गुरुवार, 15 फ़रवरी 2024

तेजस्वी का ‘‘तेज’’क्या राष्ट्रीय राजनीति में युवा ‘‘चेतना को चैतन्य’’ कर नेतृत्व करेगा?

‘‘तेजस्वी का तहलका’’

‘तेजस्वी‘‘ कहीं भारतीय राजनीति में सशक्त युवाओं के पदार्पण के ‘‘पर्यायवाची’’ तो नहीं होते जा रहे हैं? ‘‘युवा मोर्चा‘‘ भाजपा का युवा संगठन है, जिसके अध्यक्ष नवम्बर 2020 से कर्नाटक के ‘‘तेजस्वी’’ सूर्या एल. एस. है, जो ‘‘सूर्य‘’ के समान चमक रहे हैं और तेजस्वी नाम को जिसका अर्थ चमकदार, उर्जावान, प्रतिभाशाली है, अपने कार्य से सफल सिद्ध कर रहे है। वे मात्र वर्ष 2019 में 28 वर्ष की उम्र में ही बंगलौर दक्षिण से संसद के लिए चुने गए। इसी प्रकार ‘‘लालू के लाल’’ तेजस्वी प्रसाद यादव, क्रिकेटर से राजनेता बने, वर्ष 2015 में मात्र 26 वर्ष की उम्र में विधायक के लिए चुनकर उप-मुख्यमंत्री बने। ‘‘चारा कांड’’ के सजायाफ्ता उनके पिताजी बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री व पूर्व केंद्रीय रेल मंत्री, लालू प्रसाद यादव की ‘‘छत्र छाया’’ नहीं, बल्कि "गहन काली छाया" के साथ मात्र नौंवी पास की पढ़ाई की ‘‘डिग्री’’ लिए तेजस्वी यादव है। उनकी माताजी पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी सहित तेजस्वी पर भी कई मुकदमे दर्ज हैं। ‘‘यानी कि पूरा का पूरा थान ही डैमेज है।’’ उक्त काली पृष्ठभूमि से होने के बावजूद और विधानसभा में सत्ता पक्ष की विश्वास मत पर स्पष्ट दिख रही जीत की स्थिति को अर्थात स्वयं की हार की स्थिति को मतदान के पूर्व ही भाषण के समय ही स्वीकार कर लिया था जैसा कि बाद में मतदान में भाग न लेकर सदन से वॉकआउट कर दिया था। ऐसी विपरीत स्थिति में भी तेजस्वी का  लगभग 40 मिनट का जिस तरह का जोरदार भाषण विधानसभा में विश्वास मत पर चर्चा के दौरान हुआ, उससे वे इस समय देश की समस्त मीडिया से लेकर आम जनों, बुद्धिजीवियों में चर्चित होकर राजनीति में बेहद प्रभावी होकर चमक लेकर एक प्रखर वक्ता के रूप में उभरे हैं। तेजस्वी का यह भाषण अटल बिहारी वाजपेयी की 13 दिन की सरकार गिरने पर संसद में दिये गये भाषण की याद दिलाते हुए उनके व्यक्तित्व को एक नया अवतार प्रदान करता है व राष्ट्रीय राजनीति में उनके पिताजी से भी ज्यादा महत्वपूर्ण स्थान दिला सकता है, ऐसा कहा जाये तो अतिश्योक्ति नहीं होगा। तेजस्वी के अपने समकालीन कई युवा नेताओं (राहुल...?) के बारे में यह कहा जा सकता है कि ‘‘जो उगता हुआ नहीं तपा तो डूबता हुआ क्या तपेगा’’?

सामने प्रत्यक्ष दिख रही निश्चित हार की मानसिकता से उबर कर, उपर उठकर और पिताजी की दाग नुमा छवि के वटवृक्ष के नीचे चलने के बावजूद उक्त घेरे (चक्रव्यूह) से निष्कलंक बाहर निकल कर आ जाना, एक नई युवा राष्ट्रीय राजनीति को इंगित करता है कि तेजस्वी ‘‘उथले पानी की मछली नहीं है’’। फिर ‘‘सुशासन बाबू’’ की छवि लिए राष्ट्रीय राजनीति के स्थापित क्षितिज राजनीतिक अनुभव में अपने से कई गुना बड़े, उम्र दराज, पांच बार की जीत, परन्तु कभी भी पूर्ण बहुमत प्राप्त न करने के बावजूद 17 साल में नौंवी बार बने ऐसे बिहार के ऐसे मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की सत्ता को चुनौती देते हुए, विधानसभा में अपने ‘तेज’ से तेजस्वी ने सबको ‘चमका’ दिया। जिस तत्परता, कौशल व शालीनता के साथ ‘‘अपशब्दों’’ (जो आज की राजनीति का अंलकारित महत्वपूर्ण हिस्सा बन चुका है), का प्रयोग किए बिना विधानसभा में अपनी बात रख कर ‘‘राजा दशरथ’’, ‘‘माता कैकयी’’ का उल्लेख कर सामने वाले की बोलती बंद कर उन्हें भौंचक्का कर देना, तेजस्वी यादव का यह एक नया ‘‘एंग्री मैन’’ का रूप है। जो देश की राजनीति में आगे अग्रेषित होता हुआ स्पष्ट दिख रहा है। नाम (तेजस्वी) के विपरीत ‘‘तेजी’’ से न चलने की नीति, विपरीत परिस्थितियों में ठंडे दिमाग से तेजस्वी यादव ने जिस तरह नीतीश कुमार जो कि ‘‘ऐसे ऊंट के समान हैं जो अपनी पूंछ से मक्खी तक नहीं उड़ा सकते’’ को विधानसभा में सफलतापूर्वक ‘‘गुस्साये’’ नहीं, बल्कि ‘‘मुस्कराते’’ हुए घेरा, उसने नीतीश की अंततः हुई जीत की सफलता में भी तेजस्वी की हार की असफलता को ढक दिया। नीतीश कुमार को निरूत्तर कर सिर्फ पूर्व के लालू-राबड़ी के ‘‘जंगलराज’’ की याद दिलाने के अलावा नीतीश के पास कुछ बचा नहीं था। इस जंगलराज को भी जेडीयू की विधायक बीमा भारती ने जिसने विश्वास मत के पक्ष में मतदान किया, ने रोते हुए जिस प्रकार नीतीश की सरकार को जंगलराज कहा उससे नीतीश कुमार का जंगलराज का आरोप भी बोथल हो गया। नीतीश यह बतलाने में पूरी तरह से असफल रहे कि उन्होंने एनडीए को क्यों पकड़ा व महागठबंधन का साथ क्यों छोड़ा? ‘‘औसर चूकी डोमनी गावे ताल बेताल’’।

तेजस्वी बार-बार अपने बयानों और किए गए कार्यों से यह अहसास दिलाते रहे कि जिन उद्देश्य को लेकर नीतीश कुमार ने ‘‘एनडीए’’ को छोड़कर ‘‘महागंठबंधन’’ के साथ सरकार बनायी थी, उसी गठबंधन की सरकार ने 17 महीनों में ऐसे अनेकोनेक कार्य किए जो पूर्व में 2005 से लेकर 2024 तक 17 साल की नीतीश कुमार की सरकार में नहीं हुए और इन 17 महीनों की सरकार चलाने में तेजस्वी ने कोई रुकावट नहीं डाली। न ही अपने प्रत्युत्तर में ऐसा कोई असहयोग का स्पष्ट आरोप नीतीश कुमार ने तेजस्वी पर लगाया। हां यह आरोप जरूर लगाया कि उनकी बातों को राजद कोटे के मंत्री गंभीरता से नहीं ले रहे थे। नीतीश कुमार का एनडीए में आने का तर्क बेहद ही लचर, अविवेकपूर्ण, तर्कहीन व बिल्कुल दमदार नहीं, बल्कि एक तरह से हास्यास्पद था। जेडीयू को कमजोर करने के आरोप लगाने के साथ जिस एनडीए को कमजोर करने के लिए और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ आगामी लोकसभा चुनाव में पहले 200 व बाद में मात्र 100 सीटों पर ही समेटने की बात की हुंकार भरने वाले नीतीश कुमार जब यह कहते है कि ‘‘इंडिया’’ गठबंधन ने उनकी बात नहीं सुनी, इसलिए वे जहां थे, वापस वहीं आ गए। लालू, कांग्रेस से मिले हुए थे, यह आरोप भी लगाया। तब क्या नीतीश कुमार का यह कर्तव्य नहीं होता था कि ‘‘गठबंधन’’ छोड़कर ‘‘एनडीए’’ में जाने की बजाए अपनी बची-कुची ताकत के आधार पर उक्त घोषित उद्देश्य की पूर्ति करने के लिए जुट जाते? परन्तु विपरीत इसके वे अपनी मान-सम्मान का ख्याल किए बिना, उस एनडीए को कमजोर करने की बजाय, उसी एनडीए को मजबूत करने में शामिल हो गए। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि नीतीश कुमार का उद्देश्य एनडीए को कमजोर करना नहीं था, जब एनडीए छोड़कर ‘महागठबंधन’ में शामिल हुए थे।

सामान्यतया ऐसा कभी नहीं होता है और न ही ऐसा मानवीय स्वभाव होता है कि एक व्यक्ति जो अपने दुश्मन को निपटाने के लिए पहले ‘‘दुश्मन के दुश्मन से’’ हाथ मिलाता हो, असफल होने पर अथवा बीच में ही लड़ाई छोड़ने पर, वह प्रथम दुश्मन से लड़ने की बजाए उसके साथ ही शामिल होकर समर्पण कर दें। यह तभी होता है, जब वास्तव में वह दुश्मन ‘‘जानी दुश्मन’’ न होकर दिखाने के लिए दुश्मन होता है, और ऐसा परसेप्शन बनाया जाता है। यदि राजनीतिक रूप से अपने दुश्मन से लड़ने में सक्षम नहीं है, इस लड़ाई में दूसरों का वांछित सहयोग नहीं मिल रहा है, तो उचित तो यही होता कि कुछ समय का इंतजार करते या परिस्थितियों का सामना कर विद्यमान परिस्थिति, के आधार पर ही लड़ने का प्रयास करते, न कि उसी दुश्मन से मिलकर उसी को मजबूत करने का कार्य करें। इसी को कहते हैं कि ‘‘ओछे की प्रीत बालू की भीत’’। नीतीश कुमार के पूरे कार्य का निचोड़ यही ‘‘गैर जिम्मेदारी’’ है, जिसकी ‘‘जिम्मेदारी’’ से वे भाग नहीं सकते हैं।

तेजस्वी ने भाषण में कई बातें सकारात्मक कहीं, तो कुछ के द्वारा सामने वाले को आइना दिखाने का सफल प्रयास किया। एक और महत्वपूर्ण बात यह थी कि उन तीन विधायक के अचानक उनके प्रति पाला पलटकर विश्वास मत के दौरान विश्वासघात करने के बावजूद तेजस्वी ने उनके प्रति राजनीतिक ‘‘उदारता’’ दिखाई। वर्तमान में हममें से शायद किसी ने भी किसी नेता में इस तरह की बहुआयामी प्रतिभा नहीं देखी होगी। तेजस्वी का यह रवैया उनके व्यक्तित्व को बहुत बड़ा कर देता है। 

नीतीश कुमार का युवाओं को नौकरी देने के संबंध में तेजस्वी पर श्रेय लेने का आरोप लगाने पर तेजस्वी ने जिस प्रकार जवाब दिया, वह वाकई में काबिले तारीफ व सटीक था। उन्होंने स्पष्ट रूप से सत्ता पक्ष को चुनौती दी, जो काम करेगा वह ‘‘श्रेय’’ लेगा। चूंकि मैंने वह काम किया जो नीतीश कुमार ने विधानसभा चुनाव के समय कहा था कि "अपने बाप से पैसा लायेगा’’? ‘‘जेल से पैसे लेगा’’? साथ ही उन्होंने सत्तापक्ष को यह चुनौती भी दी कि आप भी जब कोई काम करेंगे तो क्या श्रेय नहीं लेंगे? आप ओल्ड पेंशन लागू कीजिए और श्रेय लीजिए। हम भी इसे स्वीकार करेगें।

राजद के दो विधायक आनंद मोहन के बेटे चेतन आनंद, बाहुबली अनंत सिंह की पत्नी नीलम देवी के अध्यक्ष की अनुमति के बिना सत्ता पक्ष के साथ बैठकर पाला पलटने पर तेजस्वी का यह कथन महत्वपूर्ण है कि आपको जब भी हमारी जरूरत हो, हम आपके साथ है। पूर्व में भी हमने आपको खराब स्थिति से उबारा है। यह कथन भविष्य की संभावनाओं का खुला रखने का द्वार ही कहा जायेगा। 17 महीनों के शासन में कहीं यह याद नहीं आता है कि तेजस्वी यादव ने नीतीश कुमार से अपनी असहमति या नाराजगी जाहिर की हो। इसके बावजूद नीतीश कुमार ने कई बार लालू प्रसाद यादव के जंगल राज का उद्हरण किया। सचमुच में इस 40 मिनट के भाषण ने नीतीश कुमार की लगभग 40 साल से अधिक की जो राजनीतिक पूंजी कमाई थी, जिस कारण वे सुशासन बाबू भी कहलाये, जो पूंजी इस बार पाला बदलते ही समाप्त हो गई। ऐसी रातों के ऐसे ही सवेरे होते हैं’’। और उस पर तेजस्वी के भाषण ने ऐसा तडका लगा दिया की जो जली हुई पूंजी की अग्नि पर राख पड़ी थी, वह उस राख को तेजस्वी के भाषण ने ठंडा (शीतल) कर दिया, जिससे वह भविष्य में चिंगारी के रूप में भी न जल सके। ‘‘ईंट की लेनी और पत्थर की देनी’’इसी को कहते हैं।

युवा नेतृत्व की देश की राजनीति में महत्वपूर्ण भागीदारी को रेखांकित करता यह लेख अपूर्ण ही कहा जायेगा, यदि इसमें  उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का उल्लेख न किया जाए। उत्तर प्रदेश विधानसभा में अखिलेश यादव ने जो बजट भाषण दिया, निश्चित रूप से अखिलेश भी ‘‘तेजस्वी’’ की श्रेणी में रखे जा सकते हैं। दोनों ‘‘एक तवे की रोटी, क्या पतली क्या मोटी’’। वे पहली बार वर्ष 2012 में विधानसभा का चुनाव लड़े व मात्र 38 वर्ष की उम्र में उत्तर प्रदेश जैसे सबसे बड़े प्रदेश के मुख्यमंत्री बन गए थे। अखिलेश के भाषण में युवा उत्साह के साथ राजनीतिक अनुभव की परिपक्वता भी पूरी तरह से परिलक्षित हो रही थी। इन तीनों युवा नेताओं के मर्यादित विधायकि उद्बोधन और देश की राजनीतिक क्षितिज पर तेजी से उभरते व्यक्तित्व के कारण भविष्य में और भविष्य के गर्भ में छुपी अन्य संभावनाओं के मद्दे नजर अब शायद किसी नागरिक को यह कहने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी कि इंदिरा के बाद कौन? मोदी के बाद कौन? सर्व-धर्म, सम-भाव, सर्वसमाज की भावना लेकर बढ़े तेजस्वी जैसे लोग आगे बढ़कर देश के नेतृत्व करे, इन्ही शुभकामनाओं के साथ।

इंडिया ‘‘गठबंधन‘‘ का पहला ‘‘शक्ति परिक्षण‘‘ चंडीगढ़ मेयर चुनाव!

 क्या उच्चतम न्यायालय भी ‘‘एक्शन’’ (कार्रवाई) कम ‘‘परसेप्शन’’ बनाने में ज्यादा लग गया है?

‘‘खूबसूरत शहर पर लोकतंत्र कमजोर करने का बदनुमा दाग’’!

वर्तमान राजनीति निसंदेह ‘‘क्रिया’’ (कार्रवाई एक्शन) की बजाए ‘‘धारणा‘‘ (परसेप्शन) और ‘‘नरेटिव‘‘ से परिपूर्ण है। और इस मामले में तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का कोई मुकाबला ही नहीं है। इसी ‘‘परसेप्श्न व नरेटिव’’ के सहारे प्रधानमंत्री ‘‘अबकी बार 400 के पार’’ का आत्मविश्वास से भरा कथन संसद में कर रहे थे। वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए इस दावे से एकदम से इंकार भी तो नहीं किया जा सकता है? ‘‘कर्ता से करतार हारे’’।

कहते है न, जिस वातावरण में हम रहते हंै, प्रभाव उसका अवश्य पड़ता है। ऐसा ही कुछ राजनीति की ‘‘क्रिया व बनी धारणा’’ का प्रभाव न्यायपालिका पर भी पड़ता हुआ दिख रहा है। पिछले कुछ समय से उच्चतम न्यायालय में जिस तरह की न्यायालीन कार्रवाई हुई है, जो कुछ तीक्ष्ण टिप्पणियां न्यायालय द्वारा कुछ एक मामलों में की गई, परन्तु बाद में उन्हीं मामलों में जो फैसले आये उनका उन कहीं गई टिप्पणियों से वैसा सरोकार न होने/रखने के कारण, न्यायालय में भी ‘‘धारणा‘‘ की (परसेप्शन) स्थिति बनती हुई प्रतीत होती दिखती है।

चंडीगढ़ जिसका नाम देवी दुर्गा के एक रूप ‘‘चण्डी’’ के कारण पड़ा, वर्ष 1952 में बना देश का एक बहुत ही सुंदर शहर है। इसके वास्तुकार विश्व प्रसिद्ध फ्रांसीसी ली कार्बजियर थे। इसीलिए इसे ‘‘सिटी ब्यूटीफुल’’ भी कहा जाता है। इस शहर की सुंदरता को मैंने भी देखा है। विश्व में यह शायद एकमात्र ऐसा शहर है, जिसे तीन राजधानी (ट्रिपल क्राउन) होने का गौरव प्राप्त है। प्रथम एक व दो पंजाब तथा हरियाणा राज्य की राजधानी व तीसरा है, ‘‘केन्द्र शासित प्रदेश’’ (संघ राज्य क्षेत्र) है। इसका एक प्रशासक होता है, जो सीधे केन्द्रीय गृह मंत्रालय के अधीन कार्य करता है। चंडीगढ़ महापौर का कार्यकाल उत्तर भारत पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और हिमाचल प्रदेश की तुलना में मात्र 1 वर्ष का होता हैं। 

अभी चंडीगढ़ मेयर का जो चुनाव हुआ है, जिसका कार्यकाल 16 जनवरी को समाप्त हो चुका है, ‘‘उस चंडीगढ़’’ का था, जिसकी कमान केन्द्रीय गृह मंत्रालय के अधीन है। अर्थात् केन्द्रीय प्रतिनिधी होने कारण सीधे रूप से राज्यपाल के पास है। मतलब चंडीगढ़ प्रशासन की कोई भी गलती अथवा उपलब्धि के लिए केन्द्रीय गृह मंत्रालय व राज्यपाल ही उत्तरदायी अथवा अधिकरी माने जायेगें। ‘‘कमर का मोल होता है तलवार का नहीं’’। महामहिम राज्यपाल बनवारीलाल जो मध्य भारत के अग्रणी अंग्रेजी दैनिक समाचार पत्र ‘‘द हितवाद’’ के मालिक रहें हैं, के इस्तीफा को चंडीगढ़ चुनाव परिणाम, के उक्त परिदृश्य के परिपेक्ष में भी देखा जा सकता है। ‘‘कहु रहीम कैसे निभे बेर केर को संग’’।

लोकतंत्र को तार-तार कर देने वाली चंडीगढ़ मेयर के चुनावी प्रक्रिया का मामला पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय से आवश्यक सहायता न मिलने पर उच्चतम न्यायालय पहुंचा। सुनवाई के दौरान प्रथमदृष्ट्यिा ‘‘वीडियो’’ क्लिक देखने के बाद माननीय मुख्य न्यायाधीश की यह बेहद तल्ख टिप्पणीयाॅ थी कि ‘‘यह जनतंत्र की हत्या है’’। ‘‘लोकतंत्र मजाक है’’। ‘‘पूरे मामले से हम हैरान है। ‘‘चुनाव अधिकारी क्या कर रहे है? ‘‘चुनाव अधिकारी पर मुकदमा चलाया जाना चाहिए’’। उक्त टिप्पणियों ने तो देश के लोकतंत्र की जड़ों को ही हिला दिया। एक बार तो ऐसा लगा कि ‘‘देश में लोकतंत्र तख़्त पर नहीं तख़्ते पर है’’। उच्च न्यायालय की इस बात के लिए भी आलोचना की गई कि ऐसे मामले में ‘‘अंतरिम आदेश’’ क्यों नहीं दिया गया? उक्त तल्ख टिप्पणी के बावजूद आश्चर्य की बात यह रही कि स्वयं उच्चतम न्यायालय ने याचिकाकर्ता कुलदीप कुमार टीटा जिसे मेयर चुनाव में तथाकथित गड़बड़ी कर हराया गया था, के पक्ष में कोई अंतरिम आदेश नहीं दिया गया। न तो प्रथम दृष्ट्या दिखते ‘‘शून्य’’ चुनाव परिणाम पर रोक लगाई, जिससे की अवैध रूप से निर्वाचित अध्यक्ष को कार्य करने से रोका जा सकता था और न ही लोकतंत्र का गला घोटने वाले अधिकारी के विरूद्ध प्राथमिकी दर्ज करने के अथवा तत्काल जांच के आदेश दिये। मतदान को एक साजिश के तहत विकृत किया गया हैं, यह अभी अनुत्तरित हैै।

हाईकोर्ट ने जहां तीन हफ्ते बाद सुनवाई के लिए प्रकरण रखा, वहीं उच्चतम न्यायालय ने दो हफ्ते बाद 19 फरवरी सुनवाई निश्चित की। तत्काल कोई राहत उच्चतम न्यायालय से याचिकाकर्ता को नहीं मिली, सिवाए चुनाव प्रक्रिया के पूरे रिकॉर्ड को संरक्षित करने के साथ निर्वाचन अधिकारी को व्यक्तिगत उपस्थिति के निर्देश दिये गये। इससे इस बात को पूरा बल मिलता है कि, उच्चतम न्यायालय ने यह (परसेप्शन) तो पूरा बनाया कि वह लोकतंत्र का प्रहरी है और संविधान में प्रद्रत्त, वर्णित निष्पक्ष व न्यायप्रिय चुनाव आयोग के अपने कर्तव्य के पालन में असफल होने पर वह सबसे बड़ा अभिरक्षक (कस्टोडियन) है। परन्तु क्या वास्तव में ऐसा ‘‘परिणाम’’ फलितार्थ हुआ? ऐसे कुछ अन्य ऐसे मामले को आगे उद्धरित किया गया है।

महाराष्ट्र के मामलों को देख लीजिए! जहां उच्चतम न्यायालय ने शिवसेना की टूट पर विधानसभा अध्यक्ष एवं चुनाव आयोग द्वारा की गई कार्रवाई पर यह कहा था, उद्धव ठाकरे इस्तीफा न देकर यदि विश्वास मत हासिल करते हुए हार जाते, तब उच्चतम न्यायालय उनको मुख्यमंत्री पद पर पुनर्स्थापित कर सकता था। यह न्यायालय का न्याय के प्रति क्या मात्र परसेप्शन था? क्योकि अंत में जो निर्णय आया वास्तव में उसमें क्या हुआ? ‘‘काजी के प्यादे घोड़ों पर सवार हो गये’’। स्पीकर के निर्णय ने यह स्थिति ला दी कि समस्त विधायक शिंदे ग्रुप के ही हो गये और अब विधानसभा में शिंदे ग्रुप के व्हिप का विरोध करना सदस्यता खोने के खतरे से खाली नहीं होगा। इसी प्रकार इलेक्ट्रोल बाॅड के विषय में उच्चतम न्यायालय का निर्णय महीनों से आदेशार्थ बंद है। आगामी होने वाले लोकसभा चुनाव की प्रक्रिया प्रारंभ होने अथवा चुनाव होने के बाद निर्णय आयेगा, तब क्या याचिका का उद्देश्य ही व्यर्थ नहीं हो जाएगा?

उच्चतम न्यायालय की चंडीगढ़ महापौर के मामले में दो प्रमुख गलती स्पष्ट रूप से प्रतीत होती दिखती है। प्रथम वीडियो के आधार पर उपरोक्त रिमार्क किये गये, जिस वीडियो की पुष्टि कोई ‘‘फोंरेसिक जांच’’ किये बिना उस पर विश्वास कर तथा उसका साक्ष्यात्मक मूल्य कितना होगा, उस पर विचार किये बिना ‘मत’ बना लेना, कितना न्यायोचित है? दूसरा उच्चतम न्यायालय ने तल्ख व तीखे तेवर दिखाकर वही स्टैंड लिया जो उच्च न्यायालय ने शांतिपूर्वक रहकर यह कहकर लिखा कि यह जांच का विषय है, इसलिए दूसरे पक्ष का जवाब आने पर ही इस पर कोई आदेश पारित किया जा सकता है। इससे उच्च न्यायालय की तुलनात्मक रूप से गरिमा ज्यादा दिखती प्रतीत है, भले ही कानूनी रूप से उनका स्टैंड सही नहीं कहा जा सकता है। परन्तु उन्हे भी ‘‘सही’’ करने का काम तो उच्चतम न्यायालय ने नहीं किया। ऐसा लगता है, उच्चतम न्यायालय के मन-मस्तिष्क में वह ‘‘सर्वोच्च’’ के साथ श्रेष्ठतम है, ‘‘भाव’’ के साथ परिस्थितियों, तथ्यों पर कई बार गहराई पर जाये बिना ऐसी त्वरित टिप्पणियां व आदेश पारित कर दी जाती है, जो सामान्यतः कानूनविदों के गले उतरती नहीं है।  

शुरू से ही देखे, मेयर के चुनाव में प्रशासन ने रुकावटें डाली व गंभीर अनैतिकता का प्रदर्शन किया। सामान्यतः 1 जनवरी को मेयर पद ग्रहण कर लेता है। यहां पर संख्या की दृष्टि से भाजपा व अकाली दल के 16 पार्षद (14+1+1) सांसद प्रतिनिधि सहित थे। जबकि आप व कांग्रेस पार्टी में गठबंधन हो जाने के कारण कुल 20 पार्षद हो गये थे। पहली बार जब 10 जनवरी को मेयर चुनाव की तारीख 18 जनवरी घोषित हुई थी, तब तक आप व कांग्रेस का गठबंधन नहीं हुआ था। बल्कि कांग्रेस के उम्मीदवार ने भी पर्चा भरा था। बाद में जब कांग्रेस उम्मीदवार को फार्म वापिस लेने के लिए वह कार्यालय न पहुंच सके उसके लिए घर में ही उसे नजरबंद कर दिया गया था। उच्च न्यायालय के समक्ष बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर होने पर उनकी मुक्ति हुई। परन्तु 18 जनवरी की चुनावी तिथि के पूर्व ही 16 तारीख को  गठबंधन हो गया। पीठासीन अधिकारी (चुनाव अधिकारी) चुनावी तिथि के दिन तथाकथित रूप से बीमार हो गये। तद्नुसार सहायक आयुक्त (डीसी) ने चुनाव की नई तारीख 06 फरवरी निश्चित की। ‘‘कमली ओढ़ लेने से कोई फ़कीर नहीं बन जाता’’, चुनाव अधिकारी भी उस व्यक्ति मनोनीत पार्षद अनिल मसीह को बनाया गया जो भाजपा के अल्पसंख्यक मोर्चा का पदाधिकारी रहा है, यह भी बेहद हैरत की बात हैं। 06 फरवरी को निश्चित की गई चुनावी तारीख को गठबंधन के उम्मीदवार कुलदीप कुमार टीटा ने हाईकोर्टं में चुनौती दी। तब पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने 23 तारीख को अंतरिम आदेश पारित करते हुए 30 जनवरी को चुनाव कराने के आदेश इस निर्देश के साथ दिये कि ‘‘पूरी चुनावी प्रक्रिया की वीडियोग्राफी की जावे। तदनुसार हुए चुनाव में चुनाव अधिकारी द्वारा 8 वोट अवैध घोषित किये गये, जिसके लिए जरूरी कानूनी प्रक्रिया नहीं अपनाई गई। विपरित इसके उन वैध मतों को तथाकथित रूप से अवैध करने की प्रक्रिया करते स्वयं चुनाव अधिकारी ‘‘कैमरे‘‘ में पकड़े गये, जो वीडियो उच्चतम न्यायालय में प्रस्तुत की गई। चुनाव परिणाम घोषित करते ही पीठासीन अधिकारी द्वारा तथाकथित जीते गए उम्मीदवार मनोज कुमार सोनकर को तुरंत बुलाकर महामहिम की कुर्सी पर बैठा दिया। 

एक तरफ देश में ‘‘ईवीएम’’ के बदले ‘‘बैलेट पेपर’’ पर चुनाव होने की मांग लगातार उठ रही है। इस पर प्रबुद्ध वर्ग का असंतोष व जन आंदोलन बढ़ते जा रहा है। इन जन आंदोलनकारियों को यह सोचना होगा कि इस तरह दिनदहाड़े बैलेट पेपर पर किस बेशर्मी के साथ डाका डाला जा सकता है, जिससे बैलेट से चुनाव कराना कितना खतरनाक है, और हो सकता है? कभी बैलेट चुनाव के समय इतनी भयावह स्थिति होती थी कि मत पेटियां ही गायब कर दी जाती थी। इसीलिए तो ईवीएम को लाया गया था। हां उसमें कमियां जरूर व अनेक है, उनमें सुधारों का सुझाव जरूर कुछ लोगो ने दिया है। महत्वपूर्ण सुझाव ‘‘वीवीपैड’’ की गिनती की जाने की हैं। तब न तो बैलेट पेपर में गड़बड़ी होने की संभावनाएं रहेगी और साथ ही ईवीएम में ‘चिप’ के द्वारा गड़बड़ी की जाने की तथाकथित आशंका को वीवीपैड की गिनती करके दूर किया जा सकेगा। मेयर चुनाव परिणाम आने के तत्काल बाद भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे पी नड्डा द्वारा ट्वीट पर बधाई देते हुए उन्होंने कहा मेयर चुनाव जीतने के लिए भाजपा चंडीगढ़ इकाई को बधाई। भाजपा के ट्विटर हैंडल पर कहा गया ‘‘यह तो अभी झांकी है’’। क्या ये प्रतिक्रियाएँ जल्दबाजी में हुई गलती तो नहीं है?

सोमवार, 5 फ़रवरी 2024

कर्पूरी ठाकुर की सादगी का एक आंखों देखा हाल।

 //संस्मरण//   ‘‘तांगे में बैठकर बस स्टैंड गये’’

बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री स्वर्गीय कर्पूरी को भारत रत्न दिए जाने पर लिखे मेरे लेख पर भोपाल निवासी श्री नरेंद्र भानू खंडेलवाल ने मुझे फोन पर कर्पूरी ठाकुर की सादगी, जो उन्होंने देखी व जिसके प्रत्यक्षदर्शी मेरे पिताजी स्वर्गीय श्री जी डी खंडेलवाल रहे, का रूबरू वर्णन में आगे कर रहा हूं, जैसा की श्री नरेंद्र भानू खंडेलवाल ने मुझे फोन पर बतलाया।

मेरे पिताजी स्वर्गीय श्री गोवर्धन दास जी खंडेलवाल वर्ष 1967 में बनी संविद सरकार जिनकी जनक व नेत्री स्वर्गीय राजमाता विजयाराजे सिंधिया थीं, के मुख्यमंत्री ठा. गोविंद नारायण सिंह के मंत्रिमंडल में पहले समाज कल्याण विभाग के राज्य मंत्री और बाद में आदिम जाति कल्याण एवं बिजली विभाग के कैबिनेट मंत्री जनसंघ कोटे से रहे। हम लोग उस समय प्रोफेसर कॉलोनी में चार बंगले के बंगला नंबर तीन में रहते थे, जहां बाद में कभी सुश्री उमा भारती भी रहीं।

बात उस समय की है, जब डॉ राम मनोहर लोहिया के ‘‘गैर कांग्रेस वाद’’ के नारे व नीति के चलते वर्ष 1967 में देश में संविद सरकारें बनने का दौर चला था। मध्य प्रदेश में ही नहीं, बल्कि उत्तर प्रदेश, बिहार, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल आदि प्रदेशों में भी संयुक्त विधायक दल की (संविद) सरकारें गैर कांग्रेस वाद के आधार पर बनी थी। संपूर्ण देश में गैर कांग्रेसी वाद को मजबूत करने के लिए समस्त विपक्षी दलों को एक साथ खड़े रखने की नीति को मजबूत करने के तहत शायद पार्टी निर्देशों के तारम्तय में मेरे पिताजी जी डी खंडेलवाल जी ने उस समय की समस्त संविद सरकारों के मुख्यमंत्री और उप मुख्यमंत्री को विचार विमर्श करने के लिए एक बैठक अपने निवास, चार बंगले में बुलाई थी। तब कर्पूरी ठाकुर, जो उस समय बिहार के उपमुख्यमंत्री थे, भोपाल हमारे निवास पर आए थे। उस समय पंडित दीनदयाल उपाध्याय, राजमाता विजयाराजे सिंधिया व उपमुख्यमंत्री वीरेंद्र कुमार सकलेचा भी बैठक में उपस्थित थे। पंडित दीनदयाल जी की सादगी का आलम यह था कि एक पत्रकार ने जब यह पूछा कि दीनदयाल जी भी आए हैं? तब उनको यह बतलाया गया कि आपके सामने जो अभी चप्पल पहने जा रहे हैं, यही दीनदयाल जी हैं।

मीटिंग समाप्ति के बाद कर्पूरी ठाकुर जी को इंदौर एक निजी कार्यक्रम में जाना था। वे बस से इंदौर जा रहे थे। नरेंद्र भानू खंडेलवाल, जो उस समय हमारे पारिवारिक सदस्य थे और मैं और मेरा छोटा भाई उनके द्वारा चलाई जारी शिक्षा क्लासेस में पढ़ने भी जाते थे, घर पर उपस्थित थे। कर्पूरी ठाकुर जी को बस स्टैंड छोड़ने के लिए कार में बैठने के लिए नरेंद्र जी ने कहा तो उन्होंने कहा मैं सरकारी गाड़ी का उपयोग नहीं करूंगा, क्योंकि मैं निजी यात्रा पर जा रहा हूं। तब नरेंद्र जी स्वयं ‘‘तांगे’’ पर उनको लेकर बस स्टैंड छोड़ने गए और 5 रू 50 पैसे की इंदौर की बस का टिकट कटवाया। वह पैसे भी कर्पूरी ठाकुर ने ही दिए, यह कहकर कि जब मैं कार से बस स्टैंड नहीं आया हूं, निजी यात्रा पर जा रहा हूं, आपसे पैसे कैसे ले सकता हूं? सादगी के इस रूप की कल्पना आज तो संभव ही नहीं है, ओढ़ना तो दूर की बात है। इसी सादगी में मैं अपने स्वर्गीय पिताजी की सादगी को भी जोड़ना चाहता हूं। संविद सरकार में शामिल जनसंघ घटक के समस्त मंत्रियों को जब ‘‘कच्छ आंदोलन’’ में भाग लेने के लिए मंत्री पद से इस्तीफा देने के लिए कहा गया। तब मेरे पिताजी इस्तीफा पत्र लेकर घर से गवर्नर हाउस सरकारी गाड़ी से नहीं गए, बल्कि स्कूटर से गए और उस समय स्कूटर पर जाते हुए उनकी फोटो समाचार पत्रों में छपी थी। तब कोई सोशल मीडिया नहीं था। हम दोनों भाई भी स्कूल पॉलिटेक्निक बस स्टॉप से बस पकड़ कर जवाहर चैक माडल स्कूल जाते थे, जबकि अन्य मंत्रियों के बच्चों को स्कूल छोड़ने सरकारी गाड़ियां जाती थी।

कर्पूरी ठाकुर की ऐसी सादगी को नमन। मैं नरेंद्र जी का हृदय की गहराई से धन्यवाद करना चाहता हूं कि मुझे उन्होंने उक्त तथ्यों से अवगत कराया, जिसकी जानकारी मुझे अभी तक नहीं थी। 

सादगी का उक्त वर्णन जैसा कि नरेंद्र भानू खंडेलवाल जी ने बतलाया।

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