मंगलवार, 30 जनवरी 2024

‘जननायक’’ कर्पूरी ठाकुर के व्यक्तित्व का ‘‘आकलन’’ करने में इतने वर्ष क्यों लग गए?


मोदी का ‘‘जादू’’ हॉकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद को कब ‘‘भारत रत्न’’ दिलाएगा
?

देरी से दिया गया सम्मान

भारत देश का सर्वोच्च सम्मान ‘‘भारत रत्न’’ बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और खांटी समाजवादी और शोषितों के जननायक, महानायक, गरीबों के मसीहा स्वर्गीय कर्पूरी ठाकुर को दिए जाने का निर्णय भले ही अत्यंत देरी से लिया गया हो, तब भी अत्यंत स्वागत योग्य और एक ‘‘गलती’’ को सुधारने का देरी से किया गया सफल प्रयास है। आपको याद दिला दें। कर्पूरी ठाकुर की मृत्यु 64 वर्ष की आयु में 17 फरवरी 1988 को हुई थी। वे पहली बार वर्ष 1952 में बिहार विधानसभा के लिए चुने गये थे। ‘‘यूं तो दुनिया मुर्दा परस्त है’’, दिवंगत लोगों की ही प्रशंसा करती है। परन्तु ‘‘भारत रत्न’’ देने का यह कोई नियम नहीं है कि ‘माननीय’ को देश के लिए किए गए सर्वोच्च उत्कृष्ट कार्यों की प्रशस्ति के लिए मृत्यु उपरांत ही ‘‘भारत रत्न’’ दिया जाकर सम्मानित व याद किया जा सकता है। बल्कि ऐसे उदाहरण है हमारे देश में, जब जीवित व्यक्ति को भी देश के प्रति उनके योगदान के लिए भारत रत्न देकर सम्मानित किया गया है, जैसे सचिन तेंदुलकर (वर्ष 2014 में) क्योंकि वे उसकी योग्यता, पात्रता रखते थे।

सम्मान अविवादित! परन्तु राजनीतिक सोउद्देश्य लिये हुए।

जहां तक कर्पूरी ठाकुर के व्यक्तित्व का सवाल है या उनको ‘‘भारत रत्न’’ दिए जाने का प्रश्न है, यह निर्विवाद है। यह इस बात से भी सिद्ध होता है कि देश की समस्त राजनीतिक पार्टियों ने केंद्र सरकार के इस निर्णय की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। परंतु महत्वपूर्ण प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि क्या ‘‘भारत रत्न’’ वास्तव में कर्पूरी ठाकुर को सिर्फ सम्मान देने के उद्देश्य से दिया गया है, जिसके वे निसंदेह हकदार है। अथवा इस घोषणा के साथ ‘‘राजनीति’’ भी जुड़ी हुई है? देश की वर्तमान में जो राजनीतिक परिस्थितियां विद्यमान है, उनमें हर क्षेत्र में न केवल राजनीति प्रविष्टि हो जाती है, बल्कि राजनीति को घुसेड़ भी दिया जाता है, ऐसा हम देखते चले आ रहे हैं। फिर चाहे धर्म में राजनीति का ही प्रश्न क्यों न हो? शिक्षा, कला, खेल इत्यादि क्षेत्रों में के मूल क्षेत्रों के अतिरिक्त वहां भी राजनीति हमेशा हावी रहती है। इसलिए यदि स्वर्गीय कपूरी ठाकुर को मृत्युपरांत शीघ्र ही कुछ समय बाद होने वाले लोकसभा चुनाव के पूर्व भारत रत्न दिया गया है, तो इसके पीछे एक बड़ा राजनीतिक उद्देश्य भी छुपा हुआ ही नहीं है, बल्कि दिखता हुआ शामिल है/शामिल दिखता हुआ है।

‘‘मोदी है तो मुमकिन है’’। 

याद कीजिए! पिछले कुछ समय से मीडिया में नीतीश कुमार के ‘एनडीए’ में शामिल होने की खबरें लगातार छप रही थी या ज्यादा उचित कहना यह होगा कि ऐसी खबरें सो/दुः उद्देश्य छपाई जा रही थी। परन्तु यह मुहिम असफल होने के बाद ही बिहार में अपनी राजनीतिक जमीन को मजबूत करने के लिए शायद केंद्रीय शासन ने उक्त निर्णय लिया। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के जातिगत जनसंख्या की गणना के निर्णय की काट के परिपेक्ष में भी इस निर्णय को देखा जा रहा है। मैं पहले भी कई बार स्पष्ट कह चुका हूं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नरेटिव फिक्स करने और परसेप्शन बनाने के ‘‘मास्टर ऑफ मास्टर’’ है, जिस कारण से वह विरोधियों को ‘हतप्रद’ कर ‘चित’ कर देते हैं। कई बार तो विरोधियों को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की नीति और निर्णय की प्रशंसा मजबूरी में सही, करनी ही पड़ जाती है। यही देश का ‘‘मोदी नामा’’ है। ‘‘मोदी है तो मुमकिन है’’, यह जिस किसी ने भी कहा है, गलत नहीं है।

अत्यंत सादगी से परिपूर्ण जीवन

कर्पूरी ठाकुर का जन्म गांव पितौंझिया में जिसे अब ‘‘कर्पूरी ग्राम’’ कहां जाता है, बाल काटने के पेशे से जुड़े सीमांत किसान के घर में हुआ था। 1970 के दशक के राजनीतिज्ञों में कर्पूरी ठाकुर का एक महत्वपूर्ण, विशिष्ट, अति सम्मानीय, स्थान रहा है। वे देश के ऐसे मुख्यमंत्री थे, जो अत्यंत गरीबी के चलते राजनीति में आये थे। वे जीवनपर्यंत दलित, शोषित व वंचित वर्ग के उत्थान के लिए संघर्ष करते हुए कुछ-कुछ सफलता भी प्राप्त की। वे देश के ऐसे पहले मुख्यमंत्री थे, जिन्होंने ‘‘मंडल’’ व उसकी प्रतिक्रिया में आये ‘‘कमंडल’’ के काफी पहले वर्ष 1978 में ‘‘मुगेरीलाल आयोग’’ की रिपोर्ट को लागू कर सिर्फ पिछड़ा वर्ग को ही आरक्षण (12 फीसदी) व अतिपछड़े वर्ग को 8 प्रतिशत आरक्षण प्रदान नहीं किया, बल्कि गरीब सवर्ण को भी सबसे पहले 3 फीसदी आरक्षण प्रदान किया था। लम्बे समय तक विधायक रहने के साथ उपमुख्यमंत्री, मुख्यमंत्री पद पर दो बार तथा नेता प्रतिपक्ष पर विराजित होने के बावजूद उनका मानना था कि ‘‘तलवार म्यान में ही अच्छी लगती है’’। उनके सरल स्वभाव, हृदय व अत्यंत सादगी पूर्ण जीवन को महात्मा गांधी के कुछ निकट अवश्य कहा जा सकता है। 

बेहद ईमानदार व्यक्तित्व

स्वर्गीय कर्पूरी ठाकुर कुछ उन चुनिंदा राजनीतिज्ञों में से रहे है, जिन्होंने राजनीति को भी शुद्ध जन सेवा के रूप में लिये व जिये, जिनके लक्षण, दर्शन व कल्पना भी आज दुर्लभ है। अर्थात यह भावना आज ‘‘थोथे बांस कड़ाकड़ बाजें’’ दुर्लभ व लुप्त होती हुई व ‘‘लुप्त प्रजाति’’ में परिवर्तित हो गई है। स्वर्गीय कर्पूरी ठाकुर, डाॅ. राम मनोहर लोहिया के राजनैतिक चेले और लालू, नीतीश, रामविलास पासवान व सुशील मोदी के राजनीतिक गुरू रहे। मधु लिमये जैसे दिग्गजों के साथी रहे। वे अपने कर्मों व जीवन शैली से शुद्ध व कष्टदायक, ईमानदारी के पर्यायवाची हो गये थे।

ध्यानचंद को भारत रत्न कब? 

देश में अनेक ऐसी सफल और श्रेष्ठतम प्रतिभाएं हैं, जो उक्त सर्वोच्च पुरस्कार पाने की अधिकारी (एनटाइटल) होने के बावजूद ‘‘भारत रत्न’’ उन्हें तब तक नहीं मिल सकता है, जब तक राजनीति पर वोट बैंक के रूप में उनका प्रभावी प्रभाव व पकड़ न हो। तेंदुलकर ऐसे ही खिलाड़ी थे, जिनकी प्रतिभा पर कोई प्रश्न चिन्ह नहीं लगाया जा सकता है। परंतु यदि उनका करोड़ो खेल प्रेमी जनता पर प्रभाव न होता तो उन्हें भी भारत रत्न शायद ही मिलता। ध्यानचंद को खेल रत्न दिए जाने की मांग काफी पुरानी है। अतः देश के असंख्य खेल प्रेमियों को केंद्रीय सरकार का ध्यान ध्यानचंद को भारत रत्न दिए जाने पर आकर्षित करना है तो उनको यह जज्बा पैदा कर प्रदर्शित करना होगा, परसेप्शन बनाना होगा कि यदि ध्यानचंद को ‘‘भारत रत्न’’ नहीं दिया गया तो, देश के करोड़ों खेल प्रेमी प्रेमियों का ‘‘ध्यान’’ वर्तमान से हटकर उस ओर केंद्रित करना होगा जो उन्हें आश्वासित करें। क्योंकि लोकतंत्र में तो राजनीतिक पार्टिया मुद्दों की नहीं, वोट बैंक की ही राजनीति को समझती हैं, और उसी से प्रभावित व हडकायी होती है। मतलब साफ है! ध्यानचंद पर ध्यान नहीं तो हमारा वोट पर भी ध्यान नहीं? हाँ! यदि ध्यानचंद किसी आरक्षित वर्ग (अजा.अजजा.पिछड़ा अति पिछड़ा) से होते तो शायद चुनावी वर्ष में उन्हें भी भारत रत्न मिल जाता।

‘‘बेशर्म’’ शब्द ने भी हाथ खड़े कर दिये।’’

देश की राजनीति का सबसे गंदा चरित्र का सबसे ताजा उदाहरण बिहार में विध्वस रूप में देखने को मिल रहा है। इसके लिए देश की अधिकतर पार्टी व नेतागण जिम्मेदार है। जैसा कि राजनीति के लिए कहा भी गया है ‘‘इस हमाम में हम सब नंगे है’’। एक तरफ कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न देकर बिहार को गौरवान्वित किया गया है, तो दूसरी तरफ उसी भारत रत्न की उर्वरा भूमि बिहार में राजनीति का जिस तरह का नंगा नाच अभी चल रहा है, उसके लिए यही कहा जा सकता है कि ‘‘तत्ता कौर न निगलने का न उगलने का’’। ये ‘‘दावत है या अदावत है’’? वैसे बेशर्मी हमेशा नंगी ही होती है या यह कहे नंगा (साधु संतों को छोड़कर) बेशर्म ही होता है। जिस बेशर्मी का नंगा प्रदर्शन हुआ है, शायद उसके लिए अब ‘‘बेशर्म’’ शब्द भी परेशान होकर, बेशर्म होकर यह कहने लग गया कि आज की ‘‘राजनीति की बेशर्मी’’ को पूरी तरह व्यक्त करने का सामर्थ्य अब मेरे पास नहीं रहा है। कृपया अब अन्य कोई मजबूत ‘‘शब्द’’ की खोज कर ले? एक दौर था, जब हरियाणा के भजनलाल ने पूरी की पूरी सरकार का ही दलबदल करा कर इतिहास बनाया था। अब उसके ‘‘मास्टर ऑफ मास्टर’’ ‘‘सुशासन बाबू’’ नीतीश कुमार हो गये है। भ्रष्टाचार के आरोप का प्रभाव तो सिर्फ एक-दो या कुछ व्यक्तियों तक ही सीमित रहता है। परन्तु आर्थिक दृष्टिकोण से ईमानदार नीतीश कुमार की ‘‘बेईमान राजनीति’’ राजनीति को पूरी ही भ्रष्ट कर दे रही है, जो व्यक्तिगत ईमानदारी से ज्यादा घातक, खतरा समाज, देश व राजनीति के लिए है।

नीतीश कुमार ‘‘सिद्धांत’’ पर अडिग!

जो लोग नीतीश कुमार को ‘‘पलटू राम’’ कह रहे है, वे एक तरफा गलत आरोप नीतीश कुमार पर लगा रहे है। देश की पूरी राजनीति ही ‘‘पलटू राम’’ से भरी हुई है। क्या ‘‘राम’’ शब्द से परहेज रखने वाली राजनीतिक पार्टियों में भी पलटू राम के रूप में ‘‘राम’’ मौजूद नहीं है? और अगले ही दिन (30 जनवरी) को ‘‘हे राम’’ की समाधि पर श्रद्धांजलि देने जाने की भी मजबूरी होगी? नीतीश कुमार ने ‘‘सिद्धांत’’ की राजनीति की है। वह सिद्धांत एक मात्र यह रहा कि वे मुख्यमंत्री की कुर्सी पर साधन की पवित्रता को बाजू में रखकर एन केंन प्रकारेण बैठे रहे, जब कि गांधी जी ने साध्य के साथ साधन की सुचिता व पवित्रता पर बहुत जोर दिया था। अतः गलती नीतीश कुमार की नहीं, बल्कि उनका आकलन करने वाले राजनीतिक पंडितों की है, जोे नीतीश कुमार के मूल सिद्धांत ‘‘कुर्सी को जकड़ कर पकड़ने’’ के सिद्धांत को पकड़ नहीं पाए। शायद नीतीश कुमार बचपन व अपनी युवावस्था में ‘‘कुर्सी पकड़ दौड़’’ खेल में हमेशा प्रथम आते रहे होंगे। स्पष्ट है नीतीश कुमार अपने सिद्धांत पर अडिग रहकर 9 वीं बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। यह उनके सिद्धांत के प्रति कट्टरता व जीवटता को दिखाता है? अतः ब्रेकिंग न्यूज नीतीश कुमार का पलटू राम होना नहीं है, बल्कि राजनीतिक पार्टियां का पलटू राम होना है। ठीक उसी प्रकार जैसे मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चैहान चुनाव के पूर्व तक मुख्यमंत्री बना रहना ब्रेकिंग न्यूज थी, हटाना ब्रेकिंग न्यूज नहीं बनती। शपथ लेना व इस्तीफा व फिर शपथ लेना, यह उनकी दिनचर्या बन गई। राजस्थान के तत्कालीन मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का यह कथन याद कीजिए ‘‘मैं तो कुर्सी छोड़ना चाहता हूं, पर कुर्सी मुझे छोड़ नहीं रही है’’। उक्त बात गहलोत स्वयं पर तो लागू नहीं कर पाए। परन्तु शायद उनके मन, दिमाग में नीतीश कुमार का भाव उक्त कुर्सी पकड़ ज्यादा होगा, इसलिए उक्त बात नीतीश कुमार पर पूर्णता सही लागू होती है। मुझे लगता है कि 8वीं बार मुख्यमंत्री पद पर शपथ लेने के बावजूद लोग उन्हें सुशासन बाबु के आगे से सुशासन मुख्यमंत्री के नाम से प्रचलित नहीं कर पाये। तब शायद उनको लगा होगा कि 9वीं बार शपथ ग्रहण करने पर अब तो बाबू (सुशासन) से मुख्यमंत्री (सुशासन) मान ले?

सोमवार, 29 जनवरी 2024

ऐतिहासिक भगवान ‘‘श्री रामलला विग्रह’’ प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम!

 सिर्फ मोदी को ही ‘‘नरेटिव फिक्स’’ करना आता है।

देश के ही नहीं बल्कि विश्व के इतिहास में 22 जनवरी ऐतिहासिक रूप से अमिट रूप से लिख दिया गया है, जो भविष्य में एक नए ‘‘काल चक्र’’ के रूप में राष्ट्रीय दिवस मनाया जाएगा, इसमें किसी को भी संदेह होना नहीं चाहिए। इस अभूतपूर्व सफलता के लिए यदि किसी एक व्यक्ति को ही श्रेय दिया जाना हो तो, निसंदेह, बेशक वे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ही है, जिनकी कार्य योजना को पढ़ना, समझना, समयपूर्व आकलन, महसूस करना एक सामान्य व्यक्ति के लिए ही नहीं, बल्कि विशिष्ट व्यक्तियों के लिए भी एक बमुश्किल कार्य होता है। धरातल पर कार्य योजना उतरने के बाद ही लोग उन योजनाओं से रूबरू होते हैं। प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम में बिना किसी संदेह के इस बात को भी प्रतिष्ठित और सिद्ध कर दिया है कि ‘‘नरेटिव एवं परसेप्शन’’ अर्थात राजनीति की ‘‘दिशा’’, ‘‘दशा’’ और ‘‘धारणा’’ ‘‘अवधारणा’’ तय करने में विपरीत परिस्थितियों में भी नरेन्द्र मोदी का कोई मुकाबला ही नहीं है। कैसे! आइये! आगे इसे देखते- समझते हैं। 

1.‘‘धर्म’ को देश के ‘विकास’ से जोड़ने का यह अब तक का सबसे बड़ा पहला सफल प्रयास है, जो देश की जीडीपी की बढ़ोतरी में महत्वपूर्ण योगदान देगा, ऐसा आकलन आर्थिक पंडितों द्वारा किया जा रहा है। यह तथ्य इस बात से भी सिद्ध होता है कि इस प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम के अवसर पर लगभग सवा लाख करोड़ रू. का व्यापार हुआ। ‘‘जहां सुमति तहँ संपति नाना’’। लगभग तीस हजार (30000) करोड़ से अधिक का निवेश होने की संभावनाएं भी बतलाई जा रही हैं। प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम के पश्चात भगवान श्री रामलला व भव्य व अभिभूत कर देने वाले भगवान श्री राम मंदिर के दर्शन के लिए भारी भरकम रिकार्ड तोड़ भीड़ उमड़ कर आ रही है, विशालतम स्तर पर देश में भंडारे हुए। इन सब बातों से भी उक्त बातें सिद्ध होती दिखती है।

2.अधिकतर निमंत्रित विपक्षी नेताओं के तथाकथित ‘‘कारण सहित’’ न आने पर उन्हें भगवान श्री राम का विरोधी तक सफलतापूर्वक ठहरा दिया गया, जबकि अनेक निमंत्रित केंद्रीय मंत्रियों और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष के ‘‘अकारण’’ (कोई कारण बताये बिना) न आने का कोई संज्ञान मीडिया अथवा विपक्षी पार्टियों द्वारा गंभीर रूप से नहीं लिया गया। अर्थात उन्हें भगवान श्री राम विरोधी नहीं कहा गया, जो एक विपरीत नरेटिव बन सकता था। जबकि 48 घंटे के पूर्व तक अधिकतरों के आने का सुनिश्चित कार्यक्रम था। इस प्रकार इस मुद्दे पर भी मोदी अपने विपक्षों पर भारी पड़ गए और अपना नरेटिव व परसेप्शन बनाने में सफल रहे।

3.22 जनवरी को मंदिर पूर्ण निर्मित न होने के कारण, सही मुहूर्त न होने से भगवान श्री रामलला की प्राण प्रतिष्ठा का गलत ठहराकर प्राण प्रतिष्ठा के अवसर पर महत्वपूर्ण निमंत्रित नेताओं के व्यक्तिगत रूप से उपस्थिति नहीं हुए। उनमें से अधिकतरों ने उसी दिन 22 जनवरी को देश के विभिन्न मंदिरों में जाकर पूजा अर्चना कर अपनी फोटो शेयर की व ट्वीट किया। इस प्रकार ‘‘अनजाने’’ में ही अथवा ‘‘धार्मिक वातावरण के बने दबाव’’ के चलते उन्होंने जनता को यह दिखाना उचित समझा कि उन्होंने भी इस अवसर पर ईश्वर पूजा की है व वे राम भगवान भक्त है। लेकिन ‘‘चना कूदे तो कितना कूदे, ज्यादा से ज्यादा कड़ाही से बाहर’’। नरेन्द्र मोदी की ‘‘नरेटिव फिक्स’’ व परसेप्शन बनाने की इसी कला के चलते अनजाने में ही सही, विपक्षी नेतागण अपने अधैर्य के कारण उसमें फंसते चले गये। ‘‘चबा कर खाते तो हलक़ में नहीं फंसता’’। विपक्षी नेताओं की दुविधा, अनिर्णय व असमंजस की स्थिति होने के कारण मोदी की यह कारगर नीति उक्त नरेटिव फिक्स करने में सफल रही।

4.लगभग 500 से अधिक वर्षों से जो आंदोलन चल रहा था, वह राम जन्मभूमि मंदिर निर्माण का था। वर्ष 1949 में जब पहली बार मूर्तियां रखी गई अथवा प्रकट हुई, तब से वहां पूजा प्रारंभ हुई। इसके पूर्व रामलला का ‘‘विग्रह’’ स्थापित था अथवा नहीं, इसका इतिहास ज्ञात नहीं है। वर्ष 1949 के बाद जब 6 दिसम्बर 1992 को ढांचा तोड़ा गया, तब वहां स्थापित मूर्ति हट गई और तुरंत अयोध्या के राजा के घर से रामलला की मूर्ति लाकर रखी गई, ऐसा 4 गोली खाये अयोध्या निवासी कारसेवक संतोष दुबे ने दावा किया। तब से उसी रामलला की ही पूजा की जाती रही है। लालकृष्ण आडवाणी की रथ यात्रा से प्रारंभ राम जन्मभूमि निर्माण आंदोलन से लेकर भव्य मंदिर निर्माण तक किसी की भी यह मांग कभी भी नहीं रही कि ‘‘नई रामलला का विग्रह’’ स्थापित किया जाकर उसकी प्राण प्रतिष्ठा की जाए। परंतु नई ‘‘रामलला की विग्रह’’ स्थापित कर उनकी प्राण प्रतिष्ठा की गई। आंदोलन जहां रामलला स्थापित थी जो भगवान श्री राम का जन्म स्थल माना जाता है, पर भव्य श्री राम मंदिर निर्माण का था, न कि नई रामलला की विग्रह की स्थापना कर उसकी प्राण प्रतिष्ठा का। इस ‘‘परसेप्शन और नरेशन’’ को जिसे मोदी ने ‘‘स्थापित’’ किया को ‘‘विस्थापित’’ करने में विपक्ष पूर्णतः असफल रहा। इसी को कहते हैं, ‘‘जबरा मारे और रोने भी न दे’’। 

5.भगवान श्री राम की ‘‘काले पत्थर’’ की विग्रह स्थापित की गई, जो कि सामान्यतः दक्षिण में ही काले पत्थर के विग्रह भगवान के रूप में स्थापित होते हैं। जबकि देश में भगवान श्री राम की अधिकतम विग्रह सफेद पत्थर के स्थापित है। स्वयं राम जन्म भूमि तीर्थ क्षेत्र न्यास ने भगवान श्री राम की तीन मूर्तियां बनाने के आदेश दिए थे, जिसमें से दो मूर्तियां सफेद पत्थरों की संगमरमर की बनकर आयी। काले पत्थर का विग्रह चुनने का कोई कारण नहीं बतलाया गया है। इस नए नरेटिव पर तो शायद किसी का भी ध्यान ही नहीं गया।

6.‘‘विध्वंस’’ कार्य हमेशा ‘‘नकारात्मक’’ होता है। इसी कारण से वर्ष 1992 में ‘‘ढांचे’’ के विध्वंस किये जाने के पश्चात चार हिन्दी राज्यों उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश की विधानसभा को भंग कर हुए नये चुनावों में भाजपा हार गई थी (तब मोदी नहीं थे) जिसमें उत्तर प्रदेश भी शामिल था, जहां धार्मिक उन्माद सर्वोपरि होकर ढांचा तोड़ा गया था। जबकि निर्माण हमेशा ‘‘सकारात्मक’’ भाव लिये होता है। शायद इसलिए भगवान श्री राम मंदिर निर्माण से वर्ष 2024 में भाजपा का आकड़ा लोकसभा में आकड़ा 400 पार करने का अनुमान राजनीतिक पंडितों का है। 1992 में मोदी नहीं थे, 2024 में मोदी है। यही नरेटिव है। 

7.जनवरी के महीने में 26 जनवरी व 30 जनवरी के राष्ट्रीय दिवसों के साथ एक और नया राष्ट्रीय दिवस ‘‘काल चक्र’’ 22 जनवरी को भविष्य में मनाने का नरेटिव भी तैयार कर लिया गया है।

8.शिवराज सिंह चौहान और राहुल गांधी दोनों एक ही दिन अर्थात 22 जनवरी को; शिवराज सिंह ओरछा जाते हुए ट्रेन में और राहुल गांधी असम के मंदिर में प्रवेश देने से इनकार करने पर वही सामने बाहर बैठकर गीत गा रहे थे रघुपति राघव राजा राम ! मोदी का यह नरेटिव तो बिल्कुल ही नया व छप्पर फाड़ देने वाला था। ‘‘ढंग से करो तो गैंडे को भी गुदगुदी होती है’’।

9.प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का बिहार की राजनीति का नरेटिव तय करने वाला नवीनतम निर्णय बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री स्वर्गीय कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न देने का निर्णय है। ‘‘मास्टर ऑफ मास्टर’’ नरेन्द्र मोदी के इस मास्टर स्ट्रोक निर्णय ने एक झटके में ही नीतीश कुमार की अति पिछड़े वर्ग व जातीय जनगणना की राजनीति को आगामी 4 महीनों के भीतर होने वाले लोकसभा चुनाव में ‘‘बोथल कर धराशायी’’ कर दिया है।

अंत में ‘‘आस्था और धर्म’’ के सहारे जिस राजनीति को ‘‘साधना’’ शुरू किया गया, उसी ‘‘राजनीति’’ ने आस्था और धर्म को साधना शुरू कर दिया! मोदी है तो मुमकिन हैं, क्या अभी भी कोई शक की गुंजाइश है?

बुधवार, 17 जनवरी 2024

अंतिम छोर में खड़े़ व्यक्ति को भी नग्न आंखों से भगवान श्री राम की प्राण प्रतिष्ठा को देखने का अधिकार होना चाहिये।

 ‘‘पहले आओ पहले पाओ’’ की तर्ज पर ‘‘खुला निमंत्रण’’ होना चाहिये।

आखिर वह क्षण (पल) आ ही गया, जब भगवान श्री राम में आस्था रखने वाले, आराध्य मानने वाले इस सृष्टि के प्रत्येक इंसान (भक्त) का सपना 22 जनवरी 2024 को पूरा होने जा रहा है। देश के अब तक के सबसे शक्तिशाली प्रधानमंत्री (इंदिरा गांधी से भी ज्यादा) नरेन्द्र मोदी के हाथों साधु-संतों की उपस्थिति में जन्म स्थल अयोध्या में ‘‘भगवान श्री राम मंदिर’’ का उद्घाटन और ‘‘प्राण प्रतिष्ठा’’ होने जा रही है। प्रधानमंत्री मोदी की कार्ययोजना की एक विशिष्ट विशेषता यह है कि जिस योजना की आधारशिला रखी जाएगी, उसका उद्घाटन भी वे ही करेंगे। जो अन्य राजनेताओं में कम ही होती है। अर्थात ‘‘समय बद्ध’’ योजना के अंतर्गत ही भगवान श्री राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा हो रही है। ‘‘श्री राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट’’ द्वारा प्रधानमंत्री सहित लगभग 4000 से अधिक संत-महंत, संवैधानिक पदों पर बैठे माननीयों के अलावा देश के विभिन्न अंचलों में, विभिन्न कार्यक्षेत्रों में बैठे काम करने वाले चुनिंदा लोगों लगभग 2500 से अधिक व्यक्तियों, को ही निमंत्रित किया जा रहा है। स्टार, सेलिब्रिटी (हस्तियां) चाहे वे राजनीतिक क्षेत्र की हो, खेल, कला, पत्रकारिता, साहित्यिक, व्यापारिक, उद्योग जगत क्षेत्र की हो आदि या अन्य किसी भी क्षेत्र की हो, उनमें से कुछ प्रमुख लोगों को ही निमंत्रण पत्र भेजा जा रहा है। राष्ट्रपति व उपराष्ट्रपति को निमंत्रण भेजने की उनकी उपस्थिति के संबंध में अभी तक स्थिति अस्पष्ट है। निमंत्रण पत्र भेजने का आधार क्या है? यह भी स्पष्ट नहीं है। 

निश्चित रूप से इस ऐतिहासिक व अभिभूत करने वाले अवसर पर सबसे पहला अधिकार लगभग  500 से ज्यादा वर्षो से जो साधु-संत व्यक्ति, संगठन इस आंदोलन में लगे रहे है, वे उनकी वर्तमान पीढ़ी परिवार और विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल, शिवसेना (हिंदू महासभा जो मुकदमा लड़ रही थी) से लेकर अन्य अनेक संगठन जिनके अनवरत अथक प्रयासों ने यह विराट स्वरूप दिया है, और ‘‘राम लला’’ जन्मभूमि मंदिर के सपने को हकीकत में उतारा जा रहा है, वे सब हजारों नागरिक जिन्होंने रामजन्म मंदिर निर्माण के लिए हुए विभिन्न स्तरों में हुए आंदोलन में भाग लिया, देश के विभिन्न अंचलों में ‘राम’ ईंट एकत्रित की गई और कई कार सेवकों ने अपना बलिदान दिया और कई तरीके से प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से इस निर्माण में योगदान दिया है, वे सब भी निमंत्रण के यथोचित पात्र है। साथ ही मंदिर निर्माण में लगे मजदूर भी निमत्रिंत होने के अधिकारी है। 

निमंत्रण भेजने के आधार के स्पष्ट न होने से एक कौतूहल अवश्य उत्पन्न होता है कि निमंत्रण पत्र को उक्त तरीके से भेजे जाने से क्या ‘‘जाने-अनजाने’’ में समाज में नया वर्ग भेद उत्पत्ति की संभावना तो नहीं हो जायेगी। भगवान तो कण-कण में व्याप्त है व सबकी आस्था के प्रतीक (सिर्फ नास्तिकों को छोड़कर) है। इस प्रकार भगवान सब की पहंुच में है। लेकिन सिर्फ हिंदू ही नहीं, सर्व धर्म-सम भाव का पालन (कुछ अपवादों को छोड़कर) करने वाला देश का प्रत्येक नागरिक, साथ ही दूसरे धर्मो में आस्था रखने वाले देश के नागरिक को भी गौराविंत करने वाले इस महत्वपूर्ण अवसर पर उपस्थित होने की इच्छा अवश्य रहेगी। परन्तु प्रश्न यह है कि पंडित दीनदयाल उपाध्याय के विचारों के अनुरूप अंत्योदय के अंतिम छोर में खड़े हुए व्यक्ति को अपने आराध्य भगवान श्री राम के ‘‘प्राण-प्रतिष्ठा’’ के दुर्लभ शुभ अवसर पर अपनी ‘‘नग्न आंखों’’ से दर्शन करने की पात्रता सिर्फ इसलिए नहीं होगी? क्योंकि उन्हें निमंत्रित नहीं किया गया है। मुझे ख्याल आता है कि एक समय महाकाल मंदिर उज्जैन में भस्म आरती के दर्शन के लिए रात्रि 3 बजे से लाइन में खड़े रहकर दर्शन सुनिश्चित करने का प्रयास करते थे।

होना तो यह चाहिए था कि जिन लोगों ने इस आंदोलन में अपना सब कुछ स्वाहा कर महत्वपूर्ण योगदान दिया, उन सबको तवज्जों देकर देश के शेष समस्त नागरिकों कों खुला निमंत्रण दिया जाता और ‘‘फ़स्ट कम फस्ट सर्व’’ (पहले आओ पहले पाओे) की नीति के आधार पर वहां उन्हें प्रवेश व बैठने की व्यवस्था की जाती। ‘‘दिल में होय करार, तब सूझे त्योहार’’। तब किसी को यह कहने का अवसर उत्पन्न नहीं होता कि एक राम भक्त होने के बावजूद इस अवसर पर उसे सिर्फ इस आधार, उपस्थिति होने का अवसर नहीं मिल पाया, क्योंकि वह अंतिम छोेर पर खड़ा हुआ एक सामान्य नागरिक है। ‘‘दीन सबन को लखत है दीनहिं लखै न कोय’’। न तो वह उद्योगपति, साहित्यकार, पत्रकार, लेखक, कलाकार, खिलाड़ी, सेवाकर्ता, डॉक्टर, इंजीनियर या अन्य कोई शेष किसी क्षेत्र का यशवशी ‘‘स्टार’’ आधार (सेलिब्रिटी) नहीं है। इसलिए वह निमंत्रण पत्र का अधिकारी नहीं। ‘‘श्रीमंतों को दावत तो सर्वहारा से अदावत क्यों‘‘? मैं यह समझता हूं कि इस पर गहनता से विचार करने की आवश्यकता है और देश के प्रत्येक नागरिक का धार्मिक कर्तव्य है, संवैधानिक अधिकार है कि वे अपने ‘‘राम लला’’ को स्वयं की आंखों से साक्षात् दीदार कर साष्टांग दंडवत प्रणाम कर आशीर्वाद लेने का अधिकार हो। कितना संभव हो पायेगा यह उनके प्रयास पर छोड़ देना चाहिए। भगवान के कार्यक्रम का निमंत्रण व्यक्तिगत कैसे हो सकता है, जैसे कि आमंत्रण पत्र के नियम में उल्लेखित है, यह भी समझ से परे है।

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