शुक्रवार, 8 जनवरी 2021

‘‘गांधी‘‘ के ‘‘साथ‘‘व ‘‘गांधी‘‘ के ‘‘बिना‘‘ ही कांग्रेस का ‘‘अस्तित्व एवम नियति‘‘ है।

पूर्व में वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं की कांग्रेस हाई कमांड को लिखी गई ‘चिट्ठी’ पर सोनिया गांधी के ‘‘बुलावे’’ पर इन समस्त ‘‘तथाकथित असंतुष्टों‘‘ व नाराज नेताओं की एक चिंतन बैठक हुई। ‘चिंता’ की सीमा तक कांग्रेस की ‘‘चिंताजनक स्थिति‘‘ हो जाने के कारण बैठक को उपयोगी बनाने हेतु‘‘ चिंतन बैठक‘‘ का नाम देना तो उचित ही है। इस बात का विश्लेषण किया जाना जरूरी कि किस प्रकार कांग्रेस के अस्तित्व के लिए ‘‘गांधी‘‘ शब्द का ‘‘होना और न होना‘‘ दोनों की ही ‘‘बराबर‘‘ की ‘‘जरूरत‘‘ क्यों हैं व कैसे संभव है।

‘‘गांधी’’ का नाम कांग्रेस के गले में पड़ा हुआ ऐसा ‘‘ढोल’’ है जिसे बजाना हर कांग्रेसी की मजबूरी है। वैसे ‘‘गांधी’’ कांग्रेस के लिए ‘‘दुधारी तलवार’’ है। अर्थात ‘‘गांधी’’ के कारण कांग्रेस टिकी हुई है, तो वर्ष 1907 में सूरत अधिवेशन में गरम दल व नरम दल के रूप में कांग्रेस के अंदर एक विचार धारा का विभाजन हुआ जिसे ‘‘सूरत विभाजन’’ कहते है, के बाद वर्ष 1969 में कांग्रेस का पहली बार विभाजन होकर कांग्रेस दो भागों में इंडीकेट व सिंडीकेट कांग्रेस के रूप में बंट गई। कालांतर में इंडीकेट कांग्रेस ‘‘आई’’ से होकर वर्तमान में कांग्रेस ही हो गई। अब उसकी जगह ‘‘गांधी’’ ने ले ली। उसके बाद से आज तक कांग्रेस की हुई जीत या एक-एक कर निकले अनेकों क्षत्रप के कारण भी ‘गांधी’ ही रहे। कांग्रेस आई (इंदिरा), तृणमूल कांग्रेस, तेलुगू देशम पाटी (टीडीपी) एनसीपी, राष्ट्रीय समाजवादी कांग्रेस (प्रणव मुखर्जी), पी चिदंबरम की कांग्रेस, पीडीपी (पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी), वाई एस.आर. कांग्रेस पाटी, टीआरएस, तिवारी कांग्रेस, बीजू जनता दल (बीजद) माधवराव सिंधिया की कांग्रेस जैसे न जाने कितनी कांग्रेस ‘‘गांधी‘‘ के कारण बनी और शेष बच गई कांग्रेस भी ‘‘गांधी‘‘ के कारण ही है।

सर्वप्रथम कांग्रेस को आज भी ‘‘गांधी‘‘ शब्द की आवश्यकता ‘‘क्यों और कैसे‘‘ है, इसकी चर्चा कर लेते हैं। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना 28 दिसंबर 1885 में ए. ओ. ह्यूम ने की थी। महात्मा मोहनदास करमचंद गांधी के भारतीय राजनीति में उदय के बाद शीघ्र ही ‘‘गांधी‘ शब्द कांग्रेस का पर्यायवाची शब्द बन गया। अंतर सिर्फ इतना सा आ गया कि पूर्व में प्रीफिक्स (उपसर्ग) के रूप में ‘‘कांग्रेस‘‘ के पहले ‘‘गांधी‘‘ उपयोग किया जाता था और अब वर्तमान में ‘‘गांधी शब्द‘‘ कांग्रेस के बाद एक ‘‘पूछल्ला‘‘ के रूप में उपयोग में होता है। ‘‘गांधी‘‘ शब्द वास्तव में कांग्रेस पार्टी के लिए एक ‘‘फेविकाल‘‘ का कार्य अर्थात कांग्रेस के भीतर समस्त ‘‘टुकड़ों‘‘ ‘‘गुटों‘‘ ‘‘छत्रपों‘‘ को जोड़ने का कार्य करती है। मतलब साफ है! कांग्रेस के अंदर वर्तमान में जो कुछ भी ‘‘एकता‘‘ शेष बची हुई है, एक सूत्र में बंधी है, उसका एकमात्र कारण सिर्फ और सिर्फ ‘‘गांधी‘‘ की महत्ता का पार्टी में अभी भी बने रहना है। 

इसका दूसरा अर्थ यह भी निकलता है कि यदि गांधी की ‘‘महत्ता व सर्वोच्चता’’ पार्टी में खत्म कर दी जाए तो, पार्टी के टुकड़े टुकड़े (‘‘टुकड़े टुकड़े गैंग नहीं, जो आजकल बहुत ही प्रचलित शब्द है।) हो जाएंगे। सारे बड़े नेता ‘‘अपनी-अपनी खिचड़ी अलग-अलग पकाने लगेंगे’’। मध्यप्रदेश में कमलनाथ व दिग्विजय सिंह, पंजाब में अमरिंदर सिंह, हरियाणा में भूपेंद्र सिंह हुड्डा, राजस्थान में अशोक गहलोत और सचिन पायलट जैसे नेता कांग्रेस से हटकर अपने अपने प्रदेश के वैसे ही ‘‘क्षत्रप नेता‘‘ बन जाएंगे जैसे कि पूर्व में शरद पवार, नारायण दत्त तिवारी, ममता बनर्जी, मुफ्ती मोहम्मद सईद, बीजू पटनायक, वाई एस. जगन मोहन रेड्डी, एन टी रामा राव, के चंद्रशेखर राव आदि नेता समय-समय पर कांग्रेस छोड़कर अपने-अपने प्रदेश मे क्षेत्रीय पार्टी बनाकर सफलता का झंडा गाड़ चुके हैं। इसलिए यदि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ‘‘कांग्रेस विहीन देश‘‘ की कल्पना को ‘‘साकार‘‘ नहीं होने देना है तो, ‘‘गांधी’’ का होना आवश्यक है।

आइए अब देखते हैं कि कैसे ‘‘गांधी’‘ के रहते नरेंद्र मोदी अपने एजेंडा भारत कांग्रेस बिना भारत की योजना में सफल होते नजर आ रहे हैं। आपने देखा होगा कि ‘‘चिंतन बैठक‘‘ के पूर्व राहुल गांधी का एक ट्वीट आया कि वह कोई भी ‘‘जिम्मेदारी‘‘ संभालने के लिए तैयार हैं। यह सुन भाजपा तो ‘‘अंग अंग फूले न समाने’’ वाली स्थिति में आ गयी, उसने तुरंत इस वक्तव्य को लपकर झेलकर भाजपा के प्रवक्ताओं जैसे प्रेम शुक्ला ने इसका तुरंत स्वागत किया। वह इसलिए भी कि ‘‘गांधी नाम से‘‘ भाजपा व प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपने एजेंडा कांग्रेस विहींन भारत के निर्माण में बहुत सहायता मिलती है। देश की राजनीति में ‘‘गांधी‘‘ खासकर वर्तमान में राहुल गांधी नाम से उनके उल जुलूल वक्तव्य व जमीन (धरातल) से जुड़कर लगातार जनता के बीच कार्य न करने के कारण, सामान्य रूप से जनता को इतनी चिढ़ सी हो गई है कि जहां-जहां गांधी की ‘‘छाया‘‘ व ‘छत्र छाया’ पड़ती है, वहां स्वतः ही भाजपा के बिना ज्यादा प्रयास किए ही कांग्रेस का बंटाधार (हार) हो जाता है। जैसा कि कहां जाता है ‘‘जंह जंह पांव पड़े संतन के तंह तंह बंटाधार भयों’’ ठीक उसी प्रकार जैसे मध्यप्रदेश में सुश्री उमाश्री भारती ने दिग्विजय सिंह को ‘‘मिस्टर बंटाधार’’ के रूप में जनता के बीच प्रस्तुत कर कांग्रेस को सत्ता से बेदखल किया था।

इसलिए वर्तमान में कांग्रेस बहुत ही पसोपेश की स्थिति में है। यदि वह ‘‘गांधी‘‘ को हटाती है तो, शेष बची कांग्रेस के टूट के खतरे के कारण उसके अस्तित्व के ही खतरे की आशंका उत्पन्न हो जाएगी। और यदि ‘‘गांधी‘‘ को साथ में रखती है, तब जनता के बीच गांधी के ‘‘अलोकप्रिय’’ हो जाने के कारण जनता उसके अस्तित्व को खत्म करने के लिए तैयार बैठी है। कांग्रेस की वर्तमान स्थिति के लिये ‘‘गाल बजाना और गाल फुलाना’’ यह मुहावरा बिल्कुल सही बैठता है। अब ऐसी ‘‘इधर कुआं उधर खाई’’ वाली स्थिति में कांग्रेस को न केवल अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए, बल्कि देश की राजनीति में आगे बढ़ने के लिए इन परिस्थितियों में क्या करना चाहिए? 

वर्तमान परिस्थिति में कांग्रेस के पास एक ही रास्ता बचा है कि वह पिछले विधानसभा के हुए चुनाव में अपनाए गए ‘‘कमलनाथ के चुनावी मॉडल‘‘ को अपनाएं। यह मॉडल क्या है? आप जानते ही हैं कि मध्यप्रदेश में पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह की स्थिति और नाम का (दुष्) प्रभाव (दुष्परिणाम) आम जनता के बीच ठीक वैसा ही है, जैसा कि देश में वर्तमान में ‘‘गांधी‘‘ के नाम का। साध्वी तेज तर्रार (फायरब्रांड) नेत्री सुश्री उमाश्री भारती ने 2003 के विधानसभा के आम चुनाव में दिग्विजय सिंह को ‘‘मिस्टर बंटाधार‘‘ कहकर बुरी तरह से बदनाम कर सरकार को सफलतापूर्वक उखाड़ फेंका था। लंबा समय बीत जाने के बावजूद भी दिग्विजय सिंह उक्त छवि की हुई दुर्गति से अभी तक उभर नहीं पाए हैं। भोपाल लोकसभा चुनाव में उनकी बुरी हार इस बात का द्योतक है। सुश्री उमाश्री भारती ने उक्त चुनाव जीतकर इस बात को सिद्ध किया कि अपने विरोधियों की छवि को सिर्फ तोड़कर ही नहीं बल्कि उनकी जनता के बीच अकार्यक्षमता अर्कमण्यता व असफलता को आगे लाकर उनकी नकारात्मक छवि को स्थापित करके भी चुनाव जीता जा सकता है। 

कमलनाथ इस स्थिति को अच्छे से जानते है। इसलिए उन्होंने दिग्विजय सिंह को पिछले विधानसभा के आम चुनाव में सार्वजनिक चेहरा कम बनाया और एक ‘‘रणनीति’’ के तहत दिग्विजय सिंह को ‘‘परदे के पीछे रखकर‘‘ उनके राजनीतिक चातुर्य व कौशल का पार्टी के लिये इस्तेमाल किया। इस प्रकार कमलनाथ एक तरफ दिग्विजय सिंह की राजनीतिक पैंतरेबाजी व योग्यताओं का उपयोग करने में भी सफल रहे तो दूसरी ओर उनकी बोझिल छवि के भार से भी दिग्विजय सिंह को जनता के बीच ज्यादा सामने न लाकर कांग्रेस को न केवल बचाया बल्कि आश्चर्यजनक रूप से जीत का तोहफा भी दिया। राष्ट्रीय स्तर पर यही ‘‘खेल‘‘ कांग्रेस को ‘‘गांधी‘‘ के साथ भी अपनाना होगा। तब पार्टी भी एकजुट रहेगी और ‘‘गांधी‘‘ नाम के कारण जो खामियाजा पार्टी को भुगतना पड़ रहा है, उससे भी वह बच पायेगी। इसलिए कांग्रेस को आज एक ‘‘बिना गांधी की नाम‘‘ के नए नेतृत्व को जनता के सामने लाना ही होगा, भले ही ‘‘गांधी‘‘ उसे रिमोट कंट्रोल से चलाएं। कुछ समय पूर्व प्रसिद्ध स्तंभ लेखक रामचंद्र गुहा के लेख की वह लाइनंे याद आ रही हैं, जिसमें उन्होंने नरेंद्र मोदी के ‘‘कांग्रेसी मुक्त भारत’’ की  काट में कांग्रेस को ‘‘गांधी विहीन कांग्रेस’’ बनाने का सुझाव दिया था।

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