शुक्रवार, 8 जनवरी 2021

‘‘तीनों कृषि कानूनों की समाप्ति‘‘ एवं ‘‘एमएसपी‘‘ के लिए ‘‘कानून‘‘ बन जाने से किसानों की समस्याएँ क्या ‘‘सुलझ‘‘ जाएगी?



किसान आंदोलन ‘‘तेरहवे‘‘ दिन में प्रवेश कर चुका है और और ‘‘तीन तेरह काम बिगाड़ा’’ के प्रभाव/परिणाम स्वरूप यह आंदोलन आज ‘‘भारत बंद‘‘ के रूप मे परिणित हो गया है। प्रारंभ में किसान नेताओं ने अपनी मांगों में कुछ लचक पन अवश्य दिखलाया था, जिसको शायद गलतफहमी में ‘‘ढिलाई‘‘ समझ लिया गया। जो अब ‘‘कड़क‘‘ होकर सिर्फ और सिर्फ तीनों काले कानूनों की समाप्ति पर केंद्रित हो गया हैं। यद्यपि तीनों कानूनों को समाप्त/रद्द करने की किसानों के मांग के पीछे ‘‘एमएसपी’’ के न मिलने की ‘‘तथाकथित आशंका‘‘ का ही होना है। साथ ही किसान इसे कृषि उत्पादकों की एमएसपी से कम पर खरीदी की स्थिति में उसे कानूनी रूप से एक ‘‘संज्ञेय अपराध‘‘ बनाया जाकर ‘‘नये कानून‘‘ की मांग कर रहे हैं। यह समझना थोड़ा मुश्किल है कि, वास्तव में किसानों की जायज तकलीफें और ऐसी कौन सी सुविधाओं की मांगे है, ताकि उक्त तीनों कृषि सुधार कानूनों की ‘‘समाप्ति‘‘ से व ‘‘एमएसपी‘‘ के लिए ‘‘कानून बनने‘‘ से उनकी ‘‘पूर्ति‘‘ हो जाऐगीं? यह एक सबसे बड़ा महत्वपूर्ण प्रश्न है, जो सिर्फ देश के नागरिकों को ही नहीं समझना आवश्यक है, बल्कि सरकार और किसानों को भी बिना किसी ‘‘राजनीति‘‘ के ‘‘नीतिगत’’ रूप से साफ ’’नियत‘‘ के साथ ‘‘समझना‘‘ व सबको ‘‘समझाना‘‘ आवश्यक है। आइए आंदोलनरत किसानों की मांगों की बारीकियों से अध्ययन कर और उस पर सरकार के रूख को समझकर, स्थिति को समझने का प्रयास करते हैं।
किसानों की मांगो की विस्तृत विवेचना करें, उसके पहले आपको यह जानना अति आवश्यक है कि इस आंदोलन में किसानों की विभिन्न आर्थिक समस्याएं व उनके आस-पास बनी कार्यशील परिस्थितियों एक समान नहीं है। अतः उनकी समस्याओं के ‘‘तह‘‘ तक पहुंचने के लिये किसानो को मोटा-मोटा दो वर्गों में बांटा जा सकता है। प्रथम 5 एकड़ से कम रकबे वाला छोटा किसान, जो लगभग 80 से 85 प्रतिशत तक है। छोटा, निरीह, गरीब व लगभग साधन व संसाधन हीन होने के कारण आज की बनी हुई ‘‘सामाजिक ताना बाना‘‘ की स्थिति में व शासन में उनकी कोई आवाज न होने के कारण (अथवा मात्र थोड़ी बहुत आवाज होने) कुछ सुनवाई न होने से ‘‘वह‘‘ सबसे ज्यादा पीडि़त है। लेकिन अपनी चारों ओर की मौजूद परिस्थितियों एवं प्रकृति के कारण वह उन सक्षम किसानों के सामान अपनी मांगों को जोरदार तरीके से उठाने में अक्षम है। इस कारण से वे छोटे किसान अपनी फसल को ‘‘एमएसपी‘‘ पर बेचने में लगभग ‘‘असफल‘‘ रहते है। जबकि किसानों का दूसरा वर्ग जो ‘‘सक्षम‘‘ है, प्रगतिशील किसान है और सामाजिक रसूख रखने व प्रभाव होने के साथ-साथ उसका शासन, प्रशासन पर भी प्रभाव होने से वह अपनी फसलों को प्रायः एमएसपी पर बेचने में सफल रहता है। उनकी इस सफलता का एक बड़ा कारण यह भी है कि सरकार जो कृषि उत्पाद की एमएसपी पर खरीदी करती है, वह बहुत कम मात्रा में लगभग 6 से 8 प्रतिशत (10 प्रतिशत से भी कम) तक ही सीमित रहती है। जहां पर ये प्रभावशाली कृषक अपने संबंधों व प्रभावो का उपयोग करते हुए उक्त खरीदी का 90 प्रतिशत भाग को या तो वे अपने नियत्रंण में लेने में सफल हो जाते हैं। या अधिकतम 10 से 15 प्रतिशत छोटे किसानों के उत्पाद की ही खरीदी हो पाती है। यही सबसे बड़ी समस्या है। जिस पर गंभीरता से विचार किये जाने की आवश्यकता है।
परन्तु यह आंदोलन प्रमुख रूप से वैसे तो इन्हीं सक्षम बड़े किसानों के हाथों में है। परन्तु आंदोलन के धीरे-धीरे लंबा चलने से, आंदोलन का केवल फैलाव न केवल देश के विभिन्न जगहों क्षेत्रों में हो रहा है, बल्कि संख्या की दृष्टि से भी और विभिन्न संगठनों के हजारों छोटे कृषक सहित लोग भी इसमें शामिल होते जा रहे हैं। सामान्यतया किसी भी आंदोलन को तोड़ने के लिए उसेे जितना लंबा आप खीचेगें, आंदोलन का साधन संसाधन और आत्मबल में धीरे-धीरे कमी होने के कारण आंदोलन जमादौंज होकर मृत प्रायः हो जाता है। इसी कारण कोई भी सरकार आंदोलन को लंबा खींच कर तोड़ने का प्रयास करती हैं। लेकिन फिलहाल इस ‘युक्ति’ (टेक्टिस) का परिणाम यहां पर तो उल्टा ही दिखाई दे रहा है।
किसानों की एक नये कानून कृषक सशक्तिकरण व संरक्षण, कीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर करार विधेयक अध्यादेश के अंतर्गत समस्या की आशंका उत्पनन हो गई है। उक्त नये कृषि सुधार कानून में प्रावधित किए गए कांट्रेक्ट फार्मिंग (अनुबंध खेती) से किसानों की जमीनों पर बड़े-बड़े व्यापारियों से लेकर अंततः अडानी, अंबानी का कब्जा हो जाएगा। (आजकल बड़े व्यापारियों उद्योगपतियों को गाली देने के लिए अडानी अंबानी शब्द का उपयोग बहुत आसानी से हो जाता है)। किसानों की यह आशंका निराधार है और गलत है। पहली बात तो यह प्रावधान स्वेच्छाचारी है।अर्थात किसान अपनी स्वयं की इच्छा पर ही दूसरों के साथ अनुबंध खेती के लिए जा सकते हैं। सरकार ने किसान द्वारा अनुबंध खेती (कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग) करने की स्थिति में किसानों का शोषण न हो, उसकी व्यवस्था के लिए नए अधिनियम में आवश्यक प्रावधान लाये है। यह अलग विषय है कि आप इन प्रावधानों को पर्याप्त या अपूर्ण कहकर उसकी कमी बतला सकते हैं। जैसे विवाद की स्थिति में सुनवाई के लिये अनुविभागीय अधिकारी का न्यायालय जिस पर कृषि मंत्री ने बातचीत के दौरान पुर्नविचार करने का आश्वासन भी दिया है। फिर यह व्यवस्था दूसरे रूप में पहले से ही चालू है। अर्थात अभी भी किसान की जमीन को वैध रूप से बटाई और ठेके पर दूसरे लोग जोतते चले आ रहे है। बाकायदा पांच साला खसरा में इसका इंद्राज भी होता है। मालिक किसान ही बना रहता है। अतः इससे किसी भी रूप में किसान को ड़रने की आवश्यकता कदापि नहीं होनी चाहिए।यह कृषको व उनके समूह पर निर्भर करता है कि वह अपनी छोटी-छोटी जमीन के रकबे को संयुक्त रूप से मिलकर इन बड़े उद्योगपतियों को अनुबंध खेती के लिए देते हैं अथवा नहीं। क्योंकि यह बात तो सही है कि छोटे से ‘रकबे’ के लिए कोई भी बड़े उद्योगपति, कृषि फार्मिग हेतु आगे नहीं आएंगे।
आइए अब किसानों की आंदोलन की मूल मांगों पर विचार विमर्श करें। नये कानून आने के पूर्व कृषि उत्पाद की बिक्री ‘‘एमएसपी’’ पर पूरे देश में ‘‘एपीएमसी’’ जिसे सामान्यतः ‘‘‘मंडी‘‘ कहते हैं, के माध्यम से ही लाइसेंसी दलालों या व्यापारियों द्वारा की जाती रही है। खरीदी के इस ‘‘तंत्र‘‘ में तीनों कानूनों के द्वारा सरकार ने सीधे कोई परिवर्तन नहीं किया हैं। लेकिन ‘मंडी’ के अंदर ‘‘मंडी प्रांगण‘‘ में कृषि फसल के बेचने के प्रतिबंध को हल्का व ‘‘शून्य‘‘ अर्थात निष्प्रभावी/अप्रभावी करने की दृष्टि से मंडी के बाहर भी कृषि उत्पाद बेचने की सुविधा सरकार ने नये कानून में दे दी है। ऊपरी सतह से देखने पर सामान्यतः तो यही लगता है कि सरकार ने किसानों की उपज के विक्रय के लिए मंडी में विक्रय की वर्तमान सुविधा को ‘‘बनाए‘‘ रखने के साथ-साथ एक और ‘‘सुविधा का केंद्र‘‘ मंडी के बाहर भी विक्रय के लिये ‘‘नया बाजार’’ बनाकर बढ़ा दिया है। लेकिन यदि आप इसकी गहराई पर जाएंगे तो उसके ‘‘परिणामों‘‘ की जो ‘‘आशंका‘‘ दिख रही हैं, वह सही होकर निश्चित रूप से पिछले लगभग 55 वर्षे से से चली आ रही मंडी प्रांगड़ में की जा रही खरीदी की व्यवस्था को भविष्य में धीरे धीरे जहर के रूप में नेस्तनाबूद कर देगी।
मंडी में ‘‘मंडी टैक्स‘‘, ‘‘निराश्रित शुल्क‘‘ (मध्यप्रदेश) में व अन्य कर उपकर लगते है। नए कृषि सुधार कानूनों के अनुसार ‘‘मंडी प्रांगड़‘‘ के बाहर बेचने पर व्यापारी को कोई टैक्स या उपकर नहीं लगेगा। जिस कारण से अंततः किसानों द्वारा दलालों को इस मद के खाते दी जाने वाला पैसा बच जाएगा। सरकार की यह दलील है, जो गलत है। वास्तव में मंडी के अंदर भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से किसानों को अतिरिक्त रूप से कोई राशि टैक्स के रूप में दलालों को नहीं देनी होती है। सिर्फ मंडी प्रांगण में ढे़र/फड़ लगाने के पेटे प्रति बोरा( मध्यप्रदेश में अभी रू. 5 प्रति बोरा) दलाल किसान से वसूल करता है। बाकी समस्त खर्चे तुलाई से लेकर ढ़लाई तक सामान्यतः दलाल वहन करता है, जो खर्चा दलाल अंततः उपभोक्ता से वसूल करता है। इससे किसानों पर कोई अतिरिक्त भार नहीं आता है। हमारे देश में अब तक जो अप्रत्यक्ष कर प्रणाली की व्यवस्था है, उसमें व्यापारी एक सरकार के एजेंट के रूप में कार्य करता है। जिसका कार्य मूलरूप से देय टैक्स को क्रेता/विक्रेता से वसूलना होता है। जिसका यह परिणाम होगा कि एक लाइसेंसी व्यापारी मंडी गेट के अंदर खरीद कर एक से पांच छः प्रतिशत मंडी व अन्य टैक्स देने के बजाय गेट के बाहर ही टैक्स न होने के कारण कृषि उपज की खरीदी करेगा। जिस कारण से मंडी में माल की आवक न आने के कारण या कम हो जाने से मंडी को कोई कमाई का अन्य स्त्रोत न होने के कारण और सरकार के पास अतिरिक्त फंड्स न होने के कारण मंडी अपने ढांचे के आर्थिक बोझ के दबाव में दबकर जमीनदोज हो जाएगी। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार मध्य प्रदेश में सरकार ने सोयाबीन की खेती का विकास करने के लिए एक ‘‘तिलहन संघ‘‘ बनाया था, नये सोयाबीन प्लांट खोले थे। और अंत में तिलहन संघ को आर्थिक संकट के कारण बंद करना पड़ा। कई लोग बेरोजगार हो गए। इसीलिए शायद सरकार ने गैर बराबरी के मंडी शुल्क व्यवस्था के परिणाम या यह कहिए कि इस दुष्परिणाम के सच को समझ लिया। तभी तो पांचवें दौर की बातचीत में केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने इस ओर एक इशारा किया कि सरकार मंडी के बाहर भी टैक्स लगाकर प्रतिस्पर्धा को बराबरी पर लाने का प्रयास करेगी। इससे किसानों की एक वास्तविक आशंका समाप्त होकर राहत अवश्य मिलेगी।
अभी फिलहाल सबसे महत्वपूर्ण मुख्य बात जो विचारणीय है, वह वास्तविक रूप में ‘‘एमएसपी मिलने‘‘ को लेकर है। मेरे मत में ‘‘एमएसपी‘‘ को लेकर किसान और सरकार दोनों न केवल एक दूसरे को बेवकूफ बना रहे हैं, बल्कि जनता को भी गुमराह किए हुए हैं। इसके लिए आपको किसानों की ‘‘एमएसपी‘‘ के संबंध में मूल समस्या व मुद्दा क्या है? वास्तविकता के साथ इसको समझना होगा, तभी आप पूरे आंदोलन का निष्पक्ष आकलन कर पायेगें। कृषकों की मूल समस्या लगातार घोषित नीति होने के बावजूद उनके संपूर्ण उत्पाद की पूरी या अधिकांश फसल का एमएसपी पर खरीदी का न हो पाना है। इसलिए यदि एमएसपी को कानून के द्वारा बंधनकारी बना कर यह कानूनी अधिकार किसानों को दे दिया जाए तो, उसके उल्लंघन होने पर यह दीवानी व संज्ञेय अपराध हो जायेगा। वैसे यह भी स्पष्ट नहीं है कि मंडी के बाहर नए कानून अनुसार बने ‘‘नए बाजार‘‘ में खरीदी करने पर ‘‘एमएसपी लागू होगी कि नहीं‘‘ और लागू होगी तो कैसे होगी, उसकी निगरानी कैसे होगी? किसानों की उक्त मांग को यदि सरकार स्वीकार भी कर लेती है तो, क्या इससे ‘‘समस्या का हल‘‘ हो जाएगा ? बिल्कुल नहीं। यहीं पर पेच है। यदि सरकार किसानों की जरूरत व मांग के अनुरूप खरीदी ही नहीं करेगी तो कानून का उल्लंघन कैसे? जब खरीदी न किए जाने के कारण एमएसपी से कम पर खरीदने का अपराध ही घटित नहीं होगा तब एमएसपी से कम पर खरीदी की समस्या वही की वही रहेगी, जो चली आ रही है।
इसलिए वास्तव में किसानों की मांग तो यह होनी चाहिए कि सरकार कुल कृषि उत्पाद का कम से कम 50 प्रतिशत या सरकार की आर्थिक क्षमता का आकलन कर जो क्षमता हो उतनी ‘‘न्यूनतम खरीदी‘‘ का कानून बनाया जाए, तभी प्रभावी रूप से किसानों के एक बड़े वर्ग को ‘‘एमएसपी‘‘ का फायदा मिल पाएगा। क्योंकि अभी मात्र 10 प्रतिशत से भी कम की खरीदी होती है। इसका मतलब साफ है कि वर्तमान में लगभग 90 प्रतिशत किसानों को ‘‘एमएसपी‘‘ नहीं मिल पाती है। ‘‘एमएसपी‘‘ न मिलने का एक मात्र कारण यही है की मंडी में स्थानीय स्तर की सरकारी एजेंसियां कृषि उपज का किसानों की आवश्यकता अनुसार खरीदी नहीं करती हैं। इसलिए समस्त किसानों को एमएसपी नहीं मिल पाती है। और मंडी के बाहर मांग पूर्ति के आधार पर किसानों का माल बिकता है, जहां एमएसपी से ज्यादा कभी रेट मिल जाता और कभी कम मिलता है। सरकार भी इस बात को स्पष्ट रूप से नहीं स्वीकारती है कि वह किसानों की आवश्यकता के अनुरूप एमएसपी पर खरीदी करती है, करती चली आ रही है और करेगी। सरकार ने आज तक किसानों को यह नहीं बतलाया है, समझाया है कि उसके द्वारा मात्र 10 प्रतिशत से कम खरीदी किए जाने के कारण वह समस्त किसानों को ‘‘एमएसपी‘‘ देने में असमर्थ है। क्योंकि इससे उसके वोट बैंक बिगड़ने का खतरा है।
उससे भी बड़ी बात यह है कि सरकार के पास इतना धन व गोदाम नहीं है कि वह किसानों की आवश्यकता व मांग के अनुरूप उनके उत्पाद का कम से कम 40-50 प्रतिशत खरीदी करें, तो ही किसानों को फसल का वाजिब दाम मिल पाएगा और तभी एमएसपी प्रभावी रूप से प्रभावशाली हो पाएगी। लेकिन इससे सरकार का आर्थिक ढांचा ही गिर जाएगा। इसलिए इस स्थिति पर इस मुद्दे को लेकर खुलकर किसानों व सरकार के बीच परस्पर बातचीत होनी चाहिए। सरकार के पास कितने आर्थिक संसाधन वर्तमान में उपलब्ध हैं, और भविष्य में आगे उपलब्ध कराए जा सकते हैं, जिसके रहते हुए सरकार किसानों की कितनी परसेंटेज फसल खरीद सकती है? किसानों व उनके नेताओं और किसान संघों को भी यह आकलन करना चाहिए कि, सरकार की आर्थिक ढांचे चरमराए बिना कृषि उत्पाद की कितनी अधिकतम खरीदी हो सकती? क्या प्रत्येक उत्पादक कृषक की न्यूनतम कुछ परसेंटेज खरीदी किया जाना कानूनी रूप से बाध्य हो सकता है। इसके अतिरिक्त मंडी के बाहर खरीदी पर भी उन व्यापारियों को भी उक्त (प्रस्तावित) बंधनकारी कानून की सीमा में लाया जा सकता है। इस सबके लिये कानून बनाने की बात किसान और सरकार के बीच में होनी चाहिए। तब ही इसका स्थायी निराकरण व समाधान हो सकता है, जिसके लिए आंदोलन किया जा रहा है। लेकिन ऐसा लगता है कि मुद्दों का सही रूप से प्रस्तुतीकरण नहीं हो पा रहा है।
बात केंद्रीय कानून मंत्री रविशकर प्रसाद की प्रेसवार्ता की भी कर लें! रविशंकर प्रसाद ने इतिहास का सहारा लेकर समस्त विपक्षी पार्टियों को उनके पूर्व मंे दिये गये कथन, बयान, रूख, घोषणा पत्र इत्यादि के सहारे सफलतापूर्वक आइना जरूर दिखाया। लेकिन वे विपक्ष को आइना दिखाते समय यह भूल गये कि आइना सिर्फ एक पक्ष को ही नहीं देखता है वह आपको भी देख रहा है। जिन मुद्दों को लेकर कानून मंत्री ने विपक्ष को लगभग पलटू राम ठहराते हुये सिर्फ और सिर्फ बहती गंगा में राजनीति करने का आरोप जड़ा है, कृपया कानून मंत्री, अरूण जेटली, सुषमा स्वराज व राजनाथ सिंह आदि नेताओं के तत्समय के बयानों का भी अवलोकन कर लें। उन समस्त मुद्दों पर तत्समय विपक्ष में रही भाजपा का क्या रूख था? यदि सरकार वर्तमान में किसानों के हित में तीन कृषि सुधार कानूनों को लाने के हक में विपक्ष के उक्त कथनों के सहारे (क्या स्वयं की नीति नहीं है?) सही ठहरा रही है अर्थात तो वह उन मुद्दो को सही कह रही है। तब उस समय भाजपा ने उन किसानों के हितों के मुद्दों के लिए आगे बढ़कर तत्कालीन सत्तापक्ष पर किसानों के हित में निर्णय लेने के लिए क्यों नहीं दबाव बनाया गया था? व आंदोलन किया था? इसलिए राजनीति के बार-बार में यह बात कही जाती है कि इस हमाम में सब नंगे है। शायद राजनीति के वर्तमान गिरते स्तर के लिए ही यही मुहावरा बनाया गया हो?
एक बात और जहां तक दलालों को समाप्त करने की बात कुछ निजी व सरकारी व कृषकों के स्तर पर की जा रही है, उसका भी कोई औचित्य नहीं है। किसान अगर मंडी के बाहर बेचेगें तो, दलाल खत्म हो जायेगें। दलाली नहीं देनी पड़ेगी, किसानों को सीधे फायदा होगा, यह तर्क भी तर्क संगत नहीं है। सरकार को इस तर्क को यदि सही मान लिया जाए तो देशभर मेें फैले लाखों दलालों को क्या सरकार बेरोजगार व भूखमरी के द्वार पर लाना चाहती है? दलाल की दलाली का भार किसानों पर नहीं होता है। अंततः उपभोक्ताओं को सस्ते पर उत्पाद मिलने का उक्त सिंद्धात यदि सही है, तो समस्त व्यापार में उत्पादक व उपभोक्ताओं के बीच की कई चेनों की कड़ी को समाप्त कर देना चाहिए? एक उदाहरण से इस बात को समझिये! दवाइयों में अधिकाश दवाइयों में 20 से 30 प्रतिशत तथा इंजेक्शन सर्जिकल उपकरण आदि में कही बहुत ज्यादा लाभाश रहता है। सरकार ने कभी भी दवाई की कीमत कम करने का प्रयास नहीं किया। जबकि कुछ समय से प्रतिस्पर्धा बढ़ जाने के कारण दवाई विक्रेता स्वयं ही एमआरपी से 10 से 15 प्रतिशत तक कम कीमत ग्राहकों से लेते है। क्या एक उपभोक्ता को उसके जीवन को बचाने वाली, स्वस्थ्य रखने वाली दवाई की कीमत कम करने का दायित्व सरकार का नहीं है। इसीलिए सरकार अपनी सुविधानुसार तर्क गढ़ने का लालच छोड़े।
अंत में एक बात और! ‘‘जय जवान जय किसान‘‘ का नारा लगने वाले देश के किसान ‘‘अन्नदाता‘‘ हैं, तो श्रमिक वर्ग क्या? आपने कभी इस पर गंभीरता से सोचा है? इसलिए अब नारा ही होना चाहिए ‘‘जय जवान जय किसान जय श्रमिक‘‘। किसान तो ‘‘अन्नदाता‘‘ तब होता है, जब सरकार उन्हें विभिन्न योजनाओं के माध्यम से छूट, नगद सहायता व सब्सिडी (अनुवृत्ति) देकर सक्षम बनाकर ‘‘दाता (अन्न)‘‘ बनाती है। सोशल मीडिया में एक मैसेज चल रहा है जिस लगभग 34 योजनाओं व कार्यो के अतंर्गत किसान को उक्त छूटे प्राप्त हो रही है। यह बात मैं इसलिए कह रहा हूं कि, कोरोना काल में जब पूरे देश में ‘‘लॉक डाउन‘‘ चला और जब ‘‘अप्रवासी श्रमिकों‘‘ की आवाजाही देश के एक कोने से दूसरे कोने में हुई, तब आप हम सब ने अपनी ‘‘नग्न नम गीली होती हुई आंखों‘‘ से बेहद द्रवित व विचलित कर देने वाले किसानों की स्थिति के मार्मिक दृश्य देखे हैं। उन बिचारे श्रमिकों को किसानों के समान ‘‘काजू किशमिश अखरोट और बादाम के लंगर‘‘ तो दूर (मात्र कल्पना की बात) कुछ जगह तो गंगा जल की कुछ बूंदे भी अपने गले की नली को को ‘‘तर‘‘ करने के लिए उपलब्ध नहीं हो पाई थी। धूप, बरसात, भूख व बीमारी के साथ यह श्रमिक गण लगातार दिन-रात चलते रहे। सिरों पर अपने बुजुर्गों को ढोते रहें। लेकिन उन्हें रास्ते में अधिकतर जगह ‘‘लंगर‘‘ उपलब्ध नहीं हो पाए। यद्यपि कुछ कुछ जगह छुटपुट स्तर पर जरूर कुछ सामाजिक संगठन आगे आए और उन्होंने यथासंभव व्यवस्था भी की। लेकिन यदि हम उनकी तुलना इस किसान आंदोलन की ‘‘व्यवस्था‘‘ से करें, तो वह ‘‘ऊंट में में जीरे‘‘ के समान ही रही।
हो सकता है, कुछ पाठकों को ‘‘श्रमिकों की उक्त स्थिति‘‘ का यहां पर ‘‘उल्लेख‘‘ करना शायद ‘‘उचित व सामायिक न‘‘ लग रहा हो। लेकिन भविष्य के लिए (भगवान न करे ऐसी कोई स्थिति कभी उत्पन्न हो) इसका उल्लेख सामयिक व उचित है। ताकि हम स्वयं में आवश्यक सुधार लाकर भविष्य के लिए ऐसी स्थिति के लिए स्वयं को तैयार कर सकें। जय जवान! जय किसान! जय हिंद!

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