सोमवार, 23 जनवरी 2023

कुश्ती का अखाड़ा। यौन शोषण का आरोप! एक टूल (हथियार) के रूप में (दुरु)/उपयोग?

देश में आज कल अखाड़ों में कूदने का ही मौसम ही आ गया है। एक मीडिया चैनल के डिबेट का नाम तो अखाड़ा ही है। हो भी क्यों न? अखाड़ा वह मैदान है, जहां दो पक्ष (पहलवान) अपने दांव-पेंच लगाकर अपनी कला का प्रदर्शन कर सामने वाले विपक्षी को चित करने का प्रयास करते हैं, जिसे कुश्ती कहा जाता है। राजनीति कुश्ती के अखाड़े में राजनैतिक दल और नेताओं के बीच परस्पर कुश्ती आम बात है (कभी-कभी नूरा कुश्ती के आरोप भी लगाये जाते हैं) राजनीति की हो गई वर्तमान स्थिति के कारण ‘‘कुश्ती का दंगल’’ निश्चित समय 5 साल में न होकर लगभग लगातार चलने वाली कुश्ती हो गई है। परन्तु जिस कुश्ती खेल से प्रेरणा पाकर अखाड़े के मैदान में अन्य लोग कूदते हैं, उनको देखकर मूल अखाड़ा अर्थात कुश्ती के अखाड़े के खिलाड़ी लोग कैसे अपने को अलग कर पाते? ‘‘भला खलक का हलक किसने बंद किया है’’। कुश्ती के अखाड़े में अभी तक तो जो खिलाड़ी टीम उतरती थी, उन्हें प्रोत्साहित (बकअप) करने के लिए उनके संघ के पदाधिकारी मैदान पर हमेशा तैयार खड़े रहते थे। परंतु अभी इस समय देश में कुश्ती के अखाड़े में बकअप करने वाला संघ ही एक पक्ष बन गया है। एक तरफ खिलाड़ियों की टीम है, तो दूसरी तरफ उनके मैदान में उतारने वाली भारतीय कुश्ती महासंघ स्वयं की है। मैच की रेफरी सरकार है, तथा साथ में ‘‘खूंटे के बल पर कूदने वाला बछड़ा’’ वह मीडिया भी है, जो आपको मालूम ही है, निष्पक्ष रहने की स्थिति में रह ही नहीं गया है। क्योंकि प्रायः उन सबके मालिक किसी न किसी राजनीतिक विचार धारा से जुड़कर अपने एजेंडा (उद्देश्यों) की पूर्ति के लिए मीडिया को लगभग कब्जा में रखे हुए हैं।

इस अखाड़े में पहली बार संघ के मातहत खिलाड़ी अपने मालिक संघ (जिनके हाथों में समस्त खिलाड़ियों की नकेल है), के ऊपर ‘‘सौ सुनार की और एक लोहार की’’ तर्ज पर हावी होते हुए दिख रहे हैं। खिलाड़ियों ने संघ से निपटने के लिए ‘‘ईंट से ईंट बजा देने’’ वाले भाव से जो आरोपों की बौछार की है, उसमें संघ की विभिन्न अनियमितताओं के आरोप के साथ सबसे महत्वपूर्ण आरोप कुश्ती संघ के अध्यक्ष बृजभूषण सिंह जो कि एक सांसद (छःबार के) भी हैं, पर यौन शोषण का लगाया गया है। 

वैसे किसी भी मामले में जब यौन शोषण का आरोप होता है, तब मामला बहुत गंभीर हो जाता है और उस पर तुरंत एफ आई आर दर्ज होकर जांच हो कर कार्रवाई प्रारंभ हो जाती है। यहां पर जिस तरह से आरोप और उनका निपटारा खिलाड़ियों और सरकार के खेल मंत्री ने किया है, उससे स्पष्ट है की यौन शोषण का आरोप एक टूल के रूप में उपयोग किया जा रहा है। क्योंकि खिलाड़ियों ने धरने पर बैठने के बाद यह मांग की थी कि यदि भारतीय कुश्ती महासंघ को भंग नहीं किया जाएगा तो धरने से जुड़ने वाले सभी युवाओं का करियर खत्म हो जाएगा? (एफआईआर की मांग नहीं की?) कार्रवाई न होने पर 4-5 महिला पहलवान एफआईआर दर्ज करायेगें। (इस सशर्त कथन का अर्थ आप बेहतर निकाल सकते है)‘‘ओछे की प्रीत और बालू की भीत’’ का इससे बेहतर उदाहरण क्या हो सकता है?

यौन शोषण का मामला भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत आता है न की किसी जांच समिति के अधिकार क्षेत्र में। यह हस्तक्षेप योग्य संज्ञेय (कॉग्निजेबल) अपराध है, जिस पर पुलिस को ही कार्रवाई करनी होती है। मेडिकल जांच होती है और तदनुसार अनुसार कार्रवाई आगे बढ़ती है। लेकिन यहां पर तो सरकार के प्रस्ताव पर आरोप लगाने वाली महिला खिलाड़ी भी इस बात पर सहमत हो गई कि एक कमेटी इस शर्त के साथ बना दी जाए कि जांच पूरी होने तक महासंघ के अध्यक्ष, अध्यक्ष के रूप में कार्य नहीं कर सकेंगे। जांच कमेटी 4 हफ्तों में अपनी रिपोर्ट दें। जब यौन शोषण के मामले में इस तरह की जांच की प्रक्रिया और सहमति शायद ही कभी देखी हो? इसलिए फिर से मै इस बात को दोहरा रहा हूं कि इस आरोपी को एक टूल के रूप में उपयोग किया जा कर खेल संघ और उनके अध्यक्ष पर दबाव बनाया जा रहा है। मेरा कहने का मतलब कदापि यह नहीं है कि अध्यक्ष बिल्कुल दूध के धुले हैं? या आरोपों में कुछ भी सच्चाई नहीं है? परंतु जिस तरीके से मामले को सुलझाया (टैकल किया) जा रहा है, इससे निश्चित रूप से यह ध्वनि निकलती है कि पहलवान एकजुट होकर लामबंद होकर कुश्ती संघ के खिलाफ निर्णायक लड़ाई लड़ने जा रहे हैं और जिसमें उनको सफलता मिलती दिख भी रही है।

भारतीय कुश्ती महासंघ ने भी खिलाड़ियों के आरोपों का खंडन किया है। यौन शोषण के आरोपों को नकारा है। कुछ नये बनाये गये नियमों का विरोध का यह तरीका अपनाया जा रहा है। साफ कहा है कि इसके पीछे निजी एजेंडा है। प्रदर्शन के पीछे की छिपी हुई मंशा फेडरेशन पर दबाव बनाकर अध्यक्ष को हटाना है। यहां भी आश्चर्य की एक यह बात है कि सीधे किसी भी महिला पहलवान ने सीधे किसी व्यक्ति के विरुद्ध यौन शोषण का विशिष्ट आरोप न तो लगाया है और न ही इस संबंध में कोई प्रथम सूचना पत्र थाने में दर्ज कराई है। (अभी तक की जानकारी के अनुसार)। उनके प्रतिनिधित्व के रूप में स्वयं महिला पहलवान विनेश फोगाट ने जनरल रूप से महिला पहलवानों के यौन शोषण की बात इस स्पष्टीकरण के साथ कही है कि उन्होंने इस तरह के शोषण का सामना नहीं किया है। भाई वाह! ‘‘गवाह चुस्त, मुद्दई सुस्त’’! इससे कुश्ती संघ के आरोपों को बल मिलता है।

सबूत के साथ प्रदर्शन में बैठने के बावजूद अभी तक एफआईआर न लिखाने का कोई तार्किक कारण समझ में नहीं आता है। पिछले काफी समय से यौन शोषण चल रहा था, ऐसा आरोप लगाया गया। शायद ड़र के कारण तत्समय यदि तब एफआईआर नहीं लिखाई गई तो आज ड़र खतम होकर मीडिया के सामने बात की जा रही। तब भी एफआईआर दर्ज न कराना कहीं न कहीं इस बात को ही इंगित करता है कि इस पूरे प्रकरण का एक मात्र उद्देश्य ही भारतीय कुश्ती महासंघ की कुर्सी बदलवाना मात्र है।

क्या यह आश्चर्य की बात नहीं है कि राष्ट्रीय महिला आयोग या राज्य महिला आयोग ने अभी तक यौन शोषण के आरोप के संबंध में कोई कदम नहीं उठाया है? महिला आयोग या मीडिया ने भी अभी तक यौन अपराध के संबंध में कोई प्रथम सूचना पत्र दर्ज न होने के बाबत पुलिस या खेल मंत्रालय की खिंचाई क्यों नहीं की है? यह भी समझ से परे है। खेल मंत्री द्वारा यौन शोषण के आरोपों सहित समस्त आरोपी को पुलिस अधिकार रहित समिति के सुपुर्द कर देना भारतीय दंड संहिता/दंड प्रक्रिया संहिता को साफ-साफ नजर अंदाज करना है, उसका उल्लंघन है।

मंगलवार, 17 जनवरी 2023

इन्वेस्टर्स इन्वेस्टमेंट समिट की चकाचौंध की चमक।

क्या खोया-क्या पाया?

इंदौर (मध्य-प्रदेश) में 7वीं आयोजित ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट की ऐतिहासिक सफलता में प्रधानमंत्री द्वारा उद्घाटन एवं दो राष्ट्राध्यक्ष गुयाना के राष्ट्रपति मोहम्मद इरफान अली और सूरीनाम के राष्ट्रपति चंद्रिका प्रसाद संतोखी भी खासतौर पर शामिल होने का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। 65 से अधिक देशों के प्रतिनिधिमंडल शामिल हुए। साथ ही 20 से अधिक देशों के राजदूत, उच्चायुक्त, वाणिज्य दूतावास के अफसर और राजनयिक शामिल हुये। उक्त समिट के आयोजन की ब्रांडिंग कुछ इस तरह से उच्चस्तरीय हुई कि आयोजक, भागीदार, मीडिया और आम जनता सबकी नजर में उक्त समिट बेहद सफल हुई और संबंधित समस्त लोग गदगद हो गये। ऐसी स्थिति में मेरा प्रश्न क्या खोया-क्या पाया? प्रथम दृष्टया में असहज होकर मुझे प्रतिगामी ठहराया जा सकता है? परंतु न तो मैं ऐसी समिट के मूलतः विरूद्ध हूं और न ही मैं इसकी सफलता (जिसका आकलन भविष्य में ही हो पाए) पर कोई प्रश्नवाचक चिन्ह नहीं लगा रहा हूं। परन्तु बावजूद इसके पिछली हुई 6 समिट का जब अवलोकन करता हूं, तब निश्चित रूप से उक्त प्रश्न पैदा होता है। उक्त निष्कर्ष जानकारी आगे आपसे साझा कर रहा हूं। 
सर्वप्रथम इन 6 समिटों के हुए आंकड़ों पर गौर करे, कुल संख्या 6431 एमओयू अनुबंध हुये, जिसमें 17.03 लाख करोड़ रुपए राशि निवेश की घोषणाएं हुई थी। कमल नाथ सरकार के समय हुई समिट जिसे मैग्नीफिसेंट एमपी कहा गया था, घोषित 74000 करोड़ के निवेश की राशि इसमें शामिल नहीं है। क्या सरकार ने इस समिट के पूर्व इसमे आने वाले भागीदारों, प्रधानमंत्री और आम जनता को इस बात की जानकारी दी कि उक्त समिटों की घोषणाओं के वास्तविक परिणाम धरातल पर कितने प्रतिशत फलीभूत हुये? कितने एमओयू धरातल पर बिल्कुल नहीं उतर पाए? समय सीमा में कितने एमओयू लागू हुए? समय सीमा के बाहर औसत देरी प्रोजेक्ट को लागू करने में कितनी हुई? कितने घोषणावीर उद्योगपतियों को इस समिट में नहीं बुलाया गया? कुल घोषित निवेश की राशि 17.03 लाख करोड़ रुपए में से मात्र 152113 करोड़ रुपए खर्च हुई। इससे सीधे जुडा हुआ सवाल (नेक्सस) रोजगार का है। इन समिटों में कुल 237730 लोगों को रोजगार मिला। इन सब महत्वपूर्ण प्रश्नों का उत्तर यदि जनता को पारदर्शी तरीके से दे दिया जाता, तो इस समिट के आयोजन पर और चार चांद लग जाते। लेकिन वह हो नहीं पाया। शायद इसलिए कि पिछले आयोजनों से ऐसी कोई उल्लेखनीय सफलता आशातीत उपलब्धि नहीं मिली, जिसका उल्लेख करने से इस आयोजन में चार चांद लग जाते। 
यदि हम पिछली शिवराज सिंह सरकार की समिट का ही उदाहरण ले तो 5.63 लाख करोड़ रुपए के निवेश की घोषणा हुई थी, जिसमें से मात्र 32597 करोड़ रुपए का ही निवेश हो पाया था जो 17 के आसपास है। जबकि कमल नाथ सरकार के समय हुए समिट में 74 हजार करोड़ रुपए का निवेश हुआ जो लगभग 12 प्रतिशत के आस-पास रहा। जहां तक बेरोजगारी की बात है, वित्तमंत्री द्वारा विधानसभा में प्रस्तुत वर्ष 2021-22 आर्थिक सर्वेक्षण रिपोर्ट के अनुसार ही जहां प्रदेश की जीडीपी बढ़ी है, प्रति व्यक्ति आय में बढोतरी हुई, वही बेरोजगारी के मोर्चों पर 5.51 लाख नये बेरोजगार मात्र 1 साल के अंदर बढ़ गये हैं। तब स्वभाविक प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि इतना निवेश होकर उद्योगों के खोलने से उक्त रोजगार मिलने? के बावजूद बेरोजगारों की संख्या क्यों बढ़ रही है? और यदि वास्तव में निवेश ने हमारे प्रदेश और अंततः देश का विकास किया है, तो फिर इसका एक ही मतलब निकलता है, इन निवेशों से विकास तो जरूर हुआ है, परन्तु वह उस वर्ग का है जो विकसित/विकासशील है, अविकसित (गरीब) नहीं। मतलब साफ है अमीर और गरीब के बीच बढ़ती खाई में विकास का भी योगदान है? ऐसे अनियोजित विकास पर गंभीरता से चिंतन करने की आवश्यकता है। विश्व असमानता रिपोर्ट 2022 के अनुसार भारत दुनिया के सबसे असमान देशों की सूची में शुमार है। आर्थिक असमानता बढ़ती हुई छुपी सामाजिक असंतोष को कहीं चिंगारी न दे दे, यह एक बड़ी चिंता का विषय हमारे सामने है। क्योंकि बढ़ती हुई असमानता का अंततः एक दुष्परिणाम गृह युद्ध के रूप में भी सामने आ सकता है, जैसा कि विश्व के कुछ देशों में हुआ है। 
नेशनल स्टेटिस्टिकल ऑफिस (एनसओं) के सर्वे के मुताबिक देश के टॉप 10 प्रतिशत शहरी परिवारों के पास औसतन 1.5 करोड़ रुपये की संपत्ति है, जबकि भारत के शहरों में निचले वर्ग के परिवारों के पास औसतन सिर्फ केवल 2,000 रुपये प्रति व्यक्ति की संपत्ति है। असमानता रिपोर्ट 2022 के अनुसार भारत के शीर्ष 10 फ़ीसदी अमीर लोगों की आय भारत की कुल आय का 57 फ़ीसदी है, 10 सबसे अमीर घराने देश की 65 प्रतिशत संपत्ति पर काबिज हैं। 1 फ़ीसदी अमीर घराने देश की कुल कमाई में 22 फीसदी हिस्सा रखते हैं व देश की कुल संपत्ति में से 33 प्रतिशत संपत्ति इन 1 अमीरों के पास है। जबकि विपरीत इसके निम्न और मध्यम वर्ग 50 फीसदी लोगों जिनकी सम्पत्ति में कुल हिस्सेदारी 3 फ़ीसदी है, की कुल आय का योगदान घटकर मात्र 13 रह गया है। आॅक्स फैम इंडिया दुनिया के 20 देशों में आपदा राहत व गरीबी उन्मूलन का काम कर रहा है। आॅक्स फैम इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में सबसे ज्यादा गरीब भारत में बसते है, जिनकी संख्या करीब 22 करोड़ 89 लाख है। इससे स्पष्ट है कि हमारी योजनाओं को वह सही दिशा का सही तड़का नहीं लग पाया है, जिसकी आवश्यक हमारी भौगोलिक, सामाजिक और प्रचुर मात्रा में उपलब्ध कच्चे माल को देखते हुये हैं। तभी तो गरीबी रेखा से नीचे व्यक्तियों का विकास उसके उपर वाली सीढियों से कहीं न कहीं ज्यादा दोगुना तक ही सही, विकास कर पायेगें। 
मेरी नजर में हुई इन समस्त समिटों का एक ऑडिट किया जाना नितांत आवश्यक है। ऑडिट का मलतब सिर्फ टैक्स ऑडिट या सामाजिक संस्थाओं, सोसायटी का ऑडिट नहीं होता है। ऑडिट का मतलब होता है जिस प्रोजेक्ट या आयोजन को सरकार ने अपने हाथों में लिया है, वह अपने उद्देश्यों में जमीन पर वास्तविक रूप में कितना खरा उतरा, ताकि उस पर हुए खर्चा न्यायोचित ठहराया जा सके। यह बात जनता के सामने आंकड़ों के साथ प्रस्तुत की जाकर आईने के समान स्थिति साफ होनी चाहिए, वही सही ऑडिट कहलाता है। और तभी सही मायने में ही सरकार की साख जनता के बीच बनती है। इस ऑडिट का अधिकार जनता के पास भी है। मतलब जनता द्वारा चुने गए जनप्रतिनिधियों के पांच वर्ष के लेखा जोखा को परखने का अधिकार जनता के पास है, जो पुनः पांच साल के बाद मताधिकार के रूप में उपयोग होता है। परन्तु दुर्भाग्यवश इस देश की जनता के पास ऑडिट का अधिकार अर्थात मताधिकार होने के बावजूद वह अपने इस अधिकार को गुणदोष के आधार पर प्रयोग नहीं करती है। इसलिए 80 प्रतिशत चुने हुए व्यक्ति सही नहीं चुने जाते है जो अन्यथा नहीं चुने जाते? इसलिए क्या सच्चे अर्थो यह लोकतंत्र का उपहास नहीं है?  
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का इस आयोजन के संबंध में आया वक्तव्य पर ध्यान देने का कष्ट करें। मैं ‘‘सीएम नहीं’’ इस प्रदेश का ‘‘सीईओ भी हूं’’। मध्य प्रदेश के नक्शे में उद्योगपति जिस जगह उंगली रख देंगे, हम उद्योग के लिए वहां जमीन देने में 24 घण्टे का समय भी नहीं लगाएंगे। एकल खिडकी लागू है। बिजली भी अब पर्याप्त है। यहां स्किल्ड मैनपावर अच्छी है। ग्लोबल स्किल पावर पार्क हम भोपाल में बना रहे हैं। मुख्यमंत्री ने कहा कि गुड गवर्नेंस में मध्यप्रदेश का स्थान पहले नंबर पर है।
एक समय ऐसा भी था कि इन उद्योगों को प्रारंभ करने के लिए इस देश में 100 से अधिक कानूनों व नियमों का पालन करना पड़ता था। आज भी विद्यमान कानून में 108 अफसरो में से कोई भी एक उद्योग को बंद करा सकता है, ऐेसा मेरे वरिष्ठ पारिवारिक मित्र एनआरआई उद्योगपति का बहुत पहले कथन था। शायद समिट करने की आवश्यकता भी इसीलिए पड़ी कि सरकार इनवेस्टर्स को इस बात को समझाये कि हमारे प्रदेश में नौकरशाही की लालफीता शाही नहीं है। हम अतिथि देवों भव की परंपरा का निर्वाह उद्योग स्थापित करने के मामले में भी करते है। यदि शिवराज सिंह के उक्त दावे सही है, तब इस समिट की आवश्यकता ही क्यों हुई? यदि ‘तंत्र’ आपका सही है, उद्योग लगाने के लिए आवश्यक तंत्र चुस्त-दुरूस्त मजबूत व सक्रिय है, तब इस तरह के महंगे आतिथ्य के समिट की आवश्यकता क्यों पड़ रही है? क्या यह सब ब्रांडिंग के लिए तो नहीं किया जा रहा है? जैसा कि कुछ विपक्षी आरोप लगा रहे हैं। यह सरकार का दायित्व होता है व श्रेष्ठ सरकार भी वही कहलाती है, जहां सामान्य परिस्थितियों में सामान्य रूप से समस्त निर्माण गतिविधियां निर्बाध रूप से सम्पन्न हो सके। 
वृद्धाश्रम खोलना कोई अच्छी बात नहीं है। लेकिन वृद्धाश्रम खोलने की आवश्यकता इसलिए पड़ रही है कि हमारे समाज का परिवेश बदलता जा रहा है। संयुक्त हिन्दू परिवार की धारणा टूटते जा रही है। नई पीढ़ी अपने माता-पिता के प्रति अनुत्तरदायी होती जा रही है। इसलिए वृद्धाश्रम एक आवश्यक बुराई के रूप में आवश्यक हो गया है। यही सिद्धांत यहां भी लागू होता है। यदि समस्त सामाजिक तंत्र सुधर जाएंगे तो वृद्धाश्रम खत्म हो जाएंगे। ठीक इसी प्रकार यदि शासन-प्रशासन तंत्र-यंत्र सुधर जायेगा, तो समिटों की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी, यह मेरा अटूट विश्वास है। 

Popular Posts