मंगलवार, 16 नवंबर 2010

क्या ‘‘ओछी राजनीति’’ के चलते राष्ट्र विरोधी कथन से भी बड़ा व्यक्तिगत आरोप हो गया है?

इस समय पूरे देश में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के पूर्व सरसंघचालक कुप सी सुदर्शनजी की श्रीमति सोनिया गांधी और स्वर्गीय भूतपूर्व प्रधानमंत्री श्रीमति इंदिरा गांधी के प्रति की गई असामयिक टिप्पणी की पूरे देश में जो प्रतिक्रिया हुई है वह स्वभाविक है और प्रतिक्रिया होनी भी चाहिए। उक्त टिप्पणी देश के भूतपूर्व प्रधानमंत्री के विरूद्ध व्यक्तिगत (संस्थागत नही) होने के बावजूद सार्वजनिक रूप से बिना किसी तात्कालिक संदर्भ के की गई है। यद्यपि ऐसी टिप्पणियां पहली बार नहीं हुई है पूर्व में कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव के अवसर पर स्वर्गीय जितेन्द्र प्रसादजी पूर्व केंद्रीय मंत्री (वर्तमान सांसद जतिन प्रसादजी के पिता) खड़े हुए थे जो गांधी परिवार के काफी निकट थे तब उनके समर्थकों ने सोनिया गांधी पर ‘‘सीआईए एजेंट‘‘ का नारा लगाते हुए उनके विरूद्ध वापस जाओं के नारे लगाये गये थे। इसी प्रकार हैदराबाद हवाई अड्डे पर तत्कालीन केंद्रीय मंत्री पी. उपेन्द्र को देखकर स्व. इंदिराजी की यह टिप्पणी चर्चा में थी ‘‘यदि मैं जीवित रही तो इसे मुर्दा देखुंगी’’। इसी प्रकार पूर्व सांसद एवं जनता पार्टी के अध्यक्ष डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी पूर्व में उनके जन्म के संबंध सहित अनेक गम्भीर टिप्पणी कर चुके है।

                                      किन सार्वजनिक मर्यादित जीवन में किसी भी रूप से उक्त टिप्पणी को उचित एवं न्यायोचित नहीं कहा जा सकता है। इसलिए यदि उक्त टिप्पणी की निंदा हो रही है और स्वयं राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने उक्त टिप्पणी को व्यक्तिगत विचार कहकर अपने को उससे अलग हटा लिया है, जो उक्त टिप्पणी की अवांछनीयता एवं असामयिकता को ही दर्शाता है। लेकिन इस घटना से व इससे पूर्व घटित कुछ घटनाओं ने संघ के संबंध में कुछ अभूतपूर्व प्रश्न अवश्य उत्पन्न हुये है। माननीय सुदर्शनजी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के पूर्व सर संघचालक थे तथा वे ऐसे दूसरे पूर्व सर संघचालक है जो पूर्व रहे है। प्रथम पूर्व सर संघचालक प्रो. रज्जू भैया (राजेन्द्र सिंह) को छोड़कर समस्त सर संघचालक अपने जीवन पर्यंत तक सर संघचालक रहे है। संघ विचारधारा से चलता है निजी विचारों से नही, इसके बावजूद यदि संघ ने श्री सुदर्शनजी के विचार को निजी विचार बतलाकर इतनी कड़ी प्रतिक्रिया दी है, तो वास्तव में उक्त बयान में ऐसी कुछ बात अवश्य है जो संघ की विचारधारा एवं कार्य प्रकृति से मेल नही खाती है। राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ द्वारा अपने प्रमुख स्वयं सेवक (मा. सुदर्शनजी) जो पूर्व में उनके मुखिया रहे है, के बयान को अपने से अलग करना भी अभूतपूर्व है। इतना ही नहीं माननीय एम.जी. वैद्यजी द्वारा उनके विरूद्ध मानहानि का मुकदमा और कानूनी नोटिस का सुझाव श्रीमति सोनिया गांधी को देना भी अभूतपूर्व है। इसके पूर्व संघ के वरिष्ठ स्वयंसेवक एवं पदाधिकारी श्री इंद्रेश पर लगाये गये आरोप को संघ ने व्यक्तिगत आरोप न मानकर संघ पर आरोप माना और इसलिये संघ के गठन से लेकर आज तक प्रथम बार पूरे देश में एक धरना आंदोलन किया गया वह भी अभूतपूर्व है। इन सब परिस्थितियों से यह तो स्पष्ट हो जाता है कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ राष्ट्र एवं सार्वजनिक जीवन में किसी भी तरह के उद्वण्डता व व्यक्तिगत आरोपो से हमेंशा न केवल परहेज करता है बल्कि उसकी आलोचना भी करता है जो तथ्य यह सिद्ध करता है कि ‘संघ’ राजनीति से परे हटकर सार्वजनिक जीवन को स्वस्थ्य सुदृण बनाये रखने के लिए तथ्यों के सही होने पर वह उसे तुरंत स्वीकार करता है चाहे वे तथ्यों का उपयोग उसके खिलाफ ही क्यों न किया जाए। लेकिन क्या इसी तरह के कदम दूसरे पक्ष द्वारा भी उठाए गये है?

आरएसएस की इस तीखी प्रतिक्रिया से यह तो स्पष्ट रूप से सिद्ध हो गया है कि राष्टीय स्वयं सेवक संघ अपने सिद्धांतो के प्रति अडिग है। देशप्रेम, देशनिष्ठा तथा राजनैतिक सहिष्णुता, शालीनता उसमंे पूरी तरह समाई हुई है। जिस कांग्रेस ने उस पर तीन बार प्रतिबंध लगाया हो जिसके शीर्षस्थ पर इस तरह के आरोप पूर्व में लग चुके है तब संघ के शीर्षस्थ श्री सुदर्शन द्वारा लगाये गये आरोप के प्रतिउत्तर में आरएसएस के प्रमुख प्रोफेसर एम.जी. वैद्य द्वारा सोनिया गांधी को अपने शीर्षस्थ सुदर्शन जी के विरूद्ध मानहानी को कानूनी नोटिस देने की सलाह देना इस बात का घोतक है कि संघ कोई कार्य आवेश या जज्बात में नहीं करता है। वह अपने लक्ष्य के प्रति अडिग है और इसलिए जब इसके प्रमुख स्वयंसेवक एवं पदाधिकारी श्री इंद्रेशजी पर आतंकवादी घटना से जुड़ने का राजनैतिक आधार पर गम्भीर आरोप लगाये गये तो संघ ने पूरे देश में उसका अभूतूपर्व विरोध किया गया। क्योंकि वह आरोप सत्य से परे था। निश्चित रूप से यदि संघ के किसी व्यक्ति द्वारा किसी भी प्रकार कोई गलती की जाती या कोई व्यक्ति अपराधिक कार्याे में संलग्न होता तो संघ उपरोक्तानुसार उसके खिलाफ तुरंत कार्यवाही करता। परन्तु वास्तविक रूप से वस्तुस्थिति ऐसी नहीं पायी गई।
                                      प्रश्न यह है इस देश में किस तरह का सार्वजनिक जीवन चलेगा? राजनीति से प्रभावित हुए बिना ‘‘नीतिगत‘‘ स्वस्थ पारदर्शी प्रतिक्रिया क्या सार्वजनिक जीवन में संभव है अथवा नहीं? यह प्रश्न उपरोक्त प्रतिक्रिया एवं ‘‘बुकर’’ पुरस्कार प्राप्त सुश्री अरूंधति राय के काश्मीर के सम्बंध में दिये गये बयान पर राष्ट्र की प्रतिक्रिया से उत्पन्न होता है। लेखन के क्षेत्र में ‘‘वर्ष 2007 में मेन बुकर पुरस्कार और सिडनी पीस 2004’’ पुरस्कार से अलंकारित लेखिका सुश्री अरूंधति राय का बयान किसी व्यक्ति विशेष के विरूद्ध नहीं था जैसा कि सुदर्शन जी का था, बल्कि उनका बयान राष्ट्रीय अखण्डता, राष्टीªय अस्मिता व देशहित के खिलाफ और विदेशो में काश्मीर मुद्दे पर चल रहे दुष्प्रचार को मान्यता देने वाला था जो अन्तर्राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त एक भारतीय नागरिक द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय प्रचार पाने की ललक लिये विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश के स्वतंत्र प्रजातन्त्र और प्रेस की स्वाधीनता का वजूद होने के कारण ही उक्त बयान सम्पूर्ण देश में प्रसारित होना सम्भव हो पाया। क्या उनका यह बयान हमारे संविधान की मूलभूत भावना और राष्ट्रीय अखण्डता के विरूद्ध नहीं है जो भारतीय दण्ड संहिता एवं दण्ड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत अपराध नहीं है? क्या ‘‘स्वतंत्रता’’ का यह मतलब तो नहीं है कि हम मानवाधिकार की आड़ में उसका दुरूपयोग कर भारत माता की अखण्डता व सीमा के साथ छेड़छाड़ करें। आज जब अन्तर्राष्ट्रीय संस्था ‘‘संयुक्त राष्ट्र संघ‘‘ ने स्वयं ‘‘काश्मीर‘‘ को लम्बे समय से चले आ रहे विवादित मुद्दे की सूची से हटा कर न केवल ‘भारतीय’ होने का आभास दिलाया है बल्कि श्रीमती अरूंधति राय के बयान की हवा ही निकाल दी। तब अरूंधति राय से लेकर जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री श्री उमर अब्दुला का काश्मीर के बारे में बयान का अपराध और कई गुना बढ़ जाता है। तब क्या उनके खिलाफ भारत सरकार को प्राथमिकी दर्ज नहीं करनी चाहिए था जैसा कि कुछ लोग सुदर्शनजी की व्यक्तिगत टिप्पणी (जो अवांछित होने के बावजूद) उन पर अपराधिक प्रकरण दर्ज कराने के लिए म.प्र. के केन्द्रीय कांग्रेस मंत्रियो का दल केन्द्रीय सरकार से मांग करने वाला है। क्या राजनीति की गिरावट इस हद तक पहुंच गई है? कांग्रेस को यह पूर्ण अधिकार है कि वे राजनैतिक लाभ एवं हानि को ध्यान में रखते हुए प्रदर्शन करे। ‘‘स्वामी भक्ति’’ को अग्रता देते हुए माननीय सुदर्शनजी के बयान का घोर विरोध करे लेकिन संघ कार्यालय पर तोड़-फोड़ का अधिकार उन्हे कोई परिस्थिति नही देती है। यदि वास्तव में वे अपने को पराक्रमी समझते है तो ‘‘दिग्गी राजा’’ द्वारा प्रतिबंधित सिम्मी के कार्यालय पर क्यों नहीं ताला जड़ते। लेकिन साथ ही उनका यह भी दायित्व बनता है कि स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने वाले वर्तमान में एकमात्र राजनैतिक पार्टी होने के कारण जब भारत ‘‘संघ’’ के खिलाफ अरूंधती राय ने बयान दिया तो उसका पूर्ण क्षमता के साथ ‘‘संघ’’ विरोध की ज्यादा ताकत से विरोध किया जाना चाहिए तथा इसके खिलाफ पूरे देश में धरना आंदोलन जूलूस इत्यादि कार्यवाही की जानी चाहिए थी। एक सार्वजनिक जीवन में जिम्मेदारी के पद पर रहकर राष्ट्र की सरकार चलाने में भागीदार होते हुए यह दायित्व बनता है कि हम राजनीति प्राथमिकता तय करते समय देश की अस्मिता को पहला स्थान दे। ‘‘भारत देश’’ की अस्मिता ‘‘व्यक्ति’’ की अस्मिता से बड़ी है। यदि ‘‘देश भक्ति’’ की भावना को राजनीति से ऊपर उठकर हर पार्टी व नागरिको ने मान्यता दी होती तो मै यह मानता हूं कि इस प्रकार की घटनाएं घटित ही नहीं होती। देश के प्रति इस मानसिकता को बदलने की आज प्रत्येक नागरिक को आवश्यकता है क्योंकि इससे यह बात तो सिद्ध होती है कि नागरिको में देश प्रेम की भावना में कही न कही कमी आयी है, अरूचि बढ़ी है। उक्त मुद्दे के घटित होने से प्रत्येक नागरिक को एक अवसर मिला है जिस पर चिंतन कर यदि उसके देश प्रेम के जज्बे में काई कमी आई है तो वह उस कमी को दूर कर सके तो हम देश के प्रति अपने कर्तव्य पालन में न केवल खरे उतरेंगे बल्कि इन भावनाओं के मजबूत होने पर भविष्य में इस तरह के बयानबाजी को भी हतोत्साहित करेंगे जो अंततः देश को मजबूत बनायेगा।

शनिवार, 25 सितंबर 2010

माननीय सर्वोच्च न्यायालय की ऐतिहासिक भूल

माननीय सुप्रीम कोर्ट ने लखनऊ की इलाहाबाद उच्च न्यायालय की पीठ में लम्बित रामजन्मभूंमि/बाबरी मस्जिद प्रकरण के सिलसिले में २४ सितम्बर को जो अंतरिम आदेश दिया है, वह कानूनी दृष्टि से व विभिन्न दृष्टिकोण से गहन विचारणीय है। पूर्व नौकरशाह श्री रमेशचंद्र त्रिपाठी द्वारा एक आम नागरिक की हैसियत से दाखिल किये गये आवेदन पर माननीय सुप्रीम कोर्ट द्वारा उच्च न्यायालय को २८ सितम्बर तक निर्णय देने से रोके जाने के अंतरिम आदेश पारित किये गये जो वास्तव में सर्वदृष्टि से आश्चर्यजनक व कानूनी दृष्टि से अनपेक्षित है।

गौरतलब है ६० वर्ष से भी अधिक पुराने इस लम्बित प्रकरण में माननीय इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा २४ सितम्बर को निर्णय दिया जाना था। इसे स्थगित करने के लिए श्री रमेशचंद्र त्रिपाठी द्वारा इस आधार पर आवेदन लगाया गया कि माननीय उच्च न्यायालय में लम्बित मामले को न्यायालय के बाहर आपसी सहमति से सुलझाने के लिए कुछ समय और मिलना चाहिए तथा कामन वेल्थ गेम एवं सुरक्षा के कारणो से फैसला टाला जाना चाहिए। तब उस पर माननीय उच्च न्यायालय ने उक्त आवेदन को न केवल अस्वीकृत किया बल्कि ५० हजार रूपये का जुर्माना भी आवेदनकर्ता पर आरोपित किया था। उसके पश्चात श्री रमेश चंद्र त्रिपाठी द्वारा माननीय उच्चतम न्यायालय में एक आवेदन लगाकर उक्त मामले में माननीय उच्च न्यायालय को निर्णय दिये जाने सेरोके जाने हेतु आवेदन २२ सितंबर को दिया गया। यह आश्चर्यजनक है कि इस पर माननीय उच्चतम न्यायालय की एक बैंच ने यह कहकर सुनवाई करने से अस्वीकार कर दिया था कि मामला सिविल प्रकृति का होने के कारण ''हमें फैसला लेने का हक नही है।'' तब यह मामला दूसरी बेंच के सामने प्रस्तुत किया गया। माननीय उच्चतम न्यायालय ने इस पर सुनवाई कर सुलह होने की सम्भावना के मद्देनजर माननीय उच्च न्यायालय को २८ सितम्बर तक निर्णय देने से रोक दिया। माननीय न्यायालय द्वारा यह कहा गया कि सात दिन के भीतर समस्त पक्ष इस सम्बंध में विचार करें जिसके लिए उन्होने सम्बंधित पक्षकारों के साथ-साथ केंद्रीय सरकार को भी अटार्नी जनरल के माध्यम से नोटिस जारी किया।

भारत राष्ट्र के न्यायिक क्षेत्र की सबसे ऊपरी अदालत, माननीय उच्चतम न्यायालय के इतिहास में शायद यह प्रथम अवसर है, जब कोई प्रकरण उच्च न्यायालय में आदेशार्थ बंद व निर्णय की तारीख तय होने के बाद, निर्णय आने के पूर्व ही माननीय उच्चतम न्यायालय ने माननीय इलाहाबाद उच्च न्यायालय को निर्णय देने से रोक लगा दी है। सामान्यत: माननीय उच्च न्यायालय के किसी निर्णय को प्रभावहीन या प्रभावशून्य करने के लिए माननीय उच्चतम न्यायालय आदेश पारित होने के बाद ही उस पर तत्काल रोक लगा सकती है। माननीय उच्च न्यायालय भी अपने निर्णय की प्रभावशीलता को पक्षकारो के अनुरोध पर रोक सकती है, ताकि उच्चतम न्यायालय से स्टे आदि लगाया जा सके। भारतीय न्याय पालिका के इतिहास में शायद ऐसा कभी पहले नहीं देखा गया कि जब ६० वर्ष से अधिक अवधि के बेहद विवादित मामले में एक ऐसे व्यक्ति की याचिका पर मामले को स्थगित किया गया जोकि प्रकरण में विवादित विषय को सुलह करने में सक्षम नहीं है। माननीय उच्चतम न्यायालय ने किस आधार पर ७ दिन समझौते के लिए दिये यह भी स्पष्ट नहीं है। जबकि कोई भी पक्ष समझौते के लिए समय मांगने न्यायालय के पास नहीं गया था। यहां यह तथ्य उल्लेखनीय है कि २८  मे से २७ पक्ष सुलह के पक्ष मे नही थे। निर्मोही अखाड़ा एवं सुन्नी वक्फ बोर्ड दोनो मुख्य पक्ष जो कि विपरीत विचारधाराओं के है, ने भी न्यायालय के समक्ष सुलह के तर्क को अस्वीकार कर निर्णय स्थगित करने का विरोध किया था (कम से कम इस स्थिति में तो संभवतया दिखाई पड़ी)। इतना ही नही दोनो पक्षो ने यह भी स्पष्ट कहा कि ६० साल से पूर्णत: विवादित मुद्दे को ६ दिन में सुलझाया नहीं जा सकता है। क्या इस से यह सिद्ध नहीं हो जाता कि माननीय उच्चतम न्यायालय भी न्यायिक प्रक्रिया के बाहर की कार्यवाहियों, गतिविधियों के प्रति अत्यंत संवेदनशील हो गई है। क्योंकि पिछले १५ दिन से जबसे निर्णय देने की तारीख तय हुई है पूरे देश में संबंधित पक्षो को छोड़कर जो न्यायालय में पक्षकार है, पूरे इलेक्ट्रानिक मीडिया, प्रिंट मीडिया, केंद्र सरकार, राज्य सरकारों ने एक ऐसा हौव्वा खड़ा कर दिया था कि २४ तारीख को देश में बहुत बड़ी गाज गिरने वाली है (जैसे की आकाश से कोई उल्कापात होने वाला है)। जिससे होने वाली बहुत बड़ी अनहोनी की आंशका के कारण माननीय उच्चतम न्यायालय  ने उक्त आदेश पारित किया है। इस प्रकार पुन: एक बार माननीय सुप्रीम कोर्ट ने अपने को 'सुप्रीम' सिद्ध किया है। क्या 'सुप्रीम' होने की भावना ने ही माननीय उच्चतम न्यायालय को बार-बार इस तरह के आदेश देने के लिये प्रेरित तो नहीं किया? क्योंकि माननीय उच्चतम न्यायालय ने यह कहा कि यह मामला एक पक्षकार का नहीं बल्कि करोडो लोगो की भावनाओ से जुड़ा है व एक प्रतिशत भी सुलह की संभावना हो तो समय दिया जाना चाहिए।
प्रश्र: पुन: यही पैदा होता है कि क्या माननीय उच्चतम न्यायालय का उक्त आदेश उसके क्षेत्राधिकार में है। इससे भी बड़ा यह प्रश्र है कि क्या माननीय न्यायाधीश को उसके समक्ष लम्बित प्रकरण के तथ्यपरक व कानून के अतिरिक्त अन्य किसी भी विषय, स्थिति या परिस्थिति के लिए संवेदनशील होना चाहिए? माननीय न्यायाधीश भी मानव है व संवेदनशीलता मानव का एक सहज गुण है। लेकिन क्या उनकी मानवीय संवेदना मुकदमे के तथ्य व कानूनी पक्ष के अतिरिक्त किसी अन्य चीज, तथ्य या भावना पर अवलम्बित होने पर तब क्या निर्भीक एवं न्यायिक निर्णय संभव है? यह आम धारणा है कि कानून अंधा होता है। इसीलिए जब माननीय न्यायाधीश निर्णय देते है तो यह उम्मीद की जाती है कि वह परिस्थिति, काल इत्यादि से परे पक्षकारो, समाज या देश पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा। उससे विचलित हुये बिना एक न्यायिक निर्णय की उम्मीद की जाती है। तभी 'न्याय' होता है। पिछले कुछ समय से हम यह देख रहे है कि माननीय न्यायालय निर्णय देते समय परिस्थितियों से प्रभावित होते हैं। हाल में ही अनाज मामले में माननीय उच्चतम न्यायालय की फटकार के बाद जब केंद्रीय सरकार ने शपथ-पत्र देकर अनाज बांटना स्वीकार कियाथा तब उच्चतम न्यायालय ने यह कहा कि हम इस बात से बहुत खुश है कि हमारे आदेशानुसार सरकार ने कम कीमत पर अनाज बांटने के बारे में विस्तृत जवाब पेश किया है' क्या न्यायालय स्वयं को खुश या दुखी होकर या पक्षकारों को होने वाले सुखी या दुखी की भावना से ग्रसित होकर निर्णय देते है? प्रश्न यह उत्पन्न होता है।
यह आदेश न्यायालय के विवेक पर भी यक्ष प्रश्र उत्पन्न करता है। जब एक माननीय न्यायाधीश महोदय यह कहते है कि सुलह की एक प्रतिशत सम्भावना भी हो तो उसके लिए अवसर दिया जाना चाहिए। तो क्या उनका विवेक इस बात को नहीं महसूस कर रहा है कि ६० साल से दोनो पक्ष मुकदमा लड़ रहे है। इन सालो में कई ऐसे एक अवसर आये जब मुद्दो में शामिल नही, कई पक्ष व निर्णय से प्रभावित होने वाले पक्षो के बीच व केंद्रीय शासन के बीच व आध्यात्मिक संतो व मौलवियों के बीच कई बार परस्पर बातचीत हुई लेकिन सुलह के नजदीक पहुंचने के बावजूद मात्र राजनीति के चलते सुलह समझौता नहीं हो सका। मात्र किसी बड़ी घटना की आशंका के मद्देनजर, देशमें तथाकथित तनाव होने के कारण, निर्णयो के प्रभाव का असर मात्र पक्षकारो पर न होकर करोड़ो लोगो पर होने के कारण ही क्या माननीय उच्चतम न्यायालय को यह अधिकार प्राप्त हो जाता है कि वह स्वयं निर्मित पंचाट की भूमिंका में आकर वह आदेश जारी करे जिसकी मांग २८ में से २७ पक्षकारों ने नही की? फिर माननीय उच्चतम न्यायालय के पास इस बात का कोई आधार नहीं है और न ही आवेदक श्री रमेशचंद्र त्रिपाठी ने माननीय उच्चतम न्यायालय को बतलाया कि उच्च न्यायालय के समक्ष लम्बित समस्त २८ पक्ष इस सुलह के लिए तैयार है तथा वे तथाकथित होने वाले समझौते को पूर्ण रूप से मानेंगे व उसका पालन करेंगे और २८ पक्षों द्वारा तय किये जाने वाले निर्णयों को करोड़ो नागरिक भी मान लेंगे जिनके प्रभावित होने की भावना के आधार पर ही माननीय उच्चतम न्यायालय ने उक्त निर्णय दिया है।

एक और महत्वपूर्ण प्रश्र उक्त स्थगन आदेश से यह उत्पन्न होता है कि जब एक तरफ करोड़ो नागरिको की भावनाओं का प्रश्र माननीय न्यायाधीश के सामने आता है तब साथ-साथ माननीय न्यायाधीश के मन में यह बात क्यों नहीं आई कि उक्त मामला ६० सालों से लम्बित होने के कारण वैसे ही बहुत पेचिदा हो गया है व करोड़ो लोगो की एक दूसरे वर्ग के प्रति विपरीत भावनाए समय गुजरते मुकदमा लम्बित होने के कारण और 'मजबूत' होते जा रही है। यह कहा गया है ''न्याय में देरी न्याय न देने के समान है'' (डिले इन जस्टिस इज जस्टिस डिनाइड), इसलिए यदि उक्त मुकदमें का निर्णय समय रहते हो जाता तो मंदिर-मस्जिद टूटने की घटना ही नहीं होती और न ही देश में इस तरह का उन्माद पैदा करने में शासन या मीडिया सफल होते। अब निर्णय स्थगित होने पर क्या यह संभव है कि निर्णय १ तारीख के पूर्व आ जावे क्योंकि माननीय एक न्यायाधीश आगामी एक तारीख को रिटायर हो रहे है। यदि १ तारीख के पहले निर्णय नहीं आया व रिटायर होने वाले माननीय न्यायाधीश का कार्यकाल नहीं बढ़ा (जिसकी सम्भावना बिल्कुल नहीं है क्योकि उक्त प्रक्रिया समय लेने वाली है) तो मामला एक बार पुन: सालो लटकने की संभावना बन रही है क्योंकि न्यायिक प्रक्रिया के अनुसार नये न्यायाधीश आने पर मामले में फिर से बहस होगी। जब २८ पक्षो की तरफ से विभिन्न बड़े-बड़े व नामी-गिरामी वकील लगातार एड़ी-चोटी से लम्बी बहस करेंगे तो वास्तव में 'समय' उनके सामने छोटा पड़ जायेगा जो अन्तत: आम नागरिकों में अनावश्यक रोष उत्पन्न करेगा जिससे माननीय न्यायालय को भी बचना चाहिए था। माननीय न्यायालय के उक्त अचानक स्थगन से भारत व विभिन्न-राज्यों के शासन के अरबो रूपये सुरक्षा व्यवस्था में खर्च हो गये जो उन्हे पुन: खर्च करने पड़ेंगे जिसकी जिम्मेदारी भी अंतत: माननीय उच्चतम न्यायालय के उक्त निर्णय पर आती है।

अंत में एक बहुत ही यक्ष प्रश्र धीरे-धीरे देश के नागरिको के समक्ष पैदा हो रहा है कि क्या कार्यपालिका व विधायिका अपने लक्ष्य को कल्याणकारी कार्यो एवं नागरिको के हितो में लगाने में निरंतर असफल रहने के कारण क्या शासन ''न्यायपालिका'' व 'मीडिया' चलायेंगे? इसका उत्तर आज नहीं तो कल अवश्य देना होगा यदि संविधान के तीनो अंग व लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ इसी तरह से कार्य करते रहें तो?

शुक्रवार, 10 सितंबर 2010

गैर संवेदनशील प्रधानमंत्री अचानक संवेदनशील कैसे हो गये?




विगत दिवस मैने माननीय उच्चतम न्यायालय के सड़ते हुए अनाज के मामले में निरंतर आ रहे आदेशों/निर्देशो पर एक टिप्पणी ''''विश्र्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में शासन क्या माननीय न्यायपालिका चलाएगी''? शीर्षक से लिखी थी, जिस पर माननीय प्रधानमंत्री जी की यह टिप्पणी कि माननीय उच्चतम न्यायालय सरकार केञ् कामकाज के लिए नीति निर्धारित न करें जो मेरे द्वारा उक्त टिप्पणी में उठाये गये मुद्‌दे को सही ठहराती है। लेकिन माननीय प्रधानमंत्री की उक्त टिप्पणी से एक नया प्रश्न उत्पन्न होता है कि क्या माननीय प्रधानमंत्री को उक्त टिप्पणी करने का अधिकार है, क्या वह जायज व नैतिक है? और क्या वर्तमान परिस्थिति में उसका औचित्य था? या उक्त टिप्पणी को क्या अभी टाला जा सकता था?
 
विगत कई समय से सड़ते हुए अनाज केञ् मामले में माननीय खाद्य मंत्री, प्रधानमंत्री और केन्द्रीय सरकार की संवेदनहीनता के बाबत पूरे देश में न केवल इलेक्त्रनिक और प्रिंट मीडिया के माध्यम से बल्कि देश के आम नागरिकों के बीच यह चर्चा का विषय है, 'बहस' का नहीं है? (बहस तब होती है जब एकमत न हो) क्योंकि उक्त मुद्दे पर लगभग समस्त लोग एकमत है कि केंन्द्रीय शासन ने योजनाबद्ध तरीके से न तो अनाज को खरीदने की योजना बनाई न उसके भण्डारण की उचित व्यवस्था की और न ही उसके वितरण की व्यवस्था की और इन सब में असफल होने के कारण सड़ते हुए अनाज जिसका उपयोग देश के उन नागरिकों के भी काम में नहीं आ रहा है जिसे दो जून का भोजन उपलध नहीं है। इसीलिए प्रायः समस्त 'मतों' ने मत-मतान्तर होते हुए भी एकमत से एक आवाज में यह बात कही कि हमारे देश के प्रधानमंत्री घोर असंवेदनशील है। वही देश का असंवेदनशील प्रधानमंत्री सड़ते हुए अनाज के मामले में लगभग एक महीने में माननीय उच्चतम न्यायालय के तीन बार लगातार आदेश (एक बार स्वतः स्फुरित हुए) निर्णय पारित करने के कारण वह मामला इतना संवेदनशील हो गया कि माननीय प्रधानमंत्री एकदम तिलमिलाकर माननीय उच्चतम न्यायालय को ही नसीहत देने लगे। यह नसीहत भी बुद्धिजिवियों के एक वर्ग द्वारा स्वीकार कर ली जाती यदि वह अनाज के संबंध में की गई गलतियों को सुधारने के लिए कोई प्रभावशाली योजना की घोषणा करते और उसे तुरंत लागू करते। लेकिन उक्त मामले में उनकी संवेदनशीलता अभी तक नहीं जगी बल्कि मजबूरी ही झलकती दिखाई देती है, जब उन्होने बीपीएल को २५ लाख टन गेहूं रियायती दर पर बांटने की घोषणा की। माननीय प्रधानमंत्री जी ने सड़ते अनाज के अतिरिक्त अन्य किसी आदेश के आधार पर माननीय उच्चतम न्यायालय को हद में रहने की हिदायत दी ऐसा लगता नहीं जैसा की कांग्रेस के प्रवक्ता शकील अहमद ने एनडी टीवी के कार्यक्रम में दावा किया। यदि माननीय प्रधानमंत्री वास्तव में यह मानते है कि नीतिगत मामलों में माननीय उच्चतम न्यायालय को नहीं पडऩा चाहिए यह उनका क्षेत्राधिकार नहीं है तो केंन्द्रीय सरकार को माननीय उच्चतम न्यायालय में दाखिल हलफनामें में उक्त तथ्य का उल्लेख अवश्य करना था बजाय इसके कि माननीय उच्चतम न्यायालय की नाराजगी को दूर करने केञ् लिए बीपीएल रेखा से नीचे के नागरिकों को अनाज बांटने की बात कही गई।  माननीय प्रधानमंत्री जी की माननीय  उच्चतम न्यायालय को नसीहत देते समय उनकी संवेदनशीलता इस बात पर नहीं गई कि उक्त बयान का हमारी संवैधानिक व्यवस्था पर क्या प्रभाव हो सकता है। यह कई बार कहा जा चुका है कि हमारे संवैधानिक तंत्र के अंतर्गत तीनो क्षेत्र कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका अपने अपने क्षेत्रों में सौरभौमिक है और प्रत्येक को अपने क्षेत्राधिकार की सीमा में रहकर ही एक दूसरे केञ् क्षेत्र में हस्तक्षेप किये बिना कार्य करना चाहिए। यह बात स्पष्ठ है कि माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा कई मामले में जो सरकार के नजर में नीतिगत मामले हो सकते है व्यवस्था के चरमराने के कारण जनहित में सरकार को जनहितकारी कार्यो को करने केञ् विशिष्ट निर्देश दिये गये जो स्थिति को यह और स्पष्ट करता है कि सरकार जिसका दायित्व जनहित कार्यो को करना है उसमें वह असफल रही है और इसलिए यदि माननीय प्रधानमंत्री जी माननीय उच्चतम न्यायालय के निर्देशों को इस भावना से लेते कि संविधान द्वारा रक्षित दायित्व के अंतर्गत वे जनहित में कार्य न करने के कारण माननीय उच्चतम न्यायालय को उक्त असाधारण कदम उठाने पड़ रहे है तो निश्चित रूप से वे उक्त टिप्पणी न करके उनके नीतिगत मामलों में जो कमियां है, लोककल्याण के लिए जनहित में है, उसको दूर करने का वह प्रयास करते। तब  शायद यह मुद्दा ही बेमानी हो जाता। लेकिन निश्चित रूप से एक कमजोर अंर्थशास्त्री प्रधानमंत्री ने उक्त साहसिक टिप्पणी करके एक नये विवाद को जन्म दिया है जो संवैधानिक व्यवस्था के स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं है। उनका यह कथन भी शासन चलाने के सामुहिक उत्तरदायित्व के सिद्धांत के विरूद्ध है कि ''मैं यह नहीं कह सकता कि मंत्री मुह बंद करले।'' मंत्री को अपनी राय व्यक्त करने का अधिकार है लेकिन वह राय उसे केबीनेट में व्यक्त करना चाहिए और जब केबीनेट में कोई निर्णय हो जाये तो उसके बारे में विवाद करने का अधिकार मंत्रीजी को नहीं है। केबीनेट में निर्णय होने के पूर्व वे अवश्य अपनी राय रख सकते है। लेकिन यदि उनकी राय पार्टी के द्वारा घोषित घोषणा पत्र या प्रधानमंत्री की घोषित नीति से अलग है तो सार्वजनिक रूप से राय देने से किसी भी मंत्री को बचना चाहिए ताकि किसी भी प्रकार का संशय या अराजकता की स्थिति न बने।

शनिवार, 4 सितंबर 2010

''विश्र्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में शासन क्या माननीय न्यायपालिका चलाएगी''?

हाल ही में माननीय उच्चतम न्यायालय ने भंडारण की कमी के कारण सड़ते हुए अनाज के भण्डार पर केंद्रिय शासन को यह निर्देश   दिया कि वह अनाज की भण्डारण क्षमता पूर्ण न होने के कारण पूरा अनाज खुले में पड़े होने से खराब हो रहा है अतः उसे गरीबों के बीच बांट दिया जायें। बाद में इस सबंध में पुनः १९ अगस्त को निर्देश पारित किये गये। अब ३१ अगस्त को माननीय उच्चतम न्यायालय ने १९ अगस्त के आदेश के सबंध में यह स्पष्टीकरण किया गया कि वह सुझाव नहीं बल्कि आदेश है।

मंगलवार, 31 अगस्त 2010

क्या भारत राष्ट्र के समस्त हिन्दू राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सदस्य है?

''भगवा आतंकवाद'' पर पूरे देश में संसद से लेकर टीवी चैनल्स पर जो प्रतिक्रिया हुई वह स्वाभाविक ही होनी थी। शायद इसीलिए कांग्रेस के महासचिव श्री जनार्दन द्विवेदी ने बाकायदा विज्ञप्ति जारी करके भगवा आतंक शब्द से न केवल असहमती जताई बल्कि उसे आगे और स्पष्ट करते हुए कहा कि आतंकवाद का कोई रंग नहीं होता आतंकवाद का केवल एक रंग होता है काला। यह बयान निश्चित ही न केवल स्वागत योग्य है बल्कि इसकी जितनी भी प्रशंसा की जाये कम है। लेकिन इसके विपरीत तत्समय ही कांग्रेस के दूसरे महासचिव श्री दिग्विजय सिंह ने भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री नितिन गडकरी से किये गया यह प्रश्न कि यदि भगवा आतंकवाद नहीं है तो आर.एस.एस. के लोग क्यों पकड़े गये है? कांग्रेस की नीयत पर प्रश्नवाचक चिन्ह लगाता है। 

'भगवा'-आतंकवाद, 'हरा'-आतंकवाद, 'लाल'-आतंकवाद या चिदबरम-आतंक?




        हमारे केंद्रीय गृहमंत्री पी.चिदबरम ने पुलिस प्रमुखों के समेलन में ''भगवा आतंकवाद'' का नया शगूफा छोड़ दिया। वैसे इस  केंद्रीय मंत्रिमंडल के कई मंत्री बयानों के मामले में शूरवीर की प्रसिद्धी प्राप्त कर चुके है। उस

शनिवार, 28 अगस्त 2010

संसद के इतिहास का काला दिन

गत शुक्रवार को भारतीय संसद में सांसदो का वेतन १६ हजार से बढ़ाकर ५० हजार व अनेकानेक भो भी गई गुना बढ़ाये जाने का प्रस्ताव सर्वसमति से पारित किया गया और इसके ४ दिन बाद ही सोमवार केबिनेट ने पुनः १० हजार रुपये की पैकेज में वृद्धि के प्रस्ताव को स्वीकृति प्रदान की। इस प्रकार लगभग ८४०००/- से अधिक की कुछ वृद्धि वेतन व अन्य भाड़ो में हुई।


रविवार, 15 अगस्त 2010

''कामनवेल्थ गेम या पावरवेल्थ गेम''?

                      लगभग पचास दिन बाद ३ अक्टूबर से प्रारभ होने जा रहे ''कामनवेल्थ गेम'' इस समय इतनी चर्चा में है कि इस देश का प्रत्येक नागरिक चाहे वह पेपर पढ़े या न्यूज चैनल देखे, के दिलो दिमाग में यह मुद्दा

गुरुवार, 1 अप्रैल 2010

''लिव इन रिलेशनशिप'' क्या भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति में स्वीकार योग्य है ?


माननीय उच्चतम न्यायालय ने शादी के बगैर साथ रहने और शादी के पूर्व सहमति से शारीरिक संबंध बनाने को अपराध नहीं माना है। माननीय उच्चतम न्यायालय ने उक्त कृत्य को अपराध न निर्धारित करते समय यह कहा है कि याचिकाकर्ता इस सबंध में कोई प्रमाण पेश नही कर सका है और स्वयं आवेदक ने यह तथ्य, स्वीकार किया है। भारतीय संविधान के अंतर्गत उच्चतम न्यायालय का निर्णय अंतिम और बंधककारी होता है और उच्चतम न्यायालय के निर्णय पर किसी प्रकार के बहस की भी कोई गुंजाइश भारतीय संविधान में नहीं है। इसलिए यदि उच्चतम न्यायालय का निर्णय गलत है तो उसपर पुनर्विचार याचिका उच्चतम न्यायालय में दाखिल की जा सकती है और तब याचिका कर्ता उस निर्णय में यदि कोई खामिंया है तो उनको माननीय उच्चतम न्यायालय के ध्यान में लाकर निर्णय के परिवर्तन की मांग कर सकता है। यह लेख लिखने का कदापि आशय माननीय उच्चतम न्यायालय के निर्णय को न तो चेलेंज करना है और न ही उस पर कोई बहस करना है। लेकिन भारतीय समाज पर इस निर्णय का क्या परिणाम होगा उसकी विवेचना मात्र ही इस लेख का उद्देश्य है। माननीय उच्चतम न्यायालय जब यह कहता है कि शादी के बगैर साथ रहने का सहमति के साथ शारीरिक सबंध बनाना कोई ''अपराध'' ''भारतीय दंड संहिता'' में नहीं है तो वह सही कहता है। आपको मालूम होगा यह विवाद तब हुआ था जब अभिनेत्री खुशबू ने उक्त बयान दिया था और उसके आधार पर एक नागरिक ने एक याचिका माननीय उच्चतम न्यायालय में दाखिल की थी। यदि भारतीय दंड संहिता में जो वर्ष १८६० की बनी है में उक्त कृत्य को अपराध की श्रेणी में नहीं लिया गया है तो इसका मतलब यह नहीं है की वह अपने आप में सही सिद्ध हो जाता है। भारतीय दंड संहिता लागू होने के बाद हमने उसमें आज तक कई संशोधन किये है और कई कृत्यों को भारत सरकार या राज्य सरकारों ने 'अपराध' की श्रेणी में लाकर दंड की व्यवस्था की है जैसे की अभी हाल ही में एक पति पत्नि के बीच बिना सहमति के सहवास को बलात्कार माना गया है, जो भारतीय संस्कृति के लिए एक नई व्याख्या है। इसके लिए आवास्यकतानुसार भारतीय दंड संहिता की धारा ३७५ एवं ३७६ में संशोधन किया गया है। क्या ''सहमति'' से प्रत्येक कृत्य को कानूनी जामा पहनाया जा सकता है? भ्रष्टाचार के मामले में दोनों पक्ष ''सहमत'' होते है लेकिन वह फिर भी कानूनी अपराध है। ''सहमति'' लोकतंत्र का आधार है स्तभ है। समाज को और देश को द्रुत गति से बढ़ाने का सबसे अच्छा प्रेरक ''सहमति'' है लेकिन वह ''सहमति'' अलग है जहां दो पक्ष दो व्यक्ति 'सहमति' बनाकर संस्कृति की मर्यादा को तार तार कर दें इसलिए हमें सहमति असहमति में अंतर करना पड़ेगा तथा तदानुसार व्यवहार में भी। हमें यह भी ज्ञात है कि इस देश के इतिहास में माननीय उच्चतम न्यायालय ने कई ऐसे landmark निर्णय दिये है जिसमें सरकार का ध्यान व्यवस्थाओं की कमियों की ओर दिलाया गया है और उन कमियों को दूर करने के लिए उनके संबंध में आवश्यक कानून बनाने के लिए केंद्रीय शासन को निर्देशित भी किया है। जैसा कि माननीय उच्चतम न्यायालय ने सत्या विरुद्ध तेजा सिंह (वर्ष १९७५ एआईआर एससी पेज १०५) में यह निर्धारित किया है कि जिस प्रकार भारतीय हिन्दू नागरिक को विदेश में ३ माह से अधिक रहने पर डिवोर्स लेने का अधिकार होता है। जिसकी बहुत ही सरल प्रक्रिया है जबकी भारत में हिन्दू मरीज एक्ट के अन्दर कुछ निश्चित आधार पर ही लबी प्रक्रिया से गुजरने के बाद प्राप्त होता है। उक्त मामले में इस संबंध में सरल कानून बनाने के लिए केंद्र सरकार को निर्देशित करें ताकि भारतीय महिलाएं और पुरुष मात्र विवाह विच्छेद के लिए विदेश न जा सके। विदेशो में में जब लिव इन रिलेशनशिप के कारण विवाह जैसी संस्थाएं टूट के कगार पे है। और उससे सामाजिक व्यवस्थाएं चर्मरा रही है तब वे भारत की ओर इस आशा के साथ देखते है कि यहां का सामाजिक ढाचा का आधार उसकी संस्कृति का आधारभूत स्तंभ शादी की वह व्यवस्था है जहां महिला को एक भोग के रुप में ना माना जाकर समान के रुप में दर्जा दिया गया है। चाहे फिर वह पत्नि के रुप में हो माता, बेटी या बहन के रुप में हो। उस परिपेक्ष्य में यदि हम माननीय उच्चतम न्यायालय के उक्त निर्णय को देखे तो जो ''भाव'' ''भारतीय संस्कृति'' की ''नीव'' है, आस्था है, ''रीड़ की हड्‌डी'' है, उस भावना को देखते हुए माननीय उच्चतम न्यायालय से उस निर्णय को देते समय यह अपेक्षा की जाती है कि 'लिव इन रिलेशनशिप' जो भारतीय समाज को स्वीकार न होने के कारण एवं नैतिक मूल्यों के विरूञ्द्ध होने के कारण गलत है। इस कारण से भारतीय दंड संहिता में कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं होने के कारण इसके लिए कानून बनाने के लिए भारत शासन को निर्देश अवश्य दिया जाने चाहिए ऐसी माननीय उच्चतम न्यायालय से अपील किया जाना गलत नहीं होगा। एक दैनिक पत्र में इस बारे में किया गया सर्वे इस बात को सिद्ध करता है कि भारतीय समाज 'लिव इन रिेलेशनशिप' को नहीं स्वीकारता है और यही बात इस बात को सिद्ध करती है कि याचिकाकर्ता ने छः महिने के अंदर इस कारण उत्पन्न अपराध के संबंध में कोई सबूत पेश नही कर पाया जैसा की माननीय उच्चतम न्यायालय ने कहा है यह स्वयंमेव सिद्ध करता है कि अभिनेत्री खुशबू के बयान के बावजूद भारतीय समाज ने उस कृत्य को न तो स्वीकारा है और न ही अंगीकार किया है इसलिए उसके दुष्परिणाम न आना स्वाभाविक है। यदि समाज उक्त कृत्य को स्वीकारता है तो उसके दुष्परिणाम अवश्य आयेंगे और उसकी समय सीमा उस कृत्य को समाज के द्वारा स्वीकारने की गति के साथ तय होगी। 'एनडी टीवी' केञ् 'चक्रव्युह' प्रोग्राम में इस विषय पर परिचर्चा देखने का मौका भी मिला। भारत देश कृषि प्रधान देश है, देश की ३/४ जनसंख्या गांवो में रहती है महानगर देश के विकास के बिंब है। महानगर में रहने वाले व्यक्तिञ् के विचारों के आधार पर यह सपूर्ण देश के विचार है ऐसा मानना उचित नहीं होगा। प्रश्न फ्री सेक्स का नहीं है, प्रश्न सेक्स की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगाने का नहीं है प्रश्न सेक्स स्वतंत्रता का नहीं है। प्रश्र्र यह है जिस समाज में जिस संस्कृति में हम रहते है, जिसने हमारे जीवन को दिशा दी है क्या वह सही है या नहीं है? और यदि वह सही है तो क्या उस संस्कृति में 'लिव इन रिलेशनशिप' शामिल है और यदि नहीं है तो उसे उचित कैसे कहा जा सकता है। एनडी टीवी की परिचर्चा में शामिल लोग जब अपने विचार व्यक्त कर रहे थे तो मैं उन लोगो से एक ही प्रश्र् पूछना चाहता हूं कि जिन लोगो ने इसके पक्ष में तर्कञ् दिये क्या वो उसे स्वयं पर लागू कर सकते है? जब हम इस कृत्य की कल्पना करते है तब उस समय एक पुरुष के सामने महिला होती है और वह महिला हमारी मां, बहन, बेटी भी हो सकती है या अन्य कोई भी। क्या लिव इन रिलेशनशिप के पक्षधर लोगो से यह प्रस्न नहीं पूछा जाना चाहिए कि उसे स्वीकार करने के लिए इन महिला में से कोइ एक हो तो क्या वे इसे स्वीकार करेंगे? उपदेश व तर्क करना आजकल एक आम चलन हो गया है और खुद पर लागू करना यह बहुत कठिन। कहने का तात्पर्य यह है जब कोई व्यक्ति किसी कृत्य को सही ठहराने का प्रयास करता है तो सर्वप्रथम उसका यह नैतिक दायित्व बनता है कि वह उस कृत्य को स्वयं पर लागू करकेञ् उसे सही सिद्ध करें तभी वह उसको दूसरो पर लागू करने का नैतिक अधिकारी होता है। अन्यथा सुर्खिया पाने के लिए बयान देने वाले वीरो की कमी इस देश में नहीं है। ''लिव इन रिलेशनशिप'' के आधार पर जो संताने उत्पन्न होगी उनके भविष्य का क्या होगा? समाज में उनका क्या स्थान होगा यह भी एक प्रश्र् है। माननीय उच्चतम न्यायालय ने जो निर्णय दिया वह उनके समक्ष प्रस्तुत जो विद्यमान कानून है उनके तहत ही दिया है। यदि उनके इस निर्णय ने उक्त विषय पर एक बहस छेड़ दी है तो उस बहस का अंतिम पटाक्षेप तभी होगा जब भारत सरकार उस पर भारतीय संस्कृति के अनुरूप एक कानून लाये जैसे कि शाहबानो प्रकरण में लाया गया था।

''धन्य हो ऐसी सर्वसमति'' ........भारत देश ''सर्वसमत'' निर्णय की ओर जा रहा है ?... ''सांसद'' ''विधायक'' बधाई कें पात्र है ?

मध्य प्रदेश विधानसभा में विधायको के वेतन सबंधी विधेयक लगभग सर्वसमति से पारित हो गया। जिसपरसर्वसमति बनाने के लिए समस्त विधायक गण बधाई के पात्र है क्योंकि इस देश में ''सर्वसम्मति'' का 'अकाल' हैचाहे वह ''राष्ट्रीय एकता'' का प्रश्न हो, ''सुरक्षा'' का प्रश्न, ''स्वाभिमान'' या ''नैतिकता'' का प्रश्न हो समस्त मुद्दो परकिसी भी प्रकार की कोई सहमति तो इस देश के जनप्रतिनिधियों के बीच है और ही नागरिकों के मध्यइसलिए ऐसे वातावरण में से किसी भी मत पर एकमत होना निश्चित ही स्वागत योग्य कदम है। माननीयविधायकों को इस बात की भी बधाई दी जानी चाहिए की उन्होने इस बात को स्वीकार कर लिया है की देश में बहुततेजी से मंहगाई बढ़ गई है इसलिए उस महंगाई के असर को कम करने के लिए खुद के वेतन बढ़वाकर भार कोकम करले ताकि शांत मन से जनता की महंगाई पर भी विचार किया जा सके? जिस देश के कर्णधार बनाने वालेशिक्षकों का वेतन (मध्यप्रदेश में मात्र २६०० मासिक मान्यता प्राप्त स्कूञ्ल में जो सामान्यतः दैनिक मजदूरी से भीकम है) वहां ३६००० हजार वेतन (सुविधाए अलग)पाने वाले व्यक्तिञ् कितने है ? यदि विधायको का विधायकी कायह कथन सही है कि हमें अपने क्षेत्र की जनता की सुविधाओं का ध्यान रखने के लिए आतिथ्य करने के लिए औरअपने कर्तव्यों का निर्वहन करने के लिए जो हमें वर्तमान वेतन और सुविधाएं मिल रही है वे कम है। तो उनसे यहभी पूछा जाना चाहिए कि चुनाव आयोग ने जो चुनाव खर्च की सीमा तय की हैया वास्तव में में वे उस सीमा केअंदर ही खर्च करके चुनाव लड़ते है? और यदि नहीं तोया वास्तव में जो उन्हे सुविधांए और वेतन मिल रहा है वेभीया पूरी की पूरी अपने कर्तव्य के पालन में खर्च करदेते है? (अपवाद सब जगह है) इसलिए यदि इनजनप्रतिनिधियों ने अपने से उपर की ओर देखकर जो बहुत ही कम संया में है अपने से नीचे की ओर और अपनेआसपास के वातावरण को देखा होता तो शायद उनका अन्दर का मन इतना विचलित हो जाता कि वे ऐसे विधेयकको पेश करने की पैरवी कभी नहीं करते। भौतिक युग में भौतिक सुख प्राप्त करने का अधिकार हर व्यक्तिञ् को है जोबगैर 'अर्थ' के सभव नहीं है लेकिन संविधान द्वारा प्रदा विशेषाधिकार प्राप्त करने वाले चुने गये प्रतिनिधियों का कार्यचुनाव के दौरान गरीब के प्रति किये गये लच्छेदार भाषणों से भी तो मेल खाना चाहिए।
आज
भी भारत की आधी जनता धरती के बिछौने पर सोकर आसमान की चादर ओढ़ते हुए दिशाओं के
वस्त्र पहनती है। जिस देश में आज भी आधी जनसंया दो जून की रोटी प्राप्त करने में पूरे शरीर पसीने से गीलाकर नहा लेती है (और इस प्रकार पानी की बचत करती है), जिस देश में निम्र वर्ग मध्यम वर्ग महंगाई के तलेदबकर अपने आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए गलत रास्ते अपनाने को मजबूर हो जाते है वहां पर शायदविधयिकों के''विधाता'' स्वयमेव अपने को विधाता मानकर कुञ्छ भी मनमानी करने के अधिकार को स्वतः प्राप्तकर विधाता होने की खुशी महसूस करते है तभी इस तरह के विधेयक पास होते है।यह प्रथम अवसर नहीं है जबम।प्र. की विधानसभा एकमत हुई हो। वास्तव में विधायकों की वेतन, भो एवं पेंशन के मुद्दे पर पूरे देश में समस्तविधानसभाओं , लोकसभा और राज्यसभा में लगभग एकमतता है जो निश्चय ही भारत देश की अर्थव्यवस्था कोमजबूती प्रदान करती हैयोकि मामला ''अर्थ'' का है और आप ''अर्थ'' से कोई ''अनर्थ'' निकालेयोंकि इस देशके संविधान ने जिन लोगो को शासन चलाने की ''जिमेदारी'' दी है वे सब इस ''अर्थ'' के मामले में एकमत है। जनताबेबस है। उसका इस ''एकमत'' के आगे नतमस्तक होना स्वाभाविक है। जो वह अपने मौन स्वीकृञ्ति द्वारा देती है।कुञ्छ पढ़े लिखे तथाकथित बुद्धिजीवी इस पर अपना विरोध प्रकट कर देते है, लेख लिखते है, विचार व्यक्तञ् करदेते है इससे उन ''उत्तरदायी'' व्यक्तिञ्यों पर क्या फर्क पड़ता है क्योकि वे जानते है ये मुट्रठी भर लोग तो देश कीदिशा को बदल सकते है और ही मत को बदल सकते है। फिर जिस जनता ने हमें चुनकर विधानसभा, लोकसभामें भेजा है विभिन्न विचारों के होते हुए विभिन्न प्रदेशो, संस्कृतियों, भाषाओं, विचारों एवं वातावरण से आते हुएजब हम सब एकमत है। क्योकि हमें मतो ने ही एकमत बनाया है? और जनता ने भी जिसने हमें चुना है उसने मौनस्वीकृञ्ति देकर हमें अपना मत दिया है? तब हमें गर्व से यह कहने से कौन रोक सकता है कि हमने जनता के मतोंके पालनार्थ सर्वसमति से एकजूट होकर उक्तञ् प्रस्ताव पारित कर उक्तञ् जनता के प्रति अपना गहरी आस्थाव्यक्तञ् कर उनके प्रति आभार व्यक्तञ् किया है। जय हो 'जनता' ''जन-जन-नेता''?

शुक्रवार, 12 मार्च 2010

९ मार्च भारतीय लोकतंत्र का ऐतिहासिक (काला) दिवस है ?


दिनांक ९ मार्च को भारतीय लोकतंत्र की सर्वोच्च संस्था संसद के उच्च सदन (वास्तविकता में नही?) राज्यसभा में भारतीय संविधान में १०० वे अंतर्राष्टीय महिला दिवस पर संशोधन करने वाला संशोधन विधेयक जिसके द्वारा ३३ प्रतिशत महिला आरक्षण का प्रावधान किया गया हैं लगभग सर्वानुमति से पारित हुआ जिसके पक्ष में १८६ व विपक्ष में १ वोट डले ७ सदस्यों जो इसके विरोधी थे उन्हे निष्कासित कर उन्हे वोट डालने से वंचित किया गया और आज के समस्त समाचार पत्रो ने न्यूज चैनलो के माध्यम से उक्त घटना के पक्ष विपक्ष के समस्त पक्षकारों ने उक्त घटना को ऐतिहासिक करार दिया है. आखिर ६२ वर्ष की इस लोकतांत्रिक यात्रा में ऐसा कल क्या हो गया जो उसे ऐतिहासिक कहा जा रहा है?
उक्त संविधान संशोधन विधेयक द्वारा लोकसभा और विधानसभा के चुनावों में ३३ प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था का प्रावधान महिलाओं के लिए किया गया हैं। कल राज्यसभा में प्रस्ताव पारित हो जाने से वह कानून बन गया हो ऐसी बात नहीं है और न ही कल प्रथम बार संसद में बिल पेश किया गया है। वर्ष १९७७, १९९९ एवं २००५ में भी बिल पेश किया गया था लेकिन तब नाकामी मिली तो ड्डि र यह ऐतिहासिक क्षण कैञ्सा? कानून बनने में अभी कई और कदम आगे बढाने है मसलन लोकसभा में प्रस्ताव दो तिहाई बहुमत से पास होना है और देश की दो तिहाई विधानसभा में यह प्रस्ताव होना हैं तत्पश्चात जनप्रतिनिधित्व अधिनियम में संशोधन होने के बाद ही उक्त कानून प्रभावी रूञ्प लेगा। यदि प्रस्ताव की भावना की बात करें तो महिला आरक्षण पर देश के किसी व्यक्ति को, किसी भी संस्था को या किसी राजनैतिक पार्टी को कोई आपाि नहीं हैं । लेकिन इसके बावजूद वह आज तक कानून नहीं बन पाया ़ タया अभी ऐतिहासिक क्षण आगे आने वाला है ? क्या वह प्रथम अवसर ऐतिहासिक क्षण नहीं था जब ३३ प्रतिशत महिलाओं के आरक्षण के बारे में सोचा गया व प्रस्ताव लाया गया?
अब बात उस पक्ष की भी कर लें जो आरक्षण के हिमायती होकर भी संविधान संशोधन विधेयक के प्रस्तुत प्रारूञ्प से असहमत थे वे भी कल के क्षण को ऐतिहासिक बता रहे हेै, शायद वे ज्यादा सही है, タयोंकि कल जिस तरह का विरोध संसदीय परपराओं का पालन कर लोकतंत्र के स्तभ संसद मात्र १+७८ सदस्यों का विरोध के द्वारा भारी बहुमत की भावनाओं को अश्लील तरीके से दबाव एवं धमकाकर लोकतंत्र के ह्‌दय संसद की कार्यवाही में जिस तरह का प्रदर्शन अध्यक्ष की सांसदी के साथ किया गया जिसे पूरे विश्र्व ने लाइव टेलीकास्ट के माध्यम से देखा वह भी वास्तव में एक ऐतिहासिक क्षण था? जिसपर タया गर्व किया जा सकता है ? जैसा कि महिला आरक्षण बिल के पक्षधर लोग तथा यह देश के आधी जनसंチया से अधिक को बिल पारित करने पर सुकूञ्न मिला व गर्व मेहशूष हुआ। अल्पमत द्वारा यह कहकर कि बहुमत द्वारा अपने बहुमत का दुरूञ्पयोग कर जनता की आवाज को घोटा जा रहा है यह कथन करते समय जनता के वे नुमाइंदे タया यह भूल गये की जिस तरीके से वे विरोध कर रहे है उसी तरीके से वे जनता की भावनाओं के विपरित सामदाम दंड भेद का उपयोग करते हुए अपने संसद में चुनकर आने को लोकतांत्रिक बताकर वह दावा कर रहे है जिसके वे हकदार ही नहीं थे ़ タया कल का यह क्षण उन सांसदो को उस परिस्थितियों को याद नहीं दिलाएगा? जिसके अल्पमत में होते हुए वे सिस्टम के कारण चुनाव जीते है इसी तरह उन्होने बहुमत की उपेक्षा का जिसके आधार पर वे लोकतंत्र का चोला पहन पाये ? वास्तव में लोकतंत्र में हर व्यक्ति को अपने केञ्हने का अधिकार है और बहुमत का यह दायित्व बन जाता है की वह अल्पमत की बात को भी गभीरता से ले लेकिन लोकतांत्रिक व्यवस्था का अंतिम कदम यही होगा कि अंततः जो बहुमत निर्णय ले उसका शालीनता से पालन करें पालन करवायें और यदि वह उसके बावजूद भी उससे असहमत है तो शालीनता पूर्वक अपने विचारों को उन बहुमत के लोगो पर इस तरह प्रभावशाली तरीके से समझाये ताकि वो उनके मत को अपने पक्ष में करके अपना बहुमत बना सके ़ यह तभी सभव होगा जब आपका मत, आपका विचार तार्किञ्क होगा स्वीकार्य होगा लेकिन बात यहां पर तर्क की नहीं हैँ बात तो सिर्फ अपनी नेतागिरी की दुकानदारी की है और निश्चित रूञ्प से यह आरक्षण विधेयक का स्वयं, पार्टी या संस्थाओं की नेतागिरी की दुकानों की चूँलो को हिलाता है। विरोध करने वालो को शायद यह ज्ञात नहीं है या मालूम होकर भी अंजान बने रहना चाहते है कि यह अंतिम संशोधन विधेयक नहीं हैं ़ संविधान में संशोधन का असिमित समय तक अधिकार है जब तक कि भारतीय संविधान लागू है जिसके फलस्वरूञ्प ही ६२ वर्ष के यात्रा में १०० से अधिक संशोधन हो चुके है अर्थात हमारा संविधान इस सीमा तक लचीला है जो प्रत्येक व्यक्ति या विचारो की कद्र करते हुए उन विचारो को अपने में समावेश कर तदानुसार संशोधित कर लेता है ़ यदि महिला आरक्षण के विरोधियों को अपनी बात का भरोशा होता तो निश्चत रूञ्प से वे एक और संशोधन की प्रतिक्षा कर सकते थे लेकिन वास्तविकता यह है कि उनके विचारों को पूरे देश में लगभग नगण्य समर्थन प्राप्त है और यहबात हम सबको स्वीकार करना चाहिए कि यह स्वीक्रञ्त तथ्य है कि किसी भी काल समय और परिस्थिति में किसी भी विषय पर कभी भी १०० प्रतिशत एक विचार नहीं होता हैं और इसलिए इस वास्तविकता को जानते हुए कि संविधानिक रूञ्प से इस विधेयक का न आज न भविष्य में सफलता पूर्वक विरोध किया जा सकता है उन लोगो ने उपरोक्त रास्ता अपनाया जो क्षय नहीं है।
उक्त कार्यवाही में ७ संसद सदस्यों को निलंबित किया गया निलंबित संसद सदस्यों का यह कथन कि हम माफी नहीं मागेंगे हम किसी भी हालत में झुकेंञ्गे नही यह लोकतंत्र के साथ अनाचार ही नहीं दुराचार है। उन संसद सदस्यों को यह बताने की आवश्यकता नहीं है की लोकतंत्र में आम सहमति से ही काम किया जा सकता है और यदि आपकी नजर मेंआम सहमति विधेयक के पक्ष में नहीं है तो उससे ज्यादा सत्य यह भी है कि आपके विचारो के प्रति तो बिल्कुञ्ल सहमति नहीं है तो फिर लोकतंत्र चलेगा कैञ्से इसका जवाब भी वे देते जाये। जिस पद के कारण से समाज में उनकी प्रमुखता बनी हुई है उस संस्था की साख को गिराकर वे अपनी महत्व को कैञ्से बना पायेंगे यदि इस ओर वे जरा सा भी सोचते तो शायद उक्त घटना नहीं होती!
समय चूक रहा है लेकिन खत्म नहीं हुआ है अपने शास्त्रो में कहा है गलती करना तभी तक अपराध है जब तक आदमी उसको गलती नहीं मानता लेकिन जिस क्षण व्यक्ति गलती को गलती स्वीकार कर लेता है उस क्षण उस व्यक्ति में और निर्दोश व्यक्ति में कोई अन्तर नही रह जाता । इसलिए उन सभी पक्षो से यह अपील करना गलत नहीं होगा की वे अपने विचारों को मानते हुए गहनता से इस बात पर विचार करें जो कुञ्छ हुआ उसका कोई दूसरा विकल्प हो सकता था और जिस क्षण उनके दिमाग में ये विचार आयेंगे तो मै यह मानूंगा भारत में लोकतंत्र परिपक्वञ्ता के दिशा में बढ रहा हैं !

सोमवार, 15 फ़रवरी 2010

'योग' के माध्यम से क्या 'राजनैतिकयोग' नैतिक, उचित एवं सम्भव है ?


देश के सबसे सफलतम आध्यात्मिक योग गुरू श्रद्धेय बाबा रामदेवजी का यह वक्तव्य कि अगले लोकसभा चुनाव में वे भी भाग लेंगे और वे अपने अनुयायियों को लोकसभा चुनाव लड़ने का निर्देश देंगे यह वक्तव्य पढ कर शायद ही किसी को कोई आश्चर्य हुआ होगा। विगत एक-दो वर्षो से जबसे ''स्वाभिमान ट्रस्ट'' की स्थापना एवं उसकी सक्रीयता ''पतांजली योग समिति'' की तुलना में बढ ी है तथा पिछले कुछ समय से विभिन्न विषयो पर बाबा रामदेवजी द्वारा खुलकर जो विचार विभिन्न इलेक्ट्रानिक माध्यमों व मंच के माध्यम से दिये जा रहे है जैसा कि हाल में ही माओवादियो से वार्ता में मध्यस्तता की इच्छा संबंधी बयान आया है, तबसे यह आभास होने लगा था कि बाबा रामदेवजी भी कुछ अन्य आध्यात्मिक गुरूओं के समान राजनीति से सीधे या परोक्ष रूप से जुड ने का लोभ सवारने से दूर नही रह पायेंगे।
बात जब राजनीति से जुड़ने की है तो यह कोई नई बात नहीं है और न ही राजनीति में अच्छे लोगो को आने से निरूत्साहित किया जाना चाहिए! पूर्व का राजनैतिक इतिहास भी अच्छे लोगो के जमावड ा से भरा पड ा है। ''महात्मा'' व ''राष्ट्रपिता'' होते हुए भी स्व. मोहनदास करमचंद गांधी ''बापू'' ''राजनीति'' के युग प्रतीक थे लेकिन ''राजनीति'' की वह परिस्थिति आज की ''राजनीति'' से बिल्कुल अलग एवं विपरीत थी। ''राजनीति'' का वह जमाना फिरंगियो से लड ने का था जिसमें ऐसे लोगो की आवश्यकता थी, लेकिन क्या आज की राजनीति वैसी ही रह गई है? कुछ भद्रपुरूषो ने तो राजनीति की तुलना वैश्याओं एवं शराब से तक कर डाली है। ऐसी ''राजनीति'' में लुप्त होते हुए भद्रपुरूष का आना एक गंभीर विचारणीय विषय है। क्या हमने यह नही देखा है कि आज की राजनीति का स्तर इतना गिर चुका है कि वह भद्र पुरूषो पर राजनैतिक स्वार्थ के चलते उंगली उठाने से रोक नही पायेगी। मुझे याद आता है पितृपुरूष स्व. कुशाभाउ ठाकरे जैसे व्यक्तित्व पर भी अनुशासन की जननी कही जाने वाली भाजपा के ही कुछ लोगों ने ''राजनीति'' के कारण उनके भोपाल में पुतले जलाये व पर्चेबाजी की। ऐसे कई उदाहरणो से ''राजनीति'' भरी पड ी है। तब ऐसे विषम राजनैतिक परिस्थितियो में एक भद्र पुरूष का आना क्या एक चिंतनीय विषय नहीं है?
'योग' कोई नई चीज नहीं है भारत को विश्व में 'योग' का प्रणेता माना जाता है। कई सदियों से हमारे देश में योग को अपने जीवन में भारतीयों द्वारा अपनाया जा रहा है। लेकिन इसका विस्तार और इसकी मान्यता हमारी अपनी संकीर्ण धारा के कारण हम भारतीयों ने उसको तब तक नही दी जब तक विश्व में ''योग'' को ''योगा'' के माध्यम से स्वीकार नहीं लिया गया और उसे प्रसिद्धि मिलने से हम भारतीयों ने उसके अस्तित्व और महत्व को स्वीकारा कि हम भारतीयो की एक आदत सी हो गई है कि हम अपनी कोई मूल चीज को चाहे वह कितनी ही उपयोगी व मौलिक क्यों न हो तब तक मान्यता नहीं देते है जब तक कि विदेशी लोग उसको अपना नही लेते है और तत्‌पश्चात्‌ ही हमें अपनी उक्त ''सम्पत्ति'' का महत्व उपयोगिता एवं विश्वसनीयता समझ में आती है। हमारी इस मूल सम्पत्ति 'योग' को पूरे देश में अधिकतम भारतियों के बीच फैलाव का श्रेय यदि किसी एक व्यक्ति को जाता है तो वे बाबा रामदेवजी है। इसलिये न केवल वे हमारे लिए अत्यधिक सम्माननीय एवं श्रद्धेय है, बल्कि इस कारण से वे हमारे राष्ट्र के शक्तिपुंज है व योग के माध्यम से हमें शारीरिक स्वास्थ्य लाभ व आध्यात्म के माध्यम से बुद्धि के विकास के लिये आज वे हमारे आशा के एकमात्र केन्द्र बिंदू है।
'योग' के माध्यम से बाबा ने न केवल हमें शारीरिक रूप से स्वस्थ रखने का सबसे सस्ता नुस्खा बताया है बल्कि अपने आध्यात्मिक प्रवचन के माध्यम से हमारे बौद्धिक कौशल को भी तेज किया है। इस पूरे ''योग'' के प्रचार प्रसार में सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि बाबा ने ''योग'' को दूरस्थ प्रत्येक भारतीय तक पहुंचाने के प्रयास में अपने शिष्य बनाने के लिए कोई अरहर्ताए रेखांकित नहीं की है, अर्थात प्रत्येक भारतीय चाहे वह किसी भी वर्ग का हो कैसे ही चरित्र का हो चाहे वह किसी भी गुण का हो, चाहे वह किसी भी समुदाय का हो, प्रत्येक व्यक्ति भारतीय स्वाभिमान ट्रष्ट का सदस्य बनकर या उनके योग शिविरों में निर्धारित शुल्क देकर योग सीखने के लिए शामिल हो सकता है, और यही सबसे बड़ा फंडा 'बाबा' के राजनीति में आने में रूकावट है।
यदि बाबा एक अच्छे राजनैतिज्ञ बनने की दिशा में वोट बैंक बनाने की प्रक्रिया प्रारम्भ कर रहे है जैसा कि उन्होने कथन किया है तो उसके लिए यह आवश्यक होगा की वे अपने शिष्यों को बनाने के पूर्व भी उनकी योग्यतांए अहर्ताएं, निर्धारित करें, ताकि राजनीति में एकमात्र योग्य, स्वच्छ छवि, चरित्रवान और क्षमतावान व्यक्ति ही जाकर उस तरह की राजनीतिक वातावरण बना सके जैसा कि बाबा की कल्पना है। लेकिन प्रश्न यह उठता है कि क्या आज के परिवेश में यह सम्भव है ? क्या बाबा ने इसके पीछे छिपे हुए खतरे की ओर कोई ध्यान दिया है ? क्योकि आज की राजनिति की इतनी शर्मनाक स्थिति हो गई है जो भी अच्छे व्यक्ति धार्मिक नेता, आध्यात्मिक गुरू ''राजनिति'' में आये वे राजनीति को तो शुद्ध नहीं कर पाये, बल्कि अधिकांशो पर ''राजनीति'' ही हावी हो गई। उत्तरांचल के संत सतपाल महाराज, पूर्व केन्द्रीय मंत्री अयोध्या आंदोलन के स्वामीं रामविलास वेदांतीजी, पूर्व सांसद महंत अवैधनाथ सांसद जैसे अनेक उदाहरण हमारे सामने है। क्या राजनीति के इस पराभव के कारण ही देश के अन्य आध्यात्मिक एवं योग गुरू सर्वश्री श्रीश्री रविशंकरजी महाराज, डॉ प्रणव पण्ड्‌या युग निर्माण योजना गायत्री परिवार, पू. मोरारी बापू,सत्य साईं बाबा, इत्यादि सिद्ध संतो ने ''राजनीति'' में कोई रूचि नहीं दिखाई है? इसका मतलब यह नहीं है कि देश सेवा में वे किसी से पीछे है। इसलिए क्या यह आवश्यक नहीं है कि धर्म और राजनिति अलग अलग रहे। क्या आज एक देश की महत्वपूर्ण पूंजी बाबा रामदेव नहीं है और राजनिति में प्रवेश करने पर क्या हम उन्हे खोने का अवसर तो नहीं दे रहे है? आप यह कह सकते है कि राजनिति में यदि अच्छे लोग नहीं आयेंगे तो ''राजनीति'' का ''शुद्धिकरण'' कैसे होगा ? बात सैद्धांतिक रूप से अच्छी लगती है लेकिन वास्तविक धरातल पर क्या यह सम्भव है? बाबा आमटे से लेकर शरद जोशी जैसे प्रसिद्ध गांधीवादी लोग जिनके विचारों से कोई असहमति नहीं हो सकती है और जो हमारे देश के लिए उर्जा एवं उत्प्रेरक का काम करते है लेकिन जब वे अपने विचारों के फैलाव के लिए किसी संगठन या मंच के माध्यम से अपने कार्यक्रम करते है तो उन कार्यक्रमों के आयोजक कितने सैद्धांतिक होते है? क्या साध्य के लिए साधन का भी शुद्धिकरण का होना आवश्यक नहीं है? जैसा कि महात्मा गांधीजी ने कहा था क्योकि बात बाबा रामदेवजी से सबंधित है।
कहने का तात्पर्य यह है कि एक क्षमतावान साहसी लोहपुरूष जो देश के स्वास्थ्य एवं आध्यात्मिक बूद्धि को विकसित करने की क्षमता रखता है जिससे अंततः देश का सर्वांगीण विकास होगा, ''राजनीति'' में आने के बाद आज के कीचड़ भरे राजनैतिक वातावरण में वह कैसे अक्षुण रह पायेगा यह बहुत ही गंभीर प्रश्न है। इस प्रश्न का उत्तर तो अभी गर्भ में होगा लेकिन असफल होने पर हम एक अतुलनीय आदित्य व्यक्तित्व को अवश्य खो देंगे जो हमारे जीवन के उस महत्वपूर्ण भाग को सुधारने की क्षमता रखता है जो हमारे सम्पूर्ण जीवन को संचालित करती है अर्थात बाबा राजनीति में सफल हो या न हो 'राज' भले ही मिले या ना मिले लेकिन ''बाबा'' ''नीति'' से अवश्य हट जायेंगे यह बात निश्चित है। अतः देश के स्वास्थ्य के लिये उनका ''आज की राजनीति'' में आना उचित नहीं है। अपने देश के संविधान एवं शास्त्रों में कार्यो का विभाजन किया गया है। एक न्यायाधीश से न्यायिक सुधार की उम्मीद की जाती है उसके सफल होने पर यह जरूरी नहीं है उस व्यक्ति को राजनीति में उक्त आधार पर लाया जाए अर्थात यदि किसी विशिष्ट क्षेत्र में कोई व्यक्ति ने यदि अपनी उपयोगिता सर्वोच्च रूप से सिद्ध की है तब उसे उसी क्षेत्रो में काम करने दे व आगे और अवसर प्रदान करे ताकि वह उस क्षेत्र को सर्वोच्च स्तर पर ले जाये। कार्यक्षेत्र की सर्वोच्च स्तर पर अदला-बदली उचित नहीं होंगी।
अंत में आज की मूल्य विहीन, बिना चारित्रिक मूल्य (उवतंस) की निम्न से निम्न स्तर की ओर जा रही ''राजनीति'' में उक्त तथ्यों की जानकारी के बावजूद बाबा का राजनीति में कूदने के ''राजनैतिक साहस'' को नमन।

चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी






Blogvani.com

सोमवार, 25 जनवरी 2010

ज्योतिवसु दा राजनीति के एक युग का अवसान!

कुछ समय की बीमारी के बाद अन्ततः आज ज्योतिदा अपने शरीर को छोड़कर चले गये। लगभग जिन्दगी के आखरी सॉसों तक सक्रिय (बीमारी के पूर्व तक) रहने वाला व्यक्ति इस ऋष्टि की जीवन यात्रा पूरा करने के बाद भी अपने मृत शरीर की यात्रा को और कुछ समय के लिए चालू रखने के लिए अपने मृत शरीर को मेडीकल रिसर्च के लिए दान देकर जो दृढ संकल्प दर्शाया है (जिसके लिए वर्ष २००३ में उन्होने संकल्प पत्र पर स्वयं दस्तखत कर दान दिया था) वह अतुलनीय है और उन जैसे व्यक्तित्व को देखते हुए पिछले सदी का यह शायद प्रथम महत्वपूर्ण कृत्य है।
भारतीय संस्कृति में व्यक्ति के मृत्यु के बाद समस्त जाने वाले व्यक्ति को स्वर्गवासी मान कर हम लोग उनकी अच्छाई को याद कर उन्हें श्रंद्वाजली अर्पित करते है । श्रध्देय ज्योतिदा की मृत्यु पर देश के नागरिको की भावयुक्त श्रंद्वाजली क्या मात्र उक्त संस्कृति का ही परिणाम है? या और कुछ! यदि हम कुछ लोग उसे उस संस्कृति का ही मात्र परिणाम मानते है तो निश्चित रूप से यह उनके व्यक्तित्व के साथ अनाचार होगा। आठ व्यक्तियों के साथ सीपीएम (भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी मार्क्सवादी) की स्थापना करने वाला अंतिम व्यक्ति आज हमारे बीच में नहीं रहे। ई।एम.एस. नम्बुदरीपाद व हरिकिशन सिंह सुरजीत जैसे व्यक्तित्व के साथ काम करते हुए लगभग २३ साल लगातार (वर्ष १९७७ से १९९० तक) प. बंगाल के मुखयमंत्री के रूप में सफलतापूर्वक कार्य करतें हुए भारतीय राजनीति में संयुक्त प्रगतिशील दल को राजनीति में सीपीएम की सरकारो के गठन में सफलतापूर्वक महत्वपूर्ण स्थान पर रखा व सरकारो की कुंजी आपके पास रखी लेकिन उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण पार्टी को पीछे छोड़ते हुए एक काडर बेस पार्टी के पूर्णतः अनुशासित कामरेड होने के बावजूद भारतीय राजनीति में उन्होने अपनी वह स्वीकारिता बनाई जो उन जैसे वातावरण के रहते अन्य दूसरा कोई उदाहरण नही है। यह एक अनोखा उदाहरण है जो भारतीय राजनीति में कभी नहीं देखा गया क्योकि जब कम्युनिस्ट पार्टी का जन्म हुआ था तब उनकी भक्ति (लायल्टी) भारत संघ या भारतीय संविधान के प्रति संदिग्ध मानी जाती थी ऐसा कम्युनिस्ट पार्टी के प्रति उस समय अनेक व्यक्तियों व विचारको के विचार थे। कम्युनिस्ट पार्टी का जब चीन से लड ाई के मुद्‌दे पर वर्ष १९६२ में विभाजन हुआ था तब भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) नई पार्टी के रूप में उभरकर आई तब भी उसकी लायल्टी एक्स्ट्रा टेरिटोरियल मानी गई (सीमा के पार चीन के प्रति) दूसरी ओर कम्युनिस्ट पार्टी की निष्ठा रूस के प्रति मानी गई। ऐसी पार्टी का सदस्य होने के बावजूद जब वर्ष १९९६ उनके नाम पर प्रधानमंत्री पद के लिए कांग्रेस पार्टी ने सहमती बनाई तब भी देश की राजनीति में कम्युनिष्ट होने के बावजूद उनके नाम पर कोई नाक-भो नही सिकोड ी गई जबकि सोनिया गांधी के नाम पर उनकी विदेशी मूल के मुद्वे को प्रमुखता से उछाला गया था।
कम्युनिस्ट पार्टी मार्क्सवादी का कामरेड़ होने के बावजूद लगातार २३ वर्ष तक भारतीय संध के एक राज्य पं। बंगाल प्रांत का मुखयमंत्री रहने के बावजूद संघ (युनियन) भारत देश के प्रति उनकी निष्ठा कभी भी संदिग्ध नहीं मानी गई न ही इस प्रकार का कोई भी आरोप राजनैतिक पार्टी ने उनपर लगायें जबकि जम्मु कश्मीर- उत्तर पूर्वी प्रदेश के कुछ मुखयमंत्री उनके शासन में बने रहने के लिए उनके द्वारा जारी कुछ राजनीति बयानो को भारत संध के विरूध माना गया। 'ज्योतिदा' की भारत सीमा के बाहर निष्ठा का आरोप सहने वाली मार्क्सवादी कम्यूनिष्ट पार्टी के कामरेड होने के बावजूद निष्कलंक सफलता भारतीय राजनीति की एक बहुत बड ी उपलब्धी है।
निश्छल एवं शांतिप्रिय, विरक्ति बनाकर जो अद्‌भुत मिशाल कायम की यह उपलब्धि भी भारतीय राजनीति में एकागता लिये हुए है क्योकि आज की भारतीय राजनीति में पद के लिए समस्त सिद्वांतो पर झाडू लगाकर पद पर कायम रहना राजनीति की कसोटी बन गई जबकि ज्योति दा ने सिद्वातों को अपने गले लगाकर पदो को झाड़ू लगाकर भारतीय राजनीति में अपना झंडा गाड ा जिसकी कोई मिशाल नही है। कुछ लोग कह सकते है कि सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री पद स्वीकार न कर वही वैराग का भाव दिया है जो ज्योतिदा ने दिया लेकिन यह तुलना करना भी बेमानी होगा और न ही ज्योतिदा के व्यक्तित्व का सही मूल्यांकन होगा।
कामरेड होने के बाबजूद उनकी इमेज प्रकाश कारंत समान एक कट्‌टर वादी नही थी बल्कि वह एक व्यवहारिक राजनीति के सफल संचालक थे। और इसीलिए पं।बंगाल में अपनें कार्यकाल से मार्क्सवाद के कट्‌टर पंथी विचारों से बाहर आकर कुछ व्यवहारिक निर्णय पं. बंगाल के हित के लिये जिस कारण उन्हें कई बार कट्‌टर पंथीयो के विरोध का भी सामना करना पड़ा। उनकी यह व्यवहारिकता कुछ उसी तरह की थी जिस प्रकार से राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से भारतीय जनसंध से होते हुऐ भारतीय जनता पार्टी के जनक माननीय अटल बिहारी जी की है, प्रारम्भ में भाजपा एवं कम्यूनिष्ट दोनो ही पार्टी केडरवेस पार्टिया थी लेकिन भाजपा आज उतनी केडर बेस नहीं रह गई जितनी सीपीएम है औेर शायद इसी कारण कम्युनिस्ट पार्टी का उस तरह विस्तार नही हो पाया की जैसा कि भारतीय जनता पार्टी का हुआ है लेकिन केडर बेस होने का तमगा विद्यमान होने के कारण उसे स्थायित्व मिला जिसके अभाव में भाजपा सरकारो को स्थायित्व नही मिला।
सोनिया गांधी ने पद अस्वीकार कर अपने एक सिपाही को उक्त पद पर नामांकित कर (भयमुक्त चुनाव द्वारा निर्वाचित नही) अपनी राजनैतिक इच्छा शक्ति को रिमोर्ट कंट्रोल से चलाने का संकल्प दिखाया जबकि ज्योति दा ने पार्टी के उक्त पद को इसलिए नही अस्वीकार किया कि उन्हे उक्त पद से विरक्ति थी बल्कि पार्टी को व्यक्ति से बड ा मानते हुए पार्टी के आदेश को एक अनुशासित कामरेड के रूप में बिना किसी द्वेश भाव के यह जानकर भी स्वीकार किया कि भविष्य में पार्टी को सत्ता में आने का दुबारा अवसर नही मिलेगा जिसे उन्होने बाद में एक इंटरव्यू में यह स्वीकारा भी था कि पोलित ब्यूरों का उक्त निर्णय गलत था पार्टी हित में नही था क्योकि उस समय प्रश्न ज्योति बसु के प्रधानमंत्री बनने का नही था बल्कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की पहचान को सुदूर क्षेत्र तक पहुचाने का था।
सन्‌ १९६७ के बाद से संयुक्त विधायक दलों की सरकारों के कारण राजनीति में आये अस्थिरता के रहते स्वार्थ की, और भजनलाल की देन आयाराम-गयाराम के नये राजनैतिक कलेवर के बावजूद लगातार २३ साल तक पॉच बार सर्वसम्मति से विधायक दल का नेता चुना जाकर मुखयमंत्री पद पर न केवल कायम रहना बल्कि मुखयमंत्री पद पर रहते हुए स्वास्थ के आधार पर (राजनैतिक दाव पेच के आधार पर नहीं), पद से इस्तीफा देकर पद व राजनीति से जोनिश्छल एवं शांतिप्रिय, विरक्ति बनाकर जो अद्‌भुत मिशाल कायम की यह उपलब्धि भी भारतीय राजनीति में एकागता लिये हुए है क्योकि आज की भारतीय राजनीति में पद के लिए समस्त सिद्वांतो पर झाडू लगाकर पद पर कायम रहना राजनीति की कसोटी बन गई जबकि ज्योति दा ने सिद्वातों को अपने गले लगाकर पदो को झाड़ू लगाकर भारतीय राजनीति में अपना झंडा गाड ा जिसकी कोई मिशाल नही है। कुछ लोग कह सकते है कि सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री पद स्वीकार न कर वही वैराग का भाव दिया है जो ज्योतिदा ने दिया लेकिन यह तुलना करना भी बेमानी होगा और न ही ज्योतिदा के व्यक्तित्व का सही मूल्यांकन होगा।
कामरेड होने के बाबजूद उनकी इमेज प्रकाश कारंत समान एक कट्‌टर वादी नही थी बल्कि वह एक व्यवहारिक राजनीति के सफल संचालक थे। और इसीलिए पं।बंगाल में अपनें कार्यकाल से मार्क्सवाद के कट्‌टर पंथी विचारों से बाहर आकर कुछ व्यवहारिक निर्णय पं. बंगाल के हित के लिये जिस कारण उन्हें कई बार कट्‌टर पंथीयो के विरोध का भी सामना करना पड़ा। उनकी यह व्यवहारिकता कुछ उसी तरह की थी जिस प्रकार से राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से भारतीय जनसंध से होते हुऐ भारतीय जनता पार्टी के जनक माननीय अटल बिहारी जी की है, प्रारम्भ में भाजपा एवं कम्यूनिष्ट दोनो ही पार्टी केडरवेस पार्टिया थी लेकिन भाजपा आज उतनी केडर बेस नहीं रह गई जितनी सीपीएम है औेर शायद इसी कारण कम्युनिस्ट पार्टी का उस तरह विस्तार नही हो पाया की जैसा कि भारतीय जनता पार्टी का हुआ है लेकिन केडर बेस होने का तमगा विद्यमान होने के कारण उसे स्थायित्व मिला जिसके अभाव में भाजपा सरकारो को स्थायित्व नही मिला।
'ज्योतिदा' ने जो संदेश भारतीयों को दिया है वास्तव में राष्ट्र यदि उन्हें सही श्रद्वांजली देना चाहता है तो हम उनके द्वारा दिया गया वह संदेश कि राजनीति में कितना हो बड़ा व्यक्तित्व क्यो न हो वह पार्टी से बहुत छोटा होता है और पार्टी के निर्णय को व्यक्तिगत स्वार्थ या आंकाक्षा से उपर रखकर यदि उसका पालन वह करते है तो निश्चित मानिये कि हाल के वर्षो मे आई भारतीय राजनीति में गिरावट जो अभी भी जारी है उस पर 'ज्योतिदा' का बलिदान कम से कम रोक तो जरूर लगाया ही क्योकि भारतीय संस्कृति की विशेषता यही है कि व्यक्ति के जाने के बाद ही उसको याद किया जाता है।
व्यक्ति के जीते जागते उसके आदर्शो का पालन कर गुणगान करना हमने शायद नही सीखा लेकिन ज्योति दा व्यक्ति का यह पहलू कुछ हमें इस दिशा में आत्मान्दोलित कर दे क्योकि वे मृत्यु के बाद भी कुछ करना चाहते है जो उन्होने अपने शरीर का दान देकर सिद्व किया। राष्ट्र के साथ ऐसे व्यक्ति को मेरा भी साष्टांग अंतिम प्रणाम।

सोनिया गांधी ने पद अस्वीकार कर अपने एक सिपाही को उक्त पद पर नामांकित कर (भयमुक्त चुनाव द्वारा निर्वाचित नही) अपनी राजनैतिक इच्छा शक्ति को रिमोर्ट कंट्रोल से चलाने का संकल्प दिखाया जबकि ज्योति दा ने पार्टी के उक्त पद को इसलिए नही अस्वीकार किया कि उन्हे उक्त पद से विरक्ति थी बल्कि पार्टी को व्यक्ति से बड ा मानते हुए पार्टी के आदेश को एक अनुशासित कामरेड के रूप में बिना किसी द्वेश भाव के यह जानकर भी स्वीकार किया कि भविष्य में पार्टी को सत्ता में आने का दुबारा अवसर नही मिलेगा जिसे उन्होने बाद में एक इंटरव्यू में यह स्वीकारा भी था कि पोलित ब्यूरों का उक्त निर्णय गलत था पार्टी हित में नही था क्योकि उस समय प्रश्न ज्योति बसु के प्रधानमंत्री बनने का नही था बल्कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की पहचान को सुदूर क्षेत्र तक पहुचाने का था।
कामरेड होने के बाबजूद उनकी इमेज प्रकाश कारंत समान एक कट्‌टर वादी नही थी बल्कि वह एक व्यवहारिक राजनीति के सफल संचालक थे। और इसीलिए पं।बंगाल में अपनें कार्यकाल से मार्क्सवाद के कट्‌टर पंथी विचारों से बाहर आकर कुछ व्यवहारिक निर्णय पं. बंगाल के हित के लिये जिस कारण उन्हें कई बार कट्‌टर पंथीयो के विरोध का भी सामना करना पड़ा। उनकी यह व्यवहारिकता कुछ उसी तरह की थी जिस प्रकार से राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से भारतीय जनसंध से होते हुऐ भारतीय जनता पार्टी के जनक माननीय अटल बिहारी जी की है, प्रारम्भ में भाजपा एवं कम्यूनिष्ट दोनो ही पार्टी केडरवेस पार्टिया थी लेकिन भाजपा आज उतनी केडर बेस नहीं रह गई जितनी सीपीएम है औेर शायद इसी कारण कम्युनिस्ट पार्टी का उस तरह विस्तार नही हो पाया की जैसा कि भारतीय जनता पार्टी का हुआ है लेकिन केडर बेस होने का तमगा विद्यमान होने के कारण उसे स्थायित्व मिला जिसके अभाव में भाजपा सरकारो को स्थायित्व नही मिला।
'ज्योतिदा' ने जो संदेश भारतीयों को दिया है वास्तव में राष्ट्र यदि उन्हें सही श्रद्वांजली देना चाहता है तो हम उनके द्वारा दिया गया वह संदेश कि राजनीति में कितना हो बड़ा व्यक्तित्व क्यो न हो वह पार्टी से बहुत छोटा होता है और पार्टी के निर्णय को व्यक्तिगत स्वार्थ या आंकाक्षा से उपर रखकर यदि उसका पालन वह करते है तो निश्चित मानिये कि हाल के वर्षो मे आई भारतीय राजनीति में गिरावट जो अभी भी जारी है उस पर 'ज्योतिदा' का बलिदान कम से कम रोक तो जरूर लगाया ही क्योकि भारतीय संस्कृति की विशेषता यही है कि व्यक्ति के जाने के बाद ही उसको याद किया जाता है।
व्यक्ति के जीते जागते उसके आदर्शो का पालन कर गुणगान करना हमने शायद नही सीखा लेकिन ज्योति दा व्यक्ति का यह पहलू कुछ हमें इस दिशा में आत्मान्दोलित कर दे क्योकि वे मृत्यु के बाद भी कुछ करना चाहते है जो उन्होने अपने शरीर का दान देकर सिद्व किया। राष्ट्र के साथ ऐसे व्यक्ति को मेरा भी साष्टांग अंतिम प्रणाम।

Popular Posts