शनिवार, 3 दिसंबर 2016

महत्वपूर्ण निर्णय! लेकिन अव्यवस्था के घेरे में!

     भारतीय जनता पार्टी ने पिछले लोकसभा चुनाव के समय कालाधन को समाप्त करने व उसको वापस लाने का चुनावी वादा किया था। नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा की सरकार ने सता सीन होने के बाद अभी तक कालेधन की समाप्ति की दिशा में लगातर कई कदम उठाये हैैं। इसी कड़ी में 1000 व 500 की मुद्रा का विमुद्रीकरण का निर्णय एक महत्वपूर्ण कदम कहा जा सकता हैं। इसके पूर्व बेनामी ट्रान्जेक्शन अधिनियम में संशोधन करके बेनामी सम्पत्ति, पर रोक लगाई गई। कालेधन अघोषित विदेशी आय व सम्पत्ति एक्ट 1 जुलाई 2015 से 30.सितम्बर 2015 के बीच जारी हुई जिसमें 4164 करोड़ कालाधन बाहर आया व 2425 करोड़ रू टैक्स वसूला गया। ‘‘आई.डी.एस’’ 1 जून 2016 से 30 सितम्बर 2016 के बीच जारी की गई जिसके अंतर्गत लगभग 65 हजार दो सौ पचास करोड़ की कालेधन की राशी घोषित की गई, जिस पर टैक्स के रूप में सरकार ने रू 30000 करोड़ वसूली की। विमुद्रीकरण के बाद लगभग 21 दिन व्यतीत होने के बावजूद आम जनता और छोटे व्यापारी का व्यवसाय अभी तक सामान्य हो पाया हैं, ऐसा नहीं कहा जा सकता हैं। आगे कितना समय और लगेगा यह भी निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता हैं। मुझे लगता है कि विमुद्रीकरण से उत्पन्न स्थिति से निपटने के लिये जिस तरह की तैयारी और आकडा़ेे की गणना/संगणना का आकलन सरकार को करना चाहिए था उसमें सरकारी ‘तंत्र’ बुरी तरह असफल सिद्ध हुआ हैं। प्रथम बार वर्ष 1978 में जब रू.10000 व 5000 की मुद्रा का विमुद्रीकरण किया गया था तब वह कुल प्रचलित मुद्रा का मात्र 5 प्रतिशत से भी कम था। इसलिये आम आदमी को उस समय कोई परेशानी नहीं उठानी पड़ी। क्योकि उक्त विमुद्रीकरण मुद्रा तत्समय उसकी पहुंच सीमा व चलन के बाहर थी। इसके विपरीत हाल में विमुिद्रत दो मुद्राएॅं (500 व 1000 के नोट) का सम्मिलित हिस्सा सम्पूर्ण प्रचलित मुद्रा का 85 प्रतिशत से अधिक हैं। इसलिये आम आदमी को परेशानी झेलनी पड़ रही हैं। भारतीय रिर्जव बैंक विमुिद्रत मुद्रा का 15 प्रतिशत से अधिक भाग भी नये नोटो के रूप में बाजार में नहीं ला पाये, जो परेशानी का मुख्य कारण बन रहा हैं। अभी तक एक अनुमान के अनुसार पन्द्रह लाख करोड़ विमुद्रिकरण मुद्रा के विरूद्ध अभी तक मात्र 1.75 लाख करोड़ नई मुद्रा ही जारी हो पाई हैं। सरकार के पास कालेधन को सफलतापूर्वक बाहर निकालने के तीन विकल्प थे। एक सरकार10000 के नये नोट (डिमोनीेशन) का प्रचलन करती और 6 माह या साल भर के बाद उसका विमुद्रीकरण कर देती। इस तरह निश्चित रूप से कालाधन संग्रह करने वाले सक्षम वर्ग 10000 के नये नोटों में अपने काले धन को संग्रहित करते व इसके लिये अपने 500 व 1000 के नोटो को 10000 के नोटो में बदल लेते और तब पुनः विमुद्रीकरण के बाद एक दम से कालाधन बाहर आ जाता और आम जनता को परेशानी भी नहीं होती। आज 500 के नोट आम जनता की पहंुच से बाहर नहीं हैं इसलिये दूसरा विकल्प यह था कि 500 व 1000 के नोटो की नई सीरिज को छपवाकर भरपूर संग्रह किया जाता और उन्हें बैंको के माध्यम से बाजार में उपलब्ध कराते। त्पश्चात् पूरी पुरानी सीरिज वाले 500 के नोटो का विमुद्रीकरण करते तो पूरे देश में एक लाख से अधिक एटीएम कार्यरत रहते जिससे परेशानी कम होती। तीसरा विकल्प सरकार 50 व 100 के नोटों की आपूर्ति बढाकर भी बैंको के माध्यम से जनता के बीच चलन करने का प्रयास करती तो भी आम जनता की परेशानी कम होती।
तु डाल-डाल मैं पात-पात की तर्ज पर सरकार जब भी नये नये उपाय अपनाकर कालेधन पर नियत्रंण कर जनता की परेशानीयों को झेलने वाले आम गरीब वर्ग को कोई सुविधा प्रदान करती हैं तो दूसरा धनाढय वर्ग इन परेशानी झेलने वाले वर्ग का दुरूपयोग अपने हित में मोड़ कर शासन की सुधारवादी मंशा व कार्यवाही को चूना लगा देता हैं। इससे सरकार भी कई बार हिचक जाती हैं व अपना विकास वादी कदम पीछे लेने को बाध्य हो जाती हैं। एक उदाहरण ले। शादी के लिये 2.50 लाख (ढाई लाख) बैंक से एकमुश्त निकालने पर 9 सूत्रीय गाइड़ लाईन (संशोधन संहित) भारतीय रिर्जव बैंक द्वारा जारी की गई परिपत्र के कारण पैसा निकालने में समस्याओं का सामना करना पड़ रहा हैं। इसके लिये यदि मात्र एक शर्त लगायी जाती कि जिस व्यक्ति के घर में शादी हैं वह शादी के कार्ड़ के साथ एक शपथ पत्र भी देता कि शादी के पंजीयन को कलेक्टर द्वारा जारी शादी के पंजीयन का प्रमाण पत्र चार या छः महीने के भीतर प्रस्तुत करेगा। ऐसा नहीं करने पर या झूटे शपथ पत्र देने के आरोप में उस पर अभियोजन की धारा 199 भारतीय दंड़ संहिता के अंतर्गत अभियोजन चलाया जा सकेगा, तो कोई भी व्यक्ति शादी के लिये एकमुश्त पैसा निकालने के लिये दी गई छूट का दुरूपयोग करने की हिम्मत नहीं करता और साथ ही आम व्यक्ति को भी कोई पेरशानी नहीं होती। .   

बुधवार, 23 नवंबर 2016

हंगामा हो गया...............हा..हा..हा..!

‘‘हंगामा हो गया’’ बॉलिवुड फिल्म ‘‘क्वीन’’ का एक प्रसिद्ध गाना है, जो आज विमु्द्रीकरण से उत्पन्न परिस्थिति को देखते हुए एकदम होठो पर आ जाता है। ‘‘हंगामा’’ सिर्फ दर्शकदीर्घा में ही नहीं है, बल्कि जो ’’फिल्म’’ दिखा रहे हैं उनके ‘‘बीच’’ भी है। हंगामा देश के हर क्षेत्र में ही नहीं अपितु नागरिक जीवन के हर क्षेत्र में भी मचा हुआ है। इस अचानक उत्पन्न हुए हंगामें को भड़काने की कोई बात नहीं कह रहा है, सब उसको समयरूपी पानी डालकर ठंडा करने का प्रयास कर रहे है। लेकिन ‘‘हंगामा’’ है कि, ठंडा होने का नाम ही नहीं ले रहा है।
आठ नवम्बर को अचानक पूरे देश में केंद्रीय सरकार के वित्त विभाग की अधिसूचना क्रं. 3407 ई द्वारा रू. 500 और 1000 के नोट का विमुद्रीकरण (डिमोनीटाईजेशन) कर दिया गया। अचानक  हुई इस कार्यवाही से देश में चारो तरफ उत्पन्न हंगामें से हाहाकार मच गया। यह पहला मौका नहीं है जब देश में प्रचलित कुछ मुद्रा का विमुद्रीकरण (डिमानीटाईजेश्न) किया गया हो। इसके पूर्व भी वर्ष 1978 में मोरारजी भाई ने 5000 और 10000 के नोटों का डिमोनीटाईजेशन किया था। यदि उस समय के 10000 की कीमत आज मापी जाये तो मूल्य सूचकांक के अनुसार वह इस समय 10 गुना से कम नहीं होगी। इस प्रकार इतने हाई डिनामिनेशन के नोट के बंद होने पर भी ऐसा हंगामा नहीं बरपा था जो आज बरप रहा है। परिस्थितियों में मात्र अंतर इतना हैं कि उस समय मुद्रा (करेंसी) को तुरंत बंद नहीं किया गया था। तब कुछ महीनो का समय दिया जाकर एक निश्चित भावी तारीख से मुद्रा को चलने से बंद किया गया था। जबकि आज इसे तुरंत (इंस्टेंट) मात्र 4 घंटे का समय देकर रात्री 12 बजे से बंद कर दिया गया। आज हर चीज व्यक्ति इंस्टेंट (तुरंत़) चाहता है। फिर चाहे वह इंस्टेंट कॉफी हो या इंस्टेंट कॉफी का भुगतान करने के लिए ‘कार्ड’ के द्वारा इंस्टेंट भुगतान। एक और महत्वपूर्ण अंतर वर्ष 1978 और आज की गई कार्यवाही में हैं, वह यह है कि उस समय 5 और 10 हजार रूपये के नोट के बदले कोई नये अंक के नोट की श्रृंखला (सिरीज) जारी नहीं की गई थी और न ही प्रचलित नोटों की श्रंृखला बंद कर कोई नई सिरीज जारी की गई थी। आज न केवल रू 2000 के नये अंक के नोट की श्रृंखला जारी की गई, बल्कि बंद किये गये 500 के नोट की भी नई सीरीज जारी की गई। 2000 के नोट जारी करने हेतु भारतीय रिजर्व बैंक ने 3 कारणों में से जो एक प्रमुख कारण बतलाया हैं वह उच्च मूल्य के बैंक नोटो का उपयोग गणना में न लिए गये धन के भंडारण के लिए होना है। इसका मतलब उसका उपयोग काला धन (ब्लेक मनी) केे संधारण के लिये होता हैं। तब एक साथ ही (सायमलटेनीईसली) पांच सौ के नोट बंद कर दो हजार के मूल्य के नोट जारी करने का औचित्य क्या रह जाता है। यह न केवल समझ से परे है बल्कि यह उक्त नोटो को बंद किये जाने के उद्धेश्यों को ही निष्फल कर देता है। यदि बात जाली नोटों के कारण की है तब भी सरकार पॉच सौ और हजार के नये श्रृंखला (सीरीज) के नोटो को छापकर उन्हे चलन में लाकर पुराने सीरिज को बंद कर सकती थी जिससे इस तरह का हंगामा तो खड़ा नहीं होता! और सरकार का उद्वेश्य भी पूरा हो जाता। 
अब सरकार के इस महत्वपूर्ण उद्वेश्य को देश के हम नागरिक ही पलिता लगा रहे है, नये-नये रास्ते खोजे जा रहे है। सरकार को चूना लगाकर कालेधन को सफेद धन में बदल सकने के प्रयास यथा संभव किये जा रहे है। कोई कोई तो लम्बी दूरी के लिए रेलवे टिकिट की बुकिंग करा रहा हैं। (यदि सम्भव होता तो अन्टार्कटिका महाद्वीप की टिकिट भी बुक करा लेते।) रोजगार के नये अवसर खुल गये है। रूपये बदलवाने की लाईन में लगने हेतु 500 रूपये दिहाड़ी पर नये रोजगार का तबका पैदा हो रहा है। जिनने सोने-चॉदी के जेवर कभी नहीं पहने थे वे भी घर में संदूक में रखने के लिए रातभर सर्राफा बाजार में आकर भीड़ बढ़ा कर रास्ता जाम कर रहे है। इस कार्यवाही से सरकार सरकारी और गैर सरकारी व्यक्तिगत उधारी लेने वालो पर इतनी मेहरबान लगती है कि बगैर सरकार के नोटिस दिये और बिना पक्षकार के बुलावे ऋणि व्यक्ति फोन करके ऋण चुकाने की गुहार कर रहा है। उधार देने वाला मजे में है क्योंकि उसकी वसूली हो रही है और देने वाला भी क्योंकि उसके पास से जा रहे जो मात्र कागज के टुकड़े रह गये हैं का कुछ मोल बन पा रहा है।
लेकिन इन सब से जनता के मन में भ्रष्टाचार या भ्रष्टाचारियों के प्रति कोई घृणा का भाव आया हो ऐसा नहीं लगता। हाल ही में हमारे ही प्रदेश में व्यापम के नाम से बदनाम संस्था के कर्मचारी नये कलफ लगे हुए कड़क दो हजार के नोट से रिश्वत लेते हुए पकड़े गये। यदि कालाबाजारी, भ्रष्टाचार, कालाधन समाप्त करना है तो इन सब कार्यवाहियों में संलिप्त नागरिको को कड़क नैतिकता का मूल पाठ पढ़ाने के लिये क्लास में लगातार बैठाये जाने की आवश्यकता है। लेकिन प्रश्न फिर यही पैदा होता है कि इन नैतिक गुणों को पढ़ाने वाले इतने नैतिक शिक्षक कहॉं से लायेंगे? पुराना जमाना था जब सौ-सौ विद्यार्थियों पर एक-एक शिक्षक हुआ करता था। आज के वर्तमान युग में गुणात्मक शिक्षा के लिए हर 25-30 बच्चे पर एक शिक्षक होता है। यदि पुराने अनुपात को ही ले लंे तो भी क्या हमारे पास उतने शिक्षार्थी नैतिक मूल्य पढा सकने योग्य है? प्रश्न के उत्तर की आवश्यकता नहीं हैं क्यांेकि कई बार प्रश्न में ही उत्तर रहता है इसीलिए उसे प्रश्नोत्तर भी कहा जाता है।
यदि हम यह तथ्य स्वीकार करते है कि हमारे देश में नैतिकता की कमी है जो वास्तविकत्ता भी हैं तो फिर एक और रास्ता काले धन को बैंक में लाने का हैं। वो यह है कि केन्द्रीय सरकार अघोषित सम्पत्ति को घोषित करने का एक और मौका देे और व्यक्ति को बैंक में असीमित राशी जमा करने की स्वीकृति/अनुमति देवे तथा उस असीमित राशी पर अधिकतम 30 से 50 प्रतिशत की दर से जो भी सरकार तय करे और उस जमा राशी पर आयकर लेकर उसके द्वारा जमा की गई राशी को नियमित मानकर उसके स्रोत बाबत् जमा करने वाले व्यक्ति से किसी भी प्रकार की कोई पूछताछ नहीं करे। इससे निश्चित ही सभी प्रकार का कालाधन सरकार की नजर में आ जायेगा तथा वह बैक के माध्यम से टैक्स समायोजित कर लेने के उपरान्त देकर सफेद धन बनकर चलन में आ सकेगा और इस तरह इसके कारण होने वाले हंगामा से भी निजात मिल सकेगी।
 अंत में इस हंगामा के बीच एक और भी महत्वपूर्ण बात संज्ञान में आई कि उक्त कार्यवाही के बाद लगभग विगत 10 दिवस में न केवल पड़ोसी देश द्वारा की जाने वाली सीमा के उल्लघंन और आतंकवादी घटनाओं व नक्सलवादी घटनाओं में बहुत तेजी से कमी आयी हैं, बल्कि देश के  भीतर भी अपराध की घटनाओं में कमी अंकित की गई हैं जैसा कि गृहमंत्री ने स्वयं स्वीकार किया हैं।

मंगलवार, 8 नवंबर 2016

‘‘मानवाधिकार क्या मात्र ‘‘अपराधियों’’ का ही है! ‘‘आम नागरिकों’’ का नहीं ?

भोपाल जेल से 8 दुर्दान्त आतंकवादी विचाराधीन (अंडर ट्रायल) अपराधियों के भागने पर मुठभेड़ (एनकांउटर) में समस्त आतंकवादी मारे गये-कैसे व क्यों मारे गये, उस पर विवाद व राजनीति हो सकती है, बल्कि यह कहा जाए कि उस पर जमकर घोर विवाद व राजनीति हो रही हैं तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। प्रश्न यह नहीं हैं कि उक्त घटना कितनी सत्य अथवा वास्तविक हैं, या अर्द्धसत्य हैं, बल्कि प्रश्न यह हैं कि क्या मानवाधिकार आयोग के अधिकार क्षेत्र में मात्र अपराधियों के मानवाधिकार ही आते हैं। प्रश्न यह इसलिये भी उत्पन्न हुआ हैं क्योंकि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने उक्त घटना का स्वतः संज्ञान लेकर नोटिस जारी किये हैं। 
प्रश्न यह हैं कि एक सामान्य नागरिक, पुलिस/अर्द्ध सैनिक बल या सैनिक बल, के जंाबाज सैनिक, जब किन्हीं अपराधियों या आतंकवादियों के द्वारा मारे जाते हैं, तब उसके/उनके मानवाधिकार के स्वतः संज्ञान की आवश्यकता की याद मानवाधिकार आयोग को क्यों नहीं आती हैं? प्रश्न यह हैं कि क्या मानवाधिकार आयोग का कार्य क्षेत्र सिर्फ पुलिस कस्टड़ी वाले आतंकवादी के पुलिस मुठभेड़ों में मरने वाले आतंकवादियों तक ही सीमित हैं? प्रश्न यह भी उत्पन्न होता हैं कि क्या आतंकवादी घटनाओं में शहीद हुये अन्य नागरिकों का (कोई भी) मानवाधिकार नहीं होता हैं? क्या देश की सुरक्षा को परे रखकर केवल आतंकवादियों और अपराधियों के मानवाधिकार की ही सुरक्षा की चिंता करते रह जाना चाहिए? क्या ऐसा करने से असामाजिक तत्वों को अवांछित प्रश्रय और पनपने का अवसर नहीं मिलेगा जिससे केवल अव्यवस्थता और आराजकता ही बढेगी। भोपाल जेल से भागे समस्त अपराधी ‘सिमी’ संगठन के सदस्य थे जिसे ‘‘गैर कानूनी संगठन’’ न केवल राज्य सरकार द्वारा घोषित किया गया हैं, बल्कि माननीय उच्चतम न्यायालय ने भी राज्य सरकार के उक्त आदेश को अंतिम रूप से सही ठहराया हैं। उक्त 8 आतंकवादियों पर देशद्रोह के गंभीर आरोप हैं जिनमें से चार आतंकवादी पूर्व में भी खंडवा जेल से भाग चुके थे ऐसे (गैर कानूनी संगठन के) दुर्दान्त आतंकवादी, विचाराधीन अपराधियों की मुठभेड़ में हुई मृत्यु पर मानवाधिकार आयोग द्वारा नोटिस जारी करने से समस्त सामान्य शंातिप्रिय देशभक्त नागरिको के मन में एक कौतूहल अवश्य पैदा हुआ हैं कि क्या मानवाधिकार देश की एकता सुरक्षा व अस्मिता से भी बड़ा हैं।  
सिमी के मुठभेड़ में मारे गये आंतकी निश्चित रूप से विचाराधीन अपराधी थे, सजायाफ्ता नहीं थे। लेकिन यदि उनके अपराधों का सम्पूर्ण इतिहास पढ़ा जाये तो ‘‘निश्चित रूप से वे दुर्दान्त अपराधी कई-कई बार अपराध करने वाले अभियुक्त हैं,‘‘यह निष्कर्ष निकालना कतई गलत नहीं होगा। इसीलिए माननीय न्यायालयों ने भी उनके जमानत आवेदनों को गुण दोष के आधार पर समय - समय पर अस्वीकार किया हैं। क्योंकि उन प्रकरणों में अपराधियों के विरूद्ध पर्याप्त साक्ष्य थे। अन्यथा ‘‘जमानत एक नियम हैं व ‘‘अस्वीकार करना’’ एक अपवाद हैं,’’ के न्यायिक सिद्धान्त के आधार पर अभी तक सभी जमानत नहीं पा जाते? लेकिन मानवाधिकार को केवल अपराधियों व आतंकियों तक ही सीमित कर देना क्यांेकि उनकी मृत्यु मुठभेड़ में हुई हैं, यह कदापि उचित नहीं होगा। चूंकि एक व्यक्ति का मानवाधिकार दूसरे व्यक्ति की स्वतंत्रता व सुरक्षा के अधिकार को अतिक्रमित नहीं कर सकता हैं। पुनः एक व्यक्ति का मानवाधिकार तभी तक वैध, उचित व मान्य हैं जब तक वह दूसरे व्यक्ति के मानवाधिकार को चोट नहीं पहंुचाता हैं। 
इस घटना पर पूरे देश में हुई क्रिया-प्रतिक्रया से एक दूसरा महत्वपूर्ण प्रश्न यह भी उत्पन्न हुआ हैं कि क्या देश की राजनैतिक दिशा व पहचान यही हैं। आतंकवादियों के मानव जाति के रूप में गिनने के बजाय केवल जाति मानव (मुसलमान) के रूप में गिनने की चेष्टा करने का ‘‘मौलाना दिग्विजय सिंह’’ का प्रयास न केवल समरसता व सहिष्णुता के सिद्धान्त के बिलकुल विपरीत हैं बल्कि वह कहीं न कहीं देश की समभाव व सांप्रदायिक एकता की भावना में रूकावट के रूप में खड़ा हो रहा हैं। दिग्विजय सिंह से यह क्यों नहीं पूछा जाना चाहिए कि यदि मारे गये समस्त आतंकवादी मुसलमान थे, जिसकी ओर वे इशारा कर रहे हैं, तो इस तरह कहीं अनजाने में वे इस ओर तो इशारा नहीं कर रहे हैं, कि समस्त मुसलमान आतंकवादी होते हैं! अन्यथा इन आठ व्यक्तियों के खिलाफ अपराधों की विभिन्न धाराओं में जब मुकदमें दर्ज हुये थे, तत्समय तत्काल उनका ऐसा बयान क्यों नहीं आया? वास्तव में वे समस्त अपराधी हैं और उनके खिलाफ देश द्रोह के आरोप हैं। अभियुक्त की एक ही जात होती हैं अपराधी। दिग्विजय सिंह से यह भी पूछा जाना चाहिये कि पाकिस्तान एक मुस्लिम राष्ट्र हैंे जो न केवल आंतकवाद को जन्म दे रहा हैं बल्कि पनाह भी दे रहा हैं, जिसको खुद उनकी यूपीए की सरकार ने समय-समय पर स्वीकार किया था, जो तथ्य रिकार्ड़ पर भी उपलब्ध हैं, तो फिर तब उन्होंने मुस्लिम आतंकवाद पर ऊंगली क्यों नहीं उठाई।  
जब किसी नागरिक की किसी भी घटना में मृत्यु होती हैं, या पुलिस कस्टडी में मृत्यु होती हैं तब यह कहा जाता है कि उसके अधिकारों की रक्षा के लिये भारतीय दंड़ संहिता व दंड़ प्रक्रिया सहिंता के पर्याप्त प्रावधान अपराधियों को सजा दिलाने के लिए भारतीय संविधान में हैं, जो एक न्यायिक प्रक्रिया हैं। तदनुसार तब उसके मानवाधिकार की बात ही नहीं की जाती और उसका वह मानवाधिकार गौंण हो जाता हैं व भारतीय संविधान द्वारा प्रदत्त कानून ऊपर हो जाता हैं। लेकिन जैसे ही कोई आतंकवादी या अपराधी पुलिस की कार्यवाही में मारा जाता है तब उसका मानवाधिकार  भारतीय कानून से कैसे ऊपर माना जाने लगता है। देश में कानून की सबसे बड़ी यही विड़म्बना हैं। 
देश का दुर्भाग्य ही है कि वह ‘‘मुस्लिम कट्टरवाद’’ और ‘‘मानवाधिकार’’ के बीच झूल रहा हैं। उससे आगे जाकर देश की अस्मिता, सुरक्षा व सम्मान का प्रश्न गौण होते जा रहा हैं। इस बात को देश के नागरिक नहीं  समझ पा रहे हैं जो उन्हें समझने की जरूरत हैं। इसीलिए ‘‘जन बल आगे आकर अविलम्ब दिग्विजय सिंह जैसे व्यक्तियों के मॅंुंह को बंद करे’’ यही देश हित में होगा।

बुधवार, 12 अक्तूबर 2016

‘‘सर्जिकल स्ट्राइक’’ से क्या ‘‘समस्या’’ ‘‘हल’’ हो जायेगी?

    1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के पश्चात् शायद यह पहला अवसर हैं जब देश का राजनैतिक नेतृत्व ने न केवल दृढ़ इच्छा शक्ति प्रदर्शित करते हुये सेना को सर्जिकल स्ट्राइक की अनुमति प्रदान की बल्कि वह सेना के पीछे पूरी ताकत के साथ खडा हुआ भी हैं। शायद इसीलिए 56 इंच सीने वाले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व की न केवल देश में सर्वत्र भूरि-भूरि प्रशंसा की जा रही हैं बल्कि अंतर्राष्ट्रीय मंच पर भी उनके इस कदम को अवाक व बेबाक मूक सहमति मिल रही हैं। युद्ध व सर्जिकल आपरेशन में अंतर होता हैं। इसीलिए ‘‘कारगिल’’ को तत्त्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा सेना को दिया गया समर्थन ‘‘सर्जिकल आपरेशन’’ न माना जाकर ‘छोटा युद्ध’ माना गया। इसीलिये उक्त सर्जिकल आपरेशन को वर्ष 71 के बाद की प्रथम कार्यवाही कहा गया है। ‘यूपीए’ के कुछ नेतागण एंव पूर्व रक्षा मंत्री शरद पंवार यह दावा कर रहे हैं कि यूपीए सरकार ने इससे पहिले भी चार बार सर्जिकल आपरेशन किये थे, जिसका उनके द्वारा ढिंडोरा नहीं पीटा गया हैं। यदि यह बात सत्य हैं जैसा कि एक समाचार पत्र ‘‘द् हिन्दु’’ ने 2011 में सर्जिकल स्ट्राइक की बात को तथ्यों के प्रमाण के साथ छापा हैं तो यूपीए सरकार भी और ज्यादा बधाई की पात्र हैं क्योंकि उसने तुलनात्मक रूप में मौन रहकर उक्त कार्य को अंजाम दिया था। यद्यपि इस बात पर भी ध्यान देने की आवश्यकता हैं कि सरकार ने सेना के माध्यम से बाकायदा पत्रकार वार्ता कर उक्त सर्जिकल स्ट्राइक की जानकारी दुनिया को दी जिसका एक खास मकसद पाकिस्तान शासको पर मानसिक दबाव ड़ालने के साथ-साथ विश्व जनमत को उक्त कार्यवाही के पक्ष में अनुमोदन करवाना भी एक पक्ष हो सकता हैं।  
जब से सर्जिकल स्ट्राइक हुआ हैं, इस देश में मीड़िया खासकर इलेक्ट्रानिक मीड़िया द्वारा राजनेताओं के बीच चलाई जा रही घातक बहस न केवल चिंतनीय हैं, बल्कि निंदनीय व दंड़नीय भी हैं। ‘‘सर्जिकल स्ट्राइक’’ को प्रत्येक भारतीय ने अंतर्मन से सराहा हैं। सेना को पूर्ण होश हवास में आंख मंूद कर, खुलकर समर्थन दिया हैं। लेकिन राजनीति के चलते विपक्ष द्वारा सेना का प्रांरभिक समर्थन करने के साथ-साथ एक ही संॉस में (दुर्भाग्वश देश का दुर्भाग्य ही यही हैं) कुछ इस तरह के बयान व प्रतिक्रियॉये दी गई जिससे यह आभास/प्रतीत होने लगा हैं कि वे देश के राजनैतिक नेतृत्व के साथ -साथ सर्जिकल स्ट्राइक पर भी प्रश्नवाचक चिन्ह लगा रहे हैं। वस्तुतः  विपक्ष ने शायद तुच्छ राजनीतिक भावना के तहत प्रतिक्रिया देते समय अनजाने में नहीं लेकिन अनचाहे कुछ इस तरह कि प्रतिक्रिया दे दी जिससे हमारे दुश्मन देश पाकिस्तान को हमारी राजनीति पर हमला करने का सुअवसर प्राप्त हो गया। उक्त मुद्दे पर मीड़िया ने स्वयं आगे आकर विभिन्न दलो व नेताओं की प्रतिक्रिया लेकर (लगभग 99 प्रतिशत) उसे पूरे विश्व में  प्रसारित किया गया। नगण्य लोगो ने ही स्वतः आगे आकर ट्विटर इत्यादि माध्यम से प्रतिक्रिया दी लेकिन स्वयं मीड़िया द्वारा उक्त आलोचनात्मक प्रतिक्रिया देने वालों कीे देश भक्ति पर ही प्रश्न चिन्ह लगाये जाने का प्रयास किया गया। क्या इस तरह की प्रतिक्रिया का प्रसारण कर उन्हें एक प्लेटफार्म देकर मीड़िया स्वयं की देशभक्ति पर भी प्रश्न वाचक चिन्ह नहीं लगवा रहे हैं? इस पर न केवल विचार करने की आवश्यकता हैं बल्कि इस पर अवश्य विचार करना चाहिए यदि मीड़िया अपने प्रोग्रामों में ऐंकर के माध्यम से इस तरह के वाद-विवाद बहस नहीं कराते तो इस तरह की फजीहत की नौबत तो नहीं होती। अतः क्या अब यह समय नहीं आ गया हैं कि जब देश दुश्मन देश द्वारा पोषित आंतकवादियों गतिविधियों से लड़ रहा हो, देश की सीमा पर लगातार सीज-फायर भंग किये जा रहे हैं, सर्जिकल आपरेशन हो रहे हो, युद्ध जैसी स्थिति उत्पन्न होने लगी हो तब क्या मीड़िया खासकर इलेक्ट्रानिक मीड़िया पर प्रभावशाली नियत्रंण रखने की आवश्यकता नहीं है? क्योंकि हम मीड़िया हाउस से आत्मानुशासन की उम्मीद तो खो चुके हैं (कुछ एकाध मीड़िया हाउस को छोड़कर)
इस एक सर्जिकल स्ट्राइक से यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होता है कि क्या यही प्रमाण पत्र एक साधन हैं, जिससे कश्मीर का मामला, पीओके का मामला या अंर्तराष्ट्रीय सीमा पर पाकिस्तान द्वारा लगातार किये जा रहे उल्लघंनांे के मामले या आंतकवादी घटनाओं के मामले सुलझ सकते है?ं यहां पर सर्जिकल आपरेशन और पूर्ण आपरेशन में अंतर क्या हैं यह समझ लेना भी जरूरी हैं। पूर्ण आपरेशन अर्थात् युद्ध। क्या पाकिस्तान के पापी शरीर का मात्र कुछ अंग ही खराब हैं जिनका सर्जिकल स्ट्राइक कर हमारी उपरोक्त उल्लेखित समस्त समस्याएॅं सुलझ जायेगी? उत्तर 100 प्रतिशत नहीं में हैं। इसका पूरा आपरेशन किया जाना नितांत आवश्यक हैं। तब हम स्वयं ही एक ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ का ढिंडोरा क्यों पीट रहे हैं, क्यो नहीं सुदृढ़ दीर्घायु नीति बनाकर समग्र आपरेशन की पूर्ण तैयारी करके समय बद्ध अवधि में पूर्ण आपरेशन सम्पन्न क्यों नहीं करते हैं? क्या अब पूर्ण आपरेशन का समय नहीं आ गया है? क्या हमारे देश के नेतृत्व को इस तरह की समस्या के निराकरण के लिये अमेरिका, जर्मनी, इजराईल, इंग्लैड़, रूस इत्यादि देशों द्वारा की गई कार्यवाही से दिशा-दर्शन नहीं मिलता हैं जिन्होंने अपने स्वाभिमान के खातिर तत्कालीन परिस्थिति के अनुसार ऐसी समस्याओं को सुलझाने के लिये संयुक्त राष्ट्र संघ की अनुमति लिये बगैर व परवाह किये बिना परिस्थितियों का यथार्थ अंाकलन कर दुश्मन देशों में जाकर विभिन्न तरीकों के गुरिूल्लावार, सर्जिकल आपरेशन व आवश्यकतानुसार युद्ध कर समस्या को सुलझाया। हम एक तरफ तो पूर्ण कश्मीर हमारा हैं जिसमें पीओके भी शामिल हैं के लिये संसद में सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित करते हैं, इस प्रस्ताव के क्रियांन्वयन के लिये विगत 78 सालों में हमारे द्वारा कोई भी सार्थक, प्रभावी कदम नहीं उठाया गया? यदि एक सर्जिकल स्ट्राइक सिद्ध रामबाण माना जा रहा हैं तत्पश्चात् तब भी पाकिस्तान के द्वारा सीमाओं का लगातार उल्लंघन क्यों हो रहा हैं जिसमें हमारे सैनिक शहीद होते जा रहे है। यदि एक सर्जिकल स्ट्राइक से रोग का इलाज नहीं हो पा रहा हैं तो कई सर्जिकल आपरेशन लगातार करके आवश्यकतानुसार एक पूर्ण आपरेशन अर्थात् ‘‘आक्रमण’’ करके समस्या का अंतिम समाधान क्यों नहीं निकाला जाता हैं? हम क्यों शत्रु देश के आक्रमण रूपी आंतकवादी कार्यवाहीयों का इंतजार कर मात्र उसे विफल करने की सीमा तक ही प्रत्याक्रमण करके उसे नेस्ता नाबूद करते रहेगे। कुछ प्रगतिशील कहे जाने वाले लेखक, नेता, साहित्यकार जो अपने को शंाति का देव-दूत मानते हैं, वे यह कह सकते हैं कि यह अव्यावहारिक हैं, तो फिर यह राग अलापना छोड़ दे कि पूर्ण कश्मीर हमारा हैं व हम उसे साहित्यकारांे की विभिन्न किताबों में लेखनी मात्र इतिहास की किताबों के पन्नों में नजर आयेगी, धरातल पर नहीं!  
देश के नागरिकों, समस्त राजनैतिक पार्टियों व नेताओं को याद होगा कि जब वर्ष 1971 यु़द्ध के फलस्वरूप बंग्लादेश के रूप में एक नये राष्ट्र का जन्म हुआ था तब पक्ष-विपक्ष प्रत्येक नागरिक ने चाहे वह किसी भी विचार धारा का ही क्यों न हो, सब ने एक साथ मिलकर एकजुट होकर तत्कालीन नेतृत्व का बिना शर्त समर्थन किया था। तत्कालीन विपक्ष के नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने तो प्रंशसा में इंदिरा गांधी को दुर्गा का अवतार तक कह ड़ालने में हिचक तक नहीं की थी। (यद्यपि बाद में कुछ क्षेत्रो से यह खंडन भी आया कि अटलजी ने ऐसा नहीं कहा था।) आम नागरिक वैसे ही प्रतिक्रिया तत्कालीन सत्तापक्ष जो वर्तमान में अब विपक्ष ंहै,ं से उम्मीद करता हैं। लेकिन वर्ष 1971 के बाद 45 सालों में राजनीति में इतनी गिरावट आ गई हैं, नैतिक मूल्यों का इतना ह्रास हुआ हैं कि वर्तमान विपक्ष नरेन्द्र मोदी को वैसा समर्थन देने से हिचक रहे हैं (जिसके वे हकदार भी है।) जैसा कि पूर्व में इंदिरा गांधी को को मिला था। लोकतंत्र का यह सर्वमान्य सिंद्धान्त हैं कि सत्ता पर बैठा हुआ राजनैतिक नेतृत्व जो भी निर्णय लेता हैं उसके यश-अपयश का भी वही हकदार व जिम्मेदार होता हैं। अतः देशहित में केवल यही उपयुक्त होगा कि विपक्ष अनावश्यक रूप से इस मुद्दे पर राजनीति न कर पडौसी देश को हमारे विरूद्ध कुछ कहने का मौका न दे। सत्तापक्ष से भी यह उम्मीद की जाती है कि वे अतिरेक में सेना द्वारा की गई कार्यवाही को राजनीति से दूर रखने का प्रयास करे। ऐसे समय देश की 100 प्रतिशत एकजुटता की आवश्यकता हैं यदि हमे पीओके पर कब्जा कर पाकिस्तान को वास्तव में सबक सिखाना हैं तो! अंत में देश की सीमा के सजग प्रहरी व देश के आत्म सम्मान की रक्षा करने वाले समस्त सैनिकों को दंडवत् प्रणाम। 

सोमवार, 19 सितंबर 2016

‘‘ वैकल्पिक राजनीतिक व्यवस्था’’ की ‘‘ध्वस्त’’ होती अवस्था के लिये क्या केजरीवाल दोषी नहीं ?

इतिहास अपने को दोहराता हैं, अक्सर ऐसा कहा जाता हैं। स्वतंत्रता के बाद से ही कांग्रेस की सिन्द्धात-हीन राजनीति पर आधारित लम्बे समय से चले आ रहे लगभग एक ही परिवार के बेरोक-टोक शासन पर प्रथम बार 1967 में संविद शासन के (असफल) प्रयोग द्वारा रोक लगी। लेकिन ‘‘आया राम’’ ‘‘गया राम’’ की राजनीति के चलतेेे 3-4 सालो में ही कांग्रेस के विकल्प में बनी यह प्रथम वैकल्पिक राजनैतिक व्यवस्था असफल हो गई। असफल होनी ही थी क्यांेकि उसका मूल आधार ही ‘‘आया-राम’’ ‘‘गया-राम’’ था। वर्ष 1971 में गरीबी हटाओं के नारे से इंदिरा गांधी को (कांग्रेस का सीधा विभाजन सिंडीकेट-इंडीकेट के बीच करने के पश्चात्) जबरदस्त बहुमत प्रात हुआ था। तत्पश्चात ऐन-केन-प्रकारेण सत्ता पर कब्जा बनाये रखने के दबाव वश व उसी दृष्टि से इंदिरा गंाधी ने ऐतहासिक भूल करके आपात्तकाल लगाया था जिसे लोकत्रंत का सबसे काला अध्याय कहा जाता रहा हैं। फिर गहन मंथन व विचार के पश्चात् वैकल्पिक राजनैतिक व्यवस्था के रूप में जनता पार्टी का उदय हुआ जिससे 1977 के आम चुनाव में ़(अपराजित) इंदिरा गंाधी को न केवल स्वयं पराजित हेाना पड़ा बल्कि उनकी पार्टी केा भी ऐतहासिक व कड़ी हार का सामना करना पड़ा और उन्हंे सत्ता च्युत भी होना पडा। लेकिन यह वैकल्पिक राजनैतिक व्यवस्था भी 1980 में जनता पार्टीे में जनसंघ के रूप में शामिल हुए घटक के के द्वारा नई पार्टी भाजपा बना कर जनता पार्टी से बाहर निकल जाने के कारण चरमरा गई। तत्पश्चात वी पी सिंह के आंदोलन, आसू अंादोलन सहिंत व्यवस्था व भ्रष्टाचार के विरूद्ध राष्ट्रव्यापी व कई राज्यव्यापी आंदोलन हुये। लेकिन कोई भी आंदोलन न तो भ्रष्ट व्यवस्था की अपेक्षित वैकल्पिक गुणात्मक व्यवस्था व जनलोक हितकारी राजनीति बन पाई, न ही लम्बे समय तक वह सफल रही।
लम्बे अंतराल के पश्चात् वर्ष 2013 में जनलोकपाल के मुद्दे पर अन्ना आंदोलन आया जो तेजी से राष्ट्रव्यापी प्रभाव छोड़कर बढ़ता चला गया। अन्ना आंदोलन में चेहरा अन्ना का था परन्तु दिमाग अरविंद केजरीवाल का था। उक्त ‘‘चेहरे’’ व ‘‘दिमाग’’ ने मिलकर उक्त आंदोलन को अभूतपूर्व सफलता प्रदान कर दी। उक्त आंदोलन से उत्पन्न वस्तुस्थिति का फायदा उठाकर अरविंद केजरीवाल ने गैर राजनैतिक आंदोलन की मूल भावना व सिद्धात के विपरीत एक नई पार्टी नई दिशा व अलभ्य सिद्धांतो के नारो के साथ राजनैतिक पार्टियों के भीड़तंत्र (भीड़ नहीं) के बीच अपने अलग पहचान वाले तंत्र के रूप में असंख्य जनप्रिय वायदों के साथ साथ उतरी, जिसे जनता ने स्वीकार कर दिल्ली विधानसभा की 70 सीटों में से 67 सीटों पर आम आदमी पार्टी के ‘‘झाड़ू छाप’’ उम्मीदवारो को विजयी बनाकर दिल्ली के राजनैतिक मैदान में भी ‘‘झाडू’’ फेरकर न केवल कांग्रेस का वर्ष 1977 में हुये आम चुनाव के समान ही जब उसका पूरे उत्तर भारत में पूर्णतः सफाया हो गया (मात्र एक सीट छिंदवाड़ा को छोड़कर) बल्कि अन्य समस्त दलो को भी लगभग सफाचट कर दिया। यह ऐतहासिक विजय इस बात का संकेत थी कि अन्य पार्टी की तुलना में ‘आप’ पार्टी एक नई वैकल्पिक राजनीति की नई पारी प्रांरभ कर रही हैं। लेकिन इतिहास फिर आड़े आ गया। इतिहास अपने को दोहराता हैं। आम आदमी पार्टी का भी वही हस्र हो रहा हैं जैसा पूर्व में भी वैकल्पिक राजनीति का दावा करने वाली अन्य राजनैतिक पार्टियों का होता आया हैं।
आम आदमी पार्टी भी अन्य राजनैतिक पार्टियांॅ कंाग्रेस, समाजवादी, बसपा इत्यादि के समान ही सिद्ध हो रही हैं। यहां भी आंतरिक लोकतंत्र की कोई सम्भावना नहीं हैं, बल्कि वास्तव में आंतरिक लोकतंत्र के बगैर अरविंद केजरीवाल का नेतृत्व थोपकर स्थापित किया गया है। ये वही अरविंद केजरीवाल हैैं जो अन्ना आंदोलन के समय पूरी की पूरी व्यवस्था को असफल व भ्रष्ट कहते नही थकते थे। वह आरोप लगाते थे कि ‘‘यह जो संसद हैं वह वास्तविक संसद नहीं हैं। (वास्तविक संसद तो वह लाखो जनता हैं जो हमारे सामने मैदान में खड़ी हैं) क्योंकि इसमें 224 से ज्यादा सांसद आरोपित हैं जिन पर भारतीय दंड संहिता, भ्रष्टाचार विरोधी अधिनियम व अन्य अधिनियमो के तहत विभिन प्रकार के संगीन आरोप लगे हुए हैं। जिनके विरूद्ध अभियोजन भी चल रहा हैं। उन सब आरोपित सांसदों को संसद से इस्तीफा देकर तथा दोष मुक्त हो जाने के पश्चात् संासद का चुनाव लड़कर ही संसद में आना चाहिए।’’ जब विभिन्न पार्टी के लोगो ने केजरीवाल की उक्त बात का जवाब यह कह कर दिया कि ‘‘बहुत से आरोप तो राजनीति के चलते सत्ता पक्ष द्वारा राजनीतिक कारणो से लगाये गये हैं’’ बेबुनियाद हैं तब भी केजरीवाल का स्टैंड वही था। (केजरीवाल जी कृपया अपने पुराने भाषणों को सुन ले)।
विपक्ष की चुनौती को स्वीकार कर नई पार्टी बनाकर केजरीवाल ने स्वयं सिंद्धातों की जो रेखा खीचकर अभी तक अन्य दलों व राजनीतिज्ञों को जो आयना दिखाया जो अब स्वयं उनकी पार्टी के विधायकों नेताओं व कार्यकर्ताओं द्वारा दिन प्रतिदिन की जा रही हरकतो से स्वयं अपनी बनाई गई लक्ष्मण रेखा में फंसते जाकर उन्हे शर्मिदा होकर उक्त आयने में स्वयं का चेहरा देखने के लिये मजबुर होना पड़ रहा हैं। इस कारण से हताशा व गुस्से में ‘आप’ अपनी रक्षा में तू तड़ाक पर उतर कर वही प्रति-आरोपो की राजनीति कर रही हैं जिसका विरोध करके केजरीवाल स्थापित हुये थे। वास्तव में शुरू-शुरू में इस देश के नागरिको को अरविंद केजरीवल के वादो, बातो व कार्य करने की शैली से बहुत सी उम्मीदें जगी थी। लेकिन इस देश का दुर्भाग्य व सत्य यही हैं कि सत्ता अपना असर व प्रभाव अवश्य डालती हैं और सत्ता के दुष्प्रभाव ने केजरीवाल को अपनी गिरेबान में पूर्णतः जकड़ लिया हैं जो अन्य घिसी पिटी राजनीतिज्ञों की ही भाषा बोल रहे हैं जिन्हें जनता खूब समझ रही है।
आज अब केजरीवाल को क्या हो गया हैं? उनकी पार्टी के अधिकांश विधायक आरोपों के चलते पार्टी की किस तरह की छिछल्लेदारी करा रहे हैं। 17-18 विधायको के खिलाफ ‘‘चारित्रिक आरोप’’ सहित संगीन आरोप लगे हैं। बल्कि कुछ विधायको पर तो संपर्क में आने वाली महिलाआंे के शील भंग व चरित्र हनन तक के आरोप लगे है। 21 विधायको पर तो ‘‘लाभ के दोहरे पद पर बने रहने’’ की तलवार लटक रही हैं जिससे उनकी विधान सभा की सदस्यता ही खतरे में पड़ी हुई हैं। विधायको पर समस्त आरोप विधायक बनने के बाद की घटित घटनाओं के संबंध में ही लगे हैं। हर ‘महिने 15 दिन’ में किसी न किसी विधायक को विभिन्न आरोपो में चार्जशीट किया जा रहा हैैं। कुछ तो अभी भी जेल में बंद हैं। यदि यही गति वृद्धि चलती रही तो विधानसभा अवधि के पूरे होने तक शायद सभी विधायक आरोपित न हो जायंे। स्वयं केजरीवाल पर भी उनकी ही पार्टी के सदस्य ने गंभीर आरोप लगा दिये हैं। यहॉं यह भी उल्लेखनीय हैं कि इनमें से अधिकांश आरोप आप पार्टी व उसके कार्यकताओं के द्वारा ही लगायंे गए हैं। इतना सब होने के बावजूद केजरीवाल ने मात्र तीन मंत्रियों को पद मुक्त करने के अलावा दो चार के खिलाफ ही पार्टी से निकालने की कार्यवाही की, बाकी शेष बहुसंख्य विधायको एवं मातहतो के संबंध में उनका स्टैंड वहीं है जो पूर्व में केजरीवाल के आरोपो के संबंध में अन्य पार्टीयों का रहता आया है।
केजरीवाल का असफल होना मात्र केजरीवाल की असफलता नहीं हैं बल्कि यह उन लाखों करोड़ो लोगो की आकांक्षाओं व उत्साह को झटका, उनका खंडन व भावनाओं की हत्या हैं जिन्हांेने केजरीवाल से बड़ी उम्मीदे की थी। भविष्य में इसी तरह के वैकल्पिक व्यवस्था हेतु परिस्थतियों में सुधार लाने के लिये थोथे दावे करने वाले अन्य व्यक्तिों पर जनता का विश्वास जमना मुश्किल होगा। इसलिए अरविंद केजरीवाल को जनता के न्यायालय में वैकल्पिक व्यवस्था की हत्या केे लिये कड़ी से कड़ी सजा दिया जाना अत्यावश्यक हैं ताकि भविष्य में कोई अन्य नेता जनता की भावनाओं के साथ खिलवाड़ नहीं कर सके और लम्बे समय तक वैकल्पिक राजनैतिक व्यवस्था बनाए रखनें के लिये ऐसे कारणों से निराशा के कारण अपेक्षित/वांछित नेतृत्व की कमी न हो।

शुक्रवार, 29 जुलाई 2016

‘‘स्वाति सिंह’’ के ‘‘(दुः)’’ ‘‘साहस’’ की दाद दी जानी चाहिये!

‘‘क्या ‘‘पीओके’’ पाक अधिकृत कश्मीर रह पायेगा!

रविवार, 12 जून 2016

‘‘जमानत एक ‘‘रूल’’ हैं’’ कितनी वास्तविकता! कितनी सतही ?

माननीय उच्चतम् न्यायालय ने लगातार अपने अनेक निर्णयों में आपराधिक विधिशास्त्र का यह सिद्धान्त प्रतिपादित किया हैं कि जमानत एक नियम (रूल) हैं, जेल एक अपवाद हैं (अनेक निर्णयों में से एक संजय चन्द्र वि. सी.बी.आई.) न्यायपालिका का यह एक चिरपरिचित सिंद्धान्त हैं। लेकिन क्या वास्तविक धरातल में भी ऐसा ही हैं, यह जानने की अत्यंत आवश्यकता हैं। विगत कुछ समय पूर्व हसन अली को 5 साल जेल में रहने के बाद माननीय न्यायालय द्वारा आरोपो से मुक्त कर जेल से रिहा कर दिया गया। इन 5 सालो में हसन अली की 13 जमानत याचिकाएॅं अस्वीकार हुई हैं। इसलिए यह प्रश्न उत्पन्न हुआ हैं। हसन अली वही व्यक्ति हैं जिसके विरूद्ध कालेधन को हवाला के माध्यम से सफेद बनाने का आरोप जॉच एजेंसी ने लगाया था व आयकर विभाग ने उस पर 34000 करोड़ रू. की आयकर की देनदारी निकाली थी जो बाद में आयकर अपीलीय न्यायाधिकरण ने घटा कर मात्र 3 करोड़ रू. तक सीमित कर दी थी। 
मुंबई के मझगांव डॉक पर काम करने वाले मैकेनिकल इंजीनियर मोहम्मद सलीम अंसारी को तो 23 साल जेल में रहने के बाद हाल में ही माननीय उच्चतम् न्यायालय के द्वारा आरोपो से दोष मुक्त कर दिये जाने के बाद रिहा किया गया हैं। मध्यप्रदेश के व्यापम कांड में बंद सैकड़ो विद्यार्थी व उनके परिजन जमानतों का मामला एक बड़ा उदाहरण है जहां जमानत के अधिकार पर किस तरह के प्रयोग, उपयोग व दुरूपोग हुये है। व्यापम कांड के साथ-साथ इन मामलों में गिरफ्तार अभियुक्तों की जमानत के मामलो की जॉच किसी एजेन्सी या आयोग गठन के द्वारा किया जाना आवश्यक है ताकि ‘जमानत’ के पीछे छुपे तथ्यों का उजागर हो सके। इस तरह के देश में अनेकोनेक मामले हैं जिनमंे जमानत न मिलने के कारण अभियुक्त सालो साल जेल में रहकर मुकदमा लड़ते रहते हैं व अंत में जब दोष मुक्त हो जाते हैं तो उनके वास्तविक जीवन में उसका कोई अर्थ ही नहीं रह जाता हैं। 
भारतीय विधिशास्त्र आपराधिक मामलों में भारतीय दंड संहिता व दंड प्रक्रिया संहिता इस अवधारणा व परसेप्शन (अनुभूति) पर टिका हैं कि अभियोगी/आरोपी तब तक निर्दोष हैं जब तक उसे सक्षम न्यायालय द्वारा दोषी साबित नहीं कर दिया जाता हैं। अपवाद स्वरूप कुछ अपराधों को छोड़ दिया जाय तो अन्य समस्त आपराधिक मामलो में दोषी सिद्ध होने तक अभियोगी बेगुनाह  (इनोसेंस) माना जाता हैं व अभियोजन को उसे संदेह से परे अपराध/आरोप सिद्ध करना होता हैं। संदेह का लाभ भी अभियुक्त को ही मिलता हैं। भारतीय न्यायपालिका का यह सर्वमान्य सिंद्धान्त हैं कि चाहे सौ आरोपी न्यायिक प्रक्रिया के परिपालन में छूट जांए, लेकिन एक भी निर्दोष को सजा नहीं होनी चाहिये। न्याय का एक और सिंद्धान्त हैं न्याय में देरी, न्याय के इंकार के समान हैं। यही सब मिलकर देश में अपराध बढ़ने का मूल कारण भी बन गए हैं।   
यदि हम भारत की न्यायिक व्यवस्था का अध्ययन करे तो हम पायेगें कि भारत में सजा का  अनुपात औसतन 45 प्रतिशत हैं जो अन्य राष्ट्रो की तुलना में कम हैं। मलेशिया में 80 प्रतिशत, इंग्लैड़ में 86 प्रतिशत, अमेरिका में 93 प्रतिशत, इंडोनेशिया में 100 प्रतिशत हैं जबकि पड़ोसी देश बांग्लादेश में 38 प्रतिशत हैं। इसका मूल कारण 1973 से चली आ रहा दंड प्रक्रिया सहिंता में वक्त के साथ आवश्यक बदलाव की कमी, जटिल न्यायिक प्रक्रिया, वकीलों के दाव-पेच, न्यायधीशो की कमी, न्याय में अत्यंत देरी व अभियोजन द्वारा की गई जॉंच में खामी की कमी और इन सभी तंत्रों में संलग्न व्यक्तियों में से अधिकांशो का मात्र आर्थिक उद्देश के लिये कार्य करना इत्यादि हैं। इन सब कारणों से अधिकतर अपराधी न्यायालय से आरोपो से छूट जाते हैं। एक स्टडी के अनुसार भारत में विभिन्न उच्च न्यायालयों में कुल 1035743 आपराधिक मुकदमें लम्बित हैं (31.11.2015 तक)। तब यह वास्तविकता लिये हुये न्यायप्रणाली में जब अभियुक्त को जमानत नहीं मिलती हैं तो वह अनावश्यक रूप से जेल में पडे़ पडे़ सड़ता रहता हैं व कई बार तो कानून में अपराध के लिये दी गई सजा की अवधि से ज्यादा उसकी हवालात में बंद रहने की अवधि बीत जाती हैं। अंततः जब वह अदालती आदेश द्वारा दोष मुक्त हो जाता हैं, तब उसका कोई मतलब ही नहीं बच जाता हैं। तब तक तो वह हवालात में जिन्दगी का लम्बा समय गुजार चुका होता हैं जो उसे किसी भी स्थिति में वापिस नहीं किया जा सकता हैं।
इसी कारण से माननीय उच्चतम् न्यायालय को उपरोक्त अलिखित नियम जमानत एक नियम हैं को वास्तविक धरातल पर उतारने के लिये अधीनस्थ न्यायालयों की अविरल गहरी निगरानी करते रहना अत्यंत आवश्यक हैं, ताकि दंड़ प्रक्रिया संहिता के द्वारा नागरिक के जीने के स्वतंत्रता के अधिकार में (जमानत न मिलने के कारण) अनावश्यक रूप से कटौती न हो।
निष्कर्ष में, ऐसी वर्तमान न्यायिक व्यवस्था में जमानत पाना अपराधी का एक अधिकार होना चाहिये। कुछ अति गंभीर प्रकार के अपराध व राष्ट्रद्रोह के अपराधों के लिये निश्चित अवधि के निवारण निरोध का अधिकार शासन के पास ही हैं जिसमें सामान्यतः जमानत के प्रावधान नहीं होते हैं। ऐसे अपराधों को छोड़कर शेष के लिये जमानत सुनिश्चित करने के लिये ऐसी न्यायिक व्यवस्था में आवश्यक संशोधन किया जाना आज के वक्त की मांग हैं। जब तक न्यायिक व्यवस्था अपनी समस्त कमियों को दूर कर अपने को पूर्णतः सुधार नहीं लेती, इंतजार करना ही नियति हैं। 
  

बुधवार, 8 जून 2016

मथुरा में दो वर्ष पुराने अवैध कब्जे को मात्र दो घंटे में हटाने के लिये पुलिस प्रशासन को कुछ तो शाबासंी बनती है?

      भगवान श्रीकृष्ण जी की जन्मस्थली मथुरा में लगभग 280 एकड़ में फैले हुये ऐतिहासिक जवाहर बाग (जवाहरलाल नेहरू के नाम पर) पर दो वर्ष से अधिक अवैध कब्जे (अतिक्रमण) को माननीय उच्च न्यायालय के आदेश के परिपालनार्थ हटाने में बडी हिंसक कार्यवाही हुई, कप्तान सहित दो पुलिस ऑंफिसर शहीद हुये और 27 उपद्रवी अतिक्रमणकारी लोग मारे गये व इससे कहीं ज्यादा लोग धायल हुये। यह पूरे देश के मीडिया से लेकर समस्त क्षेत्रो में न केवल चर्चा का विषय ही बना बल्कि गंभीर ंिचंता का विषय भी है। जवाहर बाग में रामवृक्ष यादव के संगठन आजाद भारत विधिक विचारक क्रांति सत्यागृही के सत्यागृहीयों को मात्र दो दिन के लिये  दी गई सत्यागृह की अनुमति दो साल के अवैध कब्जे में कैसे परिवर्तित हो गई? वहां अवैध रूप से हथियारांे का जखीरा व बारूद जमा करने दिया गया जिसने पुलिस प्रशासन, स्थानीय जांच ब्यूरो (एल.आई.बी) व जांच ब्यूरो (केन्द्रीय) पर भी न केवल प्रश्न वाचक चिन्ह लगा दिया हैं, बल्कि उ.प्र. सरकार की तथाकथित बची हुई साख पर गहरा बट्टा भी लगाया हैं। निश्चित रूप से अखिलेश सरकार को चौतरफा आलोचना का शिकार होना पड़ा हैं जो केवल राजनीति के चलते, राजनीति के कारण ही नहीं वरण वस्तु परक स्थिति के कारण भी हुई, जिसे कदापि गलत नहीं कहा जा सकता हैं। 
     जवाहर बाग जो मथुरा शहर के बीचो बीच स्थित हैं, चारो तरफ से कलेक्टर, जिला पुलिस व जिला न्यायालय दफ्तरों व सरकारी निवासो से घिरा हुआ हैं। सेना की छावनी भी पास में ही हैं। न्याय व कानून व्यवस्था के लिये जिम्मेदार उक्त समस्त अधिकारियों के सतत् 24.7 ठीक नाक के नीचे एवं आंखो के आगे अवैध हथियारो का जखीरा जमा होता रहा जिसका नेतृत्व जय गुरूदेव का तथाकथित शिष्य, अपराधी, स्वंय भू स्वाधीन सम्राट रामवृक्ष यादव कर रहा था। जिसके खिलाफ पूर्व से ही कई आपराधिक प्रकरण दर्ज थे। उसे सत्यागृह की इजाजत कैसे मिली। जिस तरह की उसकी अजीबो-गरीब मांगे व नारे थे, जो किसी भी रूप से किंचित राष्ट्रीयता का पुट लिये हुये नहीं थी। भारत देश के सबसे बडे़ प्रदेश के अंदर 280 एकड़ जमीन पर वह दो वर्ष से अधिक की लम्बी अवधि तक कब्जा बना रहा। वहां रामवृक्ष यादव के नेतृत्व में अवैध तथाकथित राष्ट्रवाद कैसे पनपता रहा जिसकी भनक तक या तो प्रशासन को थी ही नहीं और यदि थी तो त्वरित व प्रभावी कार्यवाही नहीं की गई, तथा स्थिति को बिगड़ने से रोकने के लिये समय रहते समुचित ऐतहातिक कदम क्यों नहीं उठाये गये। इन सबकी जॉंच सी.बी.आई एवं न्यायिक जॉच आयोग द्वारा गहराई से होना अत्यंत आवश्यक हैं। दोनों सस्थाओं के द्वारा जॉच इसलिए जरूरी है कि इसमें दो तरह की मुद्दे शामिल है। एक तरफ तो दो वर्ष से अर्कमण्य बने रहे शासन व प्रशासन जिस कारण से गैर कानूनी हरकते बढ़ी व रामवृक्ष को अवैध हथियारों का जखीरा बढ़ाने का अवसर मिला तो दूसरी ओर दो जून को अप्रत्याशित हिंसक वारदात हुई। इनके कारण व संबंधित अधिकारियों, व्यक्तियों की जिम्मेदारी तभी तय हो पायेगी जब दोंनो संस्थाओं द्वारा जॉच होगी।

    उच्च न्यायलय के आदेश के रहते हुये उ.प्र. सरकार केवल बातचीत के जरिये अतिक्रमण हटाने का असफल प्रयास करती रही। चूंकि बातचीत का दौर प्रक्रिया में था इसलिये उसे ही आगे बढ़ाते हुये दो जून को पुलिस प्रशासन जमीन को अतिक्रमणकारियांे (उपद्रवियो व सत्यागृहियों) से रिक्त करवाने हेतु चर्चा करने की मंशा से गए थे, किसी भी प्रकार के बल प्रयोग के साथ सीधे कार्यवाही करने नहीं गये थे। उ.प्र. पुलिस महानिदेशक के इस कथन पर अविश्वास करने का कोई कारण नहीं है कि पुलिस प्रशासन उस दिन अतिक्रमण हटाने की सीधी कार्यवाही करने के लिये नहीं गया था। उसे आपरेशन दो दिन बाद करना था। उनकी यह स्वीकारिता महत्वपूर्ण हैं कि पुलिस विभाग अतिक्रमण कारियो के माइंड सेट के आकलन पूर्वानुमान में बिल्कुल असफल रहा जिस कारण से ही बातचीत कर रहे पुलिस बल पर अतिक्रमणकारियों व उपद्रवियांे ने सुनियोजित ढंग से अचानक अप्रत्याशित पत्थराव व गोलियों द्वारा गुरिल्ला हमला कर दिया जिसमें दो पुलिस अधिकारी शहीद हुये व 27 लोग मारे गये। पुलिस प्रशासन द्वारा अतिक्रमण हटाने के लिये अतिरिक्त पुलिस बल की मंाग भी की गई थी। मीड़िया के एक भाग में इस बात का भी जिक्र हुआ है कि पुलिस प्रशासन को उपद्रवियों के उत्तेजना-पूर्व कार्यवाही के इनपुट मिले थे तथा हथियारो का जखीरा जमा किए जाने के संबंध में भी इनपुट मिले थे। जिला मजिस्ट्रेट को स्थानीय पुलिस कार्यवाही की सूचना नहीं थी। पुलिस प्रशासन हिंसक कार्यवाही से बचने के लिये ही बातचीत का दौर बढा रहा था, या इसके पीछे कोई राजनैतिक दबाव व षड्यंत्र था, यह जांच का विषय हैं। इन परिस्थितियों में पुलिस बल पर अचानक पत्थर व गोलियों से हमला हो गया, जिसमें शहर एसपी के सिर पर पत्थर से चोट आई व नगर निरीक्षक को गोली लगी। पुलिस की अक्षमता सिद्ध होने के बावजूद इन सब विषम व अप्रत्याशित परिस्थितियों के मध्य मात्र दो घंटे के अंदर उपद्रवियों को खदेड़ कर जमीन को अतिक्रमण मुक्त करवा लेने के लिये क्या पुलिस प्रशासन की आलोचना के साथ ऐसे ‘‘मुक्ति’ कार्य के लिये’’ उसे शाबासी देने की बात नहीं बनती है? 

    आज के वर्तमान युग में कोई भी संस्था, व्यक्ति व व्यक्तिगत या संस्थागत कार्य योजना पूर्णतः सफल या असफल नहीं होती हैं। हर विधा पर सफलता के साथ असफलता का रंग भी चढ़ा होता हैं। इस दृष्टि से जिला पुलिस प्रशासन ने जिस तरह दो घंटे के अंदर ही अपने दो अधिकारियों की शहादत देकर भी अतिक्र्रमित जमीन पर जिस तीव्रता से कब्जा प्राप्त कर उच्च न्यायालय के आदेश का परिपालन किया हैं (कंजूसी से ही सही) उसके लिये पुलिस बल को शाबासी अवश्य दी जानी चाहिये। व्यक्तित्व अच्छा व बुरा दोनो गुणों का समिश्रण होता हैं। तब बुराईयो के बीच किये गये अच्छे कार्य के लिये व्यक्ति की प्रशंसा भी अवश्य की जानी चाहिये ताकि व्यक्ति को अच्छे गुणों को विकसित करने का प्रोत्साहन मिल सके। अन्यथा मात्र आलोचना भर करते रहने से व्यक्त्तित्व का उजला पक्ष विकसित ही नहीं हो पायेगा।
   

शुक्रवार, 3 जून 2016

बढ़ती हुई आपराधिक घटनाओं के लिये क्या सिर्फ शासन ही जिम्मेदार हैं?

विगत कुछ समय से बिहार के ‘‘सुशासन बाबू ’’ कहे जाने वाले ‘‘बाबू’’ नीतिश कुमार के शासन में बढ़ रही आपराधिक घटनाओं पर मीडिया से लेकर विभिन्न क्षेत्रो में गहरी चिंता व्यक्त की जा रही है। नीतिश बाबू के शासन को निशाना बनाते हुए ‘‘जंगलराज पार्ट-2’’ कहा जा रहा हैं। बहुत से इलेक्ट्रानिक मीडिया ने बिहार के जगंलराज के संबंध में बहस भी कराई। बिहार में पिछले कुछ समय से जिस तरह से राजनैतिक हत्याये, रोड रेज, अपहरण व अन्य आपराधिक घटनाये बढ़ी है, वे किसी भी शासन के लिये चिंता का विषय होना चाहिये। लेकिन केवल अपराधो के बढ़ते हुये आकड़ो से किसी भी प्रदेश के शासन को कुशासन या जंगलराज कहकर, क्या हम अपने उत्तरदायित्व से मुक्त हो सकते है? यह एक बड़ा मुद्दा आत्मावलोकन का हैं। 
यदि बात केवल ऑंकड़ांे की ही की जाये तो उत्तर प्रदेश में अपहरण, हत्या, दंगे व मध्य प्रदेश में बलात्कार की घटनाओं में बढ़ोतरी हुई है। राष्ट्रीय अपराध लेखा केन्द्र (एन.सी.आर.बी) के अनुसार संज्ञेय (काग्निजेबल) अपराध में मध्य प्रदेश शीर्ष पर है। यौन अपराध के मामलो में भी मध्य प्रदेश सर्वोच्च स्तर पर हैं। इनकेे बावजूद मीडिया द्वारा सिर्फ एक प्रदेश को निशाना बनाकर जगंलराज की पदवी देना, क्या यह स्वस्थ्य एवं निष्पक्ष पत्रकारिता पर प्रश्न वाचक चिन्ह नहींे हैं?
मीडिया को इस बात को अवश्य समझना चाहिये कि कोई भी अपराधी अपराध करने के पूर्व स्थानीय प्रशासन को सूचित करके नहीं जाता है। परन्तु प्रत्येक घटना के बाद मीड़िया (अपराधियो की तुरंत गिरफ्तारी न होने पर) प्रशासन को प्रश्नांे की बौंछार से उधेड़ देता हैं। मीडिया को इस बात पर जरूर बहस करानी चाहिये कि हमारे शासन (चाहे किसी भी प्रदेश का हो) का अपराधियों पर इतना खौंफ व पकड़ होनी चाहिये कि वे आपराधिक घटनाओं को अंजाम देने से पहले सौ सौ बार अपराध करने से बचने की जरूर सोचे। कठोर कानून के साथ-साथ प्रशासन की ‘‘प्रशासनिक व्यवस्था दृढ़ता से बिना किसी राजनैतिक हस्तक्षेप के कानून लागू करने वाली हो’’, इस बात पर जरूर विस्तृत बहस चलानी चाहिये। 
अपराधों की बढ़ती हुई घटनाओं का दूसरा पहलू भी उतना ही महत्वपूर्ण है। आपराधिक प्रवृत्ति के बढने के कारण ही अपराध की घटनाओं में वृद्धि हो रही हैं। जब व्यक्ति के नैतिक मूल्यों का ह्रास होता है तो वह व्यक्ति की आपराधिक प्रवृत्ति को बढावा देता हैं जिसकी परिणिति अंततः अपराध को अंजाम देने में होती हैं। अतः सामाजिक व शैक्षणिक स्तर पर इस तरह के कदम उठाये जाने चाहिये जो व्यक्ति के नैतिक मूल्यों को बढ़ाकर उन्हे अपराध करने से रोके जिससे इस समस्या का ज्यादा सटीक व स्थायी समाधान हो सकता है। क्या समस्या की यही मूल जड़ तो नहीं है? हमारा देश आध्यात्मिक देश है। हजारो आध्यात्मिक गुरू अनवरत् लाखों अनुयायियों को आध्यात्मिक शिक्षा के माध्यम से शिक्षित करते व सदाचार के गुणो का प्रवाह करते रहते है। यदि आध्यात्मिक शिक्षा में दृढता से अनैतिकता एवं अपराधों के प्रति घृणा का भाव एवं वितृष्णा पैदा करने का प्रयास किया जाये, तथा आध्यात्मिक गुरू इसे अपना ऐजेंडा बना लें तो समाज में निश्चित रूप से सुधार हो सकता है।
इसके अतिरिक्त अपराधियों को सजा व कड़ी सजा न मिलना भी अपराध बढने का एक बड़ा कारक हैं। यद्यपि कानून सैंकडो हैं, कडे़ भी हैं, कड़ी सजा के प्रावधान भी हैं लेकिन त्वरित न्याय न होने के कारण व अभियोजन की ब्रिटिश जमाने से चली आ रही प्रणाली के रहते अधिकांश अभियुक्त दोष सिद्ध ही नहीं हो पाते हैं, अथवा न्याय मिलते-मिलते इतनी देरी हो जाती हैं कि वह ‘‘न्याय-अन्याय’’ के समान हो जाता हैं जैसा कि कहा गया हैं न्याय में देरी न्याय के इंकार के तुल्य हैं।  
कानून व न्याय की व्यवस्था करने की जिम्मेदारी पूर्ण रूप से शासन-प्रशासन की हैं। पूर्व में प्रशासन में सख्ती व सुधार लाने के लिये प्रशासनिक सुधार आयोग का गठन भी किया गया था। लेकिन प्रशासन में आज इतना ज्यादा राजनैतिक हस्तक्षेप हो गया हैं जो कानून व्यवस्था बनाये रखने में एक महत्वपूर्ण रोड़ा बनता जा रहा हैं। अतः प्रशासन में राजनैतिक हस्तक्षेप न हो इस बात के लिये एक नई प्रशासनिक नीति एवं दृढ़ राजनैतिक इच्छा शक्ति की अत्यंत आवश्यकता हैं। अपराध बढने का एक अन्य पहलु अपराधियों को राजनैतिक सामाजिक संरक्षण, मान-सम्मान व पद प्राप्त हो जाना भी हैं। इससे उनके अपराध करने का हौसला और बढ़ता जाता है। ‘‘अपराध चाहे छोटा हो या बड़ा, अपराध तो अपराध ही है’’, समाज इस मूलभूत तथ्य को अंगीकृत कर ले व प्रत्येक अपराधी का सामाजिक बहिष्कार कर दे तो निश्चित रूप से अपराधों की संख्या में कटौती आयेगी। तभी अपराधियो को अपराध बोध का अहसास होगा व ‘‘अपराध बोध के अहसास’’ से ही आपराधिक प्रवृत्ति में कमी आयेगी जो अंततः अपराध की संख्या में कमी लायेगी। जब देशद्रोह के आरोप से लेकर हत्या, बलात्कार, डकैती, कालाबाजारी जैसे अपराधों से आरोपित व्यक्ति जमानत पर छूटकर आते है, तो समाज में उनका ऐसे भव्य स्वागत किया जाता है जैसे वे सीमा पर विजय प्राप्त कर आये हो। उदाहरण स्वरूप फिर चाहे जेएनयू के अध्यक्ष कन्हैया कुमार का मामला हो या मध्य प्रदेश व्यापम के संजीव सक्सेना का। इसी तरह के अन्य अनेक मामले हैं। चॅंूकि मानव एक सामाजिक प्राणी है इसलिए वह समाज के तिरस्कार को सामान्यतः सहन नहीं कर सकता हैं। 
अंत में मीड़िया से यही अनुरोध है कि वे किसी आपराधिक घटना का प्रसारण व विश्लेषण करते समय प्रशासन की परिस्थितिजन्य सीमाओं का भी ध्यान रखे। उन्हे समाचार के माध्यम से बिना किसी विशिष्ट दिशा में ले जाएॅ स्वतंत्र निष्पक्ष व समय बद्ध सीमा में कार्य करने का अवसर अवश्य देवे। हां खोजी पत्रकारिता के अन्तर्गत यदि अपराध के संबंध में उनके पास कोई प्रमाण या साक्ष्य हो तो वे जरूर प्रशासन का ध्यान उस ओर आकर्षित करते रह सकते हैं।

गुरुवार, 19 मई 2016

क्या देश में ‘‘मीड़िया’’ को ‘‘नियत्रिंत’’ करने का समय नहीं आ गया है ?

विगत दिवस माननीय उच्चतम् न्यायालय ने मानहानि से जुडे़ कानून के दंडात्मक प्रावधानांे की संवैधानिक वैधता की पुष्टी करते हुये कहा कि अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार असीम नहीं है। विगत कुछ समय से अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर देश में मीड़िया विशेषकर इलेक्ट्रानिक मीड़िया जिस तरह से अनियत्रिंत व निरंकुश होकर जनता के बीच जो कुछ परोस रहा है उसे किसी भी लोकतांत्रिक प्रणाली में (जहॉं मीड़िया उसका आवश्यक अंग हैं) उचित नहीं ठहराया जा सकता है। जिस तरह न्यायिक सक्रियता के नाम पर माननीय न्यायलयों द्वारा दिये गये कुछ निर्णयांे पर जनता के कुछ क्षेत्रों में प्रश्न वाचक चिन्ह लगाए जा रहे हैं, (जैसा कि देश के कानून मंत्री ने भी हाल ही में इस संबंध में लगातार प्रश्न उठाये हैं) ठीक उसी प्रकार मीड़िया भी सक्रियता के नाम पर अपने अधिकार क्षेत्र व उत्तरदायित्व से बाहर जाकर वर्तमान में जो कुछ कर रहा हैं वह मीड़िया ट्रायल के रूप में ली जाने लगी है। इसे किसी भी रूप में उचित नहीं ठहराया जा सकता है। मीड़िया ट्रायल द्वारा न केवल एक व्यक्ति अधिकतम बल्कि यह कहा जाए कि एक अभियुक्त को निर्धारित फोरम द्वारा दोषी ठहराये जाने के पहले ही जनता के बीच सिद्ध दोषी जैसी बता दिया जाता हैं। हमारा लोकतंत्र विधायिका, कार्यपालिका व न्यायपालिका की संवैधानिक व्यवस्था के अंतर्गत खड़ा हैं। लोकतंत्र का चौथा मजबूत स्तंभ (खंबा) स्वतंत्र प्रेस हैं जो यद्यपि हमारी संवैधानिक व्यवस्था का भाग नहीं है, लेकिन हमारे लोकतंत्र ने इसे वैसा अंगीकार कर स्वीकार किया हैं। यही हमारे लोंकतंत्र की खूबी भी हैं। 
लोकतंत्र का चौथा स्ंतभ मीड़िया लगभग स्वतंत्र और निष्पक्ष माना जाता हैं। 1975 में जब स्व. इंदिरा गंाधी ने देश में आपातकाल लगाया था तब स्वतंत्र भारत के इतिहास में पहली बार प्रेस की स्वतंत्रता पर न केवल प्रतिबंध लगाया गया था बल्कि दमन व अत्याचार कर मीड़िया का मुह बंद करने की कोशिश भी की गई थी। लेकिन तत्समय उस अत्याचार के विरूद्ध दृढता से खडे होकर मीड़िया अपने अस्तित्व को बनाये रखने में सफल रहा। यूं तो मीड़िया अपने अपनी स्वतंत्र अस्तित्व के प्रति हमेशा से सजग होकर कार्य कर रही हैं। परन्तु पिछले कुछ समय से, जिस प्रकार संविधान के तीनो तंत्रों को यह गलतफहमी हो गई है कि वे ही एक मात्र सर्वश्रेष्ठ हैं तथा वे ही सुचारू रूप से देश चला रहे है। इसीलिये वे परस्पर एक दूसरे की कमियों को बताकर तथा बारम्बार अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर उन कमियों को पूरा करने का आभास कराते रहे हैं। उसी प्रकार मीड़िया को भी यह गुमान हो चला हैं कि लोकतंत्र में वे ही एक मात्र सर्वश्रेष्ठ हैं। देश में सुचारू शासन चलाने की क्षमता व जिम्मेदारी उन पर रही हैं। लेकिन पिछले कुछ समय से इलेक्ट्रानिक मीड़िया के रोल पर समाज के विभिन्न क्षेत्रों में उंगली उठ रही है। बल्कि यह कहना ज्यादा उचित होगा कि मीड़िया ने जिस तरह अपनी सीमा से बाहर जाकर कार्य किया हैं, इससे लोगो को उंगली उठाने का मौका मिला हैं। वास्तव में मीड़िया का कार्य एक तरफ तो शासन, प्रशासन की कमियों को उजागर कर जनता के सामने लाना है व दूसरी तरफ जनता की समस्याओं को शासन के सम्मुख प्रस्तुत करना हैं ताकि कार्यपालिका, विधायिका उस पर जनहित में निर्णय लेकर उन कमियों को दूर कर सके। कुछ समस्याएं व मुद्दे ऐसे भी हो सकते हैं जिन पर मीड़िया न्यायालय का भी ध्यान भी आर्कषित करना चाहता हैं, जिन पर न्यायालय कानूनी व संवैधानिक रूप से स्वविवेक से संज्ञान लेकर निर्णय ले सकते हैं। लेकिन इस सबके बावजूद मीड़िया को यह अधिकार कभी भी नहीं रहा हैं कि वह किसी भी घटना, दुर्घटना या मुद्दे को इस तरह से उठाये कि वह स्वयं अभियोजन की भूमिका में दिखने लगे। उसे किसी भी घटना, दुर्घटना का प्रसारण करते समय इस सीमा का भी ध्यान रखना चाहिये कि कही किसी भी व्यक्ति की निजता के अधिकार का उल्लंघन तो नहीं हो रहा है? जब भी किसी व्यक्ति की घटना या दुर्घटना में मृत्यु ,हत्या या आत्महत्या हो जाती हैं तो उसका परिवार गहरे सदमे में रहता हैं। तब मीड़िया परिवार की मानवीय संवेदनाएं को परे रख कर टी.आर.पी. के चक्कर में जिस तरह इनकी बाईट लेने का प्रयास करता हैं वह मानवीय संवेदनाओं को समाप्त कर देता हैं।
मुझे ख्याल आता हैं कि जब हमारे ही शहर में विगत माह एक परिचित सम्मानीय डॉक्टर के परिवार की पत्नि ने मानसिक तनाव में आकर आत्म हत्या कर ली थी जिसका सुसाइड़ नोट भी पाया गया था। तिस पर मी कुछ प्रिंट व इलेक्ट्रानिक मीड़िया ने (परिवार के सदस्यों के गहरे सदमे में होने के बावजूद) वातावरण की अनदेखी कर, दाह संस्कार के पूर्व ही प्रश्नों की बौछार लगा दी थी व एक स्टोरी चलाकर परिवार के सम्मान, चरित्र पर प्रश्न चिन्ह लगाने का असफल प्रयास किया था। इस तरह की अनेक घटनाये का चित्रण मीड़िया में आपने पिछले कुछ समय से लगातार देखा हैं। क्या मीड़िया इस तरह की घटनाओं में पुलिस का रोल अदा करते नहीं दिखती हैं? क्या मीड़िया में मानवीय संवेदना पूरी तरह समाप्त होती नहीं दिख रही हैं। यदि ऐसा नहीं है तो उनके सामने हो रही कोई घटना को रोकने के बदले उनके केमरा मेन केमरे में कैद कर अपनी टी.आर.पी. बढाने में क्यों लगे रहते हैं?
ऐसी स्थिति के कारण क्या अब समय नहीं आ गया है कि मीड़िया पर भी कुछ न कुछ प्रभावी नियत्रंण लगाया जाय। यदि अरूण जेटली बार-बार यह कह रहे हैं कि न्यायपालिका पिछले कुछ समय से कार्यपालिका, विधायिका के कार्य में बाधा डाल रही हैं व न्यायपालिका को अपनी लक्ष्मण रेखा स्वयं तय करनी चाहिये। तब अरूण जेटली यही सिद्धान्त प्रेस पर क्यों नहीं लागू करते हैं। क्या इसलिये कि न्यायपालिका मूक है जब कि प्रेस वोकल! मीड़िया के प्रति मूक रहने में कहीं उनके जेहन में मीड़िया की इसी सक्रियता का कोई अव्यक्त भय तो नहीं है?
जब इस देश में संविधान द्वारा प्रदत्त समस्त मूल अधिकार व कर्तव्य पूर्ण नहीं हैं जो संवैधानिक व कानूनी शर्तो के अधीन हैं। जब न्यायपालिका भीे कानूनों के अधीन ही कार्य करती हैं तब प्रेस को नियमित (रेगूलेट) करने के लिये कोई/कुछ नियम/कानून क्यों नहीं बनाएं जाने चाहिये ताकि वह स्वतंत्र, स्वच्छेचारी व निरंकुश न होकर एक जिम्मेदार मीड़िया के रूप में कार्य कर सके। क्या प्रेस पर नियत्रंण के लिये एक मात्र प्रेस कांउसिल ऑंफ इण्डिया एक सक्षम व सफल संस्था हैं? वर्तमान मीड़िया में पत्रकारिता वास्तविक पत्रकारो द्वारा न चलाई जाकर मीड़िया हॉऊस के द्वारा मीड़िया का चलन हो रहा हैं तब क्या मीड़िया हॉऊस के नियत्रंण से ‘‘मीड़िया’’ को दूर रखने के लिये प्रभावशाली कानून/नियम बनाने की आवश्यकता नहीं हैं?
 

सोमवार, 2 मई 2016

‘‘क्या भारत देश में शासन ‘‘न्यायपालिका’’ चलायेगी?’’

राजीव खण्डेलवाल:
विगत दिवस माननीय उच्चतम् न्यायालय ने डांस बार के लिए लाईसेंस देने के सम्बंध में महाराष्ट्र सरकार को पूर्व में दिये गये निर्देशों का पालन न करने पर कड़ी फटकार लगाते हुए कहा कि बार में डांस करना भीख मांगने से अच्छा है। यहॉ यह उल्लेखनीय है कि महाराष्ट्र सरकार ने पूर्व में वर्ष 2005 में अधिकांश राजनैतिक दलों एवं जनभावना के अनुरूप, नैतिकता के आधार पर डांस बार पर प्रतिबंध लगा दिया था। इसके लिये महाराष्ट्र विधानसभा में सर्वसम्मति से प्रस्ताव भी पारित किया गया था। इसके खिलाफ कुछ डांस बार संचालको ने न्यायालय में पिटीशन दायर की थी जिस पर अतंतः माननीय उच्चतम् न्यायालय ने नियम बनाकर डांस बार के लाईसेंस दिये जाने के आदेश दिये थे। महाराष्ट्र सरकार ने न्यायालय के निर्णय को ध्यान में रखते हुए साथ ही नैतिक मूल्यो के प्रति अपनी भावनाओं को सुरक्षित रखते हुए इस प्रकार के नियम बनाये कि किसी भी संचालक के लिए डांस बार का लाईसेंस लेना लगभग अव्यावहारिक व असंभव सा हो गया। इस पर उच्चतम् न्यायालय में पुनः याचिका दायर की गई जिस पर उपरोक्तानुसार निर्देश दिये गये।
भारतीय संविधान में लोकतांत्रिक शासन की व्यवस्था की गई है जिसके द्वारा देश का शासन चलाने के लिए कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका का प्रावधान किया गया है, जिनके अधिकार क्षेत्र भी स्पष्ट रूप से परिभाषित किये हुए है। भारत विश्व का सबसे बड़ा सफल लोकतांत्रिक देश माना जाता है, जहां जनता के द्वारा चुनी हुई सरकार ही कार्यपालिका के माध्यम से शासन करती है। यदि शासन कानून या संविधान के किसी प्रावधान के विरूद्ध कोई निर्णय लेता है तो, न्यायपालिका को उसे रद्द करने का अधिकार प्राप्त है।
यदि उपरोक्त परिप्रेक्ष्य में माननीय उच्चतम् न्यायालय के उक्त निर्णय को कसौटी पर परखा जाय तो यह स्पष्ट होता है कि यह राज्य व केन्द्र सरकार का अधिकार क्षेत्र हैं कि वह शासन चलाते हुए न केवल नैतिक मूल्यों का संरक्षण करे, संधारण करे बल्कि उन्हे उच्च स्तर पर ले जाने का प्रयास भी करे ताकि वह अपने निर्णयों को आसानी से क्रियांवित कर सके जो जनहित में लोकप्रिय एवं लोकोपयोगी निर्णय साबित हो सके। इस सम्बंध में कोई दो मत नहीं हो सकते है कि भारतीय संस्कृति के संदर्भ में डांस बार का चलना न केवल नैतिक मूल्यों के विरूद्ध है अपितु इससे समाज में अपराध और कई गैर कानूनी कार्याे को बढ़ावा मिलता हैं व पारिवारिक क्लेश भी बढ़ता है। बार-डंास बार गर्ल को डंास जीवन उपार्जन के लिए संवैधानिक अधिकार प्रदान नहीं करता है। कोई भी कृत्य जो नैतिकता के विरूद्ध है, उसे रोजी-रोटी के आधार पर संवैधानिक आधार का औचित्य  प्रदान नहीं किया जा सकता। यदि ऐसा माना गया तो जुएं के अड्डो से लेकर वैश्यागमन आदि तक के समस्त गैर-नैतिक कार्य संवैधानिक व कानूनी बन जावेंगे। 
‘डांस’ (नृत्य) करना एक कला है और उससे पैसा कमाया जा सकता है, कमाया भी जाता हैं और यह संवैधानिक अधिकार भी हो सकता है जैसा कि माननीय उच्चतम् न्यायालय ने कहा है। लेकिन डांस बार में जिस प्रकार का डांस होता है वह प्रायः अश्लीलता की सभी हदे पार कर जाता है। जो हमारे नैतिकता के मूल्यों के विपरीत है। समाज में भी बार डांसर को हेय दृष्टि से देखा जाता है। (यद्यपि उसी डांस को फिल्मों में हम परिवार के साथ बैठकर देखते भी है) इसलिए बार डांस के द्वारा पैसा कमाना गलत तरीके से पैसा कमाना नहीं है तो और क्या है? एक अन्य तथ्य का यहा उल्लेख करना समाचीन होगा जहां उच्चतम न्यायालय ने महाराष्ट्र सरकार द्वारा बनाये गये डांस बार लाईसेंस के नियमों पर यह कथन किया कि इसकी शर्ते ऐसी है कि सरकार द्वारा प्रतिबंध (बेन) न लगाने के बावजूद इन शर्तो के कारण बार खोला जाना सम्भव नहीं है। क्या माननीय उच्चतम न्यायालय ने इस दिशा में खाद्य सुरक्षा एवं मानक अधिनियम 2006 के अंतर्गत 2013 में बने नियमों पर कभी ध्यान गया है? इस नियम में जिस तरह की शर्ते बनाई गई है, वे ठीक बार लाईसेंस की शर्तो के समान उतनी ही कड़क - कठोर व अव्यवहारिक है जिनके तहत सरकार भी यदि चाहे तो उन नियमों को पूर्णतः लागू करते हुए अपना रेस्टॉरेंट नहीं चला सकती है इन नियमों के सम्बंध में कभी माननीय न्यायालय ने ऐसा नहीं कहा कि इन नियमों के रहते कानूनन् कोई भी रेस्टॉरेंट नहीं चल सकता है। इस कारण से यह अधिनियम खाद्य् विभाग के लिए भ्रष्ट्राचार का बहुत बड़ा माध्यम बन गया है। 
मैं नहीं समझता कि महाराष्ट्र सरकार ने डांस बार प्रतिबंधित कर किसी कानून या नागरिक अधिकारों का उलंघन किया या जिसके लिए उच्चतम् न्यायालय को हस्तक्षेप करना पड़े। क्योंकि कोई भी नागरिक अधिकार निरपेक्ष या पूर्ण नहीं होता हैं। आखिर चुनी हुई सरकार को जनहित में (उसकी दृष्टि में) अपने विवेक के अनुसार निर्णय लेने का पूर्ण अधिकार प्राप्त है। और यदि कोई निर्णय जनता के विरूद्ध है तो पांच वर्ष बाद जनता के पास यह अधिकार है कि वह उस मुद्दे पर सरकार को मतदान के अधिकार द्वारा उखाड़ फेंके। तब यहॉं पर न्यायालय को हस्तक्षेप करने का क्या अधिकार है? विगत कुछ वर्षो में न्यायालय ने न्यायिक सक्रियता के रहते हुये बहुत से ऐसे  निर्णय दिये है जो सीधे या अप्रत्यक्ष रूप से उसके अधिकार क्षेत्र में आते प्रतीत नहीं होते है। चूंकि वे निर्णय प्रथम दृष्ट्या जनता के हित में हुए इसलिए वे जनता द्वारा स्वीकार कर लिए गये। फिर चाहे वह सीएनजी गैस-बस का मामला हो, डीजल टैक्सी का मामला हो, पर्यावरण का मामला हो, शनि सिंग्नापुर मंदिर में महिलाओं के प्रवेश का मामला हो, जल संकट के कारण आई.पी.एल मैच स्थानातंरित करने का मामला हो या इसी तरह के अन्य अनेक इसी तरह के मामले हांे। उच्चतम् न्यायालय का शायद यह प्रथम निर्णय है जो आम जनता के हित में न होकर समाज के एक छोटे से वर्ग की संतुष्टि मात्र के लिए दिया गया प्रतीत होता है। ‘‘न्यायिक सक्रियता’’ (जिसके संबंध में हाल में ही माननीय उच्चतम् न्यायालय के मुख्य न्यायधीश ने चिंता व्यक्त की है) के प्रभाव में न्यायालयों द्वारा न्यायिक निर्णयों के माध्यम से राज्य -केन्द्र शासन को समय -समय पर विभिन्न निर्देश कुछ करने या न करने के जो दिये गये है, उनसे यह लगता है कि न्यायपालिका अप्रत्यक्ष रूप से उन बहुत से क्षेत्रो में अपने उन निर्देश-निर्णयों के द्वारा शासन करने का आभास दे रही है, जो निर्णय वास्तव में एक चुनी हुई सरकार को लेने चाहिए थे। इसका दूसरा पहलू शायद न्यायपालिका द्वारा स्वयं को सुर्प्रीम मानना भी है। हाल में ही उत्तराखंड हाईकोर्ट द्वारा राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करने के मामले की सुनवाई के दौरान यह टिप्पणी की गई कि राष्ट्रपति राजा नहीं हैं जिसके आदेश की समीक्षा नहीं की जा सकती हैं। क्या यहीं सिंद्धान्त न्यायपालिका पर भी लागू नहीं होता हैं? यदि राष्ट्रपति सर्वोपरि नहीं तो न्यायपालिका के न्यायाधीश किस तरह सर्वोपरि मान लिये जॉंय। जबकि संविधान ने उच्चतम् न्यायालय के निर्णय के पूर्नावलोकन (रिव्यु) का प्रावधान किया हैं जिसका उपयोग करके कई बार उच्चतम् न्यायालय ने अपने पूर्व निर्णय को बदला भी है। 

    न्यायालय सरकार का ध्यान अवश्य उन मुद्दो की ओर आकर्षित कर सकती है ताकि सरकार उस पर तदानुसार निर्णय ले सके लेकिन उन मुद्दो पर आदेश देना भले ही वह जनहित में ही क्यों न हो, (जहां संविधान या कानून का उलंघन नही होता है,) वे न्यायालय की कार्य सीमा को अतिकृमित करते प्रतीत होते है। इसका कारण एक यह भी हो सकता है कि जब एक ‘‘संस्था’’ अपने उत्तरदायित्व के प्रति विफल हो रही हो तब दूसरी संस्था उस शून्य को भरने का प्रयास कर रही होती है। लेकिन दूरदृष्ट्रि में यह भारतीय लोकतंत्र के लिए न तो एक स्वस्थ्य परम्परा होगी न ही उसके ‘‘स्वास्थ्य’’ के लिए ठीक रहेगी। इसलिए यदि न्यायालय अपने क्षेत्राधिकार में रहकर सरकार की गलतियों को या उनके जनहितैषी  कर्तव्य के प्रति उदासीनता को समय-समय पर चेताने की सीमा तक उजागर करे तो उससे संवैधानिक संस्था विधायिका अपनी गलतियों को सुधारकर दूर करने के लिए सतत् प्रयत्नशील रहेगी, और तभी एक स्वस्थ्य लोकतंत्र सुचारू रूप से कार्य कर पायेगा जिसकी कल्पना हमारे संविधान निर्माता बाबा साहब डॉ. भीमराव अम्बेड़कर ने की थी। 

शनिवार, 23 अप्रैल 2016

क्या ‘‘लेडीज-र्फस्ट’’ कहने का युग समाप्ति की ओर हैं?

शनि शिगनापुर मंदिर के बाद अब सबरीमाता मंदिर में महिलाओं के प्रवेश के मामले में माननीय उच्चतम् न्यायालय ने सुनवाई करते हुये कहा कि- ‘‘लैंगिग आधार पर महिलाओं को मंदिर मेें प्रवेश से रोका नहीं जा सकता हैं। यदि कोई परम्परा है तो वह भी संविधान के ऊपर नहीं है। परम्परा को संविधान के प्रावधान की कसोटी पर कसा जा सकता है। स्त्री पुरूष की समानता संविधान का संदेश है।’’
माननीय उच्चतम् न्यायालय ने उपरोक्त निर्णय देते हुए निश्चित ही पुरूषों एवं महिलाओं के बराबरी के अधिकार की संवैधानिक व्यवस्था की रक्षा की है। लेकिन माननीय उच्चतम् न्यायालय ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि ‘‘महिला आरक्षण’’ से सम्बंधित विधेयक बहुत समय से संसद में लंबित है। संविधान में जो आरक्षण की व्यवस्था है वह एससी, एसटी समुदायों में उनके पिछडेपन होने के कारण की गई थी। लेकिन प्रस्तावित महिला आरक्षण लिंग के आधार पर दिया जा रहा है, जिस कारण उपरोक्त निर्णय के प्रकाश में गैर संवैधानिक हो जायेगा।  कुछ राज्यों में पंचायत स्तर पर महिलाओं को लिंग के आधार पर आरक्षण दिया गया हैं उनकी वैधानिक व संवैधानिक स्थिति क्या होगी? माननीय उच्चतम् न्यायालय को इस संबंध में तुरन्त स्थिति स्पस्ष्ट करनी चाहिए।

रविवार, 20 मार्च 2016

‘‘श्री ’’ ‘‘श्री’’ ‘‘रविशंकर’’ का आध्यात्मिक सांस्कृतिक कार्यक्रम! एक समीक्षा!

राजीव खण्डेलवाल:
    ‘‘श्री’’ ‘‘श्री’’ ‘‘रविशंकर’’ गुरू महाराज जी केवल भारत के ही नहीं वरण् विश्व के एक बहुत बड़े ख्याति प्राप्त आध्यात्मिक गुरू हैं। सामान्यतः ‘‘श्री’’ एक सम्मान सूचक संबोधन होता है जो एक नागरिक को सम्मान प्रदान हेतु बोला जाता हैं। जब एक ‘श्री’ के साथ दूसरा ‘श्री’ भी जोड़ा जाय  तो वह सम्मान महासम्मान व श्रद्धा बन जाता हैं। ‘श्री श्री’’ की इस महत्ता व गुणवत्ता से कतई इंकार नहीं किया जा सकता है। आध्यात्मिक गुरू, कानून के आधार एवं शक्ति बल के आधार पर नहीं बल्कि स्वयं के नैतिक बल एवं अपने शिष्यों के नैतिक बलों की धरोहर के आधार पर स्वतः की आध्यात्मिक वाणी कीे ताकत से विश्व में शांति, भाईचारा, सामाजिक समरस्ता, समग्रता के विकास व समानता की भावना को हित ग्राहियों (शिष्यों) के बीच फैलाकर व उसे सिंचित कर उनमें सब आवश्यक तत्वों को पल्लवित होने देने का फायदा देकर उनको मजबूत बनाने का का प्रयास करते हैैं।
      हाल ही में आर्ट आफ लिविंग संस्था के संस्थापक ‘‘श्री श्री जी’’ का वैश्विक आध्यात्मिक सांस्कृतिक सम्मेलन हुआ। संख्या, विराट स्वरूप व भव्यता, सांस्कृतिक सद्भाव और विभिन्न सांस्कृतिक पहचान की दृष्टि से यह एक उच्च कोटी का सफल आयोजन हुआ, इस तथ्य से कोई भी इंकार नहीं कर सकता हैं। आध्यात्मिक शक्ति के पुंज ‘‘श्री श्री’’ विचारों से भी विवादों से लगभग परे रहे हैं। लेकिन प्रश्न तब उत्पन्न होता हैं जब ऐसे श्रद्धेय आध्यात्मिक गुरू के नेतृत्व में होने वाला कार्यक्रम भी नियम/कानून के उल्लंघन के आरोप सिद्ध पाये जाकर जुर्माने से आरोपित हुए। स्थिति तब और भी विचित्र बन गई जब देश व अंतर्रार्ष्ट्रीय जनता को दिशा दिखाने वाले गुरू (पल भर के लिये स्वयं सत्यमेव के रास्ते से जरा हटकर) ऐसे आरोपित ‘‘जुर्माना भरने के बजाय  जेल जाना पसंद करंेगे’’ जैसे कथन कह जाते हैं।
    भारत में, भारतीय दंड़ संहिता से लेकर अनेक ऐसे अधिनियम लागू है जिनकी धारा उपधारा, क्लाज, नियम के उल्लंघन पर सजा का प्रावधान हैं, जो मुख्यतः तीन प्रकार की है। प्रथम फाईन (जुर्माना) दूसरी सेन्टेन्स (जेल) एवं तीसरी ‘‘जुर्माना व सजा दोनों’’। ‘‘श्री श्री’’ गुरू जी की संस्था द्वारा कार्यक्रम के प्रायोजन के संबंध में राष्ट्रीय हरित न्ययाधिकरण (एन.जी.टी.) ने अपने नोटिस के प्रत्युत्तर व बहस पर विचार करने के बाद आर्ट आफ लिविंग संस्था पर ढाई करोड़ का जुर्माना आरोपित किया।
  इस प्रकार उक्त संस्था द्वारा आयोजित कार्यक्रम विधान-नियम की नजर में गैर कानूनी तुल्य बन जाता हैैं। फाईन जमा कर देने भर से उसका वैधानिक गैर कानूनी स्वरूप बदल नहीं गया  है। यद्यपि गैर कानूनी होने के बावजूद वह कार्यक्रम तय समयानुसार हो सका तो केवल इसलिये चॅूकि ट्रिब्यूनल ने कार्यक्रम को रोकने के आदेश नहीं दिये थे। ऐसा भाषित होता हैं कि विश्व के सबसे बड़े आध्यात्मिक गुरू की संस्था द्वारा आयोजित कार्यक्रम पर जुर्माना आरोपित हो जाने से उसकी  वैधानिक नैतिकता पर धब्बा लग जानेे के कारण ही उसमें (देश की शासन व्यवस्था के सर्वोच्च महामहिम) राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने भाग नहीं लिया। शायद राष्ट्रपति ने उक्त कार्यक्रम में भाग न लेकर उस कार्यक्रम की नैतिकता पर अप्रत्यक्ष रूप से प्रश्न चिन्ह ही ल्रगा दिया? अपितु  राजनीति के चलते, राजनैतिक फायदे के मद्ेदनजर प्रधानमंत्री मोदी वैसा ही दृढ़ इच्छा शक्ति नहीं दिखा पाये। चूॅकि कार्यक्रम ‘‘स्थल’’ वहीं था यमुना नदी के तट जिस पर पर्यावरण केा होने वाली क्षति को देखते हुये ट्रिब्यूनल ने जुर्माना आरोपित किया था।
इस घटना ने भारतीय संस्कृति की इस अवधारणा को पुनः रेखांकित भी किया है कि कोई भी व्यक्ति पूर्ण नहीं होता है, चाहे वह विश्व के आध्यात्मिक गुरू ही क्यों न हो। सिर्फ और सिर्फ ईश्वर ही पूर्ण हैं। लेकिन ईश्वर के आस-पास पहंुचने का सबसे महत्वपूर्ण साधन भी  गुरू ही होता है। क्योकि वह लगभग पूर्ण होता हैं और इसीलिए तो वह सामान्य मानव से ज्यादा पूज्यनीय होता हैं। ‘‘श्री श्री’’ की इसी धारणा को इस कार्यक्रम से किंचित ठेस पंहुची हैं। इस प्रसंग का भविष्य में खयाल रखा जाना चाहिये। यद्यपि देश में गुरू, महात्मा, पीले वस्त्रधारी संत तो अनेकानेक, अनगिनत है, लेकिन गैर विवादितो की संख्या इतने बड़े कुंभ में गिनती करने लायक मात्र ही हैं। क्या आने वाला ‘‘कुंभ’’ जनता को ऐसी कंुभकरणीय नींद से जगाकर नैतिकता की धारा प्रवाहित कर सकेगा? इसी प्रश्न के साथ? उम्मीद करने के अलावा कोई चारा भी तो नहीं है!

(लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार एवं पूर्व नगर सुधार न्यास अध्यक्ष हैं)

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