![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj_W9mzn73QU7erU_5QI9a8IMZkPbrkUtBeHOdQTKPt5jkVJ-IfcAmQE09wVvm_fXeKl5xKE2xIQqyb048jJO3MAPZ3wn0UaLIgfPm2YOOCmBfqXjB1fSfrwCg7jEW3jPQU1TtHK0_UsTM/s320/0903top248.jpg)
दिनांक ९ मार्च को भारतीय लोकतंत्र की सर्वोच्च संस्था संसद के उच्च सदन (वास्तविकता में नही?) राज्यसभा में भारतीय संविधान में १०० वे अंतर्राष्टीय महिला दिवस पर संशोधन करने वाला संशोधन विधेयक जिसके द्वारा ३३ प्रतिशत महिला आरक्षण का प्रावधान किया गया हैं लगभग सर्वानुमति से पारित हुआ जिसके पक्ष में १८६ व विपक्ष में १ वोट डले ७ सदस्यों जो इसके विरोधी थे उन्हे निष्कासित कर उन्हे वोट डालने से वंचित किया गया और आज के समस्त समाचार पत्रो ने न्यूज चैनलो के माध्यम से उक्त घटना के पक्ष विपक्ष के समस्त पक्षकारों ने उक्त घटना को ऐतिहासिक करार दिया है. आखिर ६२ वर्ष की इस लोकतांत्रिक यात्रा में ऐसा कल क्या हो गया जो उसे ऐतिहासिक कहा जा रहा है?
उक्त संविधान संशोधन विधेयक द्वारा लोकसभा और विधानसभा के चुनावों में ३३ प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था का प्रावधान महिलाओं के लिए किया गया हैं। कल राज्यसभा में प्रस्ताव पारित हो जाने से वह कानून बन गया हो ऐसी बात नहीं है और न ही कल प्रथम बार संसद में बिल पेश किया गया है। वर्ष १९७७, १९९९ एवं २००५ में भी बिल पेश किया गया था लेकिन तब नाकामी मिली तो ड्डि र यह ऐतिहासिक क्षण कैञ्सा? कानून बनने में अभी कई और कदम आगे बढाने है मसलन लोकसभा में प्रस्ताव दो तिहाई बहुमत से पास होना है और देश की दो तिहाई विधानसभा में यह प्रस्ताव होना हैं तत्पश्चात जनप्रतिनिधित्व अधिनियम में संशोधन होने के बाद ही उक्त कानून प्रभावी रूञ्प लेगा। यदि प्रस्ताव की भावना की बात करें तो महिला आरक्षण पर देश के किसी व्यक्ति को, किसी भी संस्था को या किसी राजनैतिक पार्टी को कोई आपाि नहीं हैं । लेकिन इसके बावजूद वह आज तक कानून नहीं बन पाया ़ タया अभी ऐतिहासिक क्षण आगे आने वाला है ? क्या वह प्रथम अवसर ऐतिहासिक क्षण नहीं था जब ३३ प्रतिशत महिलाओं के आरक्षण के बारे में सोचा गया व प्रस्ताव लाया गया?
अब बात उस पक्ष की भी कर लें जो आरक्षण के हिमायती होकर भी संविधान संशोधन विधेयक के प्रस्तुत प्रारूञ्प से असहमत थे वे भी कल के क्षण को ऐतिहासिक बता रहे हेै, शायद वे ज्यादा सही है, タयोंकि कल जिस तरह का विरोध संसदीय परपराओं का पालन कर लोकतंत्र के स्तभ संसद मात्र १+७८ सदस्यों का विरोध के द्वारा भारी बहुमत की भावनाओं को अश्लील तरीके से दबाव एवं धमकाकर लोकतंत्र के ह्दय संसद की कार्यवाही में जिस तरह का प्रदर्शन अध्यक्ष की सांसदी के साथ किया गया जिसे पूरे विश्र्व ने लाइव टेलीकास्ट के माध्यम से देखा वह भी वास्तव में एक ऐतिहासिक क्षण था? जिसपर タया गर्व किया जा सकता है ? जैसा कि महिला आरक्षण बिल के पक्षधर लोग तथा यह देश के आधी जनसंチया से अधिक को बिल पारित करने पर सुकूञ्न मिला व गर्व मेहशूष हुआ। अल्पमत द्वारा यह कहकर कि बहुमत द्वारा अपने बहुमत का दुरूञ्पयोग कर जनता की आवाज को घोटा जा रहा है यह कथन करते समय जनता के वे नुमाइंदे タया यह भूल गये की जिस तरीके से वे विरोध कर रहे है उसी तरीके से वे जनता की भावनाओं के विपरित सामदाम दंड भेद का उपयोग करते हुए अपने संसद में चुनकर आने को लोकतांत्रिक बताकर वह दावा कर रहे है जिसके वे हकदार ही नहीं थे ़ タया कल का यह क्षण उन सांसदो को उस परिस्थितियों को याद नहीं दिलाएगा? जिसके अल्पमत में होते हुए वे सिस्टम के कारण चुनाव जीते है इसी तरह उन्होने बहुमत की उपेक्षा का जिसके आधार पर वे लोकतंत्र का चोला पहन पाये ? वास्तव में लोकतंत्र में हर व्यक्ति को अपने केञ्हने का अधिकार है और बहुमत का यह दायित्व बन जाता है की वह अल्पमत की बात को भी गभीरता से ले लेकिन लोकतांत्रिक व्यवस्था का अंतिम कदम यही होगा कि अंततः जो बहुमत निर्णय ले उसका शालीनता से पालन करें पालन करवायें और यदि वह उसके बावजूद भी उससे असहमत है तो शालीनता पूर्वक अपने विचारों को उन बहुमत के लोगो पर इस तरह प्रभावशाली तरीके से समझाये ताकि वो उनके मत को अपने पक्ष में करके अपना बहुमत बना सके ़ यह तभी सभव होगा जब आपका मत, आपका विचार तार्किञ्क होगा स्वीकार्य होगा लेकिन बात यहां पर तर्क की नहीं हैँ बात तो सिर्फ अपनी नेतागिरी की दुकानदारी की है और निश्चित रूञ्प से यह आरक्षण विधेयक का स्वयं, पार्टी या संस्थाओं की नेतागिरी की दुकानों की चूँलो को हिलाता है। विरोध करने वालो को शायद यह ज्ञात नहीं है या मालूम होकर भी अंजान बने रहना चाहते है कि यह अंतिम संशोधन विधेयक नहीं हैं ़ संविधान में संशोधन का असिमित समय तक अधिकार है जब तक कि भारतीय संविधान लागू है जिसके फलस्वरूञ्प ही ६२ वर्ष के यात्रा में १०० से अधिक संशोधन हो चुके है अर्थात हमारा संविधान इस सीमा तक लचीला है जो प्रत्येक व्यक्ति या विचारो की कद्र करते हुए उन विचारो को अपने में समावेश कर तदानुसार संशोधित कर लेता है ़ यदि महिला आरक्षण के विरोधियों को अपनी बात का भरोशा होता तो निश्चत रूञ्प से वे एक और संशोधन की प्रतिक्षा कर सकते थे लेकिन वास्तविकता यह है कि उनके विचारों को पूरे देश में लगभग नगण्य समर्थन प्राप्त है और यहबात हम सबको स्वीकार करना चाहिए कि यह स्वीक्रञ्त तथ्य है कि किसी भी काल समय और परिस्थिति में किसी भी विषय पर कभी भी १०० प्रतिशत एक विचार नहीं होता हैं और इसलिए इस वास्तविकता को जानते हुए कि संविधानिक रूञ्प से इस विधेयक का न आज न भविष्य में सफलता पूर्वक विरोध किया जा सकता है उन लोगो ने उपरोक्त रास्ता अपनाया जो क्षय नहीं है।
उक्त कार्यवाही में ७ संसद सदस्यों को निलंबित किया गया निलंबित संसद सदस्यों का यह कथन कि हम माफी नहीं मागेंगे हम किसी भी हालत में झुकेंञ्गे नही यह लोकतंत्र के साथ अनाचार ही नहीं दुराचार है। उन संसद सदस्यों को यह बताने की आवश्यकता नहीं है की लोकतंत्र में आम सहमति से ही काम किया जा सकता है और यदि आपकी नजर मेंआम सहमति विधेयक के पक्ष में नहीं है तो उससे ज्यादा सत्य यह भी है कि आपके विचारो के प्रति तो बिल्कुञ्ल सहमति नहीं है तो फिर लोकतंत्र चलेगा कैञ्से इसका जवाब भी वे देते जाये। जिस पद के कारण से समाज में उनकी प्रमुखता बनी हुई है उस संस्था की साख को गिराकर वे अपनी महत्व को कैञ्से बना पायेंगे यदि इस ओर वे जरा सा भी सोचते तो शायद उक्त घटना नहीं होती!
समय चूक रहा है लेकिन खत्म नहीं हुआ है अपने शास्त्रो में कहा है गलती करना तभी तक अपराध है जब तक आदमी उसको गलती नहीं मानता लेकिन जिस क्षण व्यक्ति गलती को गलती स्वीकार कर लेता है उस क्षण उस व्यक्ति में और निर्दोश व्यक्ति में कोई अन्तर नही रह जाता । इसलिए उन सभी पक्षो से यह अपील करना गलत नहीं होगा की वे अपने विचारों को मानते हुए गहनता से इस बात पर विचार करें जो कुञ्छ हुआ उसका कोई दूसरा विकल्प हो सकता था और जिस क्षण उनके दिमाग में ये विचार आयेंगे तो मै यह मानूंगा भारत में लोकतंत्र परिपक्वञ्ता के दिशा में बढ रहा हैं !
कई मुद्दों को उठाता लेख। पढ़ना अच्छा रहा।
जवाब देंहटाएं'ञ' से आप के टाइपिंग टूल को कुछ अधिक ही प्रेम है। ठीक कीजिए न। फॉंण्ट बड़ा कीजिए, पढ़ने में कठिनाई हो रही है।