शुक्रवार, 8 जनवरी 2021

माननीय ‘‘उच्चतम न्यायालय‘‘ अब क्या ‘‘आंदोलन‘‘ को ‘‘परिभाषित‘‘ करेंगे?

 किसान आंदोलन’! असफल वार्ता! उच्चतम न्यायालय का हस्तक्षेप! कितना औचित्यपूर्ण?



अभी तक सिंधु बॉर्डर पर 25 दिन से चल रहे किसान आंदोलन के चार ही पक्ष रहे है। प्रथम विभिन्न आंदोलन में सम्मिलित ‘‘किसान संगठन’’। द्वितीय ‘‘केंद्रीय शासन’’। तृतीय देश की विभिन्न ‘‘राजनीतिक पार्टियां’’। और चतुर्थ अंतिम छोरे पर हमेशा खड़े रहने वाला ‘‘टुकुर- टुकुर ताकता’’ एक ‘‘आम निरीह नागरिक’’ जिसे हर हालत में अंततः भुगतना ही होता है। गत दिवस इस मामले में उच्चतम न्यायालय की भी प्रविष्टि हो गई। वैसे तो तीनों केंद्रीय कानूनों को उच्चतम न्यायालय में चुनौती देने वाली याचिकाओं के दायर होने के कारण, उच्चतम न्यायालय पूर्व से ही किसान आंदोलन का एक पक्ष अवश्य रहा हैं। लेकिन अभी उच्चतम न्यायालय की पांचवें पक्ष के रूप में जो प्रविष्टि हुई है, वह न्यायिक समीक्षा करने वाले न्यायालय के रूप में न होकर, एक ‘‘पंच‘‘ के रूप में दोनों पक्षों ‘‘किसान संघों व सरकार’’ के बीच समझौता हो जाने की नियत व इच्छा व्यक्त किये जाने के कारण हुई है, जिस पर भले ही कोई आपत्ति न हो, बावजूद इससे कुछ प्रश्न अवश्य उत्पन्न होते है। आइये, आगे इस पर विचार करते है। 

‘‘किसान आंदोलन’’ के बाबत उसके औचित्य के बाबत और उसकी सीमाओं (बंधन) के बाबत जो कुछ उच्चतम न्यायालय ने कहा है, उसकी विस्तृत विवेचना करने के पूर्व आपको यह जानना अति आवश्यक है कि, मूल रूप से ‘‘आंदोलन‘‘ किसे कहा जाता है। मूलतः उसकी परिभाषा क्या है। और ‘‘आंदोलन’’ करने के पीछे उद्देश्य क्या होता है। किसी ‘‘मांग‘‘ (वैध या अवैध) को लेकर संगठनों या व्यक्तियों के समूह द्वारा संगठित रूप से किसी वैध कानून का उल्लंघन अथवा अपने नागरिक उत्तरदायित्वों का सार्वजनिक रूप से अनुपालन न करने की घोषणा और पालन न करना ही मूल रूप से ‘‘आंदोलन‘‘ कहलाता है। सत्ता तंत्र या व्यवस्था द्वारा अन्याय किये जाने के विरूद्ध सुनियोजित स्वतः स्फूर्त सामूहिक संघर्ष ही आंदोलन है। यह संघर्ष के विकास की एक अवस्था है। लगभग 25 किसान संगठनों सहित लाखों लोगों का संगठित समूह, संसद के दोनों सदनों द्वारा पारित वैध तीनों कृषि सुधार कानूनों का विरोध करने के लिए दिल्ली के पास सिंधु बॉर्डर (सीमा) को सील कर  पिछले 25 दिनों से बैठे हुए हैं। यही किसान आंदोलन हैं। ‘‘आंदोलन’’ का अधिकार विश्व का सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश तथा विश्व का दूसरे नंबर की जनसंख्या वाले देश के नागरिकों का एक संवैधानिक लोकतांत्रिक अधिकार और परंपरा द्वारा माना हुआ एक मानवाधिकार भी है।

आइए किसानों के इस ‘‘लोकतांत्रिक संवैधानिक मौलिक अधिकार व मानवाधिकार’’ ‘‘आंदोलन‘‘ के बाबत् माननीय उच्चतम न्यायालय ने क्या-क्या कहा, इसका अवलोकन कर लेते है। सर्वप्रथम माननीय न्यायालय ने किसानों के कृषि कानूनों के विरोध के अधिकार को उचित, सही और एक मौलिक अधिकार माना है। लेकिन साथ में यह भी माना कि एक नागरिक का मौलिक अधिकार दूसरे नागरिक के ‘‘मौलिक’’ अधिकार का उल्लंघन नहीं कर सकता है। ‘‘आंदोलनकारियों के कारण दूसरो के जीवन व अधिकार प्रभावित नहीं होने चाहिए’’ यह भाव उच्चतम न्यायालय ने व्यक्त कर मौलिक अधिकारों को ‘‘पूर्ण’’, ‘‘अनक्वॉलिफाइड़’’ तथा ‘‘बिना शर्त’’ नहीं माना है। 

यह बात अन्य मौलिक अधिकारों के संबंध में तो सही है। लेकिन ‘‘आंदोलन के मौलिक अधिकार के संबंध में’’ यह आंदोलन के ‘‘मूल उद्देश्य व भाव’’ को ही समाप्त कर ‘‘अस्त्रहीन’’, ‘‘दंतहीन’’ कर ‘‘अनुपयोगी’’ बना देगा। वास्तव में ‘‘आंदोलन’’ में आंदोलनकारी जब किसी कानून का उल्लंघन करेंगे, तब निश्चित रूप से दूसरे गैर आंदोलनकारी नागरिकों के संवैधानिक अधिकारों का ‘‘हनन’’ कुछ न कुछ तो अवश्य होगा ही। तभी तो ‘‘आंदोलन’’ कहलायेगा। क्या किसी जंगल में आंदोलन के विभिन्न तरीके धरना प्रदर्शन, जाम, जुलूस इत्यादि द्वारा आम जनता और संबंधित जिम्मेदार संस्थाओं जैसे शासन का ध्यान आकर्षित कर सकते हैं? ‘‘जंगल में मोर नाचा किसने देखा’’। तब ऐसे आंदोलन का वजूद जरूरत व फायदा क्या? इसलिए किसी न किसी संस्थागत या व्यक्तिगत अधिकारों का ‘हनन’ करना या होना ‘‘आंदोलन‘‘ की ‘नियति’ है। उच्चतम न्यायालय का यह प्रतिबंध आंदोलन की मूल भावना पर ही चोट करता है।  

‘‘आंदोलन’’ में मूल रूप से ‘असहमति’ का भाव प्रधान होता है। लेकिन आजकल के ‘‘आंदोलनों’’ ने आंदोलन की परिभाषा ही बदल दी है। नियत जगह, नियत समय में निश्चित अवधि के लिये और प्रशासन से आवश्यक अनुमति लेकर आंदोलन के विभिन्न रूप जैसे प्रदर्शन, धरना, ज्ञापन, उपवास, अनशन भूख हड़ताल, आमरण अनशन, अनिश्चितकालीन हड़ताल, चक्का जाम, सीमा सील, पुतला दहन चिपकों (आंदोलन) आदि रूप जो कुछ घंटे, एक दिन या अनिश्चितकाल होते है, में ‘भाग’ लिया जाता है। यदि आंदोलन के लिए आंदोलनकारियों व प्रशासन के बीच परस्पर सहमति ली व दी जानी है, तो फिर उस मांग जिसके लिये आंदोलन किया जाता है, के लिये सहमति क्यों नहीं बना ली जाती? वास्तव में आंदोलन की यात्रा ‘‘असहमति’’ से प्रारंभ होकर सहमति के निष्कर्ष तक पंहुचती है, तभी वह सफल आंदोलन कहलाता है। विपरीत इसके सहमति की अनुमति के साथ आंदोलन करना मात्र ‘नाटक’ ही है। क्योंकि ‘‘आंदोलन’’ आपका अंतिम अस्त्र होता है, जब आपकी समस्त दिशाओं से जिम्मेदार संस्थाओं में सुनवाई न होकर वे आपकी मांगो से सहमत नहीं होते है।   

आंदोलन शब्द में मूल रूप से ‘‘कष्ट सहना और कष्ट देना‘‘ की भावना निहित होती है। यह बात अलहदा है कि, वर्तमान किसान आंदोलन में आंदोलनकारियों ने पहली बार कुछ आवश्यक सुविधाएं का अच्छा प्रबंधन करके ‘‘आंदोलन को नया आयाम’’ देने के कारण आलोचकों को पांच सितारा सुविधा युक्त आंदोलन का आरोप जड़ने का एक मौका अवश्य दे दिया है। वैसे किसान आंदोलनकारियों के वर्तमान तरीके व रूप ने इस आंदोलन को एक नये रूप में परिभाषित भी किया है कि, एक व्यक्ति घर में रहते हुये समस्त सुविधाएं के साथ जिस प्रकार जीवन जीता है, सार्वजनिक स्थलों पर लगभग वैसा ही जीवन जीते हुये वह ‘‘आंदोलित’’ है। यह 21वीं सदी के आंदोलन की ‘‘नई परिभाषा’’ (‘‘भूखे पेट की बजाए भर पेट’’) हो सकती है, जिसका स्वागत करने में हिचक क्यों? शायद इसीलिए कि अभी तक की आंदोलन के प्रति जो धारणा रही है, वह अपनी मांगों को मनवाने के लिए सरकार पर दबाव डालने के लिए जितना ज्यादा कष्ट आप स्वयं को तथा दूसरों व सरकार को देंगे, आपका आंदोलन सफल तभी कहलाएगा। और तभी आप अपने उद्देश्य की पूर्ति के निकट पहुंच पाएंगे, अर्थात अपनी मांग सरकार से मंगवाने में आप सफल हो पाएंगे।

माननीय उच्चतम न्यायालय ने एक तरफ किसानों के शांतिपूर्ण आंदोलन को सही ठहराया है। तो वहीं दूसरी ओर सरकार के शांतिपूर्ण रुख और आंदोलन का दमन न करने की लिए अभी तक पुलिस फोर्स का उपयोग न करने के लिये सरकार की प्रशंसा भी की है। 25 दिन से  चले आ रहे आंदोलन की समाप्ति के लिए पांच दौर की असफल बातचीत हो जाने के बावजूद उच्चतम न्यायालय का बातचीत के लिए एक स्वतंत्र व निष्पक्ष समिति बनाने की पेशकश करना थोड़ा आश्चर्य चकित जरूर करती है। क्योंकि यह मध्यस्थता एवं सुलह आधिनियम (आर्बिट्रेशन एक्ट के) अंतर्गत दो पक्षों के बीच विवाद का मामला नहीं है, जहां न्यायालय को मध्यस्थ नियुक्त करना है अथवा जहां आर्बिट्रेटर ने अपना अवार्ड दे दिया हो, जिसकी न्यायिक समीक्षा करनी हो। पूर्व से ही दोनों पक्ष ‘‘मांगने वाला व देने वाला’’ के बीच जब सीधे संवाद हो रहा है, तब ‘‘आसमान पर दिया जलाने के लिये’’ तीसरी कमेटी के बनाने का औचित्य क्या? पहले तो इस प्रस्तावित समिति के सदस्यों के नामो पर ही दोनों पक्षों की सहमति बनानी होगी। तत्पश्चात समिति को ही पूरे मामले की गहराई से समझने के लिये अनावश्यक रूप से समय व्यतीत करना होगा। आखिर इस पूरे आंदोलन के मामले में सहमति का ही तो संकट है? तब हम नए-नए सहमति के क्षेत्र को क्यों खोल रहे हैं?

आपको याद होगा! श्रीराम जन्मभूमि के मुकदमे में ‘‘गुण दोष‘‘ के आधार पर चल रही सुनवाई के दौरान एक समय उच्चतम न्यायालय ने न्यायालय के बाहर समझौता करने के लिए कमेटी बनाने की व समय देने की पेशकश की थी जहां पर समस्त पक्षों के बीच वास्तविक रूप में कोई संवाद नहीं के बराबर था। यहां पर तो आंदोलनकारी किसानों से सरकार की पहले से वार्ता चल रही है। यद्यपि इसके अभी तक कोई परिणाम नहीं निकले है। लेकिन वार्ता बंद भी नहीं हुई है, बल्कि दोनों पक्षों ने वार्ता की इच्छा भी व्यक्त की है।

निश्चित रूप से हमारे संविधान में लोकतंत्र के तीनों स्तंभ विधायिका कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच कार्यों का स्पष्ट विभाजन है। जहां आंदोलनकारियों से बातचीत करने का दायित्व और अधिकार चुनी गई लोकप्रिय सरकार के पास ही है। हां सरकार के निर्णय संविधान या कानून के यदि विरुद्ध हैं, तभी न्यायालय इसमें ‘‘हस्तक्षेप‘‘ कर सकता है। पिछले कुछ समय से लोकतांत्रिक संविधान का एक प्रमुख खंबा (स्तंभ) न्यायपालिका अपने मूल संवैधानिक क्षेत्राधिकार से बाहर जाकर संविधान के दूसरा खंबे कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र में अतिक्रमण करती रही है। चूंकि यह अतिक्रमण अधिकांशतः जनहित में परिणित होता रहा है, इसलिए सामान्यता इस पर आपत्ति नहीं हुई। लेकिन इससे एक बात जरूर निकलती है कि जब कार्यपालिका अपने संवैधानिक दायित्व को पूरा करने में असफल होती है,तभी न्यायपालिका को अतिक्रमण करने का अवसर मिल जाता है, क्योंकि ‘‘ठंडा लोहा ही गरम लोहे को काटता है’’ यह स्थिति न केवल स्वस्थ्य लोकतंत्र के हित में नहीं है, बल्कि लोकतंत्र के परिपक्व होने के रास्ते में यह कहीं न कहीं यह रूकावट भी है।

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