बुधवार, 8 जून 2016

मथुरा में दो वर्ष पुराने अवैध कब्जे को मात्र दो घंटे में हटाने के लिये पुलिस प्रशासन को कुछ तो शाबासंी बनती है?

      भगवान श्रीकृष्ण जी की जन्मस्थली मथुरा में लगभग 280 एकड़ में फैले हुये ऐतिहासिक जवाहर बाग (जवाहरलाल नेहरू के नाम पर) पर दो वर्ष से अधिक अवैध कब्जे (अतिक्रमण) को माननीय उच्च न्यायालय के आदेश के परिपालनार्थ हटाने में बडी हिंसक कार्यवाही हुई, कप्तान सहित दो पुलिस ऑंफिसर शहीद हुये और 27 उपद्रवी अतिक्रमणकारी लोग मारे गये व इससे कहीं ज्यादा लोग धायल हुये। यह पूरे देश के मीडिया से लेकर समस्त क्षेत्रो में न केवल चर्चा का विषय ही बना बल्कि गंभीर ंिचंता का विषय भी है। जवाहर बाग में रामवृक्ष यादव के संगठन आजाद भारत विधिक विचारक क्रांति सत्यागृही के सत्यागृहीयों को मात्र दो दिन के लिये  दी गई सत्यागृह की अनुमति दो साल के अवैध कब्जे में कैसे परिवर्तित हो गई? वहां अवैध रूप से हथियारांे का जखीरा व बारूद जमा करने दिया गया जिसने पुलिस प्रशासन, स्थानीय जांच ब्यूरो (एल.आई.बी) व जांच ब्यूरो (केन्द्रीय) पर भी न केवल प्रश्न वाचक चिन्ह लगा दिया हैं, बल्कि उ.प्र. सरकार की तथाकथित बची हुई साख पर गहरा बट्टा भी लगाया हैं। निश्चित रूप से अखिलेश सरकार को चौतरफा आलोचना का शिकार होना पड़ा हैं जो केवल राजनीति के चलते, राजनीति के कारण ही नहीं वरण वस्तु परक स्थिति के कारण भी हुई, जिसे कदापि गलत नहीं कहा जा सकता हैं। 
     जवाहर बाग जो मथुरा शहर के बीचो बीच स्थित हैं, चारो तरफ से कलेक्टर, जिला पुलिस व जिला न्यायालय दफ्तरों व सरकारी निवासो से घिरा हुआ हैं। सेना की छावनी भी पास में ही हैं। न्याय व कानून व्यवस्था के लिये जिम्मेदार उक्त समस्त अधिकारियों के सतत् 24.7 ठीक नाक के नीचे एवं आंखो के आगे अवैध हथियारो का जखीरा जमा होता रहा जिसका नेतृत्व जय गुरूदेव का तथाकथित शिष्य, अपराधी, स्वंय भू स्वाधीन सम्राट रामवृक्ष यादव कर रहा था। जिसके खिलाफ पूर्व से ही कई आपराधिक प्रकरण दर्ज थे। उसे सत्यागृह की इजाजत कैसे मिली। जिस तरह की उसकी अजीबो-गरीब मांगे व नारे थे, जो किसी भी रूप से किंचित राष्ट्रीयता का पुट लिये हुये नहीं थी। भारत देश के सबसे बडे़ प्रदेश के अंदर 280 एकड़ जमीन पर वह दो वर्ष से अधिक की लम्बी अवधि तक कब्जा बना रहा। वहां रामवृक्ष यादव के नेतृत्व में अवैध तथाकथित राष्ट्रवाद कैसे पनपता रहा जिसकी भनक तक या तो प्रशासन को थी ही नहीं और यदि थी तो त्वरित व प्रभावी कार्यवाही नहीं की गई, तथा स्थिति को बिगड़ने से रोकने के लिये समय रहते समुचित ऐतहातिक कदम क्यों नहीं उठाये गये। इन सबकी जॉंच सी.बी.आई एवं न्यायिक जॉच आयोग द्वारा गहराई से होना अत्यंत आवश्यक हैं। दोनों सस्थाओं के द्वारा जॉच इसलिए जरूरी है कि इसमें दो तरह की मुद्दे शामिल है। एक तरफ तो दो वर्ष से अर्कमण्य बने रहे शासन व प्रशासन जिस कारण से गैर कानूनी हरकते बढ़ी व रामवृक्ष को अवैध हथियारों का जखीरा बढ़ाने का अवसर मिला तो दूसरी ओर दो जून को अप्रत्याशित हिंसक वारदात हुई। इनके कारण व संबंधित अधिकारियों, व्यक्तियों की जिम्मेदारी तभी तय हो पायेगी जब दोंनो संस्थाओं द्वारा जॉच होगी।

    उच्च न्यायलय के आदेश के रहते हुये उ.प्र. सरकार केवल बातचीत के जरिये अतिक्रमण हटाने का असफल प्रयास करती रही। चूंकि बातचीत का दौर प्रक्रिया में था इसलिये उसे ही आगे बढ़ाते हुये दो जून को पुलिस प्रशासन जमीन को अतिक्रमणकारियांे (उपद्रवियो व सत्यागृहियों) से रिक्त करवाने हेतु चर्चा करने की मंशा से गए थे, किसी भी प्रकार के बल प्रयोग के साथ सीधे कार्यवाही करने नहीं गये थे। उ.प्र. पुलिस महानिदेशक के इस कथन पर अविश्वास करने का कोई कारण नहीं है कि पुलिस प्रशासन उस दिन अतिक्रमण हटाने की सीधी कार्यवाही करने के लिये नहीं गया था। उसे आपरेशन दो दिन बाद करना था। उनकी यह स्वीकारिता महत्वपूर्ण हैं कि पुलिस विभाग अतिक्रमण कारियो के माइंड सेट के आकलन पूर्वानुमान में बिल्कुल असफल रहा जिस कारण से ही बातचीत कर रहे पुलिस बल पर अतिक्रमणकारियों व उपद्रवियांे ने सुनियोजित ढंग से अचानक अप्रत्याशित पत्थराव व गोलियों द्वारा गुरिल्ला हमला कर दिया जिसमें दो पुलिस अधिकारी शहीद हुये व 27 लोग मारे गये। पुलिस प्रशासन द्वारा अतिक्रमण हटाने के लिये अतिरिक्त पुलिस बल की मंाग भी की गई थी। मीड़िया के एक भाग में इस बात का भी जिक्र हुआ है कि पुलिस प्रशासन को उपद्रवियों के उत्तेजना-पूर्व कार्यवाही के इनपुट मिले थे तथा हथियारो का जखीरा जमा किए जाने के संबंध में भी इनपुट मिले थे। जिला मजिस्ट्रेट को स्थानीय पुलिस कार्यवाही की सूचना नहीं थी। पुलिस प्रशासन हिंसक कार्यवाही से बचने के लिये ही बातचीत का दौर बढा रहा था, या इसके पीछे कोई राजनैतिक दबाव व षड्यंत्र था, यह जांच का विषय हैं। इन परिस्थितियों में पुलिस बल पर अचानक पत्थर व गोलियों से हमला हो गया, जिसमें शहर एसपी के सिर पर पत्थर से चोट आई व नगर निरीक्षक को गोली लगी। पुलिस की अक्षमता सिद्ध होने के बावजूद इन सब विषम व अप्रत्याशित परिस्थितियों के मध्य मात्र दो घंटे के अंदर उपद्रवियों को खदेड़ कर जमीन को अतिक्रमण मुक्त करवा लेने के लिये क्या पुलिस प्रशासन की आलोचना के साथ ऐसे ‘‘मुक्ति’ कार्य के लिये’’ उसे शाबासी देने की बात नहीं बनती है? 

    आज के वर्तमान युग में कोई भी संस्था, व्यक्ति व व्यक्तिगत या संस्थागत कार्य योजना पूर्णतः सफल या असफल नहीं होती हैं। हर विधा पर सफलता के साथ असफलता का रंग भी चढ़ा होता हैं। इस दृष्टि से जिला पुलिस प्रशासन ने जिस तरह दो घंटे के अंदर ही अपने दो अधिकारियों की शहादत देकर भी अतिक्र्रमित जमीन पर जिस तीव्रता से कब्जा प्राप्त कर उच्च न्यायालय के आदेश का परिपालन किया हैं (कंजूसी से ही सही) उसके लिये पुलिस बल को शाबासी अवश्य दी जानी चाहिये। व्यक्तित्व अच्छा व बुरा दोनो गुणों का समिश्रण होता हैं। तब बुराईयो के बीच किये गये अच्छे कार्य के लिये व्यक्ति की प्रशंसा भी अवश्य की जानी चाहिये ताकि व्यक्ति को अच्छे गुणों को विकसित करने का प्रोत्साहन मिल सके। अन्यथा मात्र आलोचना भर करते रहने से व्यक्त्तित्व का उजला पक्ष विकसित ही नहीं हो पायेगा।
   

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