सोमवार, 25 जनवरी 2021

सरकार के ‘‘प्रस्तावों’’ पर किसान संघों का अचंभित करने वाला ‘‘अडंगा’’ रवैया! ‘‘आंदोलन’’ के मूलभूत मान्य सिंद्धातों की ‘‘अवमानना’’ नहीं है?

जिस प्रकार 1 से लेकर 10 तक की गिनती होने के बाद वापिस एक के अंक पर ही आना होता है। ठीक उसी प्रकार सरकार व किसानों के बीच चल रही 10 वें दौर की बातचीत के समापन के बाद ग्यारवें दौर की बातचीत में परिणाम असफल होकर दोनों पक्ष वापिस वहीं पर पंहुच गये, जहां से बातचीत का दौर प्रारंभ हुआ था। सामान्यतः किसी भी ‘‘आंदोलन’’ का यह एक मान्य सिद्धान्त है कि, उनकी समस्त मांगे न तो सच व सही होती हैं और न ही पूर्ण की जाती हैं या पूर्ण हो पाती हैं। ठीक उसी प्रकार, जिस प्रकार राजनैतिक दलों के घोषणा पत्र के समस्त बिन्दु, मुद्दे वास्तविक धरातल पर न तो सच व सही होते हैं और न ही  पार्टी की सरकार बनने की स्थिति में भी वह पूरा कर पाती है या करने की इच्छा रखती है। कुछ न कुछ जुमले बाजी अवश्य ही होती है, जैसा कि प्रत्येक व्यक्ति के खाते में काले धन के 15 लाख रुपये जमा किये जाने की घोषणा, प्रथम कैबिनेट में कर्ज माफ़ी की स्वीकृति आदि आदि। कुछ मुद्दे सिर्फ सचित्र व सुंदर छपे हुये घोषणा को मात्र अंलकृत करने के लिये, उसे लोक-लुभावन बनाने के लिये जोड़े व लिखे जाते हैं। किसान आंदोलन की समस्त मांगों का भी कमोबेश यही रूप व चरित्र है। 

मूलरूप से किसानों का आंदोलन, प्रारंभ में मुख्य रूप से एमएसपी को क़ानून बनाने की मांग को लेकर प्रांरभ हुआ था। यह आज भी समझ से परे है कि ‘‘हींग लगे न फिटकरी रंग चोखा’’ अर्थात, अतिरिक्त रूप से बोझ आये बिना, एमएसपी को क़ानूनी रूप देने में सरकार को दिक्कत क्या है? सरकार इसे आजतक भी स्पष्ट करने में असफल रही है। सिवाए इसके, कि ‘‘सरकार एमएसपी दिये जाने का लिखित आश्वासन देने का‘‘ कथन लगातार कर रही है। लिखित आश्वासन को क़ानूनी अमला पहनाने में हिचक क्यों? जिस प्रकार एक सही सामान्य कथन को भी विश्वसनीयता प्रदान करने के लिए उसे शपथ पत्र पर दिया जाता है, ठीक उसी प्रकार यदि इसे भी क़ानूनी ज़ामा पहना दिया जाता तो आंदोलन कर रहे किसान नेताओं की ज़मीन ही खिसक जाती और आंदोलित आम किसान उसे स्वीकार कर ‘‘ट्रैक्टर‘‘ सहित (26 जनवरी को दिल्ली में ट्रैक्टर रैली प्रस्तावित की गई है) अपने खेत खलिहान वापिस चला जाता। उसे ट्रैक्टर को राजपथ पर लाने की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी। किसानों को ‘‘उन्हीं के पिच‘‘ पर मात दी जा सकती थी। इस सीमा तक तो सरकार की असफलता, अक्षमता और अविवेक पूर्ण नीति ही परिलक्षित होती है।

परंतु सरकार ने आगे बढ़कर इस दोष को दूर करने हेतु उक्त तीनों कृषि सुधार क़ानूनों के क्रियान्वयन पर रोक की इच्छा व्यक्त करके विद्यमान परिस्थितियों को देखते हुए एक बहुत बड़ा साहसिक व सामने वाले पक्ष को संतुष्ट करने वाला क़दम उठाया है, जिसके लिये सरकार की, ख़़ासतौर से कृषि मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर की भूरि-भूरि प्रशंसा अवश्य की जानी चाहिये। वह इसलिए भी की, जिस सरकार ने संसद में संवैधानिक रूप से प्रस्ताव पारित कर तीनों क़ानून बनाये हों उन क़ानूनों को, समझौते हेतु सहमति बनाने के उद्देश्य से वह 18 महीने तक लागू न कर, प्रभावहीन करने की इच्छा व्यक्त करना साधारण क़दम नहीं है। सरकार ने ‘‘पूरे कुएं में बांस ड़ाल कर’’ देख लिया है। इस प्रकार सरकार अपने कर्तव्यों की पूर्ति कर मुक्त हो गयी। जिस कारण किसानों की सबसे बड़ी मांग, कि तीनों कृषि क़ानून रद्द किये जायें, के लगभग 99 प्रतिशत निकट पंहुुच गयी। एक क्रिकेटर को जब 99 रनों के बाद शतक बनाना होता है तब एक रन और जोड़े जाने में वह कई बार हड़बड़ाहट में असफल हो जाता है। वही हाल यहां पर किसान के सहयोग से बनने वाले एक सैकड़ा (शतक) का भी हुआ। परन्तु यहां पर ऐसा नहीं हुआ कि एक रन सरकार की हड़बड़ाहट के कारण नहीं बन पाया हो, दरअसल वह ‘गेंद’ फेंकी ही नहीं गयी और वह रिजेक्ट कर दी गयी। इस प्रकार सरकार 99 पर ही अटक गयी। परन्तु यदि सरकार शतक बना लेती (किसान सरकार के इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लेते) तो इसकी ख़ुशी में किसान सहित पूरा देश शामिल होता। 

चूंकि सरकार किसानों की मांगों को ‘‘अटका बनिया दे उधार की तर्ज पर‘‘ पूरा होने के निकट तक खींच चुका था और सुप्रीम कोर्ट की गठित कमेटी के अस्तित्व में होने के बावजूद (किसान संगठनों को उन नामों के निष्पक्ष न होने के कारण आपत्ति थी) सरकार एक नयी कमेटी किसानों की सहमति से बनाने को तैयार हो गयी। तब उक्त तीनों क़ानूनों के जीवन-मरण के निर्णय को उक्त सहमति से बनने वाली समिति पर छोड़ दिया जाना ज्यादा उचित होता। वैसे भी किसानों की यह ज़िद बच्चों वाली है, या किसी दुर्भावना से अभिप्रेरित है, इसमें अंतर करना अब मुश्किल लग रहा है। क्योंकि एक सार्वभौमिक सरकार ने संसद द्वारा पारित वे क़ानून जहां अभी भी उनके समर्थन में न केवल सांसदों का बहुमत विद्यमान है, बल्कि किसानों का एक महत्वपूर्ण वर्ग भी उनके समर्थन में है, के कारण उक्त तीनों क़ानूनों को ‘‘कराल काल के विकराल गाल’’ में समा जाने देना न तो प्राकृतिक है और न ही न्यायिक व औचित्यपूर्ण होगा। सरकार ने स्पष्ट रूप से यह कहा कि किसान संगठन उक्त तीनों क़ानूनों के ‘‘काले प्रावधान’’ (किसानों के अनुसार) सरकार के समक्ष तथ्यों और सुझावों के साथ पेश करें। सरकार उन पर गंभीरता पूर्वक पुनर्विचार करने के लिये तैयार है। आपको आम खाने से मतलब है, न कि गुठलियां गिनने से। ‘‘बद अच्छा पर बदनाम बुरा’’ वाली स्थिति ठीक नहीं होती है। अतः आप क़ानून को बदनाम मत कीजिये, क़ानून के अवांछित व गलत प्रावधानों को बताइये। यही सही और सकारात्मक क़दम होगा और तभी सहमति पर पहुंचने का मार्ग प्रशस्त होगा। 

सामान्यतः किसी आंदोलन के लम्बे चलते जाने पर हमने यह कहते हुए जरूर सुना है कि आंदोलनकारियों के सब्र की परीक्षा मत लो, उनका सब्र टूट जायेगा, जिससे बाढ़ आ जायेगी। लेकिन यहां पर तो सरकार के सब्र की परीक्षा ही ली जा रही है, ऐसा लगता है। कुछ लोग तो सरकार के सब्र को तोड़कर ‘सैलाब’ लाने के लिये कुछ न कुछ ख़ुराफात कर समझौते में रूकावट पैदा करने की कोशिश भी कर रहे हैं, जैसा कि कृषि मंत्री ने आरोप भी लगाया है। जिस प्रकार आदोंलनकारियों के 65 दिन से चले आ रहे अंहिसात्मक आंदोलन के धैर्य व शांति की प्रंशसा की जानी चाहिए व विश्व रिकाॅर्ड में दर्ज की जानी चाहिये, वही स्थिति सरकार की भी रही है। सरकार द्वारा बातचीत के विभिन्न दौरों में कुछ न कुछ आगे बढ़कर सकारात्मक क़दम, उठाने व स्वीकार करने के (बावज़ूद इसके कि किसानों का एक समूह संसद द्वारा पारित का़नूनों का समर्थन कर रहा है) द्वारा सरकार भी अपने धैर्य की परीक्षा में सफल रही है। यह भी वल्र्ड़ रिकाॅर्ड में दर्ज किया जाना चाहिये। इन दोनों तथ्यों के वल्र्ड रिकाॅर्ड में दर्ज करने के अलावा एक और चीज, तो रिकाॅर्ड के लिए नहीं रह गई है? वह है 65 दिनों से लगातार 11 दौर की बातचीत होने के बावजूद कोई परिणाम न निकलने वाला तथ्य भी शायद विश्व रिकाॅर्ड ही होगा। इस परीक्षा में परीक्षक व परीक्षार्थी दोनों फेल हो गये या दोनों पक्ष परीक्षक बन गये? परीक्षार्थी कोई नहीं रहा, इसीलिये परिणाम नहीं आये। इसका आंकलन तो भविष्य में इतिहास ही करेगा।   

एक बात जरूर किसानों से पूछना चाहता हूं कि मैंने आंदोलन के संबंध में लिखे कई लेखों में सकारात्मक रूप से कुछ सुझाव दिये है। एमएसपी पर क़ानून के मुद्दे पर किसान नेता कहीं न कहीं आम किसानों के साथ छल कर उन्हे भ्रमित कर रहे हैं। एमएसपी का क़ानून बन जाने से भी एक आम 5 एकड़ से कम रक़बे वाला लघु किसान जो कि कुल किसानों की संख्या का लगभग 85 से 90 प्रतिशत तक है, उनमें से अधिकांशतः को तो एमएसपी का फायदा ही नहीं मिल रहा है। क्योंकि किसान नेता वे दो मांगें स्पष्ट ,प्रमुख व प्रभावी रुप से नहीं कर रहे हैं, जो उनको लाभ मिलने के लिये जरूरी हैं। एक तो एमएसपी का का़नून सिर्फ सरकारी मंडियों में ही नहीं बल्कि समस्त निजी मंडियों पर भी लागू होना चाहिए। और दूसरा यह कि न्यूनतम ख़रीदी जो अभी कुल कृषि उत्पादन का मात्र 6 से 8 प्रतिशत तक ही सीमित है, उसकी ख़रीदी की मात्रा बढ़ायी जाकर न्यूनतम मात्रा की ख़रीदी का क़ानून भी बनाया जाना चाहिये। और उसमें भी 80 प्रतिशत तक छोटे किसानों की ख़रीदी को प्राथमिकता दी जाये। तभी धरतीपुत्र कहे जाने वाले अधिकतम किसानों को इस क़ानून का फ़ायदा मिल पायेगा और तभी आंदोलन सफल कहलायेगा। क्योंकि एमएसपी का क़ानून बन जाने के बावजूद भी ख़रीदी न किये जाने की स्थिति में क़ानून का कोई उल्लंघन नहीं होगा। अन्यथा अभी तो जो लोग एमएसपी पा रहे हैं, वे किसानों के नेता बन कर मंच पर सुशोभित हैं, और जो एमएसपी की आस लगाये बैठे हैं, वे ‘‘धरतीपुत्र‘‘ मंच के सामने धरती पर "विस्थापित" हैं। हर आंदोलन व संगठन के समान ही अंतिम सीमा पर खड़े रहने वाले (अन्त्योदय का असली पात्र) व्यक्ति की वही स्थिति वर्तमान में विद्यमान है। यह शाश्वत कटु सत्य है। जिस पर नेताओं की "नेतागिरी" और मीडिया की "पत्रकारिता" का ध्यान नहीं जाता है।

अंत में वर्तमान में चल रहे आंदोलन व तदनुसार वार्ता के संबंध में एक सबसे महत्वपूर्ण और स्थापित तथ्य यह है कि, सामान्यतया किसी भी मांग या आंदोलन के संबंध में दोनों पक्षों की मानसिकता दो कदम आगे बढ़ाकर एक कदम पीछे खींचने की रहती है, ताकि अंततः समझौते पर पहुंचने की गुंजाइश बनी रहे। वर्तमान संदर्भ में सरकार ने तो इस मानसिकता का पूर्ण पालन किया है, विभिन्न दौर की बातचीत के दौरान कुछ महत्वपूर्ण संशोधन प्रस्तावित कर सरकार अपने स्टैंड से पीछे हटी है। लेकिन आंदोलित किसान नेताओं के इस मानसिकता की ओर तनिक भी न देख पाने के कारण, अंगद के समान पैर जमा लेने से (टस से मस हुए बिना), वार्ता के परिणाम नहीं निकल पाए हैं, इस सच को किसान नेताओं को गंभीरता से लेना चाहिए। यदि भविष्य में वार्ता के टेबल पर आना है तो?

रविवार, 24 जनवरी 2021

आखिर! माननीय ‘‘न्यायालय’’ ‘‘स्वयं की अवमानना‘‘ में क्यों लगा हुआ है?


माननीय उच्चतम न्यायालय ने तीनों कृषि सुधार कानूनों और इसके विरोध में चल रहे किसान आंदोलन के संबंध में दायर याचिकाओं पर विगत दिवस सुनवाई करते हुए एक चार सदस्यीय समिति के गठन कर आदेश पारित किया था। न्यायालय ने समस्त पक्षों से उम्मीद की थी कि वह अपना अपना पक्ष इस समिति के सामने रखें। समिति को दो महीने के भीतर अपनी रिपोर्ट सीधे उच्चतम न्यायालय को सौंपने के निर्देश भी दिये गये। इस अंतरिम आदेश व पिछले कुछ समय से पारित आदेशों को देखने से लगता है कि उच्चतम न्यायालय अपने द्वारा पारित आदेशों के लागू होने के प्रति क्या उतना ही गंभीर है, जितना आदेश पारित करने के प्रति है? हम सब ने यही पढ़ा है, जाना है और यही हमारी संवैधानिक व्यवस्था है कि माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा पारित आदेश अंतिम होता है, जो समस्त नागरिकों पर लागू होता है और पूरे देश पर लागू होता है। (पूर्व में कुछ अवस्थाओं में जम्मू और कश्मीर को छोड़कर, जो व्यवस्था अब समाप्त कर दी गयी है)। इसीलिये उसे ‘‘लाॅ ऑफ लैंड‘‘ कहा जाता है।

माननीय उच्चतम न्यायालय ने उक्त चार सदस्यीय समिति के गठन का आदेश पारित करते समय क्या वह सावधानी का पालन और सिद्धांत का ख्याल रखा कि उनके द्वारा पारित आदेश का पालन संभव हो पायेगा? कितना हो पायेगा? और नहीं हो पायेगा तो  क्या वह अवमानना की सीमा में आयेगा? और नहीं आयेगा तो ऐसे आदेश पारित कर ‘‘कागज काले करने‘‘ का औचित्य क्या?आदेश पारित करने के पूर्व, समिति का गठन करने के पहले उक्त चारों व्यक्तियों से क्या उनकी सहमति ली गयी थी? बल्कि यह कहा जाए तो ज्यादा सही होगा कि उनकी सहमति नहीं ली गई। और यदि सहमति ली गयी तो इसकी प्रक्रिया कब प्रारंभ हुई? और यदि सहमति लेने की प्रक्रिया प्रारंभ हो गयी थी तो, इसका मतलब यह निकलता है कि माननीय न्यायालय एक ‘‘माइंड सेट‘‘ लेकर सुनवाई के लिये बैठे थे? वैसे एक सदस्य श्री भूपिंदर सिंह मान का समिति से इस्तीफा देना इस बात को प्रदर्शित करता है कि समिति के गठन करने के पूर्व सदस्यों से उनकी सहमति नहीं ली गयी। समिति के सदस्यों की पिछली भूमिकाओं के साथ उनके विचार वर्तमान का़नून के बाबत जो कुछ भी मीडिया के माध्यम से सामने आया है, उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि वर्तमान में उनके विचार तीनों कृषि सुधार क़ानूनों के संबंध में कहीं न कहीं पक्ष में हैं। इस प्रकार जिस हक़ की लड़ाई किसान लड़ रहे हैं, समस्या सुलझाने के लिए निष्पक्ष मत के बजाय एक निश्चित दिशा का मत रखने वाले सदस्यों का समिति में होना किसी भी रूप में न्याय देने की दिशा में उठाया गया कदम नहीं कहला सकता है।

न्याय का एक मान्य सिद्धांत है कि ‘‘न्याय सिर्फ होना ही नहीं चाहिये, बल्कि होता हुआ दिखायी भी देना चाहिये‘‘। अर्थात न्याय में ‘‘परसेप्शन‘‘ (अनुभूति, धारणा) का भी उतना ही महत्व है, जितना निर्णय देने का या न्याय मिलने का। और न्याय की इस धारणा (परसेप्शन) का समिति गठित का आदेश पारित करने में न केवल पूरा अभाव है, बल्कि यह कहा जाये कि पूरा उसके विपरीत ही है तो, गलत नहीं होगा। भाजपा द्वारा इन सदस्यों के चयन को इस आधार पर सही ठहराने का प्रयास किया जा रहा है कि इनका पिछला आचरण व आवरण यूपीए सरकार या कांग्रेस के ज्यादा निकट था। ये प्रबुद्ध, बुद्धिजीवी और विशिष्ट क्षेत्रों में अपनी विशेषता बनाये हुए विशेषज्ञ व्यक्ति हैं, इसलिए उनकी आलोचना उचित नहीं है। समिति के सदस्यों की विशेषता, विशेषज्ञता योग्यता, बुद्धि, कौशल पर कोई प्रश्न-चिन्ह नहीं है। लेकिन वे उपरोक्त गुणों के साथ कृषि सुधार क़ानूनों के संबंध में जिन विचारों को लेकर वर्तमान में चल रहे हैं, निश्चित रूप से उनकी वह विचारधारा और मत वर्तमान में इस समस्या के एक पक्ष ‘‘किसानों के आम मतो की विरोधी‘‘ हैं। इसलिये उनसे निष्पक्ष न्याय की उम्मीद करना व्यवहारिक कदापि नहीं होगा। एक माननीय सदस्य के इस्तीफे से इस बात की लगभग पुष्टि भी होती है। माननीय उच्चतम न्यायालय से इतनी बड़ी ‘‘चूक‘‘ कैसे हुई, यह समझ से परे है। यदि यह चूक वास्तविकता के निकट है तो, निश्चित रूप से उच्चतम न्यायालय को स्वयं संज्ञान लेकर समिति का पुनर्गठन करना चाहिए। दोनों पक्षों से दो दो नाम लेकर एक नाम माननीय उच्चतम न्यायालय प्रस्तावित करे, सही स्थिति तो यही होगी। ‘‘सहज पके सो मीठा होय‘‘।

बात अब उच्चतम न्यायालय के इस आदेश के पालन और परिपालन न होने पर उसके परिणाम की चर्चा कर लें। समिति के गठन के बाद सरकार और किसानों के बीच नौवें दौर की बातचीत पूर्वानुसार बिना किसी निष्कर्ष के इस सहमति के साथ संपन्न संपन्न हो गयी कि अगले दसवें दौर की बातचीत 19 तारीख़ को होगी। आज तारीख को एक दिन बढ़ाकर 20 तारीख कर दी गई है। और न्यायालय द्वारा गठित समिति की आज प्रथम बैठक भी हुई। इसमे कोई भी किसान प्रतिनिधी व वे भी किसान संगठन जो सरकार को कृषि सुधार कानून के बाबत समर्थन दे चुके है, उपस्थित नहीं हुये। माननीय उच्चतम न्यायालय ने समिति गठित करते समय ‘‘सरकार‘‘ से ‘‘बातचीत‘‘ करने पर कोई ‘‘प्रतिबंध नहीं‘‘ लगाया है। लेकिन आदेश का आशय तो निश्चित रूप से यही है कि किसान अब सरकार के बदले ‘‘गठित समिति‘‘ से बात करें। एक साथ दो स्तरों पर बातचीत का कोई औचित्य नहीं है। (जैसा कि सरकार कृषकों को एक साथ दो बाजार सरकारी मंडी व निजी मंडी में माल बेचने की सुविधा के  लाभ का बखान करते थकती नहीं है)। उच्चतम न्यायालय को  इस सीमा तक आगे आना ही इसलिये पड़ा कि पहला प्लेटफार्म ‘‘सरकार‘‘ के साथ बातचीत का परिणाम निष्कर्ष हीन हो कर असफल होने से उच्चतम न्यायालय ने बातचीत के लिए उक्त दूसरे प्लेटफार्म की व्यवस्था की। 

क्या इस ‘‘समिति‘‘ की मांग किसी भी पक्ष ने की थी? उत्तर है- नहीं। लेकिन फिर भी माननीय उच्चतम न्यायालय का आदेश होने के कारण यह दोनों पक्षों पर बंधन कारी है, क्या इसमें किसी को शक ओ शुबहा है? अर्थात इस समिति के गठन का निर्णय आने के बाद सरकार को किसानों से सीधे बातचीत नहीं करनी चाहिये थी और किसानों को भी समिति से ही बातचीत करनी थी। लेकिन किसानों ने तो आदेश के पहले ही अपना ‘‘अंगद का पांव रखकर‘‘ यह स्पष्ट कर दिया था कि वह समिति के समक्ष जायेंगे ही नहीं। वहां तक तो ठीक था। लेकिन दोनों के बीच बातचीत होने का सीधा सा मतलब, अर्थ और निष्कर्ष यही निकलता है कि नौवें दौर की हुई बातचीत सुप्रीम कोर्ट के आदेश का उल्लंघन है। यदि नहीं तो क्या है? क्या सब की ‘‘आंखों का पानी ढ़ल गया‘‘ है? 

क्या नौंवे दौर की बातचीत से माननीय उच्चतम न्यायालय की मानहानि नहीं हुई है? यह मानहानि के दायरे में नहीं आता है? ऐसा पहली बार देखने में आ रहा है, जब माननीय उच्चतम न्यायालय के आदेश का समस्त संबंधित पक्ष सहज व सहमति पूर्वक उल्लंघन कर रहे हैं। सामान्यतः तो "निर्णय" को एक पक्ष स्वीकार करता है तो दूसरा पक्ष उसे अस्वीकार करता है। अर्थात एक पक्षकार के पक्ष में तो दूसरे पक्षकार के विरोध में निर्णय होता है। सरकार ने तो उच्चतम न्यायालय के निर्णय का स्वागत भी किया था। तब फिर वह किसानों से किस आधार पर सीधे बातचीत कर रही है और वह माननीय उच्चतम न्यायालय को क्या संदेश देना चाहती है? क्या ‘‘सब कुछ सपाट हो गया इस देश में‘‘? आप ‘‘कुछ भी करते रहिए‘‘? राजकता और अराजकता में अंतर खत्म होता जा रहा है? इस स्थिति पर भी समस्त क्षेत्रों की तरफ से प्राथमिकता के आधार पर गहन मनन और विचार-विमर्श की आवश्यकता है।

उच्चतम न्यायालय का बंधनकारी, सार्थक व वास्तविक प्रभाव तभी तक है, जब तक लोगों में यह विश्वास बना रहेगा कि उच्चतम न्यायालय का प्रत्येक आदेश-निर्देश संसद द्वारा बनाये गये कानून के समकक्ष है, जिसका पालन न करने पर अवमानना का दोषी पाया जा कर जेल जाना होगा। जबकि यह जरूरी नहीं है कि संसद द्वारा पारित का़नून का पालन न करने पर संसद की अवमानना का दोषी माना जाये।

उच्चतम न्यायालय को निर्णय पारित करते समय इस बात की पूरी सावधानी रखने की आवश्यकता होती है व सतर्कता बरतनी भी चाहिए कि उसके द्वारा पारित निर्णय, आदेश ऐसे हों जिनका पालन प्राकृतिक रूप से  समस्त संबंधित पक्षों के लिए संभव हो सके। क्योंकि माननीय उच्चतम न्यायालय के निर्णय दो तरह के होते हैं ‘‘जजमेंट इन रेम‘‘ व ‘‘जजमेंट इन परसोनम‘‘। इसका मतलब यही होता है कि जब दो पक्ष उच्चतम न्यायालय के सामने होते हैं ता,े वह निर्णय दोनों पक्षों पर लागू होता है जो ‘‘जजमेंट इन परसोनम‘‘ (व्यक्ति लक्षी निर्णय) कहलाता है, और जब मुद्दा सार्वजनिक होता है या कोई कानून या उसकी किन्हीं धाराओं की वैधता का मुद्दा होता है, तब वह ‘‘जजमेंट इन रेम‘‘ (लोकलाक्षी निर्णय) कहलाता है। अर्थात वह देश के समस्त नागरिकों पर लागू होता है। समिति के गठन का आदेश निर्णय की  उक्त दो श्रेणियों से अलग हो सकता है । भविष्य में यह बहस का मुद्दा भी हो सकता है, क्योंकि समिति के गठन के मुद्दे को लेकर दोनों पक्ष उच्चतम न्यायालय में नहीं गए थे।

उच्चतम न्यायालय के पारित आदेश का पालन न होने के कारण अवमानना के कई आदेश आपके सामने है। संबंधित न्यायालय की अनुमति के बिना अभियुक्त को हथकड़ी लगा कर न्यायालय में प्र्रस्तुत न करने का आदेश, गिरफ्तारी करने के 24 घंटे के भीतर बरती जानी वाली सावधानियों से संबंधित आदेश, रात्रि 10:00 बजे के बाद सुबह 6:00 बजे तक 125 डेसिबल से अधिक ध्वनि विस्तारक यंत्र लाउडस्पीकर डीजे न बजने का आदेश, पर्यावरण को प्रदूषण से मुक्त रखने के लिए पटाखों पर रोक के आदेश, दीपावली दुर्गा पूजा काली पूजा पर आतिशबाजी पर रोक लगाने का कोलकाता वाला देश जैसे अनेकानेक आदेश है। लेख के लम्बा होने के कारण उनके सबका उल्लेख करना यहां संभव नहीं है। इनका उल्लघंन सिर्फ सामान्य नागरिक ही नहीं बल्कि अधीनस्थ न्यायालयों के समक्ष भी हो रहा है। लेकिन न तो कानून के उल्लंघन का रोकने के लिए और न ही तदनुसार अवमानना के लिए कोई कार्यवाही की जाती है।  

अंततः उच्चतम न्यायालय को अपनी सर्वोच्चता के साथ निष्पक्षता, वास्तविक व तुरंत न्याय और "प्रतिबद्ध न्यायपालिका (कमिटेड़ ज्यूडीशरी पी.एन.भगवती के समय) "न्यायिक सक्रियता" से (न्यायिक गतिशीलता) हटकर आगे आकर सिर्फ संविधान द्वारा निर्धारित क्षेत्राधिकार में स्वयं को सीमित रखकर संविधान के दूसरे दोनों तंत्रों के क्षेत्राधिकार का सम्मान करने हेतु आत्मनियंत्रित होकर कार्य करना होगा। चूंकि उच्चतम न्यायालय सबको नियत्रित करता है। इसलिए उसे स्वयं को आत्मनियंत्रित करना होगा। तभी उसकी विश्वसनीयता व पारित कानून की अंतिमता, प्रभुता अक्षुण बनी रहेगी।



सोमवार, 18 जनवरी 2021

‘‘श्री बालाजी स्वर्ण कुंजी अर्पण समारोह 2021’’

दिनांक 17 जनवरी 2021 को श्री रुकमणी बालाजी मंदिर का स्वर्ण कुंजी अर्पण समारोह के संपन्न होते ही मंदिर का संचालन जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी शंकर विजयेंद्र सरस्वती जी कांची कामकोटि पीठम् को सौंप दिया गया।

श्री रुकमणी बालाजी मंदिर देश खासकर मध्य प्रदेश में मेरे ‘‘बैतूल‘‘ की एक पहचान बन चुका है। इस मंदिर के निर्माण से लेकर पूरा होने तक मैं इससे बिल्कुल भी नहीं जुड़ा था। लेकिन जब मंदिर में मूर्ति स्थापना व प्राण प्रतिष्ठा करने के कार्यक्रम की बात आयी, तब संस्थापक अंकल सेम वर्मा जी ने मुझे बुलाकर चर्चा की। कार्यक्रम के संयोजक की हैसियत से तब मैं मंदिर से जुड़ा। भगवान बालाजी के आदेश, कृपा और सब कुछ उनकी इच्छा अनुसार ही बैतूल जिले का अभी तक का सबसे बड़ा ऐतिहासिक प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम हुआ। जिसने न केवल रुक्मणी बालाजी मंदिर की प्रतिष्ठा में चार चांद लगा दिये, बल्कि बैतूल बाजार का नाम बालाजीपुरम् के रूप में प्रसिद्ध होकर देश खासकर मध्य प्रदेश में गौरवान्वित हुआ।

आज बालाजी मंदिर की समस्त संपत्ति का स्थानांतरण और ‘स्वर्ण कुंजी अर्पण समारोह‘ (कार्यक्रम को जो नाम दिया गया है), मुझे लगता है कि यह वर्मा जी के व्यक्तित्व को उनके कृतत्व व उनके द्वारा किये गये कार्यों की तुलना में कहीं न कहीं कमजोर करता है। कैसे? आइये आगे इसका विश्लेषण करते हैं। ‘‘परोपकाराय सतां विभूतयः‘‘ अर्थात परोपकार ही सज्जनों की संपत्ति है।

यह कहना बिल्कुल गलत है कि रुक्मणी बालाजी मंदिर की समस्त संपत्ति का हस्तांतरण आज हुआ है। जिस दिन वर्मा जी ने मंदिर की आधारशिला रखी और जैसे-जैसे सीमेंट, रेत, लोहा लगाकर एक एक ईंट जोड़ते गये ,तत्समय ही उक्त संपत्ति भगवान बालाजी को हस्तांतरित हो गयी। क्योंकि उसका उपयोग उस निमित्त ही किया जा रहा था। ‘‘जलबिंदुनिपातेन क्रमशः पूर्यते घटः‘‘। 

वर्मा जी का व्यक्तित्व एक आम भारतीय व्यक्तित्व नहीं है, बल्कि उसमें भारतीयता के साथ-साथ कुछ न कुछ ‘एन. आर. आई.’ के गुण भी शामिल हैं। इसलिये उनका हमेशा यह कथन रहा कि उन्होंने कुछ नहीं किया, जैसे जैसे सामान मंदिर निर्माण में लगता गया, वैसे वैसे ही वह भगवान को अर्पित होता गया। इस प्रकार जब सब कुछ पूर्व में अर्पित हो चुका है, समर्पित हो चुका है, हस्तांतरित हो चुका है तो, फिर आज क्या हस्तांतरित हुआ? जब सेम वर्मा जी ने मंदिर का निर्माण ही नहीं किया तो, उसका हस्तांतरण कैसे कर सकते हैं? यह बात वह कई बार सार्वजनिक रूप से भी कह चुके हैं कि भगवान बालाजी ने उनके हाथों से यह मंदिर बनवाया है, उन्होंने नहीं बनाया है। उनका यही सबसे बड़ा गुण है कि सब कुछ करके कुछ भी याद न रखना। ‘‘विद्या ददाति विनयम‘‘ अर्थात विद्या विनय की जननी है,  अर्थात सब कुछ भगवान के हाथों हुआ है, यह विश्वास, यह धारणा (परसेप्शन), यह विचार ही उनकी सबसे बड़ी पूंजी है। और इसलिए मेरे मत में यह कहना कि आज संपत्ति का हस्तांतरण हुआ है, उनके व्यक्तित्व का अवमूल्यन करना होगा। और उनके योगदान को कम करके आंकना होगा। मुझे विश्वास है कि श्री सेम वर्मा मेरे इस मत से सहमत होंगे और यदि नहीं है तो, वह कृपया मुझे बताएं ताकि  मैं स्वयं  को सुधार सकूं। 

दूसरी बात क्या भगवान को कोई ‘‘ताले’’ में रख सकता है? जिसकी कुंजी का अर्पण समारोह आज हुआ है। वास्तव में यहां भी उनके व्यक्तित्व की दूसरी थ्योरी लागू होती है। भगवान बालाजी ने अपने भक्त सेम वर्मा को अपने ‘‘चाबी ताले‘‘ के द्वारा बांधकर इस तरह से नियंत्रित करके रखा है कि वह भगवान बालाजी की सेवा में स्वस्थ जीवन की पूरी अवधि में लगे रहे। लेकिन भगवान बालाजी की यह भी चिंता रही है कि, उम्र के चढ़ते इस पड़ाव के कारण स्वास्थ्य की दृष्टि से शारीरिक और मानसिक अवस्था में धीरे-धीरे शिथिलता आने के कारण ऐसे हाथों में वह ‘‘ताला चाबी‘‘ जाये, जो सेम वर्मा समान या उससे भी ज्यादा अच्छे तरीके से भगवान बालाजी की सेवा कर सकें। ताकि भक्त सेम वर्मा जी को भी इस बात का संतोष हो कि जिंदगी की अंतिम चमक देखते समय तक मजबूत और सक्षम हाथों में सौंपे गये मंदिर का इतना विकास हो गया है कि उनकी आंखें भी चकाचौंध हो जायें। भगवान बालाजी की शायद यह भी सोच रही कि इस मंदिर का हस्तांतरण इस तरह से हो कि भविष्य में बार-बार हर 20-25 सालों में हस्तांतरण न करना पड़े। शायद इसीलिये भगवान बालाजी ने यह हस्तांतरण एक व्यक्ति को न कर ऐसी संस्था को किया, जिसका अस्तित्व सृष्टि के अस्तित्व के साथ जुड़ा हो। ताकि भगवान बालाजी की यह चिंता हमेशा के लिए समाप्त हो जाये। आज जो कुछ भी हुआ है, वह इन्हीं दो सोचों का परिणाम, फल व परिणीति है।

परंतु आज अर्पण समारोह में जिस तरह से सेम वर्मा जी को ‘‘बड़ा दान देता‘‘ के रूप में प्रस्तुत किया गया या प्रस्तुत करने का आभास दिया या कराया गया, वह निश्चित रूप से सही नहीं था। दान में एक पक्ष सामान्यता ‘‘मांगने वाला ग्रहीता‘‘ होता है, तो दूसरा पक्ष ‘‘दाता‘‘ होता है। यहां पर तो स्वयं वर्मा जी कांची कामकोटी पीठम से अनुनय विनय करने गए थे, ‘‘पीठम‘‘ ने स्वयं आगे होकर कुछ मांगा नहीं था। फिर ‘‘सबको देने वाला दाता‘‘ को कोई कुछ दे सकता है क्या? बड़ा दान देने वाले के भाव में गर्वोक्ति के साथ उसकी भाव भंगिमा अलग ही दिखती है। लेकिन आप सब ने देखा है कि सेम वर्मा जी अपनी बात प्रस्तुत करते करते किस तरह से भावुक व भाव विभोर हो गए थे। गर्व का तो नामोनिशान ही नहीं था। इसलिए आज जो कुछ हुआ, वह उनका पूर्ण ‘‘समर्पण‘‘ था न कि दान। उनका आज भाव विभोर होने का भाव वैसा ही था जैसा कि जब कोई व्यक्ति के मन में अपनी बिटिया की शादी संपन्न होने के बाद अश्रुपूरित विदाई के समय जो भाव उत्पन्न होते हैं, उसमें अपने से दूर होने के भाव के साथ साथ एक अच्छे भविष्य की खुशी के भाव भी शामिल होते हैं। शायद यही भाव अंकल सैम वर्मा के थे।

अंत में  आपका ध्यान एक बात की हो ओर और आकर्षित कराना चाहता हूं। कार्यक्रम मंच के पीछे जो बैनर लगा था, उसमें एक तरफ जगद्गुरु शंकराचार्य जी सरस्वती जी की फोटो थी, तो दूसरी तरफ संस्थापक सेम वर्मा की फोटो थी। सेम वर्मा की फोटो के साथ एक और छुपा हुआ चेहरा था, उनकी अर्धांगिनी श्रीमती जयदेवी वर्मा का। हमारी संस्कृति में कहां यही जाता है कि पुरुष की सफलता के पीछे स्त्री का हाथ ज्यादा होता है। यह सिद्धांत यहां पर पूर्णता लागू होता है और यही पर नहीं रुकता है, बल्कि एक भारतीय नारी होने के श्रीमती जयदेवी वर्मा ने ‘‘केन्द्र को बटने‘‘ नहीं दिया और इसीलिये उन्होंने अपने पति सेम वर्मा के साथ अपनी फोटो नहीं लगने दी। यह उनकी त्याग और महानता का प्रतीक है। जय जय जय बालाजी। बालाजी भगवान नए और पुराने का मिश्रण इस तरह से करने का आशीर्वाद दे ताकि भविष्य में नए और पुराने प्रबंधकों की बात ही न उठे। सब बालाजी के भक्त, सेवक, कारसेवक हैं, यही आज हम सबका दायित्व है। जिसे सच्चे मन से सही दिशा में पूरी ताकत के साथ पूर्ण रूप से निभाने में भगवान बालाजी लगातार दिशा, निर्देश, आदेश के साथ आशीर्वाद दें, इन्हीं आकांक्षाओं के साथ जय बालाजी। जय कांची काम कोटी पीठम।

रविवार, 17 जनवरी 2021

उच्चतम न्यायालय“ भी क्या अब “धमकियों व ‘‘दबाव’’ से ‘‘न्याय’’ देगा?



माननीय उच्चतम न्यायालय ने किसान आंदोलन से उत्पन्न स्थिति के संबंध में दायर याचिकाओं तथा तीनों कृषि कानूनों की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई करते समय याचिकाओं के गुण दोषों पर सुनवाई करने के बजाए तीनों कानूनांे का विरोध करने वाले आंदोलित किसान नेता व सरकार के प्रति सख्त व कड़ा रुख अपनाते हुए सरकार को लगभग बाध्य करने वाली चेतावनी देते हुए कहा कि सरकार तीनों कृषि कानूनों के अमल पर रोक लगाये, वरना स्वयं न्यायालय रोक लगाने का आदेश पारित कर देगी। और प्रकरण अगले दिन अंतरिम आदेश के लिए रख दिया गया। यही कहा जा सकता है कि ‘‘समरथ को नहिं दोष गुसाईं‘‘।

उच्चतम न्यायालय ने एक और नई बात कही कि वह कानून पर रोक की बात नहीं कर रहे हैं, बल्कि उसके अमल पर रोक की बात कह रहे हैं। व्यवहार में कानून के रोक पर और उसके अमल पर रोक में क्या अंतर है, यह समझ से परे है। दोनों ही स्थिति में न तो कानून की वैधता पर कोई आंच आती है, और न ही कानून के तहत सरकार कोई कार्यवाही आगे कर सकती है। सिर्फ भाषा की दृष्टि से कानून के अमल पर रोकना लगाने से एक अलंकृत रूप से फिलहाल सरकार को अपनी ‘‘हथेली पर सरसों जमाने का‘‘ नैतिक बल मिल जाता है कि संसद द्वारा पारित कानून को प्राथमिक दृष्टि से माननीय उच्चतम न्यायालय ने उसकी वैधानिकता पर कोई आंच नहीं आने दी है। जबकि उच्चतम न्यायालय स्पष्ट कर चुका है कि अभी तक उसने उक्त तीनों कानून की वैधानिकता पर सुनवाई प्रारंभ नहीं की है, जिसके लिए अगली तारीख निश्चित की गई है।

जहां तक न्यायालय द्वारा सरकार को चेतावनी देकर आदेश पारित करने के अपने आशय को दर्शित करने का प्रश्न है, वह निश्चित रूप से गरिमामय नहीं है और कहीं न कहीं उच्चतम न्यायालय द्वारा प्रत्यक्षतः सीधे आदेश पारित करने की अपनी जिम्मेदारी से बचने का प्रयास मात्र ही कहलाएगा। लगता है की सर्वोच्च न्यायालय ‘‘भई गति सांप छछूंदर केरी‘‘ की स्थिति में है।

जनता द्वारा चुनी गई जिस लोकप्रिय सरकार ने संसद में पारित कर कानून बनाया हो, उसी सरकार को बिना किसी प्रत्यक्ष रूप से पारित कानूनी आदेश के, “वैध कानून“ के अमल पर रोकने के लिए मजबूर किया जाए, क्या यह एक विचित्र वैधानिक स्थिति नहीं होगी? उच्चतम न्यायालय कानून की वैधता पर बिना सुने व निर्णय दिये बिना ही सरकार को कानून पर रोक लगाने का दबाव पूर्ण सलाह देकर सरकार को कटघरे में लाकर पालननार्थ सरकार को ही मजबूर कर, एक तरह से सरकार को ही स्वयं के बनाए गये कानून को गालत मानने की धारणा के प्रति बाध्य कर (परशेपशन) दिया है, यह तो ‘‘अशर्फियां लुटें और कोयलों पर मुहर‘‘ वाली बात हो गयी, जो कि सही स्थिति नहीं है। 

उच्चतम न्यायालय को पूरा अधिकार है कि वह संसद द्वारा पारित कानून की संवैधानिकता की सुनवाई के समय उस पर रोक लगाने का आदेश पारित कर सकती है। लेकिन यहां पर न्यायालय ने यह अधिकार उपयोग करने के पूर्व, विकल्प तो नहीं कहा जाएगा, लेकिन एक अवसर (बलपूर्वक) बिना मांगे सरकार को दिया कि वह स्वयं उसके द्वारा बनाए गए कानून के अमल पर रोक लगा दे। सरकार की नजर में यदि यह उचित होता तो, वह आंदोलित किसान नेताओं की जो प्रारम्भ मेें यही मांग रही है, को बातचीत के दौरान मानकर कानून पर रोक लगाकर बातचीत को आगे बढ़ाती, जिसे अभी तक सरकार ने सही नहीं माना है। लेकिन अब सरकार के पास कोई विकल्प नहीं है और चूंकि ‘‘हाथी के पांव में सबका पांव‘‘ अतः सरकार की “दोनों ही स्थिति में“ अर्थात कुछ करने या न करने की स्थिति में कानून के पालन पर रोक लगा दी जाएगी।

लेख समाप्त करते करते अंततः उच्चतम न्यायालय का यह अंतरिम आदेश आ ही गया कि उक्त तीनों कानून के लागू करने पर “न्यायालय ने रोक“ (होल्ड) लगा दी है, इस कारण जिस विचित्र वैधानिक स्थिति के उत्पन्न होने की आशंका जो उच्चतम न्यायालय में कल की सुनवाई के दौरान उत्पन्न हुई थी वह उच्चतम न्यायालय के आदेश से फिलहाल दूर हो गई है । लेकिन ‘‘तेल देखना और तेल की धार देखना‘‘ अभी बाकी है।

परंतु इस ‘‘अंतरिम आदेश‘‘ से एक धारणा उत्पन्न होती सी दिखती है कि, माननीय उच्चतम न्यायालय जबरन ही ‘‘पंच बनकर पंचाट‘‘ आदेश पारित कर चार सदस्यीय समिति का गठन कर दिया, जिसकी मांग किसी भी पक्ष ने नहीं की थी। और न ही यह ‘‘विषय वस्तु‘‘ न्यायालय के समक्ष थी। आदेश के पूर्व दोनों पक्षों से प्रस्तावित कमेटी के सदस्यों के नामों के सुझाव भी नहीं मांगे गए। जब सरकार व आंदोलित किसान नेताओं के बीच बातचीत चल रही है और टूटी नहीं है और बातचीत के दौरान किसान संगठनों ने सरकार की कमेटी बनाने की पेशकश को लगातार अस्वीकार किया हो ‘‘तब मान न मान मैं तेरा मेहमान‘‘ की तर्ज पर उच्चतम न्यायालय द्वारा कमेटी का गठन अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण सा लगता है। क्योंकि यह कार्य (कमेटी बनाकर सहमति पर पहुंचना) तो वास्तव में कार्यपालिका व विधायिका (शासन) का है। यद्यपि माननीय उच्चतम न्यायालय का इस आदेश पारित करने के पीछे से उद्देश्य मात्र समस्या के प्रति समाधान कारक रवैया (एटीट्यूड) ही है। परन्तु यह कितना सही है, यह कमेटी के गठन के आदेश पारित होने के बाद तत्काल उस पर आयी प्रतिक्रियाओं से स्पष्ट है। इसलिए भविष्य में इस तरह के आदेशों से उच्चतम न्यायालय को बचना चाहिए।

शुक्रवार, 8 जनवरी 2021

आखिर! भारत सरकार ‘‘एमएसपी पर कानून‘‘ बनाने से ‘‘कतरा‘‘ क्यों रही है?

किसान आंदोलन! समस्या-समाधान! प्रलोभन अर्द्धसत्य व तर्क हीन तर्क!कब तक?


कृषि आंदोलन व उससे जुड़ी कृषकों की समस्या और उन समस्याओं का सरकार द्वारा समाधान कैसे (?), पर मैं पिछले 5 लेखों में काफी कुछ विस्तृत रूप से लिख चुका हूँ। लेकिन समस्या "कुत्ते की टेढ़ी पूंछ के समान" वहीं की वहीं है। 30 सितंबर को सातवें दौर की बातचीत होनी है। इसमें उठाये गये किसानों की वास्तविक समस्याएँ और उनका ‘उपचार’ यथासंभव सरकार द्वारा माने जाने पर हल संभव है, यदि दोनों पक्ष आगे दिये गये सुझावों पर ध्यान पूर्वक विचार कर पालन करे तो। मैं इस लेख के माध्यम से दोनों पक्षों को चुनौती देता हूँ कि, इस लेख में तथ्यात्मक आंकडो़ं के औसत अनुमानों को छोड़कर जो कुछ कम ज्यादा हो सकते है, कोई तथ्यात्मक या कानूनी या अन्य त्रुटि दोनों पक्ष यदि महसूस करते है तो वे तदानुसार बतलाएं। अन्यथा उक्त सुझावों को मानकर यदि दोनों पक्ष यदि सहमत नहीं होते है, तो फिर इसका एक ही अर्थ निकलता है कि आम जनता की "आंखों में धूल झोंकना" और उसे बेवकूफ बनाना। 

एक महीने से अधिक से चला आ रहा किसान आंदोलन लगभग अनुशासित और पूर्णतः शांतिपूर्ण है। भारत सरकार भी धीर व गंभीर होकर उतनी ही धैर्य और शांतिपूर्ण तरीके़ से किसानों की समस्याओं को समझ कर ‘‘आंदोलन’’ के किसान संगठन के नेताओं से सौहार्दपूर्ण वातावरण में बिना शर्त बातचीत कर अभी तक काफी कुछ सीमा तक लचीला रूख़ अपनाए हुए है। अन्यथा किसी भी सरकार का बातचीत प्रारंभ करने के पूर्व एक कड़ा रुख़ यह रहता है कि, वह आंदोलनकारियों से आंदोलन को स्थगित रखने की पूर्व शर्त के साथ ही सामान्यतः बातचीत करने की पेशकश करती है। वर्तमान में दोनों पक्षों के बीच बातचीत के साथ-साथ पत्र लेखन (पत्रों) का आदान-प्रदान) होने अर्थात "कागज़ी घोड़े दौड़ाने" के बावजू़द समस्या का यदि अंतिम युक्ति-युक्त समाधानकारक समाधान नहीं निकल पा रहा है तो, उसका एकमात्र कारण व्यवहारिक रुप से किसानों की तुलना में सरकार के अडि़यल रवैया से ज्यादा छिपा हुआ ‘‘घमंड’’ ही जि़म्मेदार है।

तकनीकि रूप से व जाहिरा तौर पर तो किसानों का रवैया ज्यादा कठोर व अव्यवहारिक लगता है, दिखता है। आंदोलनकारी किसान संगठनों की आंदोलन प्रारंभ होने के पश्चात जो मुख्य मांग रही है, वह तीनों कृषि सुधार कानूनों की समाप्ति से प्रारंभ होकर वहीं समाप्त हो जाती है। तथापि तीन और मांगें है जो अनुषंागिक है। मतलब उनके न मानने से गतिरोध समाप्त होने में कोई अड़चन नहीं होनी चाहिये। यद्यपि अध्यादेश लागू होने के बाद व आंदोलन प्रांरभ करने के पूर्व तक किसान सिर्फ ‘एमएसपी’ पर क़ानून बनाने की बात कर रहे थे, स्पष्टतः ‘‘कानून समाप्ति’’ की नहीं, जैसा कि सरकार दावा कर रही है। स्पष्टतः किसानों की यह मांग प्रत्यक्षतः अव्यवहारिक मांग है। उनकी अन्य मांगे भी जो हैं, उनका भी संबंध इन कृषि सुधार कानूनों से ही हैं। अतः एमएसपी को कानून के दायरे में ले आने पर किसान आंदोलन की प्रमुख मांग पूरी हो जाने से आंदोलन का आधार ही समाप्त हो जायेगा।

इस प्रकार ‘‘एमएसपी‘‘ यह किसानों व सरकार के बीच समझौते की मूल ‘‘रीढ़ की हड्डी‘‘ है, जिस पर फिलहाल कोई भी झुकने को तैयार नहीं है। जहां एक ओर आंदोलित किसान संघों का समूह ‘‘एमएसपी को कानून बनाने की बात‘‘ पर अड़ा हुआ है, तो वहीं दूसरी ओर सरकार "चित्त भी मेरी पट्ट भी मेरी" की नीति का अनुसरण करते हुए‘‘एमएसपी’’ पर कानून बनाने को छोड़कर, ‘‘एमएसपी’’ लागू करने के लिए लगातार वादे, आश्वासन और अन्य समस्त आवश्यक बातें व परिस्थितियों के निर्माण का कथन कर रही है। सरकार का ‘‘एमएसपी’’ का कानून न बनाने के संबंध में दो तर्क है। प्रथम, उक्त तीनों कृषि सुधार कानून जिनके विरोध में आंदोलन जारी है, में कहीं भी, किसी भी रूप में, प्रत्यक्ष रूप से एमएसपी के संबंध में एक शब्द भी विरोध में नहीं, बल्कि यहां तक कि समर्थन में भी कही भी नहीं लिखा गया है। अर्थात तीनों कानूनों को लागू होने के बावजूद नये प्रावधान से एमएसपी पूरी तरह से अप्रभावित व अनिर्लिप्त है। इसलिए इन कानूनों से ‘‘किसानों’’ या ‘‘आंदोलित किसान’’ अथवा ‘‘किसान संघों व नेताओं’’ के मन में ‘‘एमएसपी समाप्त होने की जो आशंका‘‘ है, न केवल वह बिल्कुल निराधार व गलत है, बल्कि वह अफवाहों की गहरी शिकार भी है। 

सरकार का ‘‘एमएसपी’’ पर दूसरा तर्क यह है कि बिना कानून बनाये पिछले लगभग 55 वर्षो से चली आर रही एमएसपी जो वर्तमान में चल रही है और आगे भी चलती रहेगी, तब आज क़ानून बनाने की आवश्यकता क्यों? सरकार के इन्ही दोनों तर्को को मानकर यदि किसान नेता तरीके से इन तर्को को सरकार पर ही मंढ दें, विद्यमान वर्तमान वस्तुस्थिति को दिखाते हुए उक्त दोनों तर्को को सरकार पर दृढ़तापूवर्क व तर्क पूर्वक (कैसे! इसका उत्तर आगे मिलेगा) जड़ दें तो, सरकार बिलकुल निरूत्तर हो जायेगी। वास्तव में यदि सरकार को अपनी किसान हितेषी छवि को बनाये रखने व दिखाये रखना है तो, किसानों की आगे उदाहरणों के साथ प्रस्तुत तर्क युक्त मांग को मानना ही पड़ेगा। यह किसान आंदोलन को समाप्ति की दिशा में सरकार का महत्वपूर्ण कदम होगा। अंततः इससे किसान आंदोलन समाप्त हो जायेगा। उक्त दोनों तर्को की तार्किकता गुणवत्ता को सरकार के उन्हीं तर्को के आधार पर अन्य क्षेत्रों में उठाये गये कदमों के साथ तुलना कर किसान नेतागण सरकार के समझ सही प्रभावी वास्तविकता युक्त लिये व प्रभावी तरीके से प्रस्तुतिकरण होये, (इसे आगे स्पष्ट किया जा रहा है।) ताकि अंतिम निष्कर्ष निकल जाये व व दूध का दूध और पानी का पानी के समान स्थिति स्पष्ट हो जायेगी। 

सरकार का यह कथन आंशिक रूप से उस सीमा तक तो बिल्कुल सही है कि, तीनों कृषि सुधार कानूनों में एक भी ‘‘शब्द, हलंत या विराम‘‘ एमएसपी के संबंध में नहीं लिखा गया है। लेकिन इससे एमएसपी समाप्ति की युक्ति युक्त आशंका होती है, या हो सकती है, इससे भी एकदम से इंकार नहीं किया जा सकता है। उदाहरणार्थ स्वयं सरकार ने नये अधिनियमों में वर्तमान मंडियों के बाहर फसल बेचने की अनुमति दिये जाने पर निजी मंडियों के विकसित होने और उन पर कोई मंडी टैक्स न लगाने के कारण, असमान प्रतिस्पर्धा होने से वर्तमान कृषि उपज मंडियां स्वतः ही धीरे-धीरे खत्म हो जायंेगी। यह तो किसानों को "कसाई के खूंटे से बांधने" जैसी बात होगी।। यद्यपियम में यह बात सीधे प्रत्यक्ष रूप से कहीं भी नहीं लिखी गई है। और सरकार भी इसके विपरीत ही दावा कर रही है। बल्कि सरकार इन नये क़ानूनों के निर्माण से कृषकों का अपनी फसल उत्पन्न होने वाली वर्तमान मंडी व्यवस्था के साथ एक और निजी मंडी व्यवस्था में बेचने का विकल्प देने का दावा कर रही है। लेकिन वास्तविकता व अनुभूति (परप्पश्ेान) दोनों ही स्थिति में मंडी के समाप्ति की दिशा में जाने के कारण सरकार का रूख गलत सिद्ध हो जाता है। "ताली एक हाथ से नहीं बजती"। शायद यही सोचकर सरकार ने बाद में किसान संगठनों के साथ पांचवें दौर की बातचीत में उक्त दुष्परिणाम की आंशका को देखते हुये उक्त त्रुटि को सुधारने की बात कही हैं। यह किसानों की पहली सफलता है। सरकार के दूसरे तर्क बिना कानून बनाए पिछले लगभग 55 वर्षो से एमएसपी चल रही है पर विचार!

सरकार, पार्टी व मेनेज्ड़ मीडिया द्वारा लगातार कहा जा रहा है कि चंूकि पिछले लगातार 55 वर्षो से एमएसपी की नीति बिना कानून बनाये लागू है, व वर्तमान में चल रही है, तब आज कानून की आवश्यकता क्यों? यहीं पर तो पेंच है। वास्तव में इस तर्क के द्वारा तो सरकार कृषकों को बहका कर "अपना उल्लू सीधा" कर रही है, न कि किसानों को वामपंथ या कोई विपक्षी दल बहका रहा है, जैसा कि प्रधानमंत्री सहित पूरी सरकार व पार्टी ताकत से आरोपित कर रही है। ‘‘आवश्यकता ही क़ानून की जननी है’’ यह एक मान्य सिंद्धात है। इसे आगे उल्लेखित दो तीन उदाहरणों से समझा जा सकता है। अनुसूचित जाति जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम 1989 लागू होने के पहले क्या अस्पृश्यता को रोकने हेतु भारतीय दंड संहिता में कोई प्रावधान नहीं था? तब यह तर्क (क़ानून की आवश्यकता नहीं का) क्यांे नहीं मढ़ा गया? इसलिये कि तब ऐसे एक पूर्ण कानून की आवश्यकता तत्समय विद्यमान परिस्थितियों को देखते हुये महसूस की गई। 

‘‘निर्भया केस’’ के बाद भारतीय दंड संहिता की बलात्कार की धारा 376 सहित अन्य धाराओं में आमूल चूल परिवर्तन किया गया। ‘‘विवाह’’ को लेकर धर्म परिर्वतन, लालच धोखाधड़ी आदि दोषों से सुरक्षा के लिए वर्तमान क़ानूनों में पर्याप्त प्रावधान हैं। इन आधारों पर अपराधी पर धारा 366 भारतीय दंड संहिता या ‘पास्को एक्ट’ व बाल विवाह संबंधी क़ानूनोें में अपराधिक प्रकरण चल सकता है। लेकिन इसके बावजूद धर्म विशेष से संबंधित प्रकरणों में जबरन धर्म परिवर्तन और धोखाधड़ी के मामलों में क़ानून बनाने की आवश्यकता महसूस हुई। वर्तमान में जिसे ‘‘लव जिहाद़’’ का नाम दिया गया है। इसे लेकर पहले उत्तराखंड फिर उत्तर प्रदेश की राज्य सरकारों द्वारा क़ानून बनाया गया है। मध्यप्रदेश में भी यह क़ानून निर्माण की प्रक्रिया में हैं व मंत्रिपरिषद द्वारा आज अध्यादेश जारी करने के लिए स्वीकृति भी प्रदान कर दी गई। हरियाणा सहित अन्य कई राज्य इस संबंध में क़ानून बनाने की तैयारी कर रहे हैं। यहां पर एक और बात पर विशेष रूप से ध्यान देने की है कि, उक्त उद्देश्यों को लेकर बने क़ानूनों में उदाहरणार्थ उत्तराखंड धार्मिक स्वतंत्रता कानून 2018 बनाया जाकर कानून के द्वारा पार्टी नेताओं ने लव जि़हाद का नारा दिया। तथापि ‘‘लव जि़हाद’’ शब्द का उपयोग कानून में कहीं नहीं किया गया है। परन्तु विवाह की आड़ में हिन्दु धर्म की युवती के धर्म परिर्वतन पर रोक लगायी गयी। इस प्रकार क़ानून द्वारा ‘‘लव जि़हाद’’ की ‘‘अनुभूति’’ (परसेप्शन) को पूरी तरह से उभारने के लिये ही तो ये नये क़ानून बनाने गये। तब एमएसपी समाप्त होने की आंशका की अनुभूति को (परसेप्शन) समाप्त करने के लिए क़ानून क्यों नहीं बनाया जा सकता है? कानून बनाये जाने में कौन सी कानूनी या अन्य कोई रूकावट है, जिसे सरकार पूरी नहीं कर सकती है? प्रश्न यही है। सरकार अपने इस रूख को सही ठहराने में बुरी तरह से असफल रही है। ठीक उसी प्रकार एमएसपी की नीति घोषित व लागू होने के बावजूद वास्तविकता में वह धरातल पर प्रभावी रूप से प्रभावी मात्रा में नहीं मिल रही थी, धरातल पर मात्र (6 प्रतिशत लोगों के खेत पर ही उतर रही है) शेष कृषक इस नीति के लाभ से वंचित रहे हैं। इसलिए कानून बनाने की बात कही जा रही है। ताकि उक्त नीति वास्तविकता में वास्तविक व प्रभावी रूप से लागू हो सकें। 

किसान भी अपनी बातें खुले दिल से तरीके से सरकार को नहीं समझा पा रहा है। और न ही जनता को पूर्ण वास्तविकता से अवगत करा रहे है। वास्तव में समस्या एमएसपी के कानून की नहीं, बल्कि मात्र 6 प्रतिशत किसानों को ही एमएसपी मिलने की है। जिनमें भी अधिकांश बड़े किसान (जो मात्र 10 से 15 प्रतिशत ही है )को ही मिलती है। शेष 85 से 90 प्रतिशत छोटे 5 एकड़ से कम वाले अधिकांश किसानों को वर्तमान एसएसपी की नीति लागू होने के बावजूद विद्यमान परिस्थितियों में उनका फायदा नहीं मिल पा रहा है। वास्तविकता यह भी है कि इन बड़े किसानों के हाथों में ही आंदोलन के सूत्र है जिन्हे एमएसपी मिल रही है। यदि किसान नेता इस वास्तविकता को स्वीकार कर लेते है तो समस्या का समाधान तुरंत निकल जायेगा। एक उदाहरण से इसे समझिये! 100 प्रतिशत विद्युतीकरण का दावे के बावजूद सरकार क्या प्रत्येक घर में बिजली पहुंच गई है? नहीं! तब दावा सही कैसे! मूल बात यह है कि जब सरकार कोई भी जनोपयोगी योजना बनाती है तो, उसका फ़ायदा प्रत्येक योग्य पात्र हितग्राही को मिलना ही चाहिए। तभी वह उक्त जनहितकारी योजना सफल होकर सरकारे उसका राजनैतिक श्रेय ले सकती है। मात्र कुछ प्रतिशत लोगों को योजना का फायदा देकर सरकार अपनी पीठ नहीं थप-थपा सकती है। जैसा कि एमएसपी को लेकर सरकार कर रही है। यह तो "चाय से गरम केतली" दिखाने जैसा है। सरकार की ओर से यह बतलाने का प्रयास अवश्य किया जा रहा है कि इस वर्ष उसने कृषि उपज की रिकॉर्ड ख़रीदी की या पिछले वर्षो की तुलना में दुगना से भी ज्यादा पैसा खर्च किये। लेकिन आज भी सरकार यह आकंड़ा बताने को बिल्कुल भी तैयार नहीं है कि वह देश की 60-65 प्रतिशत किसान जनसंख्या में से कितने प्रतिशत किसानों को व उन किसानों में से भी 5 एकड़ से कम रकबे वाले कितने प्रतिशत किसानों (जो कि लगभग 90 प्रतिशत हैं) को एमएसपी दे रही है। यदि यह आंकड़ा सार्वजनिक कर दिया जाएं तो सरकार व किसानों दोनों की आंखें खुल जायेंगी। क्योंकि किसानों का नेतृत्व करने वाले किसान नेताओं को ही तो ‘‘एमएसपी’’ मिल रही है। तब किसान सिर्फ एमएसपी पर क़ानून की बात नहीं करेगा, बल्कि वह न्यूनतम मात्रा की ख़रीदी के क़ानून के साथ-साथ पांच एकड़ से कम किसान भी न्यूनतम संख्या मात्र में खरीदी करने के कानून की बात भी करेगा। 

इस बात को रेखांकित किया जाना आवश्यक है कि, एक तरफ क़ानून बनाना व सरकार द्वारा किसी नीति की घोषणा करना, लिखित घोषणा करना, लिखित आश्वासन देना, दूसरी तरफ संसद में घोषणा करना और संसद के दोनों सदनों में उस संबंध में प्रस्ताव पारित कर कानून बनाने के बीच महत्वपूर्ण व प्रभावी अंतर है, जिसे सरकार को समझना होगा। एक और महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि, कानून बनने के बाद उसको धरातल पर उतारने पर कानून बनने व धरातल के बीच मौजूद अंतर को समाप्त या कम करना होगा तभी अंततः कानून वास्तविक रूप में लागू होकर हितग्राहियों को वास्तविक लाभ मिल सकता है। अन्यथा "कुएं में बांस डाल" कर समस्या का हल ढूंढना "व्यर्थ की क़वायद" होगी।

सरकार के कथन, लिखित कथन, और कानून बनाने के बीच यह अंतर का प्रभाव क्या होता है? इसको भी जान लीजिए। जिस प्रकार सामान्य रूप से कही गई कोई बात या तथ्य के विरुद्ध आचरण करने पर आपके खि़लाफ कोई फौजदारी कार्रवाई नहीं की जा सकती है। लेकिन ‘‘शपथ पत्र‘‘ पर कोई बात कहने के बाद उसके उल्लंघन होने पर आप के खि़लाफ फ़ौजदारी क़ानूनों के अंतर्गत कार्यवाही की जाकर आपका आपराधिक अभियोजन हो सकता है। ठीक यही अंतर सरकार द्वारा दिए गए आश्वासन और उसके द्वारा संसद के माध्यम से बनाए गए कानून में है। सरकार के आश्वासन से मुकर जाने पर या पूरा न होने पर कोई भी हितग्राही सरकार के खि़लाफ कोई कार्यवाही नहीं कर सकता है। लेकिन यदि वह क़ानून बना दिया जाएगा तो उसके उल्लंघन होने पर कानूनी कार्रवाई की जा सकती है। यही तो मांग किसान संघ कर रहे है। इस पर सरकार को आपत्ति क्यों? हिचकिचाहट क्यों? 

सरकार का यह कथन सही नहीं है कि तीनों कृषि कानूनों से एमएसपी पर कोई आंच नहीं आती है। इसलिए कानून रद्द करने की आवश्यकता नहीं है। किसान "जीती मक्खी कैसे निगल" सकता है? यदि आपका आशय साफ है, इच्छा हार्दिक है, मन साफ है, कोई दुराशय नहीं है, सरकार किसानों के लिये "कलेजा निकाल कर रखने" के लिये तैयार है तो सरकार एमएसपी के संबंध में जो मुखाग्र कह रही है व उसे लिखित रूप में देने को तैयार है, तब फिर उसको क़ानूनी ज़ामा पहनाने में अगर मगर क्यों कर रही है उसे दिक्कत क्या है? या हो सकती है? सरकार के एमएसपी को कानून न बनाने के उक्त तर्को को रूबरू स्वीकार करने के बावजूद इस पर सरकार को कानून बनाने से उसकी संप्रभुता या सम्मान पर कहां चोट पहुंचती है? देश हित में, देश की कुल जनसंख्या के 60-65 प्रतिशत किसानों के होने से उनके हित में, आंदोलित किसानों के हित में, आंदोलन से उत्पन्न नागरिक को हो रही अव्यवस्था के कारण आम नागरिकों के हित में और अंततः उस सरकार के लिये जो हमेशा यह दावा करने में थकती नहीं है कि वह किसान हितैषी सरकार है। यदि सरकार एमएसपी पर कानून बना देती है तो, फिर किसानों की तीनों क़ानूनों को समाप्त करने की मांग न केवल गोठल या कंुठित हो जाएगी, बल्कि उसका कुछ औचित्य भी नहीं रह जायेगा। 

किसी भी आंदोलन के संबंध में एक सामान्य मूल सिद्धांत यह होता है कि उनकी समस्त मांगे न तो जायज़ होती हैं और न ही आंदोलन समाप्त करने के लिए समस्त मांगें मानी जाती हैं। कुछ न कुछ आंदोलनकारियों को भी अपनी मांगों से पीछे हटना होता है और इसीलिए प्रायः आंदोलनकारी कुछ ऐसी मांगे ज़रूर अपने आंदोलन में रखते हैं, जिन्हें उन्हें पीछे हटने में छोड़ने पर उनकी मूल मांगों पर कोई प्रभाव न पड़े। तीनों कृषि सुधार का़नूनों की समाप्ति की मांग के पीछे भी शायद यही मूल भाव है। इसलिए सरकार आगे आए, एमएसपी का कानून बनाकर उसके मैदान में पड़ी गेंद को वह सामने वाले के मैदान में लुढ़का कर अपनी जिम्मेदारी से मुक्त होकर आंदोलनकारियों को भी अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त होने का अवसर दें, और तदनुसार जनता को निर्णय करने दें।

देश में ‘‘लोकतंत्र‘‘ ‘‘खत्म’’ हो गया है! राहुल गांधी! सही!/?

 

महामहिम राष्ट्रपति को किसानों के मुद्दे पर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सांसदों द्वारा अपने नेता राहुल गांधी के नेतृत्व में विरोध मार्च कर  ज्ञापन सौंपने की अनुमति देने के बजाए धारा 144 लागू किये जाने पर राहुल गांधी को यह कहना पड़ गया कि देश में ‘‘लोकतंत्र समाप्त‘‘ हो गया है। मतलब यह कि "तवा हांडी को काली बताये"। रात्रि की अंधकार की गहराई में बिना संवैधानिक हथियार के लोकतंत्र की हत्या कर आपातकाल को जन्म देने वाली पाटी के वर्तमान शीषर्स्थ नेता के कथन को गंभीरता से लिया जाना चाहिए या उनके पुराने उल जुलूल बयानों के साथ ही इसे एक उपहास का साधन बनने देने चाहिए? यह व्याख्या करना वर्तमान को सही परिपेक्ष में देखने के लिए आवश्यक है। 

वास्तव में राहुल गांधी उक्त बात ‘‘सही‘‘ ही कह रहे हैं। क्योंकि आज की भारतीय राजनीति में ‘झूठ’ तो कोई बोलता ही ‘नहीं’ है। सिर्फ परस्पर विपक्षियों पर परस्पर झूठे आरोप जरूर लगाये जाते है। यह आज की राजनीति की नीति नहीं ‘‘नियति’’ हो गई है। कांग्रेस पार्टी के नजर में तो लोकतंत्र की दूसरी ही परिभाषा है, जो राहुल गांधी व कांग्रेस के सत्तारूढ़ काल में देश की जनता को दी है। कांग्रेस की सत्ता के समय के ‘‘लोकतंत्र‘‘ का जरा अवलोकन भी कर लीजिए। 

अचानक 25 जून 1975 को रात्री 11.30 बजे कैबिनेट की स्वीकृति के बिना देश ही में ‘‘आपातकाल‘‘ लागू करने की घोषणा कर कांग्रेस पार्टी ने लोकतंत्र को मजबूत करने का सबसे बड़ा कदम उठाया था? आज राष्ट्रपति से मिलकर राष्ट्रपति भवन के बाहर मीडिया से मुखातिब हुए वर्तमान लोकतंत्र की समाप्ति का कथन करते समय राहुल गांधी के मन में शायद कांग्रेस पार्टी का ‘‘स्वर्ण युग’’ का आपातकाल युक्त लोकतंत्र का वह रूप सामने हो। काला कानून ‘मीसा’ के अंतर्गत लोग बिना मुकदमे चलाए रातों-रात हजारों लोग पूरे देश में जेलो में निरुद्ध कर दिये गए। आपातकाल को ‘‘काला दिवस’’ बताते हुए देश के प्रमुख समाचार पत्रों ने अपने संपादकीय "खाली" छोड़ कर विरोध प्रकट किया। आकाशवाणी और दूरदर्शन ‘‘सरकारी भोंपू‘‘ बन गए। मूल संवैधानिक अधिकार निलंबित कर समस्त राजनैतिक गतिविधियों पर प्रतिबंध लगा दिया गये। तत्कालीन सूचना एवं प्रसारण मंत्री स्वर्गीय विद्याचरण शुक्ल ने जनसंघ के राजस्थान के कद्दावर  नेता भैरों सिंह शेखावत को हराने वाले सांसद, राजनेता से निर्माता बने, अमृत नाहटा की फिल्म ‘‘किस्सा कुर्सी पर‘‘ प्रतिबंध लगा दिया। उदाहरण स्वरूप उल्लेखित ये सब क्रियाएं, दमनात्मक कार्यवाहियां तथाकथित ‘‘लोकतंत्र को मजबूत’’ करने के लिए ही तो थी? चुकि  राहुल गांधी की पार्टी उस (आपातकाल) लोकतंत्र की "जनक व पैरोकार" रही है, जो वास्तव में आज है ही नहीं। शायद इसलिए राहुल गांधी आज लोकतंत्र खत्म होने की बात कह रहे हैं।

रामलीला मैदान में बाबा रामदेव के लंबे समय से चल रहे आंदोलन में किस तरह से रात्रि में बर्बरता पूर्ण लाठी चार्ज किया गया था, जिस कारण से भगदड़ मच गई थी। स्वयं बाबा रामदेव को अपनी जान बचाने के खातिर महिलाओं के कपड़े पहनकर मंच से कूदकर छूप-छुप कर धीरे से भागना पड़ा था, जो जग जाहिर है। चूंकि आज राहुल गांधी और प्रियंका गांधी को पुलिस की लाठी का सामना न करने के कारण के ड़र से भागना नहीं पड़ा, बल्कि एक तरफ पुलिस प्रियंका गांधी को अपनी गाड़ी में ले गई तो दूसरी ओर राहुल गांधी को दो अन्य व्यक्ति के साथ राष्ट्रपति भवन जाने की अनुमति दी गई। "यह तो नाखून कटा कर शहीदों की लिस्ट में नाम लिखाना हुआ"। क्या इसलिए लोकतंत्र ‘‘समाप्त‘‘ हो गया? 

दिल्ली की सिंधु बार्डर पर एक महीने से चले आ रहा किसान आंदोलन के दौरान लगभग 22 किसान ‘‘शहीद‘‘ हो गए और एक ‘‘संत किसान‘‘ ने किसान आंदोलन की उद्देश्यों की पूर्ति के खातिर अपनी जान की बाजी लगा कर ‘उत्सर्ग’ कर दिया। परन्तु किसान आंदोलन ही नहीं बल्कि पूरा देश ‘‘शांत‘‘ रहा, क्या इसलिए ‘‘लोकतंत्र समाप्त‘‘ हो गया है? क्योंकि पूर्व में तो इस तरह के आंदोलन में आंदोलनकारियों की मृत्यु होने पर न केवल शांति व्यवस्था भंग हो जाती थी, बल्कि उसको बनाए रखने के लिए गोली चालन तक करना पड़ता था, जिसमें कई निर्दोष नागरिकों की मृत्यु भी हो जाती थी। राहुल गांधी की नजर में शायद वही सही लोकतंत्र था? यानी "आगे की भैंस पानी पिये और पीछे की पिये कीचड़"?

लोकतंत्र को तथाकथित रूप से मजबूत करने वाली उपरोक्त समस्त घटनाओं के लिए राहुल गांधी ने उक्त कथन करने के पूर्व राष्ट्र से न तो स्वयं और न ही उनकी पार्टी ने माफी मांगी, खेद व्यक्त किया, जिस प्रकार सिख दंगों के लिए मांगी थी। तब ऐसी स्थिति में ‘‘लोकतंत्र का प्रमाण’’ पत्र देने का राहुल गांधी को क्या कोई नैतिक अधिकार है? राहुल गांधी अपने बचाव में यह कह सकते हैं कि उन सब अलोकतांत्रिक घटनाओं जिससे देश में लोकतंत्र कमजोर हुआ , के लिए वे स्वयं जिम्मेदार नहीं है। बात सही भी है। लेकिन कांग्रेस पार्टी जिसके वे राष्ट्रीय अध्यक्ष रह चुके हैं और भविष्य में संभावनाएं उनके पुनः राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने की की जा रही हैं। तब ऐसी स्थिति में पार्टी की ओर से तो उपरोक्त समस्त अलोकतांत्रिक कार्य घटनाओं के लिए उन्हे देश से माफी नहीं मांगनी चाहिए? ताकि "आक़बत में दिया दिखाने की तो गुंजाइश बाकी रहे"। तभी उनके वर्तमान कथन को वह लोकतांत्रिक तरीके से कुछ मजबूती प्रदान कर सकते हैं। 

वैसे राहुल गांधी यह भूल रहे हैं कि जिस खत्म होते लोकतंत्र का वह जिक्र कर रहे हैं, उनका यह आशय लिया हुआ उक्त बयान देना जिसे अधिकांश मीडिया भी लोकतांत्रिक तरीके से दिखा रहा है, इसी ‘‘खत्म‘‘ होते लोकतंत्र में ही संभव है, ‘‘आपातकाल के लोकतंत्र‘‘ में नहीं। वैसे राहुल गांधी को यह भी समझना होगा और तय करना होगा कि वह लोकतंत्र ज्यादा अच्छा है, जहां भले ही सुनवाई पूरी तरह से न हो रही हो, (वर्तमान किसान आंदोलन के संदर्भ में उनके कथनानुसार) या जहां सत्ता, पुलिस व सशस्त्र बल के दबाव के द्वारा ‘‘मुंह बंद‘‘ कर बोलने या मांग करने का कोई अवसर ही न हो (आपातकाल)?

राहुल गांधी को इस बात का भी जवाब देना चाहिए कि पश्चिम बंगाल में दिन प्रतिदिन हो रही चुनाव पूर्व हिंसक राजनीतिक घटनाएं क्या एक शांतिपूर्ण हो रहे किसान आंदोलन की तुलना में ज्यादा लोकतांत्रिक हैं? विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश के लोकतंत्र के सबसे ‘‘बड़े प्रहरी" राहुल गांधी की पश्चिम बंगाल में हो रही दिन प्रतिदिन लोकतंत्र की हत्या के प्रति उनकी चिंता को देश जानना चाहता है।

‘‘गांधी‘‘ के ‘‘साथ‘‘व ‘‘गांधी‘‘ के ‘‘बिना‘‘ ही कांग्रेस का ‘‘अस्तित्व एवम नियति‘‘ है।

पूर्व में वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं की कांग्रेस हाई कमांड को लिखी गई ‘चिट्ठी’ पर सोनिया गांधी के ‘‘बुलावे’’ पर इन समस्त ‘‘तथाकथित असंतुष्टों‘‘ व नाराज नेताओं की एक चिंतन बैठक हुई। ‘चिंता’ की सीमा तक कांग्रेस की ‘‘चिंताजनक स्थिति‘‘ हो जाने के कारण बैठक को उपयोगी बनाने हेतु‘‘ चिंतन बैठक‘‘ का नाम देना तो उचित ही है। इस बात का विश्लेषण किया जाना जरूरी कि किस प्रकार कांग्रेस के अस्तित्व के लिए ‘‘गांधी‘‘ शब्द का ‘‘होना और न होना‘‘ दोनों की ही ‘‘बराबर‘‘ की ‘‘जरूरत‘‘ क्यों हैं व कैसे संभव है।

‘‘गांधी’’ का नाम कांग्रेस के गले में पड़ा हुआ ऐसा ‘‘ढोल’’ है जिसे बजाना हर कांग्रेसी की मजबूरी है। वैसे ‘‘गांधी’’ कांग्रेस के लिए ‘‘दुधारी तलवार’’ है। अर्थात ‘‘गांधी’’ के कारण कांग्रेस टिकी हुई है, तो वर्ष 1907 में सूरत अधिवेशन में गरम दल व नरम दल के रूप में कांग्रेस के अंदर एक विचार धारा का विभाजन हुआ जिसे ‘‘सूरत विभाजन’’ कहते है, के बाद वर्ष 1969 में कांग्रेस का पहली बार विभाजन होकर कांग्रेस दो भागों में इंडीकेट व सिंडीकेट कांग्रेस के रूप में बंट गई। कालांतर में इंडीकेट कांग्रेस ‘‘आई’’ से होकर वर्तमान में कांग्रेस ही हो गई। अब उसकी जगह ‘‘गांधी’’ ने ले ली। उसके बाद से आज तक कांग्रेस की हुई जीत या एक-एक कर निकले अनेकों क्षत्रप के कारण भी ‘गांधी’ ही रहे। कांग्रेस आई (इंदिरा), तृणमूल कांग्रेस, तेलुगू देशम पाटी (टीडीपी) एनसीपी, राष्ट्रीय समाजवादी कांग्रेस (प्रणव मुखर्जी), पी चिदंबरम की कांग्रेस, पीडीपी (पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी), वाई एस.आर. कांग्रेस पाटी, टीआरएस, तिवारी कांग्रेस, बीजू जनता दल (बीजद) माधवराव सिंधिया की कांग्रेस जैसे न जाने कितनी कांग्रेस ‘‘गांधी‘‘ के कारण बनी और शेष बच गई कांग्रेस भी ‘‘गांधी‘‘ के कारण ही है।

सर्वप्रथम कांग्रेस को आज भी ‘‘गांधी‘‘ शब्द की आवश्यकता ‘‘क्यों और कैसे‘‘ है, इसकी चर्चा कर लेते हैं। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना 28 दिसंबर 1885 में ए. ओ. ह्यूम ने की थी। महात्मा मोहनदास करमचंद गांधी के भारतीय राजनीति में उदय के बाद शीघ्र ही ‘‘गांधी‘ शब्द कांग्रेस का पर्यायवाची शब्द बन गया। अंतर सिर्फ इतना सा आ गया कि पूर्व में प्रीफिक्स (उपसर्ग) के रूप में ‘‘कांग्रेस‘‘ के पहले ‘‘गांधी‘‘ उपयोग किया जाता था और अब वर्तमान में ‘‘गांधी शब्द‘‘ कांग्रेस के बाद एक ‘‘पूछल्ला‘‘ के रूप में उपयोग में होता है। ‘‘गांधी‘‘ शब्द वास्तव में कांग्रेस पार्टी के लिए एक ‘‘फेविकाल‘‘ का कार्य अर्थात कांग्रेस के भीतर समस्त ‘‘टुकड़ों‘‘ ‘‘गुटों‘‘ ‘‘छत्रपों‘‘ को जोड़ने का कार्य करती है। मतलब साफ है! कांग्रेस के अंदर वर्तमान में जो कुछ भी ‘‘एकता‘‘ शेष बची हुई है, एक सूत्र में बंधी है, उसका एकमात्र कारण सिर्फ और सिर्फ ‘‘गांधी‘‘ की महत्ता का पार्टी में अभी भी बने रहना है। 

इसका दूसरा अर्थ यह भी निकलता है कि यदि गांधी की ‘‘महत्ता व सर्वोच्चता’’ पार्टी में खत्म कर दी जाए तो, पार्टी के टुकड़े टुकड़े (‘‘टुकड़े टुकड़े गैंग नहीं, जो आजकल बहुत ही प्रचलित शब्द है।) हो जाएंगे। सारे बड़े नेता ‘‘अपनी-अपनी खिचड़ी अलग-अलग पकाने लगेंगे’’। मध्यप्रदेश में कमलनाथ व दिग्विजय सिंह, पंजाब में अमरिंदर सिंह, हरियाणा में भूपेंद्र सिंह हुड्डा, राजस्थान में अशोक गहलोत और सचिन पायलट जैसे नेता कांग्रेस से हटकर अपने अपने प्रदेश के वैसे ही ‘‘क्षत्रप नेता‘‘ बन जाएंगे जैसे कि पूर्व में शरद पवार, नारायण दत्त तिवारी, ममता बनर्जी, मुफ्ती मोहम्मद सईद, बीजू पटनायक, वाई एस. जगन मोहन रेड्डी, एन टी रामा राव, के चंद्रशेखर राव आदि नेता समय-समय पर कांग्रेस छोड़कर अपने-अपने प्रदेश मे क्षेत्रीय पार्टी बनाकर सफलता का झंडा गाड़ चुके हैं। इसलिए यदि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ‘‘कांग्रेस विहीन देश‘‘ की कल्पना को ‘‘साकार‘‘ नहीं होने देना है तो, ‘‘गांधी’’ का होना आवश्यक है।

आइए अब देखते हैं कि कैसे ‘‘गांधी’‘ के रहते नरेंद्र मोदी अपने एजेंडा भारत कांग्रेस बिना भारत की योजना में सफल होते नजर आ रहे हैं। आपने देखा होगा कि ‘‘चिंतन बैठक‘‘ के पूर्व राहुल गांधी का एक ट्वीट आया कि वह कोई भी ‘‘जिम्मेदारी‘‘ संभालने के लिए तैयार हैं। यह सुन भाजपा तो ‘‘अंग अंग फूले न समाने’’ वाली स्थिति में आ गयी, उसने तुरंत इस वक्तव्य को लपकर झेलकर भाजपा के प्रवक्ताओं जैसे प्रेम शुक्ला ने इसका तुरंत स्वागत किया। वह इसलिए भी कि ‘‘गांधी नाम से‘‘ भाजपा व प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपने एजेंडा कांग्रेस विहींन भारत के निर्माण में बहुत सहायता मिलती है। देश की राजनीति में ‘‘गांधी‘‘ खासकर वर्तमान में राहुल गांधी नाम से उनके उल जुलूल वक्तव्य व जमीन (धरातल) से जुड़कर लगातार जनता के बीच कार्य न करने के कारण, सामान्य रूप से जनता को इतनी चिढ़ सी हो गई है कि जहां-जहां गांधी की ‘‘छाया‘‘ व ‘छत्र छाया’ पड़ती है, वहां स्वतः ही भाजपा के बिना ज्यादा प्रयास किए ही कांग्रेस का बंटाधार (हार) हो जाता है। जैसा कि कहां जाता है ‘‘जंह जंह पांव पड़े संतन के तंह तंह बंटाधार भयों’’ ठीक उसी प्रकार जैसे मध्यप्रदेश में सुश्री उमाश्री भारती ने दिग्विजय सिंह को ‘‘मिस्टर बंटाधार’’ के रूप में जनता के बीच प्रस्तुत कर कांग्रेस को सत्ता से बेदखल किया था।

इसलिए वर्तमान में कांग्रेस बहुत ही पसोपेश की स्थिति में है। यदि वह ‘‘गांधी‘‘ को हटाती है तो, शेष बची कांग्रेस के टूट के खतरे के कारण उसके अस्तित्व के ही खतरे की आशंका उत्पन्न हो जाएगी। और यदि ‘‘गांधी‘‘ को साथ में रखती है, तब जनता के बीच गांधी के ‘‘अलोकप्रिय’’ हो जाने के कारण जनता उसके अस्तित्व को खत्म करने के लिए तैयार बैठी है। कांग्रेस की वर्तमान स्थिति के लिये ‘‘गाल बजाना और गाल फुलाना’’ यह मुहावरा बिल्कुल सही बैठता है। अब ऐसी ‘‘इधर कुआं उधर खाई’’ वाली स्थिति में कांग्रेस को न केवल अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए, बल्कि देश की राजनीति में आगे बढ़ने के लिए इन परिस्थितियों में क्या करना चाहिए? 

वर्तमान परिस्थिति में कांग्रेस के पास एक ही रास्ता बचा है कि वह पिछले विधानसभा के हुए चुनाव में अपनाए गए ‘‘कमलनाथ के चुनावी मॉडल‘‘ को अपनाएं। यह मॉडल क्या है? आप जानते ही हैं कि मध्यप्रदेश में पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह की स्थिति और नाम का (दुष्) प्रभाव (दुष्परिणाम) आम जनता के बीच ठीक वैसा ही है, जैसा कि देश में वर्तमान में ‘‘गांधी‘‘ के नाम का। साध्वी तेज तर्रार (फायरब्रांड) नेत्री सुश्री उमाश्री भारती ने 2003 के विधानसभा के आम चुनाव में दिग्विजय सिंह को ‘‘मिस्टर बंटाधार‘‘ कहकर बुरी तरह से बदनाम कर सरकार को सफलतापूर्वक उखाड़ फेंका था। लंबा समय बीत जाने के बावजूद भी दिग्विजय सिंह उक्त छवि की हुई दुर्गति से अभी तक उभर नहीं पाए हैं। भोपाल लोकसभा चुनाव में उनकी बुरी हार इस बात का द्योतक है। सुश्री उमाश्री भारती ने उक्त चुनाव जीतकर इस बात को सिद्ध किया कि अपने विरोधियों की छवि को सिर्फ तोड़कर ही नहीं बल्कि उनकी जनता के बीच अकार्यक्षमता अर्कमण्यता व असफलता को आगे लाकर उनकी नकारात्मक छवि को स्थापित करके भी चुनाव जीता जा सकता है। 

कमलनाथ इस स्थिति को अच्छे से जानते है। इसलिए उन्होंने दिग्विजय सिंह को पिछले विधानसभा के आम चुनाव में सार्वजनिक चेहरा कम बनाया और एक ‘‘रणनीति’’ के तहत दिग्विजय सिंह को ‘‘परदे के पीछे रखकर‘‘ उनके राजनीतिक चातुर्य व कौशल का पार्टी के लिये इस्तेमाल किया। इस प्रकार कमलनाथ एक तरफ दिग्विजय सिंह की राजनीतिक पैंतरेबाजी व योग्यताओं का उपयोग करने में भी सफल रहे तो दूसरी ओर उनकी बोझिल छवि के भार से भी दिग्विजय सिंह को जनता के बीच ज्यादा सामने न लाकर कांग्रेस को न केवल बचाया बल्कि आश्चर्यजनक रूप से जीत का तोहफा भी दिया। राष्ट्रीय स्तर पर यही ‘‘खेल‘‘ कांग्रेस को ‘‘गांधी‘‘ के साथ भी अपनाना होगा। तब पार्टी भी एकजुट रहेगी और ‘‘गांधी‘‘ नाम के कारण जो खामियाजा पार्टी को भुगतना पड़ रहा है, उससे भी वह बच पायेगी। इसलिए कांग्रेस को आज एक ‘‘बिना गांधी की नाम‘‘ के नए नेतृत्व को जनता के सामने लाना ही होगा, भले ही ‘‘गांधी‘‘ उसे रिमोट कंट्रोल से चलाएं। कुछ समय पूर्व प्रसिद्ध स्तंभ लेखक रामचंद्र गुहा के लेख की वह लाइनंे याद आ रही हैं, जिसमें उन्होंने नरेंद्र मोदी के ‘‘कांग्रेसी मुक्त भारत’’ की  काट में कांग्रेस को ‘‘गांधी विहीन कांग्रेस’’ बनाने का सुझाव दिया था।

माननीय ‘‘उच्चतम न्यायालय‘‘ अब क्या ‘‘आंदोलन‘‘ को ‘‘परिभाषित‘‘ करेंगे?

 किसान आंदोलन’! असफल वार्ता! उच्चतम न्यायालय का हस्तक्षेप! कितना औचित्यपूर्ण?



अभी तक सिंधु बॉर्डर पर 25 दिन से चल रहे किसान आंदोलन के चार ही पक्ष रहे है। प्रथम विभिन्न आंदोलन में सम्मिलित ‘‘किसान संगठन’’। द्वितीय ‘‘केंद्रीय शासन’’। तृतीय देश की विभिन्न ‘‘राजनीतिक पार्टियां’’। और चतुर्थ अंतिम छोरे पर हमेशा खड़े रहने वाला ‘‘टुकुर- टुकुर ताकता’’ एक ‘‘आम निरीह नागरिक’’ जिसे हर हालत में अंततः भुगतना ही होता है। गत दिवस इस मामले में उच्चतम न्यायालय की भी प्रविष्टि हो गई। वैसे तो तीनों केंद्रीय कानूनों को उच्चतम न्यायालय में चुनौती देने वाली याचिकाओं के दायर होने के कारण, उच्चतम न्यायालय पूर्व से ही किसान आंदोलन का एक पक्ष अवश्य रहा हैं। लेकिन अभी उच्चतम न्यायालय की पांचवें पक्ष के रूप में जो प्रविष्टि हुई है, वह न्यायिक समीक्षा करने वाले न्यायालय के रूप में न होकर, एक ‘‘पंच‘‘ के रूप में दोनों पक्षों ‘‘किसान संघों व सरकार’’ के बीच समझौता हो जाने की नियत व इच्छा व्यक्त किये जाने के कारण हुई है, जिस पर भले ही कोई आपत्ति न हो, बावजूद इससे कुछ प्रश्न अवश्य उत्पन्न होते है। आइये, आगे इस पर विचार करते है। 

‘‘किसान आंदोलन’’ के बाबत उसके औचित्य के बाबत और उसकी सीमाओं (बंधन) के बाबत जो कुछ उच्चतम न्यायालय ने कहा है, उसकी विस्तृत विवेचना करने के पूर्व आपको यह जानना अति आवश्यक है कि, मूल रूप से ‘‘आंदोलन‘‘ किसे कहा जाता है। मूलतः उसकी परिभाषा क्या है। और ‘‘आंदोलन’’ करने के पीछे उद्देश्य क्या होता है। किसी ‘‘मांग‘‘ (वैध या अवैध) को लेकर संगठनों या व्यक्तियों के समूह द्वारा संगठित रूप से किसी वैध कानून का उल्लंघन अथवा अपने नागरिक उत्तरदायित्वों का सार्वजनिक रूप से अनुपालन न करने की घोषणा और पालन न करना ही मूल रूप से ‘‘आंदोलन‘‘ कहलाता है। सत्ता तंत्र या व्यवस्था द्वारा अन्याय किये जाने के विरूद्ध सुनियोजित स्वतः स्फूर्त सामूहिक संघर्ष ही आंदोलन है। यह संघर्ष के विकास की एक अवस्था है। लगभग 25 किसान संगठनों सहित लाखों लोगों का संगठित समूह, संसद के दोनों सदनों द्वारा पारित वैध तीनों कृषि सुधार कानूनों का विरोध करने के लिए दिल्ली के पास सिंधु बॉर्डर (सीमा) को सील कर  पिछले 25 दिनों से बैठे हुए हैं। यही किसान आंदोलन हैं। ‘‘आंदोलन’’ का अधिकार विश्व का सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश तथा विश्व का दूसरे नंबर की जनसंख्या वाले देश के नागरिकों का एक संवैधानिक लोकतांत्रिक अधिकार और परंपरा द्वारा माना हुआ एक मानवाधिकार भी है।

आइए किसानों के इस ‘‘लोकतांत्रिक संवैधानिक मौलिक अधिकार व मानवाधिकार’’ ‘‘आंदोलन‘‘ के बाबत् माननीय उच्चतम न्यायालय ने क्या-क्या कहा, इसका अवलोकन कर लेते है। सर्वप्रथम माननीय न्यायालय ने किसानों के कृषि कानूनों के विरोध के अधिकार को उचित, सही और एक मौलिक अधिकार माना है। लेकिन साथ में यह भी माना कि एक नागरिक का मौलिक अधिकार दूसरे नागरिक के ‘‘मौलिक’’ अधिकार का उल्लंघन नहीं कर सकता है। ‘‘आंदोलनकारियों के कारण दूसरो के जीवन व अधिकार प्रभावित नहीं होने चाहिए’’ यह भाव उच्चतम न्यायालय ने व्यक्त कर मौलिक अधिकारों को ‘‘पूर्ण’’, ‘‘अनक्वॉलिफाइड़’’ तथा ‘‘बिना शर्त’’ नहीं माना है। 

यह बात अन्य मौलिक अधिकारों के संबंध में तो सही है। लेकिन ‘‘आंदोलन के मौलिक अधिकार के संबंध में’’ यह आंदोलन के ‘‘मूल उद्देश्य व भाव’’ को ही समाप्त कर ‘‘अस्त्रहीन’’, ‘‘दंतहीन’’ कर ‘‘अनुपयोगी’’ बना देगा। वास्तव में ‘‘आंदोलन’’ में आंदोलनकारी जब किसी कानून का उल्लंघन करेंगे, तब निश्चित रूप से दूसरे गैर आंदोलनकारी नागरिकों के संवैधानिक अधिकारों का ‘‘हनन’’ कुछ न कुछ तो अवश्य होगा ही। तभी तो ‘‘आंदोलन’’ कहलायेगा। क्या किसी जंगल में आंदोलन के विभिन्न तरीके धरना प्रदर्शन, जाम, जुलूस इत्यादि द्वारा आम जनता और संबंधित जिम्मेदार संस्थाओं जैसे शासन का ध्यान आकर्षित कर सकते हैं? ‘‘जंगल में मोर नाचा किसने देखा’’। तब ऐसे आंदोलन का वजूद जरूरत व फायदा क्या? इसलिए किसी न किसी संस्थागत या व्यक्तिगत अधिकारों का ‘हनन’ करना या होना ‘‘आंदोलन‘‘ की ‘नियति’ है। उच्चतम न्यायालय का यह प्रतिबंध आंदोलन की मूल भावना पर ही चोट करता है।  

‘‘आंदोलन’’ में मूल रूप से ‘असहमति’ का भाव प्रधान होता है। लेकिन आजकल के ‘‘आंदोलनों’’ ने आंदोलन की परिभाषा ही बदल दी है। नियत जगह, नियत समय में निश्चित अवधि के लिये और प्रशासन से आवश्यक अनुमति लेकर आंदोलन के विभिन्न रूप जैसे प्रदर्शन, धरना, ज्ञापन, उपवास, अनशन भूख हड़ताल, आमरण अनशन, अनिश्चितकालीन हड़ताल, चक्का जाम, सीमा सील, पुतला दहन चिपकों (आंदोलन) आदि रूप जो कुछ घंटे, एक दिन या अनिश्चितकाल होते है, में ‘भाग’ लिया जाता है। यदि आंदोलन के लिए आंदोलनकारियों व प्रशासन के बीच परस्पर सहमति ली व दी जानी है, तो फिर उस मांग जिसके लिये आंदोलन किया जाता है, के लिये सहमति क्यों नहीं बना ली जाती? वास्तव में आंदोलन की यात्रा ‘‘असहमति’’ से प्रारंभ होकर सहमति के निष्कर्ष तक पंहुचती है, तभी वह सफल आंदोलन कहलाता है। विपरीत इसके सहमति की अनुमति के साथ आंदोलन करना मात्र ‘नाटक’ ही है। क्योंकि ‘‘आंदोलन’’ आपका अंतिम अस्त्र होता है, जब आपकी समस्त दिशाओं से जिम्मेदार संस्थाओं में सुनवाई न होकर वे आपकी मांगो से सहमत नहीं होते है।   

आंदोलन शब्द में मूल रूप से ‘‘कष्ट सहना और कष्ट देना‘‘ की भावना निहित होती है। यह बात अलहदा है कि, वर्तमान किसान आंदोलन में आंदोलनकारियों ने पहली बार कुछ आवश्यक सुविधाएं का अच्छा प्रबंधन करके ‘‘आंदोलन को नया आयाम’’ देने के कारण आलोचकों को पांच सितारा सुविधा युक्त आंदोलन का आरोप जड़ने का एक मौका अवश्य दे दिया है। वैसे किसान आंदोलनकारियों के वर्तमान तरीके व रूप ने इस आंदोलन को एक नये रूप में परिभाषित भी किया है कि, एक व्यक्ति घर में रहते हुये समस्त सुविधाएं के साथ जिस प्रकार जीवन जीता है, सार्वजनिक स्थलों पर लगभग वैसा ही जीवन जीते हुये वह ‘‘आंदोलित’’ है। यह 21वीं सदी के आंदोलन की ‘‘नई परिभाषा’’ (‘‘भूखे पेट की बजाए भर पेट’’) हो सकती है, जिसका स्वागत करने में हिचक क्यों? शायद इसीलिए कि अभी तक की आंदोलन के प्रति जो धारणा रही है, वह अपनी मांगों को मनवाने के लिए सरकार पर दबाव डालने के लिए जितना ज्यादा कष्ट आप स्वयं को तथा दूसरों व सरकार को देंगे, आपका आंदोलन सफल तभी कहलाएगा। और तभी आप अपने उद्देश्य की पूर्ति के निकट पहुंच पाएंगे, अर्थात अपनी मांग सरकार से मंगवाने में आप सफल हो पाएंगे।

माननीय उच्चतम न्यायालय ने एक तरफ किसानों के शांतिपूर्ण आंदोलन को सही ठहराया है। तो वहीं दूसरी ओर सरकार के शांतिपूर्ण रुख और आंदोलन का दमन न करने की लिए अभी तक पुलिस फोर्स का उपयोग न करने के लिये सरकार की प्रशंसा भी की है। 25 दिन से  चले आ रहे आंदोलन की समाप्ति के लिए पांच दौर की असफल बातचीत हो जाने के बावजूद उच्चतम न्यायालय का बातचीत के लिए एक स्वतंत्र व निष्पक्ष समिति बनाने की पेशकश करना थोड़ा आश्चर्य चकित जरूर करती है। क्योंकि यह मध्यस्थता एवं सुलह आधिनियम (आर्बिट्रेशन एक्ट के) अंतर्गत दो पक्षों के बीच विवाद का मामला नहीं है, जहां न्यायालय को मध्यस्थ नियुक्त करना है अथवा जहां आर्बिट्रेटर ने अपना अवार्ड दे दिया हो, जिसकी न्यायिक समीक्षा करनी हो। पूर्व से ही दोनों पक्ष ‘‘मांगने वाला व देने वाला’’ के बीच जब सीधे संवाद हो रहा है, तब ‘‘आसमान पर दिया जलाने के लिये’’ तीसरी कमेटी के बनाने का औचित्य क्या? पहले तो इस प्रस्तावित समिति के सदस्यों के नामो पर ही दोनों पक्षों की सहमति बनानी होगी। तत्पश्चात समिति को ही पूरे मामले की गहराई से समझने के लिये अनावश्यक रूप से समय व्यतीत करना होगा। आखिर इस पूरे आंदोलन के मामले में सहमति का ही तो संकट है? तब हम नए-नए सहमति के क्षेत्र को क्यों खोल रहे हैं?

आपको याद होगा! श्रीराम जन्मभूमि के मुकदमे में ‘‘गुण दोष‘‘ के आधार पर चल रही सुनवाई के दौरान एक समय उच्चतम न्यायालय ने न्यायालय के बाहर समझौता करने के लिए कमेटी बनाने की व समय देने की पेशकश की थी जहां पर समस्त पक्षों के बीच वास्तविक रूप में कोई संवाद नहीं के बराबर था। यहां पर तो आंदोलनकारी किसानों से सरकार की पहले से वार्ता चल रही है। यद्यपि इसके अभी तक कोई परिणाम नहीं निकले है। लेकिन वार्ता बंद भी नहीं हुई है, बल्कि दोनों पक्षों ने वार्ता की इच्छा भी व्यक्त की है।

निश्चित रूप से हमारे संविधान में लोकतंत्र के तीनों स्तंभ विधायिका कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच कार्यों का स्पष्ट विभाजन है। जहां आंदोलनकारियों से बातचीत करने का दायित्व और अधिकार चुनी गई लोकप्रिय सरकार के पास ही है। हां सरकार के निर्णय संविधान या कानून के यदि विरुद्ध हैं, तभी न्यायालय इसमें ‘‘हस्तक्षेप‘‘ कर सकता है। पिछले कुछ समय से लोकतांत्रिक संविधान का एक प्रमुख खंबा (स्तंभ) न्यायपालिका अपने मूल संवैधानिक क्षेत्राधिकार से बाहर जाकर संविधान के दूसरा खंबे कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र में अतिक्रमण करती रही है। चूंकि यह अतिक्रमण अधिकांशतः जनहित में परिणित होता रहा है, इसलिए सामान्यता इस पर आपत्ति नहीं हुई। लेकिन इससे एक बात जरूर निकलती है कि जब कार्यपालिका अपने संवैधानिक दायित्व को पूरा करने में असफल होती है,तभी न्यायपालिका को अतिक्रमण करने का अवसर मिल जाता है, क्योंकि ‘‘ठंडा लोहा ही गरम लोहे को काटता है’’ यह स्थिति न केवल स्वस्थ्य लोकतंत्र के हित में नहीं है, बल्कि लोकतंत्र के परिपक्व होने के रास्ते में यह कहीं न कहीं यह रूकावट भी है।

सरकार और किसान नेता क्या ‘‘दिशाहीन‘‘ होकर मुद्दे से ‘‘भटक गये‘‘ या ‘‘परस्पर भटका‘‘ रहे है?

किसान आंदोलन के 21 दिन हो गये है। लेकिन अभी तक दोनों पक्षों के अंतिम निष्कर्ष व निर्णय पर पंहुच न सकने के कारण स्थिति रबड़ के समान खिंच कर वापिस न आने के कारण पूर्वतः दो विपरीत छोरों पर (दिल्ली सीमा के दोनों पार) रुकी हुई है। लेकिन इसका यह मतलब कदापि नहीं है कि इन 21 दिनों में कुछ भी सकारात्मक व नकारात्मक घटित नहीं हुआ है। वास्तव में इन 21 दिनों में किसान आंदोलन को लेकर बहुत कुछ पानी बह चुका है। समझौता वादी सरकार व आंदोलनकारी किसान संगठनों एवं नेताओं के बीच उत्पन्न होने वाली आवश्यक ‘‘समझदारी‘‘ के अभाव के कारण अहंकार (ईगो) के रहते चलते समझौते के मुद्दों के करीब पंहुचने के बावजूद समझौता नहीं हो पा रहा है। जिसमें देश की आम जनता परेशान हो रही है। ‘‘स्थिति’’ की उलझी हुई वर्तमान स्वरूप पर सोचने के पूर्व आपको यह समझना होगा कि वास्तव में किसानों की वास्तविक समस्या क्या है? और उसका सही हल क्या है, या हो सकता है, जो सरकार कर सकती है। 

आइये सबसे पहले हम किसानों की समस्यायों व मांगों की बात कर लें! संसद में पारित तीनों कृषि सुधार कानूनों को समाप्त करना न तो किसानों की मूल मांग है और न ही होनी भी चाहिए। यह मुख्य मांग के उपर एक आवरण मात्र है, जो समझौते पर पहुंचने की की मूल शर्त ‘‘दो कदम आगे और एक कदम पीछे हटने‘‘ की स्थिति बनाये रखने के लिए हो सकती है। याद कीजिए! वर्तमान आंदोलन प्रारंभ होने के पूर्व और तीनों कृषि सुधार अध्यादेश  के लागू होने के बीच की अवधि (समय) में किसानों की अध्यादेशों को समाप्त करने की मांग नहीं थी। किसानों की यह मांग जायज इसलिए भी नहीं हो सकती है, खासकर उस स्थिति में, जब लोकतंत्र में लोकतांत्रिक तरीके से चुने गये जनप्रतिनिधियों अर्थात सांसदों के बहुमत द्वारा संसद के दोनों सदनों में उक्त तीनों कृषि सुधार अध्यादेशों की जगह बिल पारित कर कानून बनाया गया है। अतः यह मांग किसी भी स्थिति में स्वीकार नहीं की जा सकती है। इसमें सरकार की ‘‘सार्वभौमिकता’’ और ‘‘विश्वसनीयता’’ का प्रश्न ही निहित नहीं है, बल्कि लोकतांत्रिक सरकार का यह एक दायित्व भी है कि, वह संसद द्वारा पारित कानून की मर्यादा को यथासंभव बनाएं रखे। . 

सरकार जब उक्त तीनों कानूनों में आवश्यक संशोधन करने को तैयार है, तब किसानों को यह बतलाना होगा कि उक्त तीनों अधिनियमों की कौन-कौन से प्रमुख प्रावधान व धाराएं उनके हितों के विपरीत है, जिन्हें खत्म या उसमें संशोधन किया जाना अति आवश्यक है। यह एक सत्य व सिद्ध तथ्य है कि, किसी भी अधिनियम में बहुत से प्रावधान मात्र अलंकारिक व सजावटी होते है, जिनके रहने या न रहने से अधिनियम के मूल उदेश्यों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। इसीलिए किसानों को कानून समाप्त/रद्द करने की अपनी अनावश्यक जिद को छोड़कर ही आगे बढ़ना होगा। उन्हें शून्य करने की बजाय उसमें समस्त आवश्यक संशोधन के लिये किसानों का न केवल स्वयं को तैयार करना होगा, बल्कि सरकार को भी इसके लिए तैयार करना कराना होगा। उत्पन्न विवाद को सुलझाने का एक यही मूल आधार, तथ्य व कार्य चरित्र होना चाहिए। यदि किसान संघ व उनके नेता कानून भंग न करने की बात को मान लेते है तो, उनकी मुख्य मांग जो रहती है वह एमएसपी को कानून बनाने की है। सरकार ने कभी भी एमएसपी की महत्ता को कम करने या उसे देने को अस्वीकार नहीं किया है। और लिखित रूप में एमएसपी देने की बात को पांचवी दौर की बातचीत के दौरान स्वीकार भी किया है। तब फिर वह उसके कानून बनाने की मं मांग  को स्वीकार कर मामले का पटापेक्ष क्यों नहीं कर देती है?

किसानों की एमएसपी को कानून बनाने की मांग को सरकार स्वीकार कर आवश्यक कदम उठाए; उसके पूर्व मैं किसानों सहित देश के नागरिकों का ध्यान इस ओर आकर्षित करना महत्वपूर्ण व उचित समझता  हूं कि मात्र एमएसपी के कानून बन जाने से समस्या का समाधान नहीं होगा। एमएसपी पिछले 55 सालों से चली आ रही है व वर्तमान के साथ में आगे भी चलेगी। इस बात पर दोनों पक्षों में कोई विवाद/मतभेद नहीं है। चल रही एमएसपी की व्यवस्था वास्तव में क्या सही है? समस्या यह  है। वास्तव में क्या समस्त किसानों को एमएसपी मिल रही है? यदि आप धरातल पर जाकर मूल रूप से किसानों को एमएसपी मिलने में हो रहे परेशानी का जायजा लेंगे, तब आप दावों के बिल्कुल विपरीत वस्तुः स्थिति पाएंगे। तब आप यह इस सत्य से रूबरू हो पायेगें कि "न्यूनतम समर्थन मूल्य" को कानून बनाये जाने से भी समस्या का हल नहीं होगा। बल्कि इसके साथ आपको "आवश्यक न्यूनतम मात्रा में खरीदी" का "कानून: बनाने की बात भी करनी ही होगी और सरकार को भी उसे मानना ही होगा। सरकार जो अभी तक कुल उत्पाद का अधिकतम आठ-दस प्रतिशत फसल की उपज की खरीदी ही मंडी में करती चली आ रही है, वह मात्रा इतनी कम होती है कि, न्यूनतम मूल्य का कानून बन जाने के बावजूद भी 90 प्रतिशत किसानों को खरीदी कम होने के कारण न्यूनतम समर्थन मूल्य का फायदा नहीं मिल पाता है। यही वास्तविकता है। सरकार व उसकी कृषि उपज खरीदने वाली एजेंसियां भी कानून बन जाने के बावजूद भी कानून के घेरे में नहीं आ पाएंगी। क्योंकि उन्हें कानून के उल्लंघन का दोषी इसलिये नहीं ठहराया जा सकेगा कि उपज क्रय करने की स्थिति में वे न्यूनतम समर्थन मूल्य पर ही खरीदी करेगी। लेकिन "फंडस" की कमी के कारण वास्तव खरीदी कम या न कर सकने से कानून का उल्लघंन नहीं होगा।

इसीलिए न्यूनतम समर्थन मूल्य के साथ न्यूनतम मात्रा की खरीदी का कानून बनाया जाए तभी अधिक संख्या में किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य का फायदा मिल पाएगा। उक्त प्रस्तावित कृषि उपज की न्यूनतम मात्रा में खरीदी का कानून बनाने में सरकार को यह भी प्रावधान कर सुनिश्चित करना होगा कि 5 एकड़ से कम रकबा वाले किसानों में से न्यूनतम 80 प्रतिशत किसानों से और इसमें शामिल उन सब विक्रेता किसानोें से उनके उपज के रकबे के आधार पर, अनुपात में बराबरी की खरीदी की जावें। क्योंकि देश की कुल जनसंख्या के 70-75 प्रतिशत लोग किसान है  जिसमें 5 एकड़ से कम छोटे किसानों की संख्या लगभग 90 प्रतिशत हैं। इससे किसानों की स्थिति अच्छी नहीं तो पहले सेे बेहतर अवश्य होगी। जब आपका आशय, दृष्टिकोण व इच्छा साफ सुथरी है, आपके दिल में कोई खोट नहीं है, तब सरकार को यह कानून बनाने में क्या आपत्ति होनी चाहिए? यह भी समझ से परे है कि किसान संगठन सिर्फ एमसएपी के कानून की बात क्यों कर रहे हैं? परंतु आवश्यक न्यूनतम मात्रा में खरीदी की बात और मांग नहीं कर रहे हैं। इसलिए मुझे लगता है कि दोनों पक्ष दिशाहीन तर्क विर्तक करने में जुटे हुये है।

एक बात और आंदोलन जब देशव्यापी और मजबूत रूप से प्रारंभ होता है और शीघ्रता शीघ्र तुरंत-फुरंत बातचीत के द्वारा आंदोलन के समाप्त होने की संभावना नहीं दिखती है, तब "असफल"  सरकार का एक मात्र उद्देश्य आंदोलन को तोड़ना ही हेाता है। इसके लिए सरकार साम, दाम, दंड, भेद सहित तीन-चार हथियारों का उपयोग करती रही है। प्रथम आंदेालन को लम्बा खींचा जाये, ताकि आंदोलन अपनी समय के भार व शनैः शनैः कमजोर होती शक्ति के कारण खत्म होता चला जाये। दूसरा आंदोलन से जुडे संगठनों में टूट की जाये, उनमें से कुछ लोगों व नेताओं को तोड़़ा जाए। तीसरा आंदोलन को बदनाम किया जाये। आंतकवादी, खालिस्तानी, टुकडे-टुकडे गैंग, सीएए समर्थक, देशद्रोही इत्यादि-इत्यादि। और इन तरीको में सरकार सफल होती दिख भी रही है। 

एक और आरोप सरकार ने आंदोलनकारियों पर यह लगाया है कि  आंदोलन राजनीति के हत्थे चढ़ गया है। वैसे भी आजकल नीति पर राजनीति नहीं की जाती है, बल्कि ‘‘राजनीति’’ पर ‘‘राजनीति’’ होती है। आरंभ से ही आंदोलनकारियों का यह दावा रहा है कि उनका यह किसान आंदोलन पूर्णतः गैर राजनैतिक है। इसके लिए किसान संगठनों ने आवश्यकता बरतने के साथ-साथ कुछ कडे़ कदम भी  उठाएं  है। आपको याद होगा, केंद्रीय सरकार की आपत्ति के बाद किसान संगठनों ने योगेंद्र यादव को सरकार से बातचीत करने के लिए भेजें अपने डेलिगेशन  में नहीं भेजा था, जो एक राजनीतिक पार्टी स्वराज पार्टी के अध्यक्ष हैं। अभी तक किसी भी राजनैतिक पाटियों के झंडे बेनर व नेताओं को मंच पर आने नहीं दिया गया और न ही ‘‘आंदोलन’’ का "वक्ता  प्रवक्ता" बनने दिया है। 

परन्तु सरकार के साथ आंदोलनकारियों की पांचवी दौर की असफल बातचीत के बाद आंदोलनकर्ताओं ने पूरे देश में भाजपा के मंत्रियों का घेराव का आह्वान कर भाजपा को किसान आंदोलन पर राजनीति करने के आरोप मढ़ने के लिये एक साक्ष्य व प्रमाण दे दिया। आंदोलनकारियों का यह कदम राजनैतिक रूप से प्रेरित दिखाई देने का कारण बड़ा स्पष्ट है। कृषि राज्य सूचि में (विषय) होने के कारण जैसा कि आंदोलनकारी भी दावा करते हैं, कानून बनाने का अधिकार  राज्य सरकारो को है। अतः उन प्रदेशों में जहां पर कांग्रेस की सरकारे है, क्या उन्होंने ‘‘एमएसपी‘‘ के लिए कानून बना दिया? नहीं। सिर्फ पंजाब को छोड़कर। कदापि इन राज्यों ने केन्द्रिय अधिनियम को लागू न करने के लिए विधानसभा में एक प्रस्ताव पारित करने की बात जरूर कहीं है। अतः ऐसे कांग्रेस के मंत्रियों को आंदोलनकारियों ने बहिष्कार से मुक्त क्यों रखा? इस कारण चाहे अनचाहे, जाने अनजाने में किसानों के उपर राजनीति करने के आरोप लगाने के लिये सरकार को बल मिलता है। 

वैसे विगत दिवस किसान आंदोलनकारियों के एक प्रमुख नेता पंडित शिवकुमार शर्मा ‘‘कक्काजी‘‘ जो कि मध्यप्रदेश के ही है, व पूर्व में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की किसानों के बीच कार्य करने वाली शाखा-संगठन भारतीय किसान संघ के मध्य भारत प्रांत के मुखिया भी रहे है, उनके व केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर के बीच "एबीपी न्यूज चैनल" के माध्यम से हुई बातचीत ने एक नये समझोते की आशा अवश्य जगाई है। देश का आम नागरिक यह उम्मीद करता है कि समस्त पक्षों को "सद्धबुद्धि" आये और एक कदम आगे चलकर दो कदम पीछे चलने की नीति का सम्मान कर कृषकों के हितेषी समझौते पर पंहुचा जाये, जिसका सरकार पहले ही दिन से दावा कर रही है। सुखद परिणाम की प्रत्याशा में!

अंत में जहां तक किसान आंदोलन पर पांच सितारा सुविधाओं के आरोप का प्रश्न है, इस कोरोना काल में देश की बढ़ती मजबूत आर्थिक व्यवस्था का कहीं यह द्योेतक तो नहीं है? इसकी विवेचना फिर कभी। लेकिन निश्चिित रूप से इस आंदोलन के अनुशासन व आंदोलनकारियों के जीवन निर्वाह के लिए आवश्यक  समस्त जरूरी आवश्यकताओं की  पूर्ति की इस ठंड में भी की गई बहुत अच्छी पांच सितारा व्यवस्था के साथ आंदोलन  को "हाईटेक" करने से  "आंदोलन" के बाबत जो "कल्पना" एक आम आदमी के दिमांग में अभी तक रही है, उस पर पुर्नविचार करने के लिए जरूर मजबूर कर दिया है। "स्वामीनाथन आयोग" के आधार पर "एमएसपी" तय हो, यह भी एक विषय चिंतन है। लेकिन लेख लम्बा होने के कारण इन पर फिर कभी अलग से विचार करेगें।

भाजपा का ‘‘वार’’! ममता ‘‘बदहवास’’ व ‘‘बेहाल’’!


भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा के पश्चिम बंगाल दौरे के दौरान उनके और भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय के काफिले और उनकी गाडि़यों पर पत्थरबाजी और हमला किया गया। इस गंभीर घटना ने पश्चिम बंगाल में विधानसभा के आगामी होने वाले आम चुनाव की दृष्टि से पहले से ही ‘‘गर्म होती हुई राजनीति‘‘ को और ‘‘सुलगा‘ कर ‘‘विस्फोटक’’ स्थिति में पंहुचते जा रही है। वर्तमान राजनैतिक व बिगड़ती कानून व्यवस्था को देखते हुए आज सबसे बड़ा प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि पश्चिम बंगाल में पिछले 6 महीने से जो कुछ चल रहा है, क्या वह आगामी छह महीने होने वाले आम चुनाव तक ऐसे ही चलता रहेगा? या उसके पूर्व ही ‘‘कानून का राज‘‘ स्थापित करने के लिए और ‘‘संविधान की रक्षा‘‘ करने के लिए तुरंत आवश्यक कदम उठाए जाएंगे? 

जेपी नड्डा की बुलेट प्रूफ गाड़ी पर हमले को लेकर पश्चिम बंगाल की राजनीति इतनी गरमा गई कि पश्चिम बंगाल के राज्यपाल जगदीप धनखड़, जो कि राज्य के एक संवैधानिक  मुखिया है, को एक संवाददाता सम्मेलन लेकर राज्य की कानून व्यवस्था पर सार्वजनिक रूप से चिंता व्यक्त करनी पड़ी। संवैधानिक रूप से कानून की स्थिति बनाए रखने के लिए मूल रूप से जिम्मेदार व उत्तरदायी मुख्यमंत्री को बिगड़ती कानून व्यवस्था के लिए जिम्मेदार ठहराकर राज्यपाल को यहां तक कहना पड़ गया कि मुख्यमंत्री को ‘‘आग से नहीं खेलना‘‘ चाहिए। जब राज्यपाल स्वयं ही कानून व्यवस्था भंग होने का आरोप मुख्यमंत्री पर लगाएं तब, बदहवास होती स्थिति की भयावहता को समझा जा सकता है। क्योंकि संवैधानिक रूप से राज्य में कानून व्यवस्था बनाए रखने की जिम्मेदारी चुनी हुई सरकार, उनके मुखिया मुख्यमंत्री और गृहमंत्री की ही होती है। अर्थात जब रक्षक ही भक्षक बन जाए, तब भगवान ही मालिक है। ऐसी स्थिति में ‘‘भगवान’’ ने भारतीय संविधान के माध्यम से केंद्रीय गृह मंत्री को यह दायित्व दिया है कि, अनुच्छेद 365 के अतंर्गत राज्य सरकार को बिगड़ी कानून व व्यवस्था सुधारने व बनाए रखने के लिए कड़े आवश्यक वास्तविक कदम उठाने के निर्देश दे। ताकि संवैधानिक निर्देशों का पालन न होने पर राज्यपाल की रिपोर्ट के बिना भी सीधे राष्ट्रपति शासन लागू किया जा सकता है।

संवाददाता सम्मेलन लेकर सार्वजनिक रूप से कानून व्यवस्था के संबंध में अपनी चिंता व्यक्त करने का कार्य, सामान्यतया राज्यपाल महोदय का नहीं है। यह शासन स्तर पर राज्य या केन्द्र की सरकार का ही कार्य है। राज्यपाल को राज्य के हितों के संबंध में अपनी समस्त चिंताओं सेे अपनी रिपोर्ट के माध्यम से गृह मंत्रालय को अवगत कराना ही उनका मूल संवैधानिक दायित्व है। क्या राज्यपाल को स्वयं की कार्य क्षमता पर विश्वास नहीं है कि राष्ट्रपति शासन लागू होने की स्थिति में वे कानून व्यवस्था को सुधार सकेंगे? क्योंकि राष्ट्रपति शासन में राज्यपाल ही कार्यपालिका (शासन) का प्रमुख होता है व समस्त अधिकार उनके पास केन्द्रित हो जाते है। अति खराब कानून व व्यवस्था की स्थिति होने के बावजूद राष्ट्रपति शासन की अभी तक सिफारिश न करने (जो वर्तमान उत्पन्न परिस्थिति में एक संवैधानिक अपेक्षा है) का क्या यह भी एक कारण हो सकता है?

वैसे आजकल हर जगह राजनीति हावी है। इसलिए पार्टी लाइन के आधार पर  नियुक्त किए गए राज्यपाल भी स्वयं को इस राजनीतिक माहौल से शायद अलग नहीं कर पा रहे हैं। जो उनके द्वारा एक प्रेसवार्ता बुलाने से दर्शित भी होता है। ‘‘संवैधानिक प्रमुख होने के नाते मेरा यह दायित्व’’ है कि संविधान का पालन करवाऊं और ममता दीदी को संविधान का पालन करना ही होगा, अन्यथा उनकी भूमिका शुरू हो जायेगी’’। राज्यपाल का प्रेसवार्ता में उक्त कथन राजनीति लिये हुये ज्यादा व कार्यवाई लिये हुये कम है। निश्चित रूप से ममता बनर्जी संविधान का पालन करने के लिए तभी मजबूर हो पाएगी, जब आप उन्हें संविधान का पालन करने के लिए मजबूर करेंगे। अर्थात बिगड़ती कानून व्यवस्था के आधार पर राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करने की सिफारिश करने के अलावा राज्यपाल के पास अन्य कोई विकल्प नहीं रह जाता है। संवाददाता सम्मेलन में राज्यपाल द्वारा यह आरोप लगाना कि यह हमला तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं की गुंडागर्दी का परिणाम है ‘‘अपरिपक्व’’ और राज्यपाल के ‘‘अधिकार क्षेत्र के बाहर’’ है। राज्य के संवैधानिक मुखिया होने के नाते केंद्र को भेजी जाने वाली वाली रिपोर्ट में इस बात का उल्लेख वे जरूर कर सकते हैं। लेकिन संवाददाता सम्मेलन में सार्वजनिक रूप से नहीं। स्वयं राज्यपाल या राज्य सरकार द्वारा बिना कोई प्राथमिक जांच कराए, घटना के 24 घंटे के भीतर ही उक्त प्राथमिक निष्कर्ष पर पहुंच जाना ही अपने आप में ‘‘राजनीति‘‘ करना ही कहलाएगी। जिससे ममता बनर्जी को राज्यपाल पर ‘‘राजनीति‘‘ करने का आरोप ‘‘जड़ने‘‘ का एक मौका मिल गया। 

वैसे ममता बनर्जी का जेपी नड्डा की गाड़ी पर हुए हमले के आरोप की ‘प्रतिरक्षा’ में यह कहना कि यह एक ‘‘नाटक‘‘ है, जिसे भाजपाइयों ने ही स्वयं उक्त हमले का प्लान बनाया, हास्यास्पद, पूरी तरह से हताश, राजनीति से प्रेरित और कहीं न कहीं उनकी बंगाल की राजनीति पर ढ़ीली होती पकड़ को ही दर्शाता है। वास्तव में यदि यही वास्तविकता है तो, ममता बनर्जी को घटना की तुरंत जांच करा कर उक्त आरोप व नाटक के तथ्यों को उजागर कर जनता के बीच लाकर ऐसे नाटक करने वाले नौटकीबाजों (आरोपियों) के खिलाफ कानूनी कार्रवाई करना चाहिए। सिर्फ आरोप-प्रत्यारोप की मात्र राजनैतिक बयानबाजी करके वे अपनी संवैधानिक जिम्मेदारी से मुक्त नहीं हो सकती हैं। क्योंकि संवैधानिक रूप से एक चुनी हुई सरकार के मुखिया होने के नाते हर स्थिति में कानून व्यवस्था बनाए रखने की पूर्ण जिम्मेदारी ममता बनर्जी की ही है। और इसमें किसी भी कारण से असफल होने पर यह उनकी ‘‘अयोग्यता‘‘ ही कहलाएगी। इस आधार पर केंद्र शासन के पास राष्ट्रपति शासन लगाने का एक वैधानिक हथियार तैयार होते जा रहा है, जिसका उपयोग करने में केंद्रीय सरकार फिलहाल शायद इस कारण से ड़र रही है व उसे आंशका है कि, इससे एक सहानुभूति की भावना ममता बनर्जी के पक्ष में हो जाएगी, जिसका आगामी होने वाले विधानसभा के चुनाव में उन्हें फायदा मिलेगा। अर्थात ‘‘राजनीति दोनों तरफ से हो रही है‘‘। शायद इसीलिये केंद्रीय सरकार कड़े कदम उठाती हुई यह दिखाना चाहती है, इसीलिए तीन आईपीएस अधिकारियों को केंद्र ने वापिस बुला लिया है। अभी-अभी लेख समाप्त करते समय यह बात ध्यान में लाई गई है कि कैलाश विजयवर्गीय पर हुये हमले को देखते हुये उन्हे बुलेट प्रूफ कार मुहैया कराई गई है, जो सुरक्षा की दृष्टि से तो आवश्यक एवं उचित है परन्तु बढते हुये हमले की आंशका को देखते हुये हमले का जवाब हमलावरांे की हमले की धार को कुंद करने की प्राथमिकता होनी चाहिए लेकिन सुरक्षा को बढाना और मजबूत करना है, उक्त कदम से प्रश्न यह भी उठता है। यह कार्यवाही इसी बात को इंगित करती है कि फिलहाल राज्यपाल और केन्द्रीय सरकार ठोस (कड़ा) और कठोर निर्णय लेने में अक्षम सी प्रतीत हो रहे दिखते है।  

क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि ऐसी दिन प्रतिदिन एक के बाद एक राजनैतिक कार्यकर्ताओं की हत्याओं के कारण बद से बदतर होती कानून व्यवस्था की स्थिति में क्या दूसरे राज्य में जहां आगे आम चुनाव न हो, रहे हो, वहां ऐसी समान कानून व व्यवस्था की स्थिति के रहते, उस राज्य में कोई सरकार अपने पद पर बनी रह सकती थी? कदापि नहीं! उदाहरण स्वरूप कानून अव्यवस्था की स्थिति के चलते ही पूर्व में भी पंजाब में 80 के दशक (1987-92) में, जम्मू-कश्मीर मेें 1990-96 के बीच, उत्तर प्रदेश में 1973 में पुलिस विद्रोह के कारण एवं 1992 में बाबरी विध्वंस के चलते, मणिपूर में 1972 में, आंध्रप्रदेश में 1973 में अलग आंध्र राज्य बनाने के चलते, तमिलनाडु में 1976 में राज्यपालों की सिफारिशों पर कंेद्रीय शासन ने राष्ट्रपति शासन लगाया है। अटलजी व नरेन्द्र मोदी के कार्यकाल में भी क्रमशः 6 व 7 बार राष्ट्रपति शासन लग चुका है।

इसलिए मेरा राज्यपाल और केंद्रीय सरकार को यही कहना है कि बिना किसी ‘‘राजनीति‘‘ के वहां की वास्तविक स्थिति के आधार पर यदि वास्तव में कानून की स्थिति समाज विरोधी व अपराधी प्रवृत्ति के लोग खराब नहीं कर रहे हैं। बल्कि ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ता जिन्हें उनके विरोधी गुंडे कहते हैं, के द्वारा खराब की जा रही है। तब निश्चित रूप से राष्ट्रपति शासन ही एकमात्र विकल्प रह जाता है। जो सही कदम होगा अथवा नहीं, इसका निर्णय 6 महीने बाद हो रहे चुनाव में जनता स्वयं दे देगी। तब यह पता लग जाएगा कि वास्तव में कानून व्यवस्था को लेकर ‘‘राजनीति‘‘ कौन कर रहा है? धन्यवाद।

‘‘नए संसद भवन‘‘ का ‘‘शिलान्यास‘‘! जल्दबाजी नहीं?


प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी प्रस्तावित नए संसद भवन का शिलान्यास करने जा रहे हैं। वैसे तो कोई भी शिलान्यास का ‘‘स्वागत‘‘ ही होना चाहिए, क्योंकि यह ‘‘विकास का प्रतीक‘‘ होता है। और फिर शिलान्यास जब देश के प्रधानमंत्री के हाथों हो तब तो वह सूअवसर ‘‘सोने में सुहागा‘‘ हो जाता है। लेकिन यहां पर मामला दूसरा है, जो अभी तक स्वतंत्र भारत के इतिहास में देश के प्रधानमंत्री के स्तर पर ‘‘अनोखा‘‘ है। प्रधानमंत्री जी उस योजना ‘‘नए संसद भवन का शिलान्यास‘‘ करने जा रहे हैं, जिसके बाबत देश की ‘‘सर्वोच्च अदालत‘‘ ‘‘सुप्रीम कोर्ट‘‘ ने लगभग ‘फटकार‘ लगाते हुए ‘‘मन को न भाने‘‘ वाली ‘‘टिप्पणी‘‘ ही नहीं की, बल्कि नए संसद भवन के ‘‘निर्माण‘‘ पर अगले आदेश तक ‘‘रोक‘‘ भी लगा दी हैं। तथापि शिलान्यास के कार्यक्रम पर कोई रोक नहीं लगाई है। वास्तव में ‘‘सेंट्रल विस्ता  परियोजना‘‘ के अंतर्गत यह नया संसद भवन बन रहा है। इस योजना को माननीय उच्चतम न्यायालय  के समक्ष चुनौती दी गई है जहां पर पांच नंबर को जस्टिस ए. एम. खानविलकर की बेंच ने  सुनवाई पूर्ण कर प्रथम आदेशाथ रखा है। यद्यपि प्रकरण में कोई आदेश या अंतरिम रोक आदेश पारित नहीं किया गया है। लेकिन जैसे ही उच्चतम न्यायालय ने सरकार के संसद के भूमि पूजन की सूचना को पड़ा, स्वतः संज्ञान लेते हुए प्रकरण में सोमवार को सुनवाई करते हुए सरकार को कड़ी फटकार लगाई। क्या प्रधानमंत्री के लिए ऐसी स्थिति में यह उचित होगा कि वह एक ऐसी योजना ‘‘संसद भवन‘‘ जो स्वयं ही ‘‘कानून बनाने का हृदय स्थल‘‘ है, का  शिलान्यास करें। जिसके निर्माण पर रोक लगाने के लिए एक अंतरिम कानूनी निर्देश (औपचारिक आदेश नहीं) देश की सर्वोच्च अदालत ने दिए। अर्थात शिलान्यास के दिन एक भी ईट न लगाई जाकर निर्माण कार्य प्रारंभ नहीं हो पाएगा, जिसका शिलान्यास/भूमि पूजन प्रधानमंत्री करने जा रहे हैं। जबकि शिलान्यास व विधि विधान से किए गए ‘‘सर्व धर्म पूजन‘‘ का मतलब ही यही होता है कि, अब आप निर्माण कार्य को प्रारंभ करें। आखिर ऐसी स्थिति में शिलान्यास की इतनी जल्दी क्यों है? वैसे भी अभी संसदीय चुनाव दूर है। जहां हमारी ‘‘परिपक्व होती लोकतांत्रिक चुनाव प्रणाली‘‘ में चुनावों के नजदीक आते ही आनन-फानन में आधे अधूरे शिलान्यास किए जाने की परंपरा ‘‘विकसित‘‘ होती जा रही है। शायद प्रधानमंत्री जी का यह इरादा हो कि आगामी नए सांसदों के लिए नई संसद भवन में बैठने का व्यवस्था  पूर्ण हो जाए। वैसे भी कोविड-19 से उत्पन्न आर्थिक संकट कोरोना काल में इस ‘‘संवैधानिक संस्था संसद‘‘ के लिए बनने वाले भवन के निर्माण में लगने वाले  इतने अनुउत्पादक खर्चे के बाबत कई लोगों ने उंगली उठाई है। क्योंकि 1927 से बना हुआ वर्तमान संसद भवन आज भी उतना ही उपयोगी है जितना उस समय जब वह बना था।

वैसे  इस  कार्यक्रम में एक और त्रुटि दृष्टिगोचर हो रही है कि, महामहिम उपराष्ट्रपति जो कि राज्यसभा के पदेन अध्यक्ष होते हैं, उनके नाम का उल्लेख इस कार्यक्रम में नहीं है। सिर्फ लोकसभा के स्पीकर ओम बिरला जी का नाम है। जबकि यह भवन लोकसभा और राज्यसभा दोनों के लिए बन रहा है। सरकारी विज्ञापन में उक्त त्रुटि स्पष्टतः दर्शित हो रही है! यद्यपि यह मुझे नहीं मालूम कि शिलान्यास के पत्थर में उनका नाम है अथवा नहीं।

निश्चित रूप से शिलान्यास के अवसर पर प्रधानमंत्री द्वारा किया यह कथन कि आज का दिन ऐतिहासिक है, सही है। यह दिन और भी कारणों से ऐतिहासिक है। ऐतिहासिक इसलिए भी है कि संविधान द्वारा स्थापित देश के कानून के निर्माण के ‘‘मंदिर‘‘ के निर्माण को आज एक अंतिम अदालती कानूनी बंधन कारी आदेश के द्वारा आज प्रारंभ नहीं किया जा सकता है। आज का दिन ऐतिहासिक इसलिए भी है वर्ष 1921 में वर्तमान संसद भवन का ‘‘भूमि पूजन‘‘ उस तरह के सर्वधर्म सद्भाव के पूजन के साथ नहीं हुआ होगा, जैसा आज के शिलान्यास के अवसर पर संपन्न हुआ। और आज का दिन ऐतिहासिक इसलिए भी होना चाहिए कि राज्यसभा जिसे संसद का ‘‘उच्च सदन‘‘ कहा जाता है, के ‘‘पदेन‘‘ अध्यक्ष उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू के नाम का उल्लेख न होना है। वैसे भी मोदी जी राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ‘‘ऐतिहासिक‘‘ कार्य करने के लिए जाने जाते हैं। वैसे मोदी जी यहां पर ऐतिहासिक कार्य करने के साथ साथ एक राजनीतिक  चूक जरूर कर गए प्रतीत होते लगते हैं। इस बड़े अति महत्वपूर्ण अवसर पर यदि नरेंद्र मोदी महामहिम उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू  जो  आंध्रा के हैं को, इस कार्यक्रम में सम्मान दिलवा देते तो निश्चित रूप से इसका फायदा भाजपा को "दक्षिण" में जरूर मिलता जहां भाजपा हैदराबाद के रास्ते से आगे बढ़ बढ़कर पैर जमाना  चाहती है। फिर भी समस्त अंतर्विरोध के बावजूद 21वीं सदी के देश के विकास का प्रतीक बनने वाले इस संसद भवन के शिलान्यास पर देशवासियों को बधाई और मोदी जी को धन्यवाद

‘‘तीनों कृषि कानूनों की समाप्ति‘‘ एवं ‘‘एमएसपी‘‘ के लिए ‘‘कानून‘‘ बन जाने से किसानों की समस्याएँ क्या ‘‘सुलझ‘‘ जाएगी?



किसान आंदोलन ‘‘तेरहवे‘‘ दिन में प्रवेश कर चुका है और और ‘‘तीन तेरह काम बिगाड़ा’’ के प्रभाव/परिणाम स्वरूप यह आंदोलन आज ‘‘भारत बंद‘‘ के रूप मे परिणित हो गया है। प्रारंभ में किसान नेताओं ने अपनी मांगों में कुछ लचक पन अवश्य दिखलाया था, जिसको शायद गलतफहमी में ‘‘ढिलाई‘‘ समझ लिया गया। जो अब ‘‘कड़क‘‘ होकर सिर्फ और सिर्फ तीनों काले कानूनों की समाप्ति पर केंद्रित हो गया हैं। यद्यपि तीनों कानूनों को समाप्त/रद्द करने की किसानों के मांग के पीछे ‘‘एमएसपी’’ के न मिलने की ‘‘तथाकथित आशंका‘‘ का ही होना है। साथ ही किसान इसे कृषि उत्पादकों की एमएसपी से कम पर खरीदी की स्थिति में उसे कानूनी रूप से एक ‘‘संज्ञेय अपराध‘‘ बनाया जाकर ‘‘नये कानून‘‘ की मांग कर रहे हैं। यह समझना थोड़ा मुश्किल है कि, वास्तव में किसानों की जायज तकलीफें और ऐसी कौन सी सुविधाओं की मांगे है, ताकि उक्त तीनों कृषि सुधार कानूनों की ‘‘समाप्ति‘‘ से व ‘‘एमएसपी‘‘ के लिए ‘‘कानून बनने‘‘ से उनकी ‘‘पूर्ति‘‘ हो जाऐगीं? यह एक सबसे बड़ा महत्वपूर्ण प्रश्न है, जो सिर्फ देश के नागरिकों को ही नहीं समझना आवश्यक है, बल्कि सरकार और किसानों को भी बिना किसी ‘‘राजनीति‘‘ के ‘‘नीतिगत’’ रूप से साफ ’’नियत‘‘ के साथ ‘‘समझना‘‘ व सबको ‘‘समझाना‘‘ आवश्यक है। आइए आंदोलनरत किसानों की मांगों की बारीकियों से अध्ययन कर और उस पर सरकार के रूख को समझकर, स्थिति को समझने का प्रयास करते हैं।
किसानों की मांगो की विस्तृत विवेचना करें, उसके पहले आपको यह जानना अति आवश्यक है कि इस आंदोलन में किसानों की विभिन्न आर्थिक समस्याएं व उनके आस-पास बनी कार्यशील परिस्थितियों एक समान नहीं है। अतः उनकी समस्याओं के ‘‘तह‘‘ तक पहुंचने के लिये किसानो को मोटा-मोटा दो वर्गों में बांटा जा सकता है। प्रथम 5 एकड़ से कम रकबे वाला छोटा किसान, जो लगभग 80 से 85 प्रतिशत तक है। छोटा, निरीह, गरीब व लगभग साधन व संसाधन हीन होने के कारण आज की बनी हुई ‘‘सामाजिक ताना बाना‘‘ की स्थिति में व शासन में उनकी कोई आवाज न होने के कारण (अथवा मात्र थोड़ी बहुत आवाज होने) कुछ सुनवाई न होने से ‘‘वह‘‘ सबसे ज्यादा पीडि़त है। लेकिन अपनी चारों ओर की मौजूद परिस्थितियों एवं प्रकृति के कारण वह उन सक्षम किसानों के सामान अपनी मांगों को जोरदार तरीके से उठाने में अक्षम है। इस कारण से वे छोटे किसान अपनी फसल को ‘‘एमएसपी‘‘ पर बेचने में लगभग ‘‘असफल‘‘ रहते है। जबकि किसानों का दूसरा वर्ग जो ‘‘सक्षम‘‘ है, प्रगतिशील किसान है और सामाजिक रसूख रखने व प्रभाव होने के साथ-साथ उसका शासन, प्रशासन पर भी प्रभाव होने से वह अपनी फसलों को प्रायः एमएसपी पर बेचने में सफल रहता है। उनकी इस सफलता का एक बड़ा कारण यह भी है कि सरकार जो कृषि उत्पाद की एमएसपी पर खरीदी करती है, वह बहुत कम मात्रा में लगभग 6 से 8 प्रतिशत (10 प्रतिशत से भी कम) तक ही सीमित रहती है। जहां पर ये प्रभावशाली कृषक अपने संबंधों व प्रभावो का उपयोग करते हुए उक्त खरीदी का 90 प्रतिशत भाग को या तो वे अपने नियत्रंण में लेने में सफल हो जाते हैं। या अधिकतम 10 से 15 प्रतिशत छोटे किसानों के उत्पाद की ही खरीदी हो पाती है। यही सबसे बड़ी समस्या है। जिस पर गंभीरता से विचार किये जाने की आवश्यकता है।
परन्तु यह आंदोलन प्रमुख रूप से वैसे तो इन्हीं सक्षम बड़े किसानों के हाथों में है। परन्तु आंदोलन के धीरे-धीरे लंबा चलने से, आंदोलन का केवल फैलाव न केवल देश के विभिन्न जगहों क्षेत्रों में हो रहा है, बल्कि संख्या की दृष्टि से भी और विभिन्न संगठनों के हजारों छोटे कृषक सहित लोग भी इसमें शामिल होते जा रहे हैं। सामान्यतया किसी भी आंदोलन को तोड़ने के लिए उसेे जितना लंबा आप खीचेगें, आंदोलन का साधन संसाधन और आत्मबल में धीरे-धीरे कमी होने के कारण आंदोलन जमादौंज होकर मृत प्रायः हो जाता है। इसी कारण कोई भी सरकार आंदोलन को लंबा खींच कर तोड़ने का प्रयास करती हैं। लेकिन फिलहाल इस ‘युक्ति’ (टेक्टिस) का परिणाम यहां पर तो उल्टा ही दिखाई दे रहा है।
किसानों की एक नये कानून कृषक सशक्तिकरण व संरक्षण, कीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर करार विधेयक अध्यादेश के अंतर्गत समस्या की आशंका उत्पनन हो गई है। उक्त नये कृषि सुधार कानून में प्रावधित किए गए कांट्रेक्ट फार्मिंग (अनुबंध खेती) से किसानों की जमीनों पर बड़े-बड़े व्यापारियों से लेकर अंततः अडानी, अंबानी का कब्जा हो जाएगा। (आजकल बड़े व्यापारियों उद्योगपतियों को गाली देने के लिए अडानी अंबानी शब्द का उपयोग बहुत आसानी से हो जाता है)। किसानों की यह आशंका निराधार है और गलत है। पहली बात तो यह प्रावधान स्वेच्छाचारी है।अर्थात किसान अपनी स्वयं की इच्छा पर ही दूसरों के साथ अनुबंध खेती के लिए जा सकते हैं। सरकार ने किसान द्वारा अनुबंध खेती (कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग) करने की स्थिति में किसानों का शोषण न हो, उसकी व्यवस्था के लिए नए अधिनियम में आवश्यक प्रावधान लाये है। यह अलग विषय है कि आप इन प्रावधानों को पर्याप्त या अपूर्ण कहकर उसकी कमी बतला सकते हैं। जैसे विवाद की स्थिति में सुनवाई के लिये अनुविभागीय अधिकारी का न्यायालय जिस पर कृषि मंत्री ने बातचीत के दौरान पुर्नविचार करने का आश्वासन भी दिया है। फिर यह व्यवस्था दूसरे रूप में पहले से ही चालू है। अर्थात अभी भी किसान की जमीन को वैध रूप से बटाई और ठेके पर दूसरे लोग जोतते चले आ रहे है। बाकायदा पांच साला खसरा में इसका इंद्राज भी होता है। मालिक किसान ही बना रहता है। अतः इससे किसी भी रूप में किसान को ड़रने की आवश्यकता कदापि नहीं होनी चाहिए।यह कृषको व उनके समूह पर निर्भर करता है कि वह अपनी छोटी-छोटी जमीन के रकबे को संयुक्त रूप से मिलकर इन बड़े उद्योगपतियों को अनुबंध खेती के लिए देते हैं अथवा नहीं। क्योंकि यह बात तो सही है कि छोटे से ‘रकबे’ के लिए कोई भी बड़े उद्योगपति, कृषि फार्मिग हेतु आगे नहीं आएंगे।
आइए अब किसानों की आंदोलन की मूल मांगों पर विचार विमर्श करें। नये कानून आने के पूर्व कृषि उत्पाद की बिक्री ‘‘एमएसपी’’ पर पूरे देश में ‘‘एपीएमसी’’ जिसे सामान्यतः ‘‘‘मंडी‘‘ कहते हैं, के माध्यम से ही लाइसेंसी दलालों या व्यापारियों द्वारा की जाती रही है। खरीदी के इस ‘‘तंत्र‘‘ में तीनों कानूनों के द्वारा सरकार ने सीधे कोई परिवर्तन नहीं किया हैं। लेकिन ‘मंडी’ के अंदर ‘‘मंडी प्रांगण‘‘ में कृषि फसल के बेचने के प्रतिबंध को हल्का व ‘‘शून्य‘‘ अर्थात निष्प्रभावी/अप्रभावी करने की दृष्टि से मंडी के बाहर भी कृषि उत्पाद बेचने की सुविधा सरकार ने नये कानून में दे दी है। ऊपरी सतह से देखने पर सामान्यतः तो यही लगता है कि सरकार ने किसानों की उपज के विक्रय के लिए मंडी में विक्रय की वर्तमान सुविधा को ‘‘बनाए‘‘ रखने के साथ-साथ एक और ‘‘सुविधा का केंद्र‘‘ मंडी के बाहर भी विक्रय के लिये ‘‘नया बाजार’’ बनाकर बढ़ा दिया है। लेकिन यदि आप इसकी गहराई पर जाएंगे तो उसके ‘‘परिणामों‘‘ की जो ‘‘आशंका‘‘ दिख रही हैं, वह सही होकर निश्चित रूप से पिछले लगभग 55 वर्षे से से चली आ रही मंडी प्रांगड़ में की जा रही खरीदी की व्यवस्था को भविष्य में धीरे धीरे जहर के रूप में नेस्तनाबूद कर देगी।
मंडी में ‘‘मंडी टैक्स‘‘, ‘‘निराश्रित शुल्क‘‘ (मध्यप्रदेश) में व अन्य कर उपकर लगते है। नए कृषि सुधार कानूनों के अनुसार ‘‘मंडी प्रांगड़‘‘ के बाहर बेचने पर व्यापारी को कोई टैक्स या उपकर नहीं लगेगा। जिस कारण से अंततः किसानों द्वारा दलालों को इस मद के खाते दी जाने वाला पैसा बच जाएगा। सरकार की यह दलील है, जो गलत है। वास्तव में मंडी के अंदर भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से किसानों को अतिरिक्त रूप से कोई राशि टैक्स के रूप में दलालों को नहीं देनी होती है। सिर्फ मंडी प्रांगण में ढे़र/फड़ लगाने के पेटे प्रति बोरा( मध्यप्रदेश में अभी रू. 5 प्रति बोरा) दलाल किसान से वसूल करता है। बाकी समस्त खर्चे तुलाई से लेकर ढ़लाई तक सामान्यतः दलाल वहन करता है, जो खर्चा दलाल अंततः उपभोक्ता से वसूल करता है। इससे किसानों पर कोई अतिरिक्त भार नहीं आता है। हमारे देश में अब तक जो अप्रत्यक्ष कर प्रणाली की व्यवस्था है, उसमें व्यापारी एक सरकार के एजेंट के रूप में कार्य करता है। जिसका कार्य मूलरूप से देय टैक्स को क्रेता/विक्रेता से वसूलना होता है। जिसका यह परिणाम होगा कि एक लाइसेंसी व्यापारी मंडी गेट के अंदर खरीद कर एक से पांच छः प्रतिशत मंडी व अन्य टैक्स देने के बजाय गेट के बाहर ही टैक्स न होने के कारण कृषि उपज की खरीदी करेगा। जिस कारण से मंडी में माल की आवक न आने के कारण या कम हो जाने से मंडी को कोई कमाई का अन्य स्त्रोत न होने के कारण और सरकार के पास अतिरिक्त फंड्स न होने के कारण मंडी अपने ढांचे के आर्थिक बोझ के दबाव में दबकर जमीनदोज हो जाएगी। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार मध्य प्रदेश में सरकार ने सोयाबीन की खेती का विकास करने के लिए एक ‘‘तिलहन संघ‘‘ बनाया था, नये सोयाबीन प्लांट खोले थे। और अंत में तिलहन संघ को आर्थिक संकट के कारण बंद करना पड़ा। कई लोग बेरोजगार हो गए। इसीलिए शायद सरकार ने गैर बराबरी के मंडी शुल्क व्यवस्था के परिणाम या यह कहिए कि इस दुष्परिणाम के सच को समझ लिया। तभी तो पांचवें दौर की बातचीत में केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने इस ओर एक इशारा किया कि सरकार मंडी के बाहर भी टैक्स लगाकर प्रतिस्पर्धा को बराबरी पर लाने का प्रयास करेगी। इससे किसानों की एक वास्तविक आशंका समाप्त होकर राहत अवश्य मिलेगी।
अभी फिलहाल सबसे महत्वपूर्ण मुख्य बात जो विचारणीय है, वह वास्तविक रूप में ‘‘एमएसपी मिलने‘‘ को लेकर है। मेरे मत में ‘‘एमएसपी‘‘ को लेकर किसान और सरकार दोनों न केवल एक दूसरे को बेवकूफ बना रहे हैं, बल्कि जनता को भी गुमराह किए हुए हैं। इसके लिए आपको किसानों की ‘‘एमएसपी‘‘ के संबंध में मूल समस्या व मुद्दा क्या है? वास्तविकता के साथ इसको समझना होगा, तभी आप पूरे आंदोलन का निष्पक्ष आकलन कर पायेगें। कृषकों की मूल समस्या लगातार घोषित नीति होने के बावजूद उनके संपूर्ण उत्पाद की पूरी या अधिकांश फसल का एमएसपी पर खरीदी का न हो पाना है। इसलिए यदि एमएसपी को कानून के द्वारा बंधनकारी बना कर यह कानूनी अधिकार किसानों को दे दिया जाए तो, उसके उल्लंघन होने पर यह दीवानी व संज्ञेय अपराध हो जायेगा। वैसे यह भी स्पष्ट नहीं है कि मंडी के बाहर नए कानून अनुसार बने ‘‘नए बाजार‘‘ में खरीदी करने पर ‘‘एमएसपी लागू होगी कि नहीं‘‘ और लागू होगी तो कैसे होगी, उसकी निगरानी कैसे होगी? किसानों की उक्त मांग को यदि सरकार स्वीकार भी कर लेती है तो, क्या इससे ‘‘समस्या का हल‘‘ हो जाएगा ? बिल्कुल नहीं। यहीं पर पेच है। यदि सरकार किसानों की जरूरत व मांग के अनुरूप खरीदी ही नहीं करेगी तो कानून का उल्लंघन कैसे? जब खरीदी न किए जाने के कारण एमएसपी से कम पर खरीदने का अपराध ही घटित नहीं होगा तब एमएसपी से कम पर खरीदी की समस्या वही की वही रहेगी, जो चली आ रही है।
इसलिए वास्तव में किसानों की मांग तो यह होनी चाहिए कि सरकार कुल कृषि उत्पाद का कम से कम 50 प्रतिशत या सरकार की आर्थिक क्षमता का आकलन कर जो क्षमता हो उतनी ‘‘न्यूनतम खरीदी‘‘ का कानून बनाया जाए, तभी प्रभावी रूप से किसानों के एक बड़े वर्ग को ‘‘एमएसपी‘‘ का फायदा मिल पाएगा। क्योंकि अभी मात्र 10 प्रतिशत से भी कम की खरीदी होती है। इसका मतलब साफ है कि वर्तमान में लगभग 90 प्रतिशत किसानों को ‘‘एमएसपी‘‘ नहीं मिल पाती है। ‘‘एमएसपी‘‘ न मिलने का एक मात्र कारण यही है की मंडी में स्थानीय स्तर की सरकारी एजेंसियां कृषि उपज का किसानों की आवश्यकता अनुसार खरीदी नहीं करती हैं। इसलिए समस्त किसानों को एमएसपी नहीं मिल पाती है। और मंडी के बाहर मांग पूर्ति के आधार पर किसानों का माल बिकता है, जहां एमएसपी से ज्यादा कभी रेट मिल जाता और कभी कम मिलता है। सरकार भी इस बात को स्पष्ट रूप से नहीं स्वीकारती है कि वह किसानों की आवश्यकता के अनुरूप एमएसपी पर खरीदी करती है, करती चली आ रही है और करेगी। सरकार ने आज तक किसानों को यह नहीं बतलाया है, समझाया है कि उसके द्वारा मात्र 10 प्रतिशत से कम खरीदी किए जाने के कारण वह समस्त किसानों को ‘‘एमएसपी‘‘ देने में असमर्थ है। क्योंकि इससे उसके वोट बैंक बिगड़ने का खतरा है।
उससे भी बड़ी बात यह है कि सरकार के पास इतना धन व गोदाम नहीं है कि वह किसानों की आवश्यकता व मांग के अनुरूप उनके उत्पाद का कम से कम 40-50 प्रतिशत खरीदी करें, तो ही किसानों को फसल का वाजिब दाम मिल पाएगा और तभी एमएसपी प्रभावी रूप से प्रभावशाली हो पाएगी। लेकिन इससे सरकार का आर्थिक ढांचा ही गिर जाएगा। इसलिए इस स्थिति पर इस मुद्दे को लेकर खुलकर किसानों व सरकार के बीच परस्पर बातचीत होनी चाहिए। सरकार के पास कितने आर्थिक संसाधन वर्तमान में उपलब्ध हैं, और भविष्य में आगे उपलब्ध कराए जा सकते हैं, जिसके रहते हुए सरकार किसानों की कितनी परसेंटेज फसल खरीद सकती है? किसानों व उनके नेताओं और किसान संघों को भी यह आकलन करना चाहिए कि, सरकार की आर्थिक ढांचे चरमराए बिना कृषि उत्पाद की कितनी अधिकतम खरीदी हो सकती? क्या प्रत्येक उत्पादक कृषक की न्यूनतम कुछ परसेंटेज खरीदी किया जाना कानूनी रूप से बाध्य हो सकता है। इसके अतिरिक्त मंडी के बाहर खरीदी पर भी उन व्यापारियों को भी उक्त (प्रस्तावित) बंधनकारी कानून की सीमा में लाया जा सकता है। इस सबके लिये कानून बनाने की बात किसान और सरकार के बीच में होनी चाहिए। तब ही इसका स्थायी निराकरण व समाधान हो सकता है, जिसके लिए आंदोलन किया जा रहा है। लेकिन ऐसा लगता है कि मुद्दों का सही रूप से प्रस्तुतीकरण नहीं हो पा रहा है।
बात केंद्रीय कानून मंत्री रविशकर प्रसाद की प्रेसवार्ता की भी कर लें! रविशंकर प्रसाद ने इतिहास का सहारा लेकर समस्त विपक्षी पार्टियों को उनके पूर्व मंे दिये गये कथन, बयान, रूख, घोषणा पत्र इत्यादि के सहारे सफलतापूर्वक आइना जरूर दिखाया। लेकिन वे विपक्ष को आइना दिखाते समय यह भूल गये कि आइना सिर्फ एक पक्ष को ही नहीं देखता है वह आपको भी देख रहा है। जिन मुद्दों को लेकर कानून मंत्री ने विपक्ष को लगभग पलटू राम ठहराते हुये सिर्फ और सिर्फ बहती गंगा में राजनीति करने का आरोप जड़ा है, कृपया कानून मंत्री, अरूण जेटली, सुषमा स्वराज व राजनाथ सिंह आदि नेताओं के तत्समय के बयानों का भी अवलोकन कर लें। उन समस्त मुद्दों पर तत्समय विपक्ष में रही भाजपा का क्या रूख था? यदि सरकार वर्तमान में किसानों के हित में तीन कृषि सुधार कानूनों को लाने के हक में विपक्ष के उक्त कथनों के सहारे (क्या स्वयं की नीति नहीं है?) सही ठहरा रही है अर्थात तो वह उन मुद्दो को सही कह रही है। तब उस समय भाजपा ने उन किसानों के हितों के मुद्दों के लिए आगे बढ़कर तत्कालीन सत्तापक्ष पर किसानों के हित में निर्णय लेने के लिए क्यों नहीं दबाव बनाया गया था? व आंदोलन किया था? इसलिए राजनीति के बार-बार में यह बात कही जाती है कि इस हमाम में सब नंगे है। शायद राजनीति के वर्तमान गिरते स्तर के लिए ही यही मुहावरा बनाया गया हो?
एक बात और जहां तक दलालों को समाप्त करने की बात कुछ निजी व सरकारी व कृषकों के स्तर पर की जा रही है, उसका भी कोई औचित्य नहीं है। किसान अगर मंडी के बाहर बेचेगें तो, दलाल खत्म हो जायेगें। दलाली नहीं देनी पड़ेगी, किसानों को सीधे फायदा होगा, यह तर्क भी तर्क संगत नहीं है। सरकार को इस तर्क को यदि सही मान लिया जाए तो देशभर मेें फैले लाखों दलालों को क्या सरकार बेरोजगार व भूखमरी के द्वार पर लाना चाहती है? दलाल की दलाली का भार किसानों पर नहीं होता है। अंततः उपभोक्ताओं को सस्ते पर उत्पाद मिलने का उक्त सिंद्धात यदि सही है, तो समस्त व्यापार में उत्पादक व उपभोक्ताओं के बीच की कई चेनों की कड़ी को समाप्त कर देना चाहिए? एक उदाहरण से इस बात को समझिये! दवाइयों में अधिकाश दवाइयों में 20 से 30 प्रतिशत तथा इंजेक्शन सर्जिकल उपकरण आदि में कही बहुत ज्यादा लाभाश रहता है। सरकार ने कभी भी दवाई की कीमत कम करने का प्रयास नहीं किया। जबकि कुछ समय से प्रतिस्पर्धा बढ़ जाने के कारण दवाई विक्रेता स्वयं ही एमआरपी से 10 से 15 प्रतिशत तक कम कीमत ग्राहकों से लेते है। क्या एक उपभोक्ता को उसके जीवन को बचाने वाली, स्वस्थ्य रखने वाली दवाई की कीमत कम करने का दायित्व सरकार का नहीं है। इसीलिए सरकार अपनी सुविधानुसार तर्क गढ़ने का लालच छोड़े।
अंत में एक बात और! ‘‘जय जवान जय किसान‘‘ का नारा लगने वाले देश के किसान ‘‘अन्नदाता‘‘ हैं, तो श्रमिक वर्ग क्या? आपने कभी इस पर गंभीरता से सोचा है? इसलिए अब नारा ही होना चाहिए ‘‘जय जवान जय किसान जय श्रमिक‘‘। किसान तो ‘‘अन्नदाता‘‘ तब होता है, जब सरकार उन्हें विभिन्न योजनाओं के माध्यम से छूट, नगद सहायता व सब्सिडी (अनुवृत्ति) देकर सक्षम बनाकर ‘‘दाता (अन्न)‘‘ बनाती है। सोशल मीडिया में एक मैसेज चल रहा है जिस लगभग 34 योजनाओं व कार्यो के अतंर्गत किसान को उक्त छूटे प्राप्त हो रही है। यह बात मैं इसलिए कह रहा हूं कि, कोरोना काल में जब पूरे देश में ‘‘लॉक डाउन‘‘ चला और जब ‘‘अप्रवासी श्रमिकों‘‘ की आवाजाही देश के एक कोने से दूसरे कोने में हुई, तब आप हम सब ने अपनी ‘‘नग्न नम गीली होती हुई आंखों‘‘ से बेहद द्रवित व विचलित कर देने वाले किसानों की स्थिति के मार्मिक दृश्य देखे हैं। उन बिचारे श्रमिकों को किसानों के समान ‘‘काजू किशमिश अखरोट और बादाम के लंगर‘‘ तो दूर (मात्र कल्पना की बात) कुछ जगह तो गंगा जल की कुछ बूंदे भी अपने गले की नली को को ‘‘तर‘‘ करने के लिए उपलब्ध नहीं हो पाई थी। धूप, बरसात, भूख व बीमारी के साथ यह श्रमिक गण लगातार दिन-रात चलते रहे। सिरों पर अपने बुजुर्गों को ढोते रहें। लेकिन उन्हें रास्ते में अधिकतर जगह ‘‘लंगर‘‘ उपलब्ध नहीं हो पाए। यद्यपि कुछ कुछ जगह छुटपुट स्तर पर जरूर कुछ सामाजिक संगठन आगे आए और उन्होंने यथासंभव व्यवस्था भी की। लेकिन यदि हम उनकी तुलना इस किसान आंदोलन की ‘‘व्यवस्था‘‘ से करें, तो वह ‘‘ऊंट में में जीरे‘‘ के समान ही रही।
हो सकता है, कुछ पाठकों को ‘‘श्रमिकों की उक्त स्थिति‘‘ का यहां पर ‘‘उल्लेख‘‘ करना शायद ‘‘उचित व सामायिक न‘‘ लग रहा हो। लेकिन भविष्य के लिए (भगवान न करे ऐसी कोई स्थिति कभी उत्पन्न हो) इसका उल्लेख सामयिक व उचित है। ताकि हम स्वयं में आवश्यक सुधार लाकर भविष्य के लिए ऐसी स्थिति के लिए स्वयं को तैयार कर सकें। जय जवान! जय किसान! जय हिंद!

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