेषज्ञों द्वारा किये गये इन चुनावी विश्लेषणों में जो एक बड़ी बात उभर कर सामने आ रही हैं वह यह कि भाजपा इस आम चुनाव को मुद्दांे के बजाए पूर्ण रूप से नरेन्द्र मोदी के व्यक्तित्व पर केन्द्रित करके चुनाव लड़ने में सफल होती दिख रही है। जबकि एक ओर कांग्रेस अपने नेता राहुल गांधी को केन्द्रित कर जनता के बीच जनता के व्यक्तित्व के रूप में प्रस्तुत करने में असफल हो रही है। लेकिन कांग्रेस वहीं दूसरी ओर वह ‘‘न्याय’’ व बेरोजगारी सहित कुछ ज्वलंत मुद्दों को एक हद तक जनता के बीच ले जाने में सफल होती सी लग रही है। 
फिर भी एक बात स्पष्ट है, ऐसे सामान्य जन भी जो मोदी के पिछले किये गये चुनावी वायदों की पूर्ति से संतुष्ट नहीं हो पा रहे है, वे भी मोदी के प्रशंसक न होने के बावजूद, सामान्य चर्चा में  यही कहते हुअे दिख रहे हैं कि वोट तो मोदी को ही देना हैं। जब वे कुछ प्रमुख मुद्दों सहित स्थानीय मुद्दों व उम्मीदवारों के गुण-दोष के आधार पर मोदी को वोट न देने की जैसे ही सोचते है उनके सामने राहुल गांधी की ‘‘योग्यता’’ का (तुलनात्मक रूप में) चेहरा आ जाता है, जिस कारण अनिच्छा से ही सही, योग्य विकल्प के अभाव में, मजबूरी में ‘‘वे’’ मोदी को वोट देने की बात कहने लगते हैं। अतः भाजपा को इस बात के लिये अवश्य बधाई दी जानी चाहिए कि उसने चुनाव को मुद्दों से हटाकर ‘‘मोदी’’ विरूद्ध समस्त विपक्षियों के बीच कर दिया है, जैसा कि एक जमाने में इंदिरा गांधी विरूद्ध समस्त विपक्ष था। मोदी समर्थक निश्चित रूप से राष्ट्रवाद एवं संस्कृतिवाद के मुद्दों पर मोदी को लौहपुरूष के रूप में पसंद कर रहे है। चुनावी राजनीति की दृष्टि से यह चुनाव जातिगत, छद्म धर्म निरपेक्षता, कट्टरवाद व धार्मिक उन्माद में ही जकड़ा हुआ है। लेकिन ऐसी परिस्थिति विशेष में कुछ अपवादों को छोड़कर देश का आम नागरिक सामान्य रूप से यदि मोदी का सशक्त विकल्प न होने की स्थिति को ध्यान में रखते हुए वोट करते है, तो निश्चित रूप से मोदी की लहर सुनामी परिलक्षित होकर भाजपा 400 (+एनडीए) से अधिक सीटे पार कर जायेगी। तब यह चुनाव इस बात की पहली बार तासीद करेगा कि सत्ता विरोधी स्वर के बदले केन्द्रीय स्तर पर प्रो. इन्कम्बैसी लहर, है जो इस चुनाव को अन्य समस्त आम चुनावों से हटकर अलग स्थान में रखेगी। अन्यथा राष्ट्रीय मुद्दों को महत्व न देते हुये स्थानीय आधार पर जातिवाद, धार्मिक कट्टरवाद, असहिष्णुता, साम्प्रदायिकता आदि मुद्दे के सहित उम्मीदवारों की गुणवक्ता को प्राथमिकता व महत्व देते हुये यदि जनता ने वोट दिया तो संभवतः ऐसे परिणाम भाजपा को 200-225 पर लाकर सीमित कर देगें। वास्तव में यह चुनाव पार्टियों की विचार धाराओं से हटकर बाहर जाकर मोदी और मोदी विरोध पर केन्द्रित हो गया है। भारतीय लोकतंत्र के लिए क्या यह सही है, यह भी एक बड़ा प्रश्न है? हमारे लोकतंात्रिक प्रणाली में भारतीय संविधान में प्रधानमंत्री का चुनाव चुने गयेे संासद ही करते है। लेकिन वर्तमान चुनाव इस संवैधानिक व्यवस्था को नकारता हुआ अमेरिकन राष्ट्रपति के चुनाव के समान मोदी के नाम पर  पक्ष व विपक्ष के बीच हो रहा है। यदि भारतीय जनता इस रूप में परिपक्व हो चुकी है, तब क्या हमारे देश को भी अमेरिकन राष्ट्रपति चुनाव प्रणाली नहीं अपना लेनी चाहिए? ठीक उसी प्रकार जैसा कि अमेरिका में जहां राष्ट्रपति का चुनाव सीधे जनता द्वारा किया जाता है। उस तरह शायद उम्मीदवार की योग्यता से बेहतर न्याय करके हम देश हित में ज्यादा उपयुक्त व्यक्तित्व चुन सकेंगे। 

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