शुक्रवार, 8 जनवरी 2021

आखिर! भारत सरकार ‘‘एमएसपी पर कानून‘‘ बनाने से ‘‘कतरा‘‘ क्यों रही है?

किसान आंदोलन! समस्या-समाधान! प्रलोभन अर्द्धसत्य व तर्क हीन तर्क!कब तक?


कृषि आंदोलन व उससे जुड़ी कृषकों की समस्या और उन समस्याओं का सरकार द्वारा समाधान कैसे (?), पर मैं पिछले 5 लेखों में काफी कुछ विस्तृत रूप से लिख चुका हूँ। लेकिन समस्या "कुत्ते की टेढ़ी पूंछ के समान" वहीं की वहीं है। 30 सितंबर को सातवें दौर की बातचीत होनी है। इसमें उठाये गये किसानों की वास्तविक समस्याएँ और उनका ‘उपचार’ यथासंभव सरकार द्वारा माने जाने पर हल संभव है, यदि दोनों पक्ष आगे दिये गये सुझावों पर ध्यान पूर्वक विचार कर पालन करे तो। मैं इस लेख के माध्यम से दोनों पक्षों को चुनौती देता हूँ कि, इस लेख में तथ्यात्मक आंकडो़ं के औसत अनुमानों को छोड़कर जो कुछ कम ज्यादा हो सकते है, कोई तथ्यात्मक या कानूनी या अन्य त्रुटि दोनों पक्ष यदि महसूस करते है तो वे तदानुसार बतलाएं। अन्यथा उक्त सुझावों को मानकर यदि दोनों पक्ष यदि सहमत नहीं होते है, तो फिर इसका एक ही अर्थ निकलता है कि आम जनता की "आंखों में धूल झोंकना" और उसे बेवकूफ बनाना। 

एक महीने से अधिक से चला आ रहा किसान आंदोलन लगभग अनुशासित और पूर्णतः शांतिपूर्ण है। भारत सरकार भी धीर व गंभीर होकर उतनी ही धैर्य और शांतिपूर्ण तरीके़ से किसानों की समस्याओं को समझ कर ‘‘आंदोलन’’ के किसान संगठन के नेताओं से सौहार्दपूर्ण वातावरण में बिना शर्त बातचीत कर अभी तक काफी कुछ सीमा तक लचीला रूख़ अपनाए हुए है। अन्यथा किसी भी सरकार का बातचीत प्रारंभ करने के पूर्व एक कड़ा रुख़ यह रहता है कि, वह आंदोलनकारियों से आंदोलन को स्थगित रखने की पूर्व शर्त के साथ ही सामान्यतः बातचीत करने की पेशकश करती है। वर्तमान में दोनों पक्षों के बीच बातचीत के साथ-साथ पत्र लेखन (पत्रों) का आदान-प्रदान) होने अर्थात "कागज़ी घोड़े दौड़ाने" के बावजू़द समस्या का यदि अंतिम युक्ति-युक्त समाधानकारक समाधान नहीं निकल पा रहा है तो, उसका एकमात्र कारण व्यवहारिक रुप से किसानों की तुलना में सरकार के अडि़यल रवैया से ज्यादा छिपा हुआ ‘‘घमंड’’ ही जि़म्मेदार है।

तकनीकि रूप से व जाहिरा तौर पर तो किसानों का रवैया ज्यादा कठोर व अव्यवहारिक लगता है, दिखता है। आंदोलनकारी किसान संगठनों की आंदोलन प्रारंभ होने के पश्चात जो मुख्य मांग रही है, वह तीनों कृषि सुधार कानूनों की समाप्ति से प्रारंभ होकर वहीं समाप्त हो जाती है। तथापि तीन और मांगें है जो अनुषंागिक है। मतलब उनके न मानने से गतिरोध समाप्त होने में कोई अड़चन नहीं होनी चाहिये। यद्यपि अध्यादेश लागू होने के बाद व आंदोलन प्रांरभ करने के पूर्व तक किसान सिर्फ ‘एमएसपी’ पर क़ानून बनाने की बात कर रहे थे, स्पष्टतः ‘‘कानून समाप्ति’’ की नहीं, जैसा कि सरकार दावा कर रही है। स्पष्टतः किसानों की यह मांग प्रत्यक्षतः अव्यवहारिक मांग है। उनकी अन्य मांगे भी जो हैं, उनका भी संबंध इन कृषि सुधार कानूनों से ही हैं। अतः एमएसपी को कानून के दायरे में ले आने पर किसान आंदोलन की प्रमुख मांग पूरी हो जाने से आंदोलन का आधार ही समाप्त हो जायेगा।

इस प्रकार ‘‘एमएसपी‘‘ यह किसानों व सरकार के बीच समझौते की मूल ‘‘रीढ़ की हड्डी‘‘ है, जिस पर फिलहाल कोई भी झुकने को तैयार नहीं है। जहां एक ओर आंदोलित किसान संघों का समूह ‘‘एमएसपी को कानून बनाने की बात‘‘ पर अड़ा हुआ है, तो वहीं दूसरी ओर सरकार "चित्त भी मेरी पट्ट भी मेरी" की नीति का अनुसरण करते हुए‘‘एमएसपी’’ पर कानून बनाने को छोड़कर, ‘‘एमएसपी’’ लागू करने के लिए लगातार वादे, आश्वासन और अन्य समस्त आवश्यक बातें व परिस्थितियों के निर्माण का कथन कर रही है। सरकार का ‘‘एमएसपी’’ का कानून न बनाने के संबंध में दो तर्क है। प्रथम, उक्त तीनों कृषि सुधार कानून जिनके विरोध में आंदोलन जारी है, में कहीं भी, किसी भी रूप में, प्रत्यक्ष रूप से एमएसपी के संबंध में एक शब्द भी विरोध में नहीं, बल्कि यहां तक कि समर्थन में भी कही भी नहीं लिखा गया है। अर्थात तीनों कानूनों को लागू होने के बावजूद नये प्रावधान से एमएसपी पूरी तरह से अप्रभावित व अनिर्लिप्त है। इसलिए इन कानूनों से ‘‘किसानों’’ या ‘‘आंदोलित किसान’’ अथवा ‘‘किसान संघों व नेताओं’’ के मन में ‘‘एमएसपी समाप्त होने की जो आशंका‘‘ है, न केवल वह बिल्कुल निराधार व गलत है, बल्कि वह अफवाहों की गहरी शिकार भी है। 

सरकार का ‘‘एमएसपी’’ पर दूसरा तर्क यह है कि बिना कानून बनाये पिछले लगभग 55 वर्षो से चली आर रही एमएसपी जो वर्तमान में चल रही है और आगे भी चलती रहेगी, तब आज क़ानून बनाने की आवश्यकता क्यों? सरकार के इन्ही दोनों तर्को को मानकर यदि किसान नेता तरीके से इन तर्को को सरकार पर ही मंढ दें, विद्यमान वर्तमान वस्तुस्थिति को दिखाते हुए उक्त दोनों तर्को को सरकार पर दृढ़तापूवर्क व तर्क पूर्वक (कैसे! इसका उत्तर आगे मिलेगा) जड़ दें तो, सरकार बिलकुल निरूत्तर हो जायेगी। वास्तव में यदि सरकार को अपनी किसान हितेषी छवि को बनाये रखने व दिखाये रखना है तो, किसानों की आगे उदाहरणों के साथ प्रस्तुत तर्क युक्त मांग को मानना ही पड़ेगा। यह किसान आंदोलन को समाप्ति की दिशा में सरकार का महत्वपूर्ण कदम होगा। अंततः इससे किसान आंदोलन समाप्त हो जायेगा। उक्त दोनों तर्को की तार्किकता गुणवत्ता को सरकार के उन्हीं तर्को के आधार पर अन्य क्षेत्रों में उठाये गये कदमों के साथ तुलना कर किसान नेतागण सरकार के समझ सही प्रभावी वास्तविकता युक्त लिये व प्रभावी तरीके से प्रस्तुतिकरण होये, (इसे आगे स्पष्ट किया जा रहा है।) ताकि अंतिम निष्कर्ष निकल जाये व व दूध का दूध और पानी का पानी के समान स्थिति स्पष्ट हो जायेगी। 

सरकार का यह कथन आंशिक रूप से उस सीमा तक तो बिल्कुल सही है कि, तीनों कृषि सुधार कानूनों में एक भी ‘‘शब्द, हलंत या विराम‘‘ एमएसपी के संबंध में नहीं लिखा गया है। लेकिन इससे एमएसपी समाप्ति की युक्ति युक्त आशंका होती है, या हो सकती है, इससे भी एकदम से इंकार नहीं किया जा सकता है। उदाहरणार्थ स्वयं सरकार ने नये अधिनियमों में वर्तमान मंडियों के बाहर फसल बेचने की अनुमति दिये जाने पर निजी मंडियों के विकसित होने और उन पर कोई मंडी टैक्स न लगाने के कारण, असमान प्रतिस्पर्धा होने से वर्तमान कृषि उपज मंडियां स्वतः ही धीरे-धीरे खत्म हो जायंेगी। यह तो किसानों को "कसाई के खूंटे से बांधने" जैसी बात होगी।। यद्यपियम में यह बात सीधे प्रत्यक्ष रूप से कहीं भी नहीं लिखी गई है। और सरकार भी इसके विपरीत ही दावा कर रही है। बल्कि सरकार इन नये क़ानूनों के निर्माण से कृषकों का अपनी फसल उत्पन्न होने वाली वर्तमान मंडी व्यवस्था के साथ एक और निजी मंडी व्यवस्था में बेचने का विकल्प देने का दावा कर रही है। लेकिन वास्तविकता व अनुभूति (परप्पश्ेान) दोनों ही स्थिति में मंडी के समाप्ति की दिशा में जाने के कारण सरकार का रूख गलत सिद्ध हो जाता है। "ताली एक हाथ से नहीं बजती"। शायद यही सोचकर सरकार ने बाद में किसान संगठनों के साथ पांचवें दौर की बातचीत में उक्त दुष्परिणाम की आंशका को देखते हुये उक्त त्रुटि को सुधारने की बात कही हैं। यह किसानों की पहली सफलता है। सरकार के दूसरे तर्क बिना कानून बनाए पिछले लगभग 55 वर्षो से एमएसपी चल रही है पर विचार!

सरकार, पार्टी व मेनेज्ड़ मीडिया द्वारा लगातार कहा जा रहा है कि चंूकि पिछले लगातार 55 वर्षो से एमएसपी की नीति बिना कानून बनाये लागू है, व वर्तमान में चल रही है, तब आज कानून की आवश्यकता क्यों? यहीं पर तो पेंच है। वास्तव में इस तर्क के द्वारा तो सरकार कृषकों को बहका कर "अपना उल्लू सीधा" कर रही है, न कि किसानों को वामपंथ या कोई विपक्षी दल बहका रहा है, जैसा कि प्रधानमंत्री सहित पूरी सरकार व पार्टी ताकत से आरोपित कर रही है। ‘‘आवश्यकता ही क़ानून की जननी है’’ यह एक मान्य सिंद्धात है। इसे आगे उल्लेखित दो तीन उदाहरणों से समझा जा सकता है। अनुसूचित जाति जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम 1989 लागू होने के पहले क्या अस्पृश्यता को रोकने हेतु भारतीय दंड संहिता में कोई प्रावधान नहीं था? तब यह तर्क (क़ानून की आवश्यकता नहीं का) क्यांे नहीं मढ़ा गया? इसलिये कि तब ऐसे एक पूर्ण कानून की आवश्यकता तत्समय विद्यमान परिस्थितियों को देखते हुये महसूस की गई। 

‘‘निर्भया केस’’ के बाद भारतीय दंड संहिता की बलात्कार की धारा 376 सहित अन्य धाराओं में आमूल चूल परिवर्तन किया गया। ‘‘विवाह’’ को लेकर धर्म परिर्वतन, लालच धोखाधड़ी आदि दोषों से सुरक्षा के लिए वर्तमान क़ानूनों में पर्याप्त प्रावधान हैं। इन आधारों पर अपराधी पर धारा 366 भारतीय दंड संहिता या ‘पास्को एक्ट’ व बाल विवाह संबंधी क़ानूनोें में अपराधिक प्रकरण चल सकता है। लेकिन इसके बावजूद धर्म विशेष से संबंधित प्रकरणों में जबरन धर्म परिवर्तन और धोखाधड़ी के मामलों में क़ानून बनाने की आवश्यकता महसूस हुई। वर्तमान में जिसे ‘‘लव जिहाद़’’ का नाम दिया गया है। इसे लेकर पहले उत्तराखंड फिर उत्तर प्रदेश की राज्य सरकारों द्वारा क़ानून बनाया गया है। मध्यप्रदेश में भी यह क़ानून निर्माण की प्रक्रिया में हैं व मंत्रिपरिषद द्वारा आज अध्यादेश जारी करने के लिए स्वीकृति भी प्रदान कर दी गई। हरियाणा सहित अन्य कई राज्य इस संबंध में क़ानून बनाने की तैयारी कर रहे हैं। यहां पर एक और बात पर विशेष रूप से ध्यान देने की है कि, उक्त उद्देश्यों को लेकर बने क़ानूनों में उदाहरणार्थ उत्तराखंड धार्मिक स्वतंत्रता कानून 2018 बनाया जाकर कानून के द्वारा पार्टी नेताओं ने लव जि़हाद का नारा दिया। तथापि ‘‘लव जि़हाद’’ शब्द का उपयोग कानून में कहीं नहीं किया गया है। परन्तु विवाह की आड़ में हिन्दु धर्म की युवती के धर्म परिर्वतन पर रोक लगायी गयी। इस प्रकार क़ानून द्वारा ‘‘लव जि़हाद’’ की ‘‘अनुभूति’’ (परसेप्शन) को पूरी तरह से उभारने के लिये ही तो ये नये क़ानून बनाने गये। तब एमएसपी समाप्त होने की आंशका की अनुभूति को (परसेप्शन) समाप्त करने के लिए क़ानून क्यों नहीं बनाया जा सकता है? कानून बनाये जाने में कौन सी कानूनी या अन्य कोई रूकावट है, जिसे सरकार पूरी नहीं कर सकती है? प्रश्न यही है। सरकार अपने इस रूख को सही ठहराने में बुरी तरह से असफल रही है। ठीक उसी प्रकार एमएसपी की नीति घोषित व लागू होने के बावजूद वास्तविकता में वह धरातल पर प्रभावी रूप से प्रभावी मात्रा में नहीं मिल रही थी, धरातल पर मात्र (6 प्रतिशत लोगों के खेत पर ही उतर रही है) शेष कृषक इस नीति के लाभ से वंचित रहे हैं। इसलिए कानून बनाने की बात कही जा रही है। ताकि उक्त नीति वास्तविकता में वास्तविक व प्रभावी रूप से लागू हो सकें। 

किसान भी अपनी बातें खुले दिल से तरीके से सरकार को नहीं समझा पा रहा है। और न ही जनता को पूर्ण वास्तविकता से अवगत करा रहे है। वास्तव में समस्या एमएसपी के कानून की नहीं, बल्कि मात्र 6 प्रतिशत किसानों को ही एमएसपी मिलने की है। जिनमें भी अधिकांश बड़े किसान (जो मात्र 10 से 15 प्रतिशत ही है )को ही मिलती है। शेष 85 से 90 प्रतिशत छोटे 5 एकड़ से कम वाले अधिकांश किसानों को वर्तमान एसएसपी की नीति लागू होने के बावजूद विद्यमान परिस्थितियों में उनका फायदा नहीं मिल पा रहा है। वास्तविकता यह भी है कि इन बड़े किसानों के हाथों में ही आंदोलन के सूत्र है जिन्हे एमएसपी मिल रही है। यदि किसान नेता इस वास्तविकता को स्वीकार कर लेते है तो समस्या का समाधान तुरंत निकल जायेगा। एक उदाहरण से इसे समझिये! 100 प्रतिशत विद्युतीकरण का दावे के बावजूद सरकार क्या प्रत्येक घर में बिजली पहुंच गई है? नहीं! तब दावा सही कैसे! मूल बात यह है कि जब सरकार कोई भी जनोपयोगी योजना बनाती है तो, उसका फ़ायदा प्रत्येक योग्य पात्र हितग्राही को मिलना ही चाहिए। तभी वह उक्त जनहितकारी योजना सफल होकर सरकारे उसका राजनैतिक श्रेय ले सकती है। मात्र कुछ प्रतिशत लोगों को योजना का फायदा देकर सरकार अपनी पीठ नहीं थप-थपा सकती है। जैसा कि एमएसपी को लेकर सरकार कर रही है। यह तो "चाय से गरम केतली" दिखाने जैसा है। सरकार की ओर से यह बतलाने का प्रयास अवश्य किया जा रहा है कि इस वर्ष उसने कृषि उपज की रिकॉर्ड ख़रीदी की या पिछले वर्षो की तुलना में दुगना से भी ज्यादा पैसा खर्च किये। लेकिन आज भी सरकार यह आकंड़ा बताने को बिल्कुल भी तैयार नहीं है कि वह देश की 60-65 प्रतिशत किसान जनसंख्या में से कितने प्रतिशत किसानों को व उन किसानों में से भी 5 एकड़ से कम रकबे वाले कितने प्रतिशत किसानों (जो कि लगभग 90 प्रतिशत हैं) को एमएसपी दे रही है। यदि यह आंकड़ा सार्वजनिक कर दिया जाएं तो सरकार व किसानों दोनों की आंखें खुल जायेंगी। क्योंकि किसानों का नेतृत्व करने वाले किसान नेताओं को ही तो ‘‘एमएसपी’’ मिल रही है। तब किसान सिर्फ एमएसपी पर क़ानून की बात नहीं करेगा, बल्कि वह न्यूनतम मात्रा की ख़रीदी के क़ानून के साथ-साथ पांच एकड़ से कम किसान भी न्यूनतम संख्या मात्र में खरीदी करने के कानून की बात भी करेगा। 

इस बात को रेखांकित किया जाना आवश्यक है कि, एक तरफ क़ानून बनाना व सरकार द्वारा किसी नीति की घोषणा करना, लिखित घोषणा करना, लिखित आश्वासन देना, दूसरी तरफ संसद में घोषणा करना और संसद के दोनों सदनों में उस संबंध में प्रस्ताव पारित कर कानून बनाने के बीच महत्वपूर्ण व प्रभावी अंतर है, जिसे सरकार को समझना होगा। एक और महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि, कानून बनने के बाद उसको धरातल पर उतारने पर कानून बनने व धरातल के बीच मौजूद अंतर को समाप्त या कम करना होगा तभी अंततः कानून वास्तविक रूप में लागू होकर हितग्राहियों को वास्तविक लाभ मिल सकता है। अन्यथा "कुएं में बांस डाल" कर समस्या का हल ढूंढना "व्यर्थ की क़वायद" होगी।

सरकार के कथन, लिखित कथन, और कानून बनाने के बीच यह अंतर का प्रभाव क्या होता है? इसको भी जान लीजिए। जिस प्रकार सामान्य रूप से कही गई कोई बात या तथ्य के विरुद्ध आचरण करने पर आपके खि़लाफ कोई फौजदारी कार्रवाई नहीं की जा सकती है। लेकिन ‘‘शपथ पत्र‘‘ पर कोई बात कहने के बाद उसके उल्लंघन होने पर आप के खि़लाफ फ़ौजदारी क़ानूनों के अंतर्गत कार्यवाही की जाकर आपका आपराधिक अभियोजन हो सकता है। ठीक यही अंतर सरकार द्वारा दिए गए आश्वासन और उसके द्वारा संसद के माध्यम से बनाए गए कानून में है। सरकार के आश्वासन से मुकर जाने पर या पूरा न होने पर कोई भी हितग्राही सरकार के खि़लाफ कोई कार्यवाही नहीं कर सकता है। लेकिन यदि वह क़ानून बना दिया जाएगा तो उसके उल्लंघन होने पर कानूनी कार्रवाई की जा सकती है। यही तो मांग किसान संघ कर रहे है। इस पर सरकार को आपत्ति क्यों? हिचकिचाहट क्यों? 

सरकार का यह कथन सही नहीं है कि तीनों कृषि कानूनों से एमएसपी पर कोई आंच नहीं आती है। इसलिए कानून रद्द करने की आवश्यकता नहीं है। किसान "जीती मक्खी कैसे निगल" सकता है? यदि आपका आशय साफ है, इच्छा हार्दिक है, मन साफ है, कोई दुराशय नहीं है, सरकार किसानों के लिये "कलेजा निकाल कर रखने" के लिये तैयार है तो सरकार एमएसपी के संबंध में जो मुखाग्र कह रही है व उसे लिखित रूप में देने को तैयार है, तब फिर उसको क़ानूनी ज़ामा पहनाने में अगर मगर क्यों कर रही है उसे दिक्कत क्या है? या हो सकती है? सरकार के एमएसपी को कानून न बनाने के उक्त तर्को को रूबरू स्वीकार करने के बावजूद इस पर सरकार को कानून बनाने से उसकी संप्रभुता या सम्मान पर कहां चोट पहुंचती है? देश हित में, देश की कुल जनसंख्या के 60-65 प्रतिशत किसानों के होने से उनके हित में, आंदोलित किसानों के हित में, आंदोलन से उत्पन्न नागरिक को हो रही अव्यवस्था के कारण आम नागरिकों के हित में और अंततः उस सरकार के लिये जो हमेशा यह दावा करने में थकती नहीं है कि वह किसान हितैषी सरकार है। यदि सरकार एमएसपी पर कानून बना देती है तो, फिर किसानों की तीनों क़ानूनों को समाप्त करने की मांग न केवल गोठल या कंुठित हो जाएगी, बल्कि उसका कुछ औचित्य भी नहीं रह जायेगा। 

किसी भी आंदोलन के संबंध में एक सामान्य मूल सिद्धांत यह होता है कि उनकी समस्त मांगे न तो जायज़ होती हैं और न ही आंदोलन समाप्त करने के लिए समस्त मांगें मानी जाती हैं। कुछ न कुछ आंदोलनकारियों को भी अपनी मांगों से पीछे हटना होता है और इसीलिए प्रायः आंदोलनकारी कुछ ऐसी मांगे ज़रूर अपने आंदोलन में रखते हैं, जिन्हें उन्हें पीछे हटने में छोड़ने पर उनकी मूल मांगों पर कोई प्रभाव न पड़े। तीनों कृषि सुधार का़नूनों की समाप्ति की मांग के पीछे भी शायद यही मूल भाव है। इसलिए सरकार आगे आए, एमएसपी का कानून बनाकर उसके मैदान में पड़ी गेंद को वह सामने वाले के मैदान में लुढ़का कर अपनी जिम्मेदारी से मुक्त होकर आंदोलनकारियों को भी अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त होने का अवसर दें, और तदनुसार जनता को निर्णय करने दें।

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