बुधवार, 22 नवंबर 2023

"वर्ल्ड कप" की "चका-चौंध" में "कालाबाजारी" "ढंक" गई!

गुजरात के अहमदाबाद के ‘‘नरेन्द्र मोदी क्रिकेट स्टेडियम’’ में अंततः वर्ल्ड कप क्रिकेट का महाकुंभ का भव्य रंगारंग कार्यक्रम के साथ समापन हो गया। तथापि भारतीय टीम की पूरे वर्ल्ड कप में सकारात्मक लगातार विजय यात्रा के कारण उपजी उन्मादी उम्मीद के बावजूद परिणाम हमारे पक्ष में नहीं रहे। इससे प्रत्येक भारतीय को कहीं न कहीं कुछ चुभ रही गहरी निराशा, हताशा अवश्य हाथ लगी। बावजूद इसके 11 में से 10 मैच लगातार जीतकर भारतीय क्रिकेट ने विश्व क्रिकेट में अपना डंका निः संदेह स्थापित किया। खेल के विभिन्न क्षेत्रों में बल्लेबाजी एवं बाॅलिंग में भारत के खिलाड़ियों का जलवा होकर वे सर्वश्रेष्ठ रहे। विराट कोहली सबसे बेस्ट बैट्समैन, मोहम्मद शमी सबसे बेस्ट बॉलर और मैन ऑफ द टूर्नामेंट विराट कोहली रहे। इसलिए तो क्रिकेट को ‘‘अनिश्चितताओं का खेल’’ कहा जाता है। वर्ल्ड कप के फाइनल के परिणाम ने एक बार फिर पूरी तरह से इसी धारणा को पुनः सिद्ध किया है। इसलिए जनता का उन्माद कर देने वाला असीम उत्साह व भारत के प्रधानमंत्री की प्रेरक उपस्थिति के बावजूद जिस परिणाम की चाहत व आकलन विश्व क्रिकेट के विशेषज्ञ पंडित कर रहे थे, दुर्भाग्यवश उससे हम वंचित रह गए। वस्तुतः शायद वह दिन हमारा था ही नहीं, आस्ट्रेलिया का दिन था। ‘‘जिससे अलख राजी, उससे खलक राजी’’! परन्तु इसका विलोम भी उतना ही सही है। शायद इसी को ‘‘भाग्य’’ कहते हैं। इसलिए ‘खेल’ को खेल मैदान में खेल भावना से ही लिया जाना चाहिए। जिसका अभाव शायद इस फाइनल में देखने को मिला।

विश्व का सबसे धनी क्रिकेट संघ ‘‘भारतीय क्रिकेट बोर्ड’’ है, जिसकी सालाना आय लगभग 6558 करोड़ रू है। हारने के बावजूद भारतीय क्रिकेट टीम को 16.62 करोड़ रुपए की राशि मिली। क्रिकेट के ‘‘तीनों फॉर्मेट’’ में भारत की रैंकिंग टॉप में है। धन बल व खेल में अपनी श्रेष्ठता कई वर्षो से बनाये रखने के कारण भारतीय क्रिकेट संघ का विश्व क्रिकेट पर इतना दबाव रहा है कि अनेकों बार भारतीय क्रिकेटर्स अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट संघ व एशियन क्रिकेट संघ के अध्यक्ष व पदाधिकारी रहे हैं। यह भी कहा जाता है विश्व क्रिकेट में भारतीय क्रिकेट संघ की तूती बोलती है और वह विश्व क्रिकेट संघ पर अपनी शर्त लागू (डिकटेटर) करता रहता है। भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड का इतना बड़ा वैभव, ब्राडिंग व सक्षमता होने के बावजूद उनके द्वारा आयोजित क्रिकेट के विश्व के सबसे बड़े आयोजन वल्र्ड कप का सबसे बड़ा काला अध्याय जो रहा, वह न केवल मैच की टिकटों की अकल्पनीय कालाबाजारी रही, बल्कि खान-पान से लेकर होटल, टैक्सी व अन्य सुविधाओं के रेट भी सातवें आसमान को उसी तरह से छूने लगे, जिस तरह से हमारे ‘‘चंद्रयान ने चांद को छुआ’’। इस कमर तोड़ कालाबाजारी (महंगाई नहीं) के लिए न केवल भारतीय क्रिकेट संघ जिम्मेदार है, बल्कि गुजरात सरकार और अहमदाबाद नगर निगल भी पूर्णतः जिम्मेदार हैं। 

हम क्रिकेट के खेल में और उसकी चकाचौंध में हाथी के समान इतने मतवाले हो गये कि क्रिकेट की चमक-धमक में अंध होकर शासन-प्रशासन क्या होता है, उनका क्या उत्तरदायित्व है, शायद उसे हम भूल ही गये, निभाने का प्रयास करना तो दूर की कौड़ी हो गई। हां हमने उस उत्तरदायित्व को पूरे जज्बे और ताकत के साथ निभाया जब वीवीआईपी लोगों के स्वागत आवभगत और सुरक्षा की बात रही हो। शासन-प्रशासन की उदासीनता व अव्यवस्था से आम जनता इस सदी के अभी तक के सबसे बड़े क्रिकेट के महाकुंभ के दर्शन लाभ व प्रसाद से वंचित रह गई। हमारे यहां तो ‘‘कुंभ’’ के दर्शन से प्रसाद तो मिलता ही है। 

आम जनों की हितैषी का दावा करने वाली सरकार का क्या यह दायित्व नहीं था कि कि वह इस तरह की उपभोक्ताओं के साथ हुई कालाबाजारी के विरूद्ध समय पूर्व कड़े कदम उठाकर उस पर रोक लगाती, नियंत्रित करती? क्या खेल के कुंभ के समान भी धार्मिक कुंभ में भी ऐसा ही होता? या सरकार ने यह मान लिया था कि धार्मिक कुंभ में तो बहुसंख्यक आम सामान्य व्यक्ति आता है, ‘‘जिसकी कमाई हुई तो रोजी, नहीं तो रोजा’’। लेकिन खेल के कुंभ में खासकर अभिजात वर्ग का कहलाने वाला खेल क्रिकेट के खेल को देखकर न तो सामान्य वर्ग आता है और न ही उसे आने का अधिकार है। सिर्फ एलीट (अभिजात) वर्ग को ही यह अधिकार शायद इसलिए है क्योंकि ‘‘अघाए हुए को ही मल्हार सूझता है’’। इसलिए वह क्रिकेट बोर्ड और प्रशासन द्वारा की गई कालाबाजारी व उच्च दामों की व्यवस्था में ‘‘फिट’’ बैठता है। ‘‘अंधे ससुर से घूंघट क्या और क्या परदा’’। 

देश में विश्व स्तर के किसी भी आयोजन से हमारे देश की प्रतिष्ठा जुड़ी हुई होती है। ठीक जिस प्रकार जी-20 का बेहद सफल आयोजन अभी हाल में ही दिल्ली में हुआ था। हमारी अत्यंत सुदृढ़, दुरुस्त सुंदर चकाचौंध कर देने वाली व्यवस्था ने विदेशी मेहमानों का दिल जीत लिया था और विश्व की मीडिया का भी सकारात्मक ध्यान आकर्षित हुआ। क्या यही सोच विचार के साथ व्यवस्था जब विदेशों से भी हजारों दर्शक  वर्ल्ड कप देखने आ रहे हो, भले ही वे राष्ट्राध्यक्ष न हो, के प्रति नहीं होनी चाहिये? जिस प्रकार हम धार्मिक कुंभ में आम जनता की सुविधाओं को ध्यान में रखकर सुरक्षा सहित समस्त आवश्यक मूलभूत व्यवस्था बनाते हैं, वैसी ही सामान्य जनों को ‘‘सामान्य प्रचलित रेट’’ पर वे व्यवस्थाएं इस क्रिकेट कुंभ में क्यों नहीं उपलब्ध कराई गई? यह समझ से परे है। सामान्यतया होटलों की केटेगिरी व रेट फिक्स होते है, फ्लाइट के रेट भी फिक्स होते है। तथापि सीजंस में और भीड़ ज्यादा होने पर रेट में बढ़ोतरी होती है। परंतु उसकी भी कोई तार्किक (लॉजिकल) सीमा होती है और नहीं है, तो अवश्य होनी चाहिए। रेलवे विशिष्ट अवसरों पर होने वाली भीड़-भाड़ से निपटने के लिए उपभोक्ता मांग के अनुसार अतिरिक्त ट्रेन चलाती है, बोगी लगाती हैं, मुनाफाखोरी नहीं करती हैं। लेकिन जब मांग व पूर्ति में अंतर बहुत बढ़ जाये तो क्या सरकार भी स्थिति को हाथ पर हाथ धरे रखकर बाजार के हाथों में छोड देती है? ऐसी स्थिति में क्या सरकार को सामान्य दर्शक उपभोक्ताओं की पहुंच (एक्सेस) के लिए बाजार पर नियंत्रण नहीं करना चाहिए था?

याद कीजिए! कोरोना काल में जब हॉस्पिटल व डॉक्टर्स ने इसी प्रकार कोरोना पीड़ित बीमार जनता की बीमारू मन और शारीरिक स्थिति का फायदा उठाते हुए इलाज के रेट अत्यधिक कर दिये थे। दस गुना तक इजाफा कर दिया था। चूंकि मामला जीवन से संबंधित था, इसलिए जनता ने मजबूर होकर अपनी चल-अचल संपत्तियों को बेचकर भी अति महंगा इलाज जान बचाने के लिए करवाये थे। स्थिति को गंभीर होते देख तब शासन-प्रशासन तथा जिलों के कलेक्टरों ने डॉक्टर्स अस्पताल, नर्सिंग होम संचालकों के साथ प्रमुख प्रबुद्ध नागरिकों की बैठक बुलाकर इलाज के रेट की अधिकता सीमा तय कर कुछ राहत अवश्य प्रदान की थी। ‘‘एक नजीर सौ नसीहत के बराबर होती है’’। क्या ऐसा ही सुप्रबंध अहमदाबाद में संपन्न हुए खेल के महाकुंभ में नहीं किया जा सकता था? निश्चित रूप से यह सब कुछ सरकार की व बोर्ड इच्छा शक्ति पर ही निर्भर करता है। कहा भी गया है ‘‘जहां चाह वहां राह’’। आश्चर्य की बात यह भी है कि इस मुनाफाखोरी में सिर्फ व्यापारी वर्ग या ‘‘सेवा-प्रदाता’’ ही शामिल नहीं है, बल्कि चुनी हुई सरकार भी शामिल है। क्योंकि मुनाफाखोरी का एक हिस्सा टैक्स के रूप में सरकार को भी मिलता है। अतः सरकार की भी मुनाफाखोरी में हिस्सेदारी मानी जायेगी। परन्तु सरकार को यह नहीं भूलना चाहिए कि ‘‘ख़ता लम्हों की होती है, और सजा सदियां पाती हैं’’।

दूसरे आश्चर्य की बात यह भी है कि सरकार की इस मुनाफाखोरी के विरुद्ध न तो मीडिया खड़ा हुआ और न ही आम जनता जिसे भी मैच देखने में भागीदारी करने का अधिकार था। सरकार व क्रिकेट बोर्ड की अनदेखी व उपेक्षा के कारण एक दर्शक के रूप में वंचित रहा है। ‘‘सब अपने-अपने खेल में मस्त हैं’’, क्योंकि मीडिया तो वीवीआईपी पास के चक्कर में ही लगा हुआ होगा। तब मजबूत शक्तिशाली प्रबंधक के विरुद्ध खड़ा होने का ‘‘नैतिक बल’’ मीडिया कहां से ला पाता? क्या 5 हजार करोड़ से अधिक आय प्राप्त करने वाला भारतीय क्रिकेट बोर्ड ‘‘बीपीएल कार्ड धारक खेल प्रेमी’’ नागरिकों को लॉटरी सिस्टम के तहत कुछ सौ टिकटे एक लाख तीस हजार की क्षमता नरेन्द्र मोदी स्टेडियम मेें मुफ्त में बांटी नहीं जा सकती थी? खासकर जब देश में इस समय रेवड़िया, मुफ्त बांटने का प्रचलन तेजी से चल रहा हो। प्रश्न है इच्छाशक्ति व भावना का है? तभी तो उस दिशा में कार्य कर पायेगें? देश में अमीरो-गरीबो का अंतर अत्यधिक बढ़ते जा रहा है! आखिर गुजरात के मुख्यमंत्री व वहां से आने वाले हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का ध्यान इस ओर क्यों नहीं गया? यानी कि ‘‘घर में औलिया होकर भी घर के भूत पर ध्यान नहीं’’! 

इस मैच के अन्य कई भी दुखद पहलू हैं। एक और दुखद पहलू इस आयोजन से निकल कर यह भी आया है कि देश के विभिन्न अंचलों में वर्ल्ड कप के फाइनल में भारत की जीत के लिए दुआएं, प्रार्थनाएं यज्ञ, हवन इत्यादि मंदिर, मस्जिद, गिरजाघरों में की गई। परंतु दुर्भाग्य देखिए 41 मजदूरों का; जो निर्माणाधीन सुरंग के गिरने से अपनी जान हथेली पर लिए हुए कई दिनों से फंसे हुए हैं, उनकी सुरक्षित जान की सुरक्षा के लिए देश में ऐसी ‘‘आवश्यक दुआओं का उन्माद’’ नहीं देखा गया। कम से कम उन आठ प्रदेशों में तो जरूर होनी चाहिए थी, जहां के ये मजदूर रहवासी थे। इस मानवीय व राष्ट्रीय कमी को शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता है। खेल के दौरान भारतीय दर्शक द्वारा ऑस्ट्रेलियाई खिलाड़ियों के अच्छी शाट/बाॅल पर तालियाँ उत्साहवर्धन न बजाना व पुरस्कार समारोह के दौरान प्रधानमंत्री की उपस्थिति के बावजूद स्टेडियम का लगभग खाली हो जाना मात्र 1.5-2 हजार लोगों की उपस्थिति रही जो हमारी ‘‘अतिथि देवो भवः’’ की भावना व मूल पहचान पर चोट करती है। प्रधानमंत्री की मैच में पूर्व से नियत उपस्थिति के बाबत राहुल गांधी की अशोभनीय टिप्पणी भी बेहद निंदनीय है। यह भी मैच के परिणाम के बाद उत्पन्न परिस्थिति का एक और दुर्भाग्यपूर्ण पहलू है। कपिल देव व महेन्द्र सिंह धोनी को आमंत्रित न करना भी सिर्फ दुखद पहलू ही नहीं है, बल्कि बेहद शर्मनाक व खेल भावना के एकदम विपरीत कदम है। भारतीय क्रिकेट बोर्ड ‘‘जय शाह’’ देश व खेल प्रेमी को इसका जवाब देंगे?

शनिवार, 28 अक्तूबर 2023

जातिगत आरक्षण, जनसंख्या गणना व रेवड़ियां, देश को किस दिशा में ले जाएगी?

जातिगत जनगणना

आरक्षण के साथ ही पिछले कुछ समय से देश में जातिगत जनसंख्या की गणना की मांग न केवल जोर-शोर से की जा रही है, बल्कि बिहार सरकार ने तो न्यायालीन अवरोधों से निपट कर जातिगत गणना के परिणाम भी प्रकाशित कर दिए हैं। यद्यपि भारत में जनगणना अधिनियम 1948 लागू है, जिसके अंतर्गत सिर्फ केन्द्र सरकार ही जनगणना करा सकती है। बिहार का अनुसरण करते हुए राजस्थान की गहलोत सरकार तथा मध्यप्रदेश में पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ ने भी जातिगत जनगणना कराने की घोषणा के साथ राहुल गांधी इसे आगामी चुनाव में मुख्य मुद्दा बनाते हुए दिख रहे हैं। वैसे वर्ष 2011 में यूपीए सरकार ने भी लगभग इसी तरह की जातिगत गणना ‘‘सोशियो इकोनॉमिक एंड कॉस्ट सेंसस’’ (एसइसीसी 2011) (सामाजिक आर्थिक और जातिगत जनगणना) कराई थी। तथापि उसके आंकड़े आज तक प्रकाशित नहीं हो पाए हैं। जातिगत गणना के पीछे जो सबसे बड़ा तर्क दिया जा रहा है, वह है ‘‘शेर से बाड़ भली’’ कि जिसकी जितनी संख्या उसकी उतनी भागीदारी सुनिश्चित हो। अर्थात ‘‘आरक्षण’’ शब्दावली का उपयोग न किया जाकर भागीदारी शब्द का प्रयोग किया गया है, जो ‘‘आरक्षण का ही एक स्वरूप’’ है। लेकिन इस बाड़ से तो ‘‘यारी का घर और दूर हो जायेगा’’ क्योंकि यह मांग; आरक्षण की वर्तमान संवैधानिक व्यवस्था से भी ज्यादा खतरनाक इसलिए है, की आरक्षण कानूनी संवैधानिक और तकनीकी रूप से एक अस्थायी प्रावधान है, जबकि भागीदारी की मांग एक स्थायी प्रावधान होगा और यह मांग सबका साथ, सबका विश्वास, सबका प्रयास और सबका विकास की अवधारणा व भावना के विपरीत है।

अन्य शेष जातियों (सामान्य वर्ग) की जनगणना भी आवश्यक! 

जातिगत जनगणना के साथ शेष बची अन्य जातियों (सामान्य वर्ग) की गणना करना इसलिए भी आवश्यक है कि जनता को यह जानकारी होनी चाहिए कि देश के वैज्ञानिक, डॉक्टर, इंजीनियर, वकील, न्यायाधीश, प्रोफेसर, पत्रकार, उद्योगपति, व्यापारी, सीमांत कृषक, शासकीय, अर्ध शासकीय एवं अशासकीय सेवा में रत वर्ग कर्मचारी, खिलाडी, कलाकार, कथाकार, ज्योतिषज्ञ, ड्राइवर, कुशल-अकुशल मजदूर, दिहाड़ी मजदूर, आदि विभिन्न क्षेत्रों में कार्य करने वाले व्यक्ति किन-किन जातियों में कितने-कितने हैं, तभी ‘‘दूध का दूध और पानी का पानी’’ हो पायेगा। 

‘‘जितनी संख्या उतनी भागीदारी’’! मात्र सतही!

अब आप कल्पना कीजिए! जिसकी जितनी जनसंख्या उसकी उतनी हिस्सेदारी/ भागीदारी का अर्थ क्या है? क्या इस धरातल पर वस्तुतः उसी रूप में उतारा जा सकता है? यदि तर्क के लिए यह मान भी जाए तो किस तरह की स्थिति उत्पन्न होगी, इसकी कल्पना क्या आपने की है? भागीदारी का मतलब क्या सिर्फ सत्ता प्राप्ति का साधन ‘‘राजनीति’’ के क्षेत्र तक ही सीमित रहेगा या जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में जनसंख्या अनुसार भागीदारी होगी? क्या ‘‘यह जहां का मुर्दा वही जलेगा’’ वाली स्थिति होगी। अथवा ‘‘सत्ता प्राप्ति के बाद’’ ‘‘जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में जनसंख्या अनुसार भागीदारी सुनिश्चित की जाएगी’’? 

कल्पना कीजिए एक आंकड़ों (बिहार राज्य में) के अनुसार पिछड़े वर्गों में शामिल विभिन्न जातियों की कुल जनसंख्या (63 प्रतिशत) को एससी एवं एसटी की जनसंख्या के साथ मिलाने पर वह कुल जनसंख्या का लगभग 85 प्रतिशत (84.59 प्रतिशत) हो जाती है। अब क्या इस आधार पर क्रिकेट, फुटबॉल, हॉकी की टीम में 85 प्रतिशत खिलाड़ी इन वर्गो का होना आवश्यक हो जाएगा? फिल्मों में क्या स्थिति बनेगी? क्या ट्रेन के डिब्बांे, बसों में भी यात्रियों की भागीदारी इसी तरह से सुनिश्चित की जाएगी? क्या कारखाने खोलने से लेकर नौकरी देने तक में भी ऐसी ही व्यवस्था हो पाएगी? राहुल गांधी जब पिछड़े वर्गे के आईएएस में भागीदारी के संबंध में आंकड़े देते हुए यह कहते है कि 90 सचिवों में सिर्फ 3 पिछड़ा वर्ग के है, जो देश का मात्र 5 प्रतिशत बजट संभालते हैं, के आंकड़ों की चर्चा करते हैं। तब उनका मतलब जनसंख्या के अनुसार भागीदारी क्या सिर्फ आईएएस तक ही सीमित होने तक है? परन्तु वे स्वयं जनता को यह नहीं बतलाते है कि एआईसीसी (कांग्रेस) के केंद्रीय व राज्यों के कार्यकलापों में पिछड़ा वर्गो के कितने कर्मचारी कार्यरत है? न ही राहुल गांधी से उनका विपक्ष यह प्रश्न करने की जुर्रत करता है। क्या भागीदारी सिर्फ सत्ता पाने तक की ही सीमित रहेगी अथवा संवैधानिक दायित्व और सामाजिक उत्तरदायित्वों में भी उतनी ही होगी? इस तरह के सैकड़ों प्रश्न उत्पन्न होते हैं, जिनका जवाब राजनीति के चलते न तो मिल पाएगा और न ही कोई देना चाहेगा, बल्कि आपको ‘‘पिछड़ा विरोधी’’ घोषित कर दिया जाएगा। 

50 प्रतिशत महिला भागीदारी? जितनी संख्या उतनी भागीदारी में कोई चर्चा नहीं?

लगभग 50 प्रतिशत महिलाओं की जनसंख्या होने के बावजूद ‘‘जिनती संख्या उतनी हिस्सेदारी’’ की बात करने वाले नेतागणों ने इन 50 प्रतिशत महिलाओं की भागीदारी पिछड़े वर्गो से सुनिश्चित करने का कोई ‘‘कथन’’ अथवा ‘‘प्रतिबद्धता’’ नहीं दर्शायी है, जो उक्त प्रतिपादित सिद्धांत के एकदम विपरीत है। आश्चर्य की बात तो यह है कि आरक्षण और जनसंख्या अनुसार हिस्सेदारी की बात करने वाले समस्त राजनेता गण चाहे किसी भी पार्टी के क्यों न हों, ‘‘लंका में सब बावन गज के’’ वे सब समाज के जातिगत विभाजन और जातिवाद का मंच पर विरोध करते हैं, समरसता की बात करते हैं, सबका साथ सबका विकास की बातें करते हैं। इस तरह इनका दो-मुंहापन स्पष्ट रूप से जनता के सामने परिलक्षित है। परन्तु साथ ही दुर्भाग्य की बात यह भी है कि जनता नेताओं के इस दोहरेपन पर अपनी कड़ी प्रतिक्रिया देने में असमर्थ है। ‘‘वक्र चंद्रमहि ग्रसहु न राहू’’ फिर वह कोई भी व्यक्ति हो, चाहे आरक्षित वर्ग का हो अनारक्षित वर्ग का हो या पिछड़ा वर्ग का हो।

‘‘रेवड़ी’’ या ‘‘जरूरी न्यूनतम आवश्यकता’’

देश में इस समय ‘‘जनहित’’ लोकहित के नाम पर रेवड़ियां अथवा आर्थिक रूप से बेहद कमजोर वर्ग की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु ‘मुफ्त’ या ‘सब्सिडी’ के साथ जीवनदायी सुविधा देने, बांटने का कार्य केंद्र से लेकर लगभग हर राज्य की सरकारें कर रही हैं । एक लोकप्रिय और जनोन्मुखी सरकार के लिए कौन सी सुविधाएं रेवड़ियां है और कौन सी या जरूरत मंद आवश्यकताएं है, इनके बीच बहुत ही बारिक ‘‘लक्ष्मण रेखा’’ है। प्रधानमंत्री स्वयं कई बार कह चुके हैं, रेवड़ी बांटना संस्कृति (कल्चर), बंद करना होगा। परंतु कई बार केंद्रीय सरकार भी जनता की न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति करते-करते लक्ष्मण रेखा को पार कर ‘‘रेवड़ी’’ बांटने में लग जाती हैं इसलिए ‘रेवड़ी’ संस्कृति पर रोक कानूनी प्रक्रिया द्वारा ही लगाई जा सकती हैं। क्योंकि ‘‘जब ‘‘देने’’ वाला ‘‘राजी’’ और ‘‘लेने’’ वाला राजी तो क्या करेगा काजी’’। ‘‘घूस देना-लेना’’ देश में एक अपराध है। फिर रेवड़ियां भी तो एक ‘घूस’ ही है। तब भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम में संशोधन कर रेवड़ियों को ‘‘घूस की परिभाषा’’ में लाकर क्यों नहीं रोक लगाने का प्रयास समस्त राजनीतिक पार्टियों करती हंै? जहां समस्त राजनीतिक पार्टियां सिद्धांत रूप से इस बात पर सहमत है कि रेवड़ियां नहीं बटनी चाहिए और इस पर रोक होनी चाहिए।

मुफ्तखोरी! व्यक्तित्व के विकास में अवरोध।

यदि व्यक्ति को बिना प्रयास के जीवन उपयोगी सभी न्यूनतम आवश्यक साधन सरकार द्वारा उपलब्ध करा दिये जायेगें तो फिर व्यक्ति व व्यक्तित्व का निर्माण व विकास कैसे हो पायेगा? क्या ऐसा व्यक्ति अकर्मण्य नहीं हो जाएगा? और इस कारण से प्रतिभाओं के विकसित होने का अवसर नहीं मिल पायेगा। इन बातों पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है।

गुरुवार, 28 सितंबर 2023

मध्यप्रदेश की ‘‘राजनैतिक पिच’’ पर भाजपा का दुक्का, तिक्का, छक्का नहीं सत्ते!(सात)

‘‘सत्ता के लिए सात’’

लेख का सार 

अंत में हिंदुत्व की सबसे बड़ी चेहरा रही फायर ब्रांड साध्वी नेत्री पूर्व मुख्यमंत्री सुश्री उमाश्री भारती जिन्होंने वर्ष 2003 में दिग्विजय सिंह की ‘‘बंटाधार सरकार’’ को सफलतापूर्वक हटा कर भाजपा के जीत के10 साल के सूखे को  समाप्त किया था, को चुनावी मैदान में न उतार कर भाजपा ने कहीं एक बड़ी गलती तो नहीं कर दी है? महिला आरक्षण व महिला सशक्तिकरण पर जोर-शोर से कार्य करने वाले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की नीति के बावजूद उनके पुरानी मंत्रिमंडल सहयोगी को चुनाव दंगल में न उतारना भी भाजपा के आश्चर्यचकित करने वाला निर्णयों की श्रृंखला का ही भाग हो सकता है। क्या भाजपा नेतृत्व आगे इस गलती को  सुधारेगा? यह देखना बड़ा दिलचस्प होगा। क्योंकि एक छोटी सी गलती भी पूरी कार्य योजना को असफल कर सकती है। फिर यह तो एक बड़ी गलती है।

सत्ता के लिए सात! गुगली या आत्मघाती गोल? 

चुनाव नजदीक आते-आते मध्यप्रदेश की राजनीति में दिन प्रतिदिन नये-नये नाटकीय और अचंभित करने वाली घटनाएं मोड़ लेते जा रही हैं। मध्यप्रदेश में भाजपा व कांग्रेस के बीच चुनावी मैदान पूर्णतः क्रिकेट के उस मैदान में परिवर्तित हो चुका है, जहां दोनों पार्टियों द्वारा ‘‘बैटिंग और बॉलिंग’’ के द्वारा परस्पर एक दूसरे पर हावी होने का प्रयास किया जा रहा है। क्रिकेट में टीम जब कभी संकट में होती है, समय कम होता है, तब ‘‘लक्ष्य’’ की प्राप्ति के लिए चौके, छक्के मारना बल्लेबाजों की ‘‘मजबूरी’’ हो जाती है। यदि बल्ला चल जाता है, तो वह मैच जीत जाता है। विपरीत इसके चौके, छक्के मारने में यदि खिलाड़ी आउट हो जाते हैं, तो टीम हार जाती है। मध्यप्रदेश में दोनों पार्टियों की स्थिति कुछ इसी तरह की है कि "क्या पता ऊंट किस करवट बैठता है"। फिलहाल भाजपा ‘‘बैटिंग पिच’’ पर है और सत्ता विरोधी कारक की बॉलिंग जिसमें ‘‘समस्त तीर गुगली’’ सहित शामिल है, से निपटने के लिए भाजपा के चौके (जन आशीर्वाद यात्राएं) तथा छक्के (प्रधानमंत्री मोदी की प्रदेश के लगातार दौरे) के बावजूद भाजपा को जीत के लिए सत्ता (सात) लगाना पड़ गया है। यह भाजपा के लिये "कड़वी गोली" के समान है, कहा भी है कि "कड़वी भेषज बिन पिये, मिटे न तन का ताप"। भाजपा की परिस्थितिवश यह मजबूरी भी होकर विपक्ष से लेकर मीडिया तक ने भाजपा की इस मजबूरी को उसकी ‘‘कमजोर पहचान’’ तक बता दिया है, जिससे सफलतापूर्वक निपटना भाजपा के लिए एक चुनौती है। जबकि भाजपा के बाबत यह बात प्रसिद्ध होकर सिद्ध है कि वह हमेशा बैहिचक चुनौतियां को गंभीरतापूर्वक स्वीकार कर सफलता को प्राप्त करती है। कांग्रेस की स्थिति इसके ‘‘उलट’’ होती है। 

 "पार्टी" को नहीं "चेहरे"  को बदलने का विकल्प! 

शिवराज सिंह की विभिन्न लोक लुभावनी योजनाओं की चुनावी वर्ष में लगातार घोषणाएं होने के बावजूद व्यक्तिगत शिवराज सिंह के चेहरे की सत्ता विरोधी कारक (एंटी इनकंबेंसी) रिपोर्ट आने से हाईकमान को स्थिति में "चक्की में से साबुत निकल आने लायक़" अपेक्षित सुधार नजर नहीं आ रहा है। वैसे इसे ‘‘सत्ता विरोधी लहर’’ की बजाए शिवराज सिंह का ‘‘थका हुआ चेहरा’’ (थकान, फटीग) कहना ज्यादा उचित होगा। वहीं जनता भी उक्त चेहरे को लगातार देख कर थक सी चुकी है। अतः जनता चेहरे का बदलाव चाहती है, पार्टी का नहीं। जिस प्रकार क्रिकेट में टीम पर देश की इज्जत लगी होती है, इसी प्रकार देश में मोदी के वर्ष 2024 के तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने के अवसर को सुगमित व सुनिश्चित करने के लिए इस ‘‘सेमीफायनल’’ को जीतने का भार मध्यप्रदेश भाजपा जो भाजपा की प्रयोगशाला (मॉडल स्टेट) रही है, के मजबूत कंधों पर है। इसी कड़ी में एक-एक सीट का महत्व समझते हुए लोकसभा के सात सांसदों जिसमें से चार महत्वपूर्ण कद्दावर नेता, तीन केन्द्रीय मंत्री और एक राष्ट्रीय महासचिव को विधानसभा चुनाव में उतार कर हाईकमान ने छक्का नहीं ‘‘सत्ता (सात)’’ मारा है। ‘‘सत्ता के खेल’’ में ‘‘छक्के की बजाए सात’’ मारना पार्टी की नई ईजाद होकर मजबूरी (शायद) सी बन गई है। यह नया प्रयोग तो मानो पार्टी को "कंकर बीनते हीरा हाथ लगा है",जो पार्टी को सफलता के निकट पहुंचा देगा, ऐसी उम्मीद पार्टी कर रही है और करनी भी चाहिए। क्योंकि पहली बार भाजपा ने क्षेत्रवार क्षत्रप नेताओं को उभारने का गंभीर प्रयास कर जीत के हवन कुंड में उनकी आहुति से हवन की ज्वाला को जलाये रखने का प्रयास किया गया है।

क्षत्रपों को पहली बार महत्व 

ग्वालियर व चंबल क्षेत्र से नरेन्द्र सिंह तोमर, महाकौशल में प्रहलाद सिंह पटेल, मालवा क्षेत्र से कैलाश विजयवर्गीय, और ‘‘आदिवासी वोट बैंक’’ को साधने के लिए फग्गन सिंह कुलस्ते, इन चारों क्षत्रपों को हाईकमान ने बिना कहे यह संदेश देने का प्रयास किया है कि आप न केवल स्वयं की सीट जीते, बल्कि अपने-अपने प्रभाव के क्षेत्रों में अधिकतम सीटें जिताकर लाकर मुख्यमंत्री की कुर्सी के दावेदारों में स्वयं को शामिल कर ले। कांग्रेस में क्षत्रपों की यह राजनीति पुरानी है। कांग्रेस में नेतृत्व चाहे किसी का भी हो, विभिन्न क्षत्रपों को उनके प्रभाव क्षेत्र में टिकट देने की अलिखित परिपाटी, चली आ रही है। परन्तु भाजपा में टिकट का वैसा अधिकार क्षत्रपों को नहीं दिया गया है। हां पहली बार, मुख्यमंत्री का दावा करने का अप्रत्यक्ष अधिकार ज्यादा सीटें जीत कर लाने पर देने का संकेत अवश्य दिया गया है। वैसे यह कहना शायद गलत नहीं होगा कि कांग्रेस द्वारा हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक में (राष्ट्रीय अध्यक्ष के वहां से होने के बावजूद) स्थानीय क्षत्रपों को महत्व (विपरीत इसके भाजपा ने उतना महत्व येदुरप्पा को नहीं दिया) और चुनाव लडा़ने की सफल नीति को भाजपा ने मध्य प्रदेश में उतारने का निर्णय लिया और शायद यह निर्णय राजस्थान में भी दोहराया जाए। 

 शिवराज सिंह रिटायर हर्ट 

देश के किसी राज्य व प्रमुख राजनैतिक पार्टियों के इतिहास में शायद यह पहली बार हुआ है, जब तीन केंद्रीय मंत्री और विश्व की सबसे बडी पार्टी के केंद्रीय महामंत्री को एक साथ चुनावी दंगल में उतारा गया है। इससे इस बात का आकलन किया जा सकता है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह की जोडी मध्य प्रदेश को जीतने के बारे में कितनी चिंतित, सतर्क और सक्रिय रूप से निरंतर लगी है। "कछुए का काटा कठौती से डरने लगता है"। इन प्रभावशाली मुख्यमंत्री के दावेदारो, परिणाम देने वाले सिद्ध क्षत्रपों को चुनाव में उतार कर, साथ ही इनकी टिकट की घोषणा के कुछ समय पूर्व संपन्न हुई ‘‘महारैली’’ में प्रधानमंत्री द्वारा मुख्यमंत्री शिवराज सिंह का एक बार भी नाम न लेना, जबकि अन्य दिवंगत नेताओं के नामों का उल्लेख करना, महिला सशक्तिकरण की बात करते हुए भी  शिवराज सिंह की महिलाओं के सशक्तिकरण करने की विभिन्न योजनाएं खासकर ‘‘लाडली बहना योजना’’ का उल्लेख न करना इन सब बातों का स्पष्ट संकेत यह है कि शिवराज सिंह की ‘‘पारी’’ रिटायर्ड हर्ट हुए बिना उन्हें रिटायर कर दिया जाएगा। वैसे हाईकमान ने एक अन्य प्रमुख ग्वालियर चंबल क्षेत्र के ‘‘आयातित’’ क्षत्रप केंद्रीय मंत्री महाराजा ज्योतिरादित्य सिंधिया को चारों क्षत्रपों के साथ विधानसभा चुनाव में न उतारकर तीन तरह के संदेश दिए हैं।

 ज्योतिरादित्य सिंधिया को चुनावी मैदान में न उतारने के मायने? 

प्रथमः एक क्षेत्र में एक ही क्षत्रप का नेतृत्व होगा। अर्थात ग्वालियर चंबल संभाग में नरेंद्र सिंह तोमर अकेले (सिंधिया के साथ नहीं) नेता बने रहेंगे। दूसरा संदेश कम, सोच ज्यादा यह रही है कि सिंधिया को चुनावी पिच पर उतारने पर अंतर्कलह व नेतृत्व के मुद्दे पर खींचतान बढ़ जाने से फायदा कम नुकसान ज्यादा होगा। तीसरा महत्वपूर्ण संदेश यह भी हो सकता है कि महाराजा को पार्टी (जनसंघ-संघ-भाजपा) की नियमावली अनुसार उन्हें उनकी उस सीमा के भीतर ही रखा जावे, ताकि वह भविष्य के एक व्यावहारिक भाजपाई रंग में पूर्णतः ढलकर पार्टी के लिए उपयोगी नेता बन सके। ठीक भी है, "कोतवाल को कोतवाली ही सिखाती है"। यद्यपि उनकी परवरिश तो राजमाता सिंधिया के कारण जनसंघ की ही रही है।

 गुजरात मॉडल की पुनरावृत्ति? 

तीन महीने पहले ही मै अपने लेख में लिख चुका हूं कि ‘‘गुजरात माडल’’ मध्य प्रदेश में दोहराया जायेगा। यद्यपि भाजपा हाईकमान चुनाव की घोषणा होने पर "तकल्लुफ में है तकलीफ सरासर" की उक्ति को ध्यान में रखते हुए स्वप्रेरणा व स्वविवेक से मुख्यमंत्री शिवराज सिंह सहित कुछ प्रमुख मंत्रियों और वरिष्ठ विधायकों से यह घोषणा करवायेगें कि वे चुनाव नहीं लड़ेंगे, संगठन का काम करेंगे, तभी पार्टी को सफलता की उम्मीद हो सकती है। क्योंकि पार्टी अब जनता के समक्ष ‘‘नेता बदलने के लिए पार्टी बदलने की जरूरत नहीं है,’’ की नीति पर आगे बढकर जनता को दूसरे भाजपाई नेताओं का विकल्प देने का प्रयास कर रही है। पार्टी ने अपनी चाल चल दी है और शतरंज की बिछायत पर पार्टी द्वारा फेंके गये इन मोहरों में कौन ‘‘किंग’’ बनकर अंततः उभरेगा, निकलेगा, यह देखना दिलचस्प होगा। यह बात सही है कि पार्टी ने "ब्रह्मास्त्र 2023" हथियार निकालकर उपयोग कर लिया है। अब इस ब्रह्मास्त्र के उपयोग/प्रयोग की सफलता पर टिप्पणी तो समय ही कर सकेगा। जनता तो अब राजनीति के खेल के मैदान के चारों तरफ बैठकर वोट देने की बारी आने की प्रतिक्षा भर कर रही है। मन शायद बना चुकी है। 

 सुश्री उमा श्री भारती की उपेक्षा कहीं भारी न पड़ जाए? 

अंत में भाजपा की चार तोपों को चुनावी मैदान में उतारने की कार्य योजना में सिर्फ बुंदेलखंड या लोधी समाज तक सीमित नहीं, बल्कि संपूर्ण मध्यप्रदेश की हिंदुत्व की सबसे बड़ी चेहरा रही फायर ब्रांड साध्वी नेत्री पूर्व मुख्यमंत्री सुश्री उमाश्री भारती जिन्होंने वर्ष 2003 में दिग्विजय सिंह की ‘‘बंटाधार सरकार’’ को सफलतापूर्वक हटा हटाकर जीत के 10 साल के सूखे को समाप्त किया था, को चुनावी मैदान में न उतार कर पार्टी ने कहीं एक बड़ी गलती तो नहीं कर दी है? महिला आरक्षण व महिला सशक्तिकरण पर जोर-शोर से कार्य करने वाले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की नीति के बावजूद उनके पुरानी मंत्रिमंडल सहयोगी को चुनाव दंगल में न उतारना भी भाजपा के आश्चर्यचकित करने वाला निर्णयों की श्रृंखला का ही भाग हो सकता है। भाजपा नेतृत्व आगे इस गलती को क्या सुधारेगा? यह देखना बड़ा दिलचस्प होगा। क्योंकि एक छोटी सी गलती भी पूरी कार्य योजना को असफल कर सकती है। फिर यह तो एक बड़ी गलती है।

रविवार, 17 सितंबर 2023

कांग्रेस क्या ‘‘आत्मघाती गोल’’ मारने की ‘‘विशेषज्ञ’’ होती जा रही है?

14 पत्रकारों के साथ असहयोग/बहिष्कार 

‘‘असावधानी’’ बरतने पर क्रिकेट में ‘‘हिट विकेट’’ और फुटबॉल, हॉकी के खेल में ‘‘गलत पास’’ दे देने से ‘‘आत्मघाती गोल’’ कभी कभार हो ही जाते हैं। परन्तु कांग्रेस की ‘‘राजनीतिक पिच’’ पर पिछले कुछ समय से ऐसा लग रहा है कि ‘‘आत्मघाती गोल’’ मारने का अभ्यास कर कांग्रेस पार्टी उसकी विशेषज्ञ होकर शायद भाजपा की ‘‘चिंता व भार’’ को ‘‘हल्का’’ करने का प्रयास कर रही है? ‘‘औरों को नसीहत और खुद मियां फजीहत’’ उक्ति की प्रतीक कांग्रेस के मुख्य प्रवक्ता सांसद रणदीप सिंह सुरजेवाला का बयान भाजपा का जो समर्थन करता है या जो भी उन्हें वोट देता है, वह, ‘‘राक्षस प्रवृत्ति’’ का हैं। विदेशी धरती पर देश की आर्थिक, राजनीतिक और विदेश नीति पर तथ्य परक न होकर तथ्यों से दूर राहुल गांधी के कथन, टिप्पणियां चाहे-अनचाहे अथवा जाने-अनजाने में कहीं न कहीं देश के सम्मान को विश्व पटल पर कमजोर करती हुई दिखती है। भगवान राम के जन्म, जन्म स्थल और अपमान, रामसेतु, सर्जिकल स्ट्राइक पर प्रश्न, अनुच्छेद 370 हटाए जाने को मुस्लिम बहुल होने के कारण हिंदू-मुस्लिम कार्ड तथा कश्मीर को ‘‘फिलिस्तीन’’ ठहराए जाने का बयान, समान नागरिक संहिता,  चाय वाला, नीच इंसान, मौत का सौदागर, मोदी तेरी कब्र खुदेगी, आदि से लेकर नवीन एक राष्ट्र-एक चुनाव, सफल ऐतिहासिक जी-20 के आयोजन पर भी आलोचनात्मक टिप्पणी, सनातन पर और ‘‘इंडिया गठबंधन’’ के एक महत्वपूर्ण घटक डीएमके के नेता मुख्यमंत्री एम के स्टालिन के पुत्र उदय निधि स्टालिन के बयान का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष समर्थन करने (कांग्रेस द्वारा उक्त बयान की आलोचना नहीं की गई) जैसे कि ‘‘एक कील ठोंके दूसरा उस पर टोपी टांगे’’ जैसे उदाहरण कांग्रेस के आत्मघाती गोल नहीं है, तो क्या आम जनों को उद्वेलित कर उनके (कांग्रेस के) पक्ष में करने वाले बयान है? नवीनतम उदाहरण तथाकथित ‘‘गोदी मीडिया’’ हालांकि इस ‘‘शब्द’’ का उपयोग नहीं किया गया है, लेकिन अंदाजे बयान तो वही है, चैदह पत्रकारों व चैनल के बहिष्कार का इंडिया गठबंधन जिसमें कांग्रेस प्रमुख भागीदार है, का निर्णय ‘‘जैसी रातों के ऐसे ही सबेरे होते हैं’’ भी इन्हीं आत्मघाती गोलो की कड़ी की एक और कड़ी है। सनातन पर जारी संग्राम अभी ठंडा भी नहीं हुआ है कि उक्त नये मुद्दे को इंडिया गठबंधन ने देवर ‘‘एंचन छोड़ घसीटन में पड़ कर’’ एनडीए को आलोचना करने का पुनः एक मौका अवश्य दे दिया है।

प्रेस की निष्पक्षता व स्वतंत्रता पर कहीं प्रहार तो नहीं?
मजबूत परिपक्व लोकतंत्र जिसका चैथा स्तम्भ ‘‘प्रेस’’ है, ऐसा समस्त पक्षों द्वारा कहा ही नहीं गया है, बल्कि माना भी जाता है। परंतु उलट इसके कांग्रेस द्वारा मीडिया के एंकरों पत्रकारों पर उक्त प्रतिबंध, बहिष्कार या अभी कांग्रेस जिसे असहयोग कह रही है, से प्रेस की स्वतंत्रता व निष्पक्षता पर खतरा है, जिस पर दोनों पक्ष समय-समय पर अपनी चिंता व्यक्त करते रहे हैं। एक पक्ष प्रेस की स्वतंत्रता पर खतरे के कारण बहिष्कार कर रहा है, तो दूसरा पक्ष उक्त प्रतिबंध लगाए जाने को प्रेस की स्वतंत्रता व निष्पक्षता पर खतरा बता रहा है। इस प्रकार प्रेस के स्वास्थ्य को लेकर दोनों पक्ष की चिंता के बावजूद क्या प्रेस स्वयं भी स्वयं की स्वतंत्रता के बाबत चिंतित भी है, बड़ा प्रश्न यह है? यदि प्रेस वास्तव में धरातल पर ‘‘निष्पक्ष’ व शाब्दिक नहीं वास्तविक अर्थों में स्वतंत्र होती तो, किसी भी पक्ष को उसकी स्वतंत्रता, निष्पक्षता बनाए रखने पर चिंता करने की जरूरत ही नहीं होती। कहते हैं न कि ‘‘औघट चले न चैपट गिरे’’ इसलिए मुद्दा यह नहीं है कि इंडिया गठबंधन के उक्त निर्णय से देश की प्रेस की स्वतंत्रता अच्छुण रह सकती है या खतरे में पड़ सकती है। प्रश्न यह है कि क्या यह कदम संविधान में विचारों के व्यक्त करने के संवैधानिक अधिकार जिस पर ही प्रेस की स्वतंत्रता टिकी हुई है, को देखते हुए क्या उक्त असहयोग का निर्णय उचित है? अथवा ‘‘ओछी नार के समान उधार गिनाने से’’ से बचा जा सकता था? अथवा बैगर किसी शोर-शराबे से इस तरह के निर्णय को व्यवहार में लागू किया जा सकता था, प्रश्न यह हैं? वैसे कांग्रेस के प्रवक्ता पवन खेड़ा ने बहिष्कार की जगह गांधी जी के ऐतिहासिक ‘‘असहयोग आंदोलन’’ के असहयोग शब्द का प्रयोग कर असहयोग आंदोलन पर एक मालिन ही पोता है।
‘‘बहिष्कार’’ मतलब अपनी बात को जनता के सामने रखने का एक ‘‘अवसर खोना’’ है।
इसमें कोई शक नहीं है देश में अधिकांश मीडिया लगभग 90 प्रतिशत अंबानी, अडानी और भाजपा समर्थकों (जैसे कि डॉ. सुभाष चन्द्रा का ‘‘जी न्यूज’’) का मालिकाना हक है। इस कारण से उन मीडिया हाउसेस में काम करने वाले निष्पक्षता व स्वतंत्रता से काम नहीं करते है बल्कि चाह कर भी नहीं कर पाते है और अपनी ‘‘पत्रकारिता धर्म’’ नहीं निभा पाते हैं, जो उनकी पहचान के लिए आवश्यक है। इसलिए ऐसे मीडिया हाउसेस की डिबेटों में या उनको साक्षात्कार देने पर कहीं न कहीं विपक्ष के लोगों को असुविधा या असहज स्थिति हो जाती है। परन्तु बड़ा प्रश्न यह है कि घेरे में लिए गए उक्त मीडिया के प्रश्न ‘‘निष्पक्ष’’ न होकर ‘‘गाइडेड’’ प्रश्न होते है, जिसे कानून की भाषा में ‘‘लीडिंग प्रश्न’’ भी कह सकते है। परन्तु उत्तर तो आपके (विपक्ष के) ‘जबान’ बुद्धि, क्षमता पर निर्भर करता है। यद्यपि एंकरों गाइडेड उत्तरों को आपकी जुबान पर ठूंसने का प्रयास अवश्य करते है, परन्तु यहीं तो आपके व्यक्तित्व की परीक्षा होती है। इसलिए आपको तो इस बात की खुशी होना चाहिए, किन्ही मुद्दे बिन्दु पर हो रही बहस में आपको बुलाये बिना वे आपके खिलाफ अपने मीडिया पटल पर किसी अवधारणा को प्रसारित नहीं करते हैं। विपरीत इसके निश्चित की गई अवधारणा में आपको बुलाकर एक अवसर उसी प्रकार प्रदान अवश्य करते है, जिस प्रकार कानून का यह मूल सिद्धांत होता है कि कोई भी अपराधी या डिफॉल्टर को सुनवाई का अवसर दिये बिना उसे सजा नहीं दी जा सकती। इसलिए इंडिया गठबंधन को दिए जाने वाले अवसरों को चूकने के बजाय भुनाने का करतब दिखाने का प्रयास करना चाहिए। अन्यथा विपक्ष का हाल ‘‘औसर चुकी डोमनी गावे ताल बेताल’’, जैसा हो सकता है। इसलिए इंडिया गठबंधन को पत्रकारिता के हित में नहीं स्वयं के हित में इस निर्णय पर पुनर्विचार करना चाहिए और जहां जिस भी चैनल में नहीं बुलाया जाता है, वहां भी उनको बुलाये जाने का प्रयास किया जाना चाहिए ताकि वह अपनी बात वजनदारी से जनता व श्रोता के सामने रख सके। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। वर्ष 2014 में एनडीटीवी का भाजपा प्रवक्ताओं द्वारा बहिष्कार किया गया था। बीच-बीच में भी कई व्यक्तियों द्वारा घोषित/अघोषित रूप से बायकाट किया जाता रहा है। परंतु लोकतंत्र को स्वस्थ बनाए रखने जिसका महत्वपूर्ण खंभा मीडिया है, को भी स्वस्थ बनाये रखने के लिए तीनों पक्ष, पक्ष-विपक्ष तथा स्वयं मीडिया इस पर गहराई से आत्मचिंतन करे, मनन करे, आरोप-प्रत्यारोप अथवा ‘‘टूल’’ बनने की बजाए जिस उद्देश्य के लिए मीडिया की अवधारणा की गई है, की पूर्ति में समस्त लोग अपनी ‘‘आहुति दे’’। देश के स्वस्थ लोकतंत्र को मजबूत बनाए रखने के इन्ही आशाओं के साथ

सोमवार, 11 सितंबर 2023

देश के "संसदीय इतिहास" में ‘‘विशेष सत्र’’ का आव्हान ‘‘विशेष तरीके’’ से।

 बिना एजेंडा के ‘‘सत्र’’ क्या ‘‘नये तरीका का एजेंडा’’ फिक्स करने का प्रयास तो नहीं है?

विशेष सत्र की संवैधानिक स्थिति। 

मुंबई में ‘‘इंडिया’’ गठबंधन की बैठक के ठीक पहले संसदीय कार्यमंत्री प्रहलाद जोशी ने पत्रकार वार्ता के माध्यम से देश के सामने आकर नहीं, बल्कि सर्वप्रथम पहले एक ट्वीट (सोशल मीडिया) के माध्यम से 18 से 22 सितंबर के बीच पांच दिवसीय ‘‘संसद का विशेष सत्र’’ बुलाने की जानकारी देश को दी। यह 17 वीं लोकसभा का 13 वां और राज्यसभा का 261 वां सत्र होगा। देश की संसदीय परम्परानुसार नियम नहीं संसद की तीन सामान्य बैठक मानसून, शीतकालीन व बजट सत्र के अतिरिक्त यदि कोई सत्र बुलाया जाता है, तो वह ‘‘विशेष सत्र’’ कहलाता है। तथापि यह नियम या कानून में परिभाषित नहीं है। यह सरकार का विशेषाधिकार है कि वह विशेष सत्र "कब, कैसे और कारण-अकारण" बुलाए। अनुच्छेद 85 के अनुसार संसद की वर्ष में कम से कम दो बैठके होनी चाहिए, तथा दो सत्रों के बीच छः महीने से अधिक का अंतर नही होना चाहिए। न्यूनतम 10 प्रतिशत से अधिक सांसदों की मांग पर भी विशेष सत्र बुलाया जा सकता है। यही संवैधानिक, वैधानिक स्थिति है।

अभी तक देश में कुल सात बार:- जून 2017 (आधी रात को जीएसटी के लिए), नवम्बर 2015 (125वीं आंबेडकर जयंती), अगस्त 1997 (स्वतंत्रता के 50 साल पूरे होने पर मध्य रात्रि में) अगस्त 1992 (भारत छोड़ो आंदोलन के 50 वर्ष पूरे होने पर) अगस्त 1972 (आजादी के 25 वर्ष) एवं 1962 (अटलजी के अनुरोध पर चीन युद्ध को लेकर) 14-15 अगस्त1947 को रात्रि को देश की आजादी के औपचारिक ऐलान के लिए पहला विशेष सत्र बुलाये जा चुके हैं। इसके अतिरिक्त राष्ट्रपति शासन लागू करने व विस्तार करने के लिए भी विशेष सत्र बुलाये गये हैं। परंतु "प्रभुता पाइ काहि मद नाहीं" को चरित्र करती हुई वर्तमान में सीजीपीए (संसदीय कार्यों के लिए कैबिनेट मंत्रियों की कमेटी) द्वारा विपक्षी दलों को विश्वास में लिए बिना (हालांकि ऐसा न तो कोई नियम है और न ही परंपरा) केंद्रीय सरकार ने उक्त निर्णय लेकर विपक्ष को ‘‘अनावश्यक रूप’’ से आलोचना करने का एक अवसर अवश्य दे दिया है। 

‘‘विशेष सत्र’’ फिलहाल बिना ‘‘विषय’’ के। 

प्रश्न यही नहीं रुकता है, बल्कि ‘‘विशेष सत्र’’ बुलाए जाने की सूचना के तुरंत बाद ‘‘सूत्रों’’ के हवाले से समस्त मीडिया में यह समाचार ब्रेकिंग न्यूज के रूप में चलने लग जाता हैं कि इस विशिष्ट सत्र में ‘‘वन नेशन वन इलेक्शन’’ लागू करने के लिए कानून में संशोधन करने के लिए एक विधेयक लाया जाएगा। सूत्र यही नहीं रूकते हैं, बल्कि आगे यह भी कहते हैं कि ‘‘सत्र’’ में 10 से ज्यादा महत्वपूर्ण बिल पेश किये जा सकते है, जिसमें जम्मू-कश्मीर में चुनाव, यूसीसी, नये दो आपराधिक कानून विधेयक, महिला आरक्षण बिल आदि शामिल हो सकते हैं। ‘‘सूत्रों’’ की उक्त ब्रेकिंग न्यूज को ‘‘सही’’ ठहराने के लिए ही अगले दिन पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में एक उच्च स्तरीय कमेटी बनाई जाने की घोषणा कर दी जाती है, जो ‘‘वन नेशन वन इलेक्शन’’ के संबंध में अपनी रिपोर्ट/सुझाव देगी।  तत्पश्चात अभी एक और ब्रेकिंग न्यूज़ चलने लग गई है कि उक्त विशेष सत्र में इंडिया का नाम भारत किए जाने का विधेयक लाया जाएगा। जबकि सरकार की ओर से यह कहा गया कि ‘‘अमृतकाल में सार्थक चर्चा’’ के लिए यह विशेष सत्र बुलाया गया है। इन सब से हटकर केन्द्रीय सरकार के प्रवक्ता केन्द्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर ने इन सब अटकलों का खंडन करते हुए स्पष्ट रूप से यह कहा कि आम चुनाव ‘‘समय से पहले या बाद में’’ कराने का सरकार का कोई ‘‘इरादा नहीं’’ है। शायद अरुण जेटली के ‘‘शाइनिंग इंडिया’’ के दुष्परिणाम को देखकर तो नहीं? कहीं ऐसा न हो की "कच्ची सरसों पेर की खली होय न तेल"।

समिति की ‘‘निष्पक्षता की गुणक्ता’’। 

देश के इतिहास में यह भी शायद पहली बार हुआ है, जब पूर्व राष्ट्रपति को किसी ‘‘कमेटी का अध्यक्ष’’ बनाया गया हो, जो ‘‘राजनैतिक सक्रियता’’ का एक भाग है। इसके साथ नहीं, बल्कि 24 घंटे के भीतर इस कमेटी में 7 सदस्य जोड़कर उनका गजट नोटिफिकेशन भी जारी कर दिया गया। पूर्व राष्ट्रपति की अध्यक्षता में बनी समिति को एक ‘‘नोटंकी’’ बताने वाले कांग्रेस ने कमेटी में शामिल किये गये लोकसभा में विपक्ष के नेता अधीर रंजन चौधरी ने समिति की "शुचिता", वैधता पर प्रश्नचिन्ह न लगाकर इस्तीफा नहीं दिया? बल्कि राज्यसभा में विपक्ष के नेता व कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे को समिति में शामिल न करने के विरोध में दिया। अब स्पष्ट है कि कमेटी की वैधता, शुचिता, आवश्यकता, गुण व  बिना एजेंडा या कहें कोई गुप्त एजेंडा लिए अस्पष्ट कार्यकाल के साथ यह विशेष सत्र बुलाया गया है। यानी कि "प्रारब्ध बन गया है, शरीर रचना भर शेष है"।

वर्ष 2022 में भी चुनाव आयोग ने स्पष्ट रूप से कहा कि वह एक साथ चुनाव कराने के लिए तैयार है, परंतु इसके पहले संविधान में आवश्यक संशोधन करना होगा। केंद्र सरकार ने भी पूर्व राष्ट्रपति की अध्यक्षता में गठित कमेटी के नोट में अपने कदम के समर्थन में वर्ष 1999 की जस्टिस पी जीवन रेड्डी के लॉ कमीशन की 170 वीं रिपोर्ट का उल्लेख किया है। अतः उक्त कारणों से इस मुद्दे पर सिद्धांत रूप से समस्त लोगों की सहमति होने के बावजूद यह ‘‘राजनीति’’ ही है, जो ‘‘श्रेय लेने-देने’’ की राजनीति के चक्कर में "विरोध के स्वर" उठाए जा रहे हैं।

बुधवार, 6 सितंबर 2023

एक राष्ट्र एक चुनाव पर अनावश्यक बहस’’ क्यों?

 ‘‘सही नीति’’ होने के बावजूद पूर्णतः धरातल पर ‘स्थायी’ रूप से लागू करना संभव नहीं!

एक राष्ट्र एक चुनाव फिलहाल ‘‘यूसीसी’’ समान एक ‘‘शिगूफा’’ तो नहीं

प्रश्न क्या ‘‘एक राष्ट्र एक चुनाव नीति’’ अभी लागू की जाना जरूरी है, उससे पहले यह प्रश्न यक्ष उत्पन्न होता है कि क्या सरकार वास्तव में इस संबंध में गंभीर भी है? यदि सरकार वास्तव में कोई संशोधन बिल लाना ही चाहती होती तो, उक्त उद्देश्य को इस विशेष सत्र बुलाने की घोषणा में समावेश कर लेती। जैसा कि पूर्व में जब-जब विशेष सत्र बुलाए गए हैं, तो उनके उद्देश्य घोषित किए गए थे। तदनुसार संसद में उन विषयों पर कार्यवाही भी हुई। चूंकि वर्तमान में कोई उद्देश्य (एजेंडा) घोषित किये बिना बुलाए इस विशेष सत्र में सरकार इस संबंध में कोई विधेयक लाएगी, इसकी संभावनाएं इसलिए भी नगण्य सी लगती हैं कि, एक तरफ सरकार ने इस संबंध में एक कमेटी ही बना दी है, तब उसकी रिपोर्ट/सिफारिश आने तक तो इंतजार करना ही होगा। यह रिपोर्ट 15 दिन के अंदर आ जाए, ऐसा संभव लगता नहीं है। क्योंकि इस कमेटी का कार्यकाल का समय स्पष्ट रूप से ‘‘निश्चित’’ नहीं किया गया है। दूसरी ओर, संसदीय मंत्री का यह कथन कि कमेटी की रिपोर्ट आयेगी, जिस पर चर्चा होगी। परन्तु उन्होंने भी यह नहीं कहा कि इसी ‘‘विशेष सत्र में ही’’ चर्चा होगी। इसलिए मीडिया या विपक्ष का इस संबंध में हंगामा खड़ा करना उचित नहीं है। वैसे भी जिस प्रकार ‘‘यूनीफार्म सिविल कोड’’ को लेकर सरकार ने विस्तृत जन चर्चा कराई और मीडिया ने खूब सुर्खियां भी बटोरी। परन्तु आज वह ‘‘कोड’’ संसद में किस कोने पर है? कहने की आवश्यकता नहीं है। जोर खरोश से ‘‘सीएबी’’ पारित होने के बावजूद आजतक नियम न बनाये जाने के कारण धरातल पर लागू नहीं किया जा सका। क्यों? 

विपक्ष की प्रतिक्रियाएं। 

‘‘हर शख्स बुद्धिमान है, जब तक वह बोलता नहीं’’, इस सिद्धांत के धुर विरोधी राहुल गांधी के इस संबंध में दिए गए बयान की बात कर लेते हैं। देश की विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस जो ‘‘इंडिया’’ को लीड करती हुई दिख रही है, के सर्वोच्च प्रभावशाली नेता राहुल गांधी का यह कथन की ‘‘वन नेशन वन इलेक्शन’’ ‘‘संघवाद पर चोट है’’ न केवल दुर्भाग्यपूर्ण है, बल्कि यह उनकी समझ पर भी ‘‘प्रश्न वाचक चिन्ह’’ फिर लगाता है, जैसा की उनकी भारत यात्रा के पूर्व कई अवसरों पर लगाया जाता रहा है। प्रश्न यह है कि क्या केंद्रीय सरकार ‘‘वन नेशन वन इलेक्शन’’ के द्वारा कोई नई चीज ला रही है, नई बात कह रही है? बिल्कुल भी नहीं। राहुल गांधी आलोचना में कभी इतने अंधे हो जाते हैं कि जब वे इस मुद्दे पर आलोचना करते हुए यह कह जाते हैं कि यह ‘‘संघवाद पर आघात’’ है, तो वे यह भूल जाते हैं कि वर्ष 1952 से लेकर 1967 तक हुए चुनाव ‘‘वन नेशन वन इलेक्शन’’ के तहत ही हुए थे। तब समस्त समय कांग्रेस की सरकारे ही थी। क्या तब भी वह संघवाद पर आघात था? ‘‘हंसुआ के ब्याह में खुरपी के गीत गाने वाले’’ कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने विरोध करते हुए कहा कि मोदी सरकार चाहती है कि लोकतांत्रिक भारत धीरे-धीरे तानाशाही में तब्दील हो जाए. एक राष्ट्र, एक चुनाव पर समिति बनाने की ये नौटंकी भारत के संघीय ढांचे को खत्म करने का एक हथकंडा है। ‘‘हमारे घर आओगे क्या लाओगे, तुम्हारे घर आएंगे क्या खिलाओगे’’ के आम आदमी पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने कहा कि देश के लिए क्या जरूरी है, वन नेशन वन इलेक्शन या वन नेशन वन एजुकेशन (अमीर हो या गरीब, सबको एक जैसी अच्छी शिक्षा), वन नेशन वन इलाज (अमीर हो या गरीब, सबको एक जैसा अच्छा इलाज), आम आदमी को वन नेशन वन इलेक्शन से क्या मिलेगा।

यह कोई नई नीति नहीं, पूर्व प्रचलित प्रणाली ही है। 

जैसा कि मैं पहले ही कह चुका हूं कि ‘‘वन नेशन वन इलेक्शन’’ कोई ‘‘नया सिद्धांत’’ ‘‘नीति’’ या ‘‘प्रणाली’’ नहीं है। बल्कि वर्ष 1952 से लेकर वर्ष 1967 तक वर्तमान (समय-समय पर संशोधित) जनप्रतिनिधित्व कानून के अंतर्गत ही इस देश में इसी नीति के तहत सफलतापूर्वक चुनाव होते रहे हैं। इसलिए इस नीति के ‘गुण’ (मेरिट्स) पर सिद्धांत न तो कोई आपत्ति की जा सकती है और नहीं कोई विवाद हो सकता है। इस नीति को पुनः धरातल पर उतारने से न केवल समय की बचत होगी, बल्कि भारी धन अपव्यय होने से भी बचेगा। क्योंकि जब स्थानीय निकायों से लेकर विधानसभा, लोकसभा के चुनाव होते हैं, तब दो-ढाई महीने पूर्व से चुनाव की तारीख की घोषणा के साथ ही आचार संहिता लागू कर दी जाती है और सरकार को नीतिगत निर्णय लेने से चुनाव आयोग द्वारा रोक दिया जाता है। वैसे समय-समय पर विभिन्न राजनेता गण इसकी वकालत करते रहे हैं। चुनाव आयोग ने वर्ष 82-83 में एक साथ चुनाव कराने के संबंध में सुझाव दिए थे। दिसम्बर 2015 में संसद की स्थायी समिति ने अपनी 79वीं रिपोर्ट में 1999 की बीपी जीवन रेड्डी की अध्यक्षता वाले ला कमीशन की 170 वीं रिपोर्ट के आधार पर दो चरणों में चुनाव करवाने की सिफारिश की थी? वर्ष 2017 में नीति आयोग ने भी एक साथ चुनाव का विश्लेषण ‘‘क्या, क्यों और कैसे’’ नाम से वर्किंग पेपर में किया था। वर्ष 2018 में जस्टिस बी एस चैहान की अध्यक्षता में गठित विधि आयोग ने भी संबंध में एक रिपोर्ट दी थी, जिसमें राजनैतिक दलों से विचार-विमर्श के साथ पांच संवैधानिक संशोधन करने की जरूरत बतलाई थी।

आम सहमति प्रथम प्राथमिकता। 

सरकार ने कमेटी की घोषणा जिस समय की है, उसकी ‘‘टाइमिंग’’ को लेकर जरूर सरकार को कटघरे में खड़ा करने का एक मौका अवश्य विपक्ष को दे दिया है। प्रश्न फिर वही है कि वास्तव में क्या सरकार इस मुद्दे पर संजीद है? क्योंकि यदि वास्तव में इसको धरातल पर उतारना है, तो कानून में संशोधन करने के पहले केंद्रीय सरकार का यह महत्वपूर्ण दायित्व बनता है कि वह ‘‘हंडिया चढ़ा कर नोन ढूंढने न निकले’’ बल्कि पहले समस्त राज्य सरकारों से इस संबंध में बात कर ‘‘सहमति बनाने का प्रयास अवश्य करें’’ और यदि सहमति बन जाती है, तब फिर कानून में कोई संशोधन करने की आवश्यकता ही उत्पन्न नहीं होगी। जैसा कि कहा जाता है कि ‘‘वक्र चंद्रमहि ग्रसहुं न राहु’’। इसी वर्ष जुलाई 2023 में संसद में सांसद किरोड़ी लाल मीणा द्वारा पूछे गए प्रश्न के उत्तर में कानून मंत्री अर्जुन मेघवाल का एक साथ चुनाव कराने के संबंध में यह जवाब था कि राजनीतिक दलों की आम सहमति के साथ देश का ‘‘संघीय ढांचा’’ होने के कारण राज्यों के साथ ‘‘सहमति’’ बनाए जाने की आवश्यकता है। साथ ही ऐसा किये जाने पर कई हजार करोड़ का खर्चा ‘‘ईवीएम’’ का बढ़ जाएगा। जबकि ‘‘एक साथ चुनाव’’ के पीछे का मुख्य उद्देश्य समय-धन कम करना ही बताया जा रहा है। वर्ष 1967 के बाद जब यह स्थिति उत्पन्न हुई है, जहां अधिकतर जगह केंद्र राज्यों के चुनाव अलग-अलग समय में होने लगे हैं, तो वह कानून में कोई परिवर्तन होने के कारण नहीं हुए हैं, बल्कि राजनीतिक परिस्थितियों के घटने के कारण वैधानिक रूप से उत्पन्न हुए हैं।

एक साथ चुनाव क्या ‘‘स्थाई’’ ‘‘रूप-स्वरूप’’ ले सकेगा?

आम सहमति न होने के की स्थिति में संवैधानिक संशोधन किए जा कर एक साथ लोकसभा विधानसभा के चुनाव एक या दो चरण में करने के बावजूद क्या भविष्य में भी यही स्थिति हमेशा रह पाएगी? देश की राजनीतिक स्थिति को देखते हुए यह बिल्कुल भी संभव नहीं है। भविष्य में केंद्र या राज्यों की सरकारें किसी भी कारण से गिरने से या भंग किये जाने की स्थिति में यह चक्र टूटना लाजिमी है। क्योंकि यह कानून नहीं बनाया सकता कि एक बार चुनी गई सरकार 5 साल की पूर्ण अवधि पूरा करेगी। चाहे संसद या विधानसभा में बहुमत हो अथवा नहीं। अथवा उनकी संसद या विधानसभा भंग करने की सिफारिश नहीं मानी जाएगी? हमारे देश में संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली है। अमेरिका के समान राष्ट्रपति प्रणाली नहीं है, जहां राष्ट्रपति प्रतिनिधि सभा या सीनेट के प्रति जिम्मेदार नहीं होता है। वैसे यह राज्य सरकार की नहीं बल्कि केन्द्र सरकार की समस्या ज्यादा है। तब फिर इस तरह की कवायद करने का अर्थ क्या है?

वैसे चुनाव आयोग को यह अधिकार है कि वह चुनाव को निर्धारित समय के साथ छः महीने पहले या छह महीने बाद तक कर सकती है। यदि चुनाव आयोग के इस अधिकार क्षेत्र को छः महीने की जगह 1 साल का अधिकार दे दिया जाये तो वह समस्त समस्या का व्यवहारिक हल यथा संभव उक्त ‘‘गोल’’ के निकट तक निकाल सकता है।

शुक्रवार, 1 सितंबर 2023

‘‘गैस सिलेंडर में ₹200 की छूट का ‘‘अर्थ’’, ‘‘अर्थशास्त्र’’ और ‘‘राजनीति शास्त्र’’! तथा पक्ष-विपक्ष के बीच ‘‘शास्त्रार्थ’’!

भूमिका

चुनावी वर्ष में हिंदू रीति रिवाज और त्योहारों का ख्याल हर राजनीतिक पार्टी बड़ी ‘‘चिंता’’ से ‘‘चिंता जनक स्थिति’’ को दूर करते हुए करती रही है। सर्व-धर्म, सर्वभाव की सिर्फ कल्पना ही नहीं, बल्कि दावा करने वाले समस्त राजनीतिक दल होते हैं। परंतु अन्य धर्मों के प्रति चुनावी वर्ष में भी वे उतने उदार होते हुए दिखते नहीं हैं, जितने हिंदू धर्म के प्रति। कारण! देश की लगभग 80% जनसंख्या हिंदू धर्म को मानने वाली है। आईये, प्रधानमंत्री की इस घोषणा के अर्थ और उसके पीछे छुपे समस्त ‘‘अर्थ’’ और ‘‘अनर्थ’’ का कुछ बारीकी से अध्ययन कर लें।
प्रधानमंत्री का "रक्षाबंधन" पर "सत्ता बंधन" को मजबूत करने का प्रयास।
शायद इसी दृष्टिकोण को ध्यान में रखते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने गैस उपभोक्ताओं को रसोई गैस सिलेंडर की कीमत में ₹200 की राहत की घोषणा की है, जिसमें 33 करोड़ एलपीजी उपभोक्ताओं को फायदा मिलेगा। ‘‘उज्ज्वला योजना’’ के अंतर्गत ₹200 सब्सिडी देने की घोषणा की है। इस प्रकार उक्त योजना में कुल ₹400 का फायदा एक गृहिणी को होगा। साथ ही 75 लाख नए गैस कनेक्शन ‘‘उज्जवला योजना’’ में जारी होने की घोषणा भी की गई है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने राजनीति से परे शुद्ध नीतिगत, जनोन्मुखी, कल्याणकारी योजना ‘‘उज्ज्वला योजना’’ वर्ष 1 मई 2016 में प्रारंभ की थी, जो वोट पाने की ‘‘लालच’’ से नहीं थी, क्योंकि तब न तो कोई चुनाव थे, और न ही चुनावी घोषणा पत्र में इस योजना का कोई उल्लेख किया गया था। अब रक्षाबंधन के अवसर पर प्रधानमंत्री ने ‘‘सत्ता विखंडन’’ से बचाने के लिए देश की बहनों को ₹200 का रक्षाबंधन का उपहार देकर ‘‘सत्ताबंधन’’ को मजबूत करने का प्रयास ही किया है। सफल कितना होगा? यह तो आगे समय ही बतलाएगा। प्रधानमंत्री ने रक्षाबंधन के अवसर पर ‘‘बहनों’’ का उल्लेख किया है, जैसा की समाचार पत्रों में पूरे पेज के विज्ञापनों से भी सिद्ध होता है। परंतु साथ ही रक्षाबंधन के साथ ‘‘मलयाली ओणम त्योहार’’ जो किसानों का एक बड़ा त्योहार होता है, का उल्लेख नहीं किया है। शायद इसलिए कि ओणम हिंदुओं का त्योहार होने के बावजूद वह सिर्फ मुख्य रूप से केरल प्रदेश तक ही सीमित है, जहां ‘‘लेफ्ट की सरकार’’ है।
सिलेंडर की कीमत का आधार एवं गणित।
देश में घरेलू एलपीजी की कीमत का निर्धारण मुख्यतः दो बातों पर निर्भर करता है। एक इंपोर्ट पैरिटी प्राइस (आईपीपी) के फार्मूले से तय होते हैं। भारत में आईपीपी का बेंचमार्क सऊदी अरब की सरकारी तेल कंपनी ‘‘सऊदी अरामको’’ एलपीजी की कीमत तय करती है। नवंबर 2020 की तुलना में गैस के दाम में 104 फीसद की बढ़ोतरी की गई। उस वक्त एलपीजी की दर 376.3 प्रति मीट्रिक टन थी, जो अभी 769.1 डॉलर प्रति मीट्रिक टन पर पहुंच गई है। वर्ष 2014 में यूपीए सरकार के समय सऊदी अरामको एलपीजी की कीमत 1010 डॉलर प्रति मीट्रिक टन थी, जो जनवरी 2023 में घटकर 590 डॉलर मीट्रिक टन हो गई। कच्चे तेल का भी यही हाल है। नवंबर 2020 में कच्चे तेल की दर 41 डॉलर प्रति बैरल थी, जो मार्च 2022 में 115.4 डॉलर पर पहुंच गई। यूपीए सरकार के समय वर्ष 2014 में सिलेंडर के दाम ₹410 थे, जब कच्चे तेल की कीमत 106.85 डॉलर प्रति बैरल के उच्च अंक पर थी, जिस पर जनता को सहूलियत देने के लिए 827 रुपए की सब्सिडी दी जाती थी। यूपीए सरकार की विदाई के बाद एनडीए सरकार में पहली बार 1 मार्च 2015 को गैस सिलेंडर की कीमत बढ़कर 610 रुपए हुई, जो बढ़कर 1 मार्च 2018 में 689 रू. हुई और 1 मार्च 2020 में 805.50 रू. होकर वर्तमान में 1103 रु. हो गई। इसका मुख्य कारण लगातार सब्सिडी को घटाना भी रहा है। वर्ष 17-18 में 23464, 18-19 में 37209 करोड़, 19-20 में 24172 करोड़, 20-21  में 11896 करोड़, 21-22 में मात्र 242 करोड़ सब्सिडी घटकर रह गई है।  
कीमत तय करने का दूसरा आधार डॉलर और रुपए का कन्वर्जन मूल्य है, जहां रुपये की कीमत लगातार गिरती जा रही है। स्पष्ट है कि 2020 में अंतर्राष्ट्रीय बाजार में एलपीजी के दामों में तेजी से बढ़ने से व देश में सब्सिडी लगातार कम किये जाने के कारण गैस की कीमत वर्तमान में 1103 रू. तक पहुंच गई। इसमें ही ₹ 200 की छूट प्रदान की गई है।
कीमत घटाने के पीछे की राजनीति।
अब इस रसोई गैस की कीमत कम करने के पीछे की न ‘‘नीति’’ न ‘‘अर्थनीति’’ बल्कि ‘‘राजनीति’’ को भी समझ लीजिए। रसोई के ईंधन के अन्य साधन लकड़ी, कोयला, कोक, मिट्टी का तेल इत्यादि को महिलाओं के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक विश्व स्वास्थ्य संगठन का हवाला देते हुए तब बतलाया जाता है, जब धरेलू गैस की कीमतें सरकारें चाहे केंद्र की हो अथवा राज्यों की हों, कम करती है। परंतु आश्चर्य की बात तब होती है, जब ये ही सरकारें इनकी कीमत बढ़ाई जाती हैं, तब उन्हे महिलाओं के ‘‘स्वास्थ्य’’ का ध्यान बिल्कुल भी नहीं रहता है। यही ‘‘राजनीति’’ है, ‘‘नीति’’ नहीं। महंगाई की दौर में गैस कीमतों में की गई कमी को इस तरह से भी देखिये कि जिस प्रकार यूपीए-1 की तुलना में यूपीए-2 के असफल होने से उन्हें सत्ता से वंचित होना पड़ा था। ठीक लगभग कुछ वैसी ही स्थिति एनडीए-1 की तुलना में एनडीए-2 की वर्तमान में हो गई हैं। एनडीए के प्रथम कार्यकाल में मात्र 135 रू. गैस की कीमत में बढ़ोतरी हुई, जबकि वर्तमान द्वितीय कार्यकाल में कुल 645 रू. की की गई। इस कारण से प्रधानमंत्री कहीं न कहीं सत्ता जाने की आशंका से ग्रस्त हो गए लगते हैं। इस कारण चुनावी वर्ष में कुछ न कुछ राहत देते हुए कार्रवाई करते दिखते जाना राजनैतिक मजबूरी भी बन गई थी।
छोटे व्यावसायिक उपयोग की एलपीजी पर राहत क्यों नहीं?
कांग्रेस प्रवक्ता सांसद रणदीप सुरजेवाला का यह कहना है कि इन साढ़े 9 सालों में मोदी सरकार ने लगातार गैस के दाम बढ़ाकर 8 लाख 33 हजार करोड़ (यूपीए-एनडीए के समय गैस की कीमत के अंतर के आधार पर की गई गणना) से ज्यादा की वसूली जनता से की है। यद्यपि यह आकड़ा सत्यापित नहीं है और अतिरंजित भी हो सकता है, क्योंकि उक्त गणना में अंतरराष्ट्रीय बाजार में कीमतों में हुए उतार चढ़ाव के प्रभाव को शामिल नहीं किया गया लगता है। वास्तव में कीमतों में कमी का निर्णय यदि नीतिगत होता तो, जिस प्रकार घरेलू उपयोग की एलपीजी के लिए ‘‘उज्जवला योजना’’ बनाई गई, तब क्या व्यावसायिक उपयोग में आने वाली एलपीजी गैस के लिए भी कोई योजना नहीं बनाई जा सकती थी? एक खोमचे वाला, ढाबे, ‘‘चाय’’ की गुमठियों, छोटी होटलें जो जीएसटी की पंजीयन की सीमा में नहीं आती है और बड़ी होटलें तथा 3-5-7 स्टार होटलों में उपयोग में आने वाली सिलेंडर के दाम एक समान नहीं रखे जाते? साथ ही शादी-ब्याह, भंडारा में सिलेंडर का उपयोग व्यावसायिक नहीं माना जाता। स्पष्ट है, इस पर कभी भी विचार ही नहीं किया गया, क्योंकि इस संबंध में ‘‘नीतिगत’’ निर्णय लेने से परहेज किया गया। प्रधानमंत्री के इस निर्णय से चूक भी प्रदर्शित होती लगती है। जिस प्रकार सिक्के के दो पहलू होते हैं, तलवार द्विधारी होती है, उसी प्रकार प्रधानमंत्री के गैस सिलेंडर की कीमत कम करने के निर्णय का दूसरा पहलू का एक मैसेज स्पष्ट संकेत यह भी जाता है कि प्रधानमंत्री ने एक तरह से यह स्वीकार कर लिया है कि देश की जनता महंगाई से पीड़ित है। तब इसके लिए जिम्मेदार कौन? महिलाएं जो इस कमर तोड़ महंगाई का सामना अपनी रसोई घर में ज्यादा महसूस करती हैं, वहां कुछ राहत प्रदान कर महिलाओं को अपनी और झुकाया जा सके। प्रधानमंत्री का उक्त घोषणा या कहें उद्घोषणा का उद्देश्य भी शायद यही है।
देश की आधी जनसंख्या (महिलाएं) का सिर्फ ‘‘वोट’’ के रूप में उपयोग। परन्तु ‘‘अपेक्षा के बदले उपेक्षा’’।
देश की लगभग कुल 95.50 करोड़ मतदाताओं में से लगभग 46 करोड़ से अधिक मतदाता महिलाएं है, जिन पर सावन का तथाकथित उपहार (जो वस्तुतः उपहार न होकर यह  उनका हक है) के ‘‘भार का दबाव’’ बनाकर संतुष्ट कर सत्ता फतेह की जा सके। परंतु समस्त राजनीतिक पार्टियों कुल मतदाताओं का लगभग आधा भाग महिलाओं के मतों (वोट) की ‘‘आशा’’ की टकटकी लगाये समानांतर जब लोकतंत्र में चुनावों में जनता के बीच जाने के लिए टिकट देने की बात आती है, तब समस्त राजनीतिक दल महिलाओं की लगभग 50% की भागीदारी को बहुत आसानी से सुविधाजनक रूप से भूल जाते हैं। दुखद विषय तो यह भी है कि महिलाएं भी इस ‘‘भूल’’ की सजा उन राजनीतिक पार्टियों को चुनाव में नहीं देती है। शायद इसी कारण से जब सत्ता में भागीदारी की बात उठती है, तब समस्त नेतागण महिलाओं की एकजुटता न रहने के कारण अपेक्षा के बदले उनकी ‘‘उपेक्षा’’ जब तब करते रहते हैं। इसलिए सिद्धांत रूप से समस्त राजनीतिक दलों में सहमति होने के बावजूद आज भी संसद में लोकसभा-विधानसभा की 33% सीटों पर आरक्षण का कानून पारित नहीं हो पाया है। यह सिर्फ महिलाओं का ही नहीं, देश का भी दुर्भाग्य है।
तथापि जहां तक मध्य प्रदेश का सवाल है, शिवराज सिंह की सरकार ने महिला के जन्म लेने से लेकर मृत्यु तक संपूर्ण समृद्ध जीवन के लिए 147 सरकारी योजनाएं लागू की है, जिस कारण आधी जनसंख्या को फायदा शिवराज सिंह को निश्चित रूप से मिलेगा। प्रश्न यह जरूर है कि यह फायदा निर्णयात्मक होगा अथवा नहीं?

रविवार, 27 अगस्त 2023

‘‘क्या पीएम मोदी के चेहरे पर लड़ा जाएगा? मध्यप्रदेश का चुनाव।’

आज तक का सर्वे-‘‘एनडीए-306’’

हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक के विधानसभा चुनाव में अप्रत्याशित भारी हार ने भाजपा नेतृत्व के माथे पर चिंतन की भारी लकीरें खीच दी हैं। चिंतन की लकीरे सिर्फ आगामी होने वाले 4 राज्यों के विधानसभा चुनावों को लेकर ही नहीं हैं। इनमें से दो राज्यों में तो कांग्रेस सत्ता में है तथा एक में भाजपा ने जनादेश का मानमर्दन कर सत्ता प्राप्त की, तथा एक अन्य प्रदेश तेलंगाना में भाजपा लगभग नगण्य स्थिति में है। भाजपा हाईकमान को चारों प्रदेशों से मिल रही लगातार चिंतनीय खबरों को देखते हुए चिंता का मुख्य कारण विधानसभा चुनाव न होकर वर्ष 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव हैं, जहां अभी तक भाजपा 300 के पार का दावा करती थकती नहीं थी। परन्तु अब बहुमत पाने के ही लाले पड़े रहे है। ‘‘आज तक’’ (इंडिया टुडे-सी-वोटर) के नवीनतम सर्वे में आज चुनाव होने पर एनडीए को 306 (भाजपा को नहीं, जो आंकडा पिछले चुनाव में था) सीटे मिलती हुई दिख रही हैं। वोटों के हिसाब से 43 प्रतिशत एनडीए एवं 41 प्रतिशत इंडिया को मिलने की संभावना बताई गई है। हम सब जानते है कि मुख्य धारा के न्यूज चैनलस् की मजबूरी  आर्थिक व राजनीतिक दबाव के कारण कहीं न कहीं भाजपा को वस्तु स्थिति को बढ़ाकर बढ़त दिखाने की होती है। इसलिए इस सर्वे से यह तो स्पष्ट है कि एनडीए को ही बहुमत के लाले पड़ रहे हैं। क्योंकि सर्वो में सामान्यतया भाजपा को कहीं न कही  20-25 प्रतिशत तक वास्तविकता से ज्यादा बढ़त दिखाने का प्रयास सर्वे एजेंसियां अपने हितों को सुरक्षित करने के कारण करती ही है। "अंतर अंगुली चार का, झूठ सांच में होय"। वर्तमान राजनीतिक परिप्रेक्ष्य को देखते हुए ऐसा होना स्वाभाविक भी है। 

भाजपा की चिंता

अतः यदि आगामी होने वाले विधानसभा चुनाव में विपरीत परिणाम मिलते हैं, जैसे कि लगभग आसार/आशंका लगातार व्यक्त की जा रही है, तो इसका निश्चित ‘‘दुष्प्रभाव’’ लोकसभा चुनाव पर पड़ना स्वभाविक है। तब शायद एनडीए को भी बहुमत पाने के ‘‘लाले’’ पड़ जाये। "आवाज़े ख़ल्क़ को नक्कारा ए ख़ुदा समझना चाहिए"। यही कारण है कि संघ व भाजपा का नेतृत्व इन राज्यों में खासकर मध्यप्रदेश में जहां लगातार चिंतन, मंथन भी अभी तक निश्चयात्मक परिणाम दशा, दिशा तय नहीं कर पा रहे हैं। देश का हृदय प्रदेश मध्य प्रदेश वह प्रदेश रहा है, जो भाजपा की मूल जनसंघ की कर्मभूमि रही है, जिसे वर्तमान भाजपा की प्रयोगशाला कहा जाए जो गलत नहीं होगा। यद्यपि पिछली विधानसभा के चुनाव परिणामों ने यह भी सिद्ध किया है कि विधानसभा चुनावों में हुई हार के बावजूद, तत्काल बाद में हुए लोकसभा चुनाव में भाजपा ने उन्हीं प्रदेशों में अच्छी खासी ही नहीं, बल्कि अप्रत्याशित सफलता प्राप्त की थी। उक्त सफलता की दोहराए जाने की संभावनाओं से पूर्णतः नकारा नहीं जा सकता है। क्योंकि तब सिंगल वोट मोदी की सरकार को  देना होता है। इसके सफल होने पर ही राज्यों की ट्रेन में डबल इंजन होगा।

 प्रधानमंत्री के लगातार दौरे

 प्रधानमंत्री के पिछले तीन महीनों में हुए  मध्यप्रदेश के लगातार दौरे जिसमें भोपाल का वह चर्चित चेतावनी संदेश देने वाला दौरा भी रहा है, जिसके परिणाम स्वरूप ही महाराष्ट्र के बन गये नये वर्तमान हालात माने जा रहे हैं। अतः यह अनुमान लगाना गलत नहीं होगा कि मध्यप्रदेश में भाजपा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के चेहरे पर चुनाव लड़ने जा रही है। वैसे भी राज्यों के संबंध में यह कोई नई बात नहीं है। आप किसी भी राज्य के चुनाव को देख लीजिए, भाजपा ने वे सब चुनाव प्रायः प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के चेहरे पर ही लड़े हैं। हिमाचल, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल का या उनके गृह राज्य गुजरात का हो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के चेहरे पर ही विधानसभा चुनाव लड़े गये। परन्तु अब मध्यप्रदेश में प्रधानमंत्री के चेहरे के संबंध में नीति थोडी बदली गई लगती है। पहली बार शिवराज सिंह सरकार के विज्ञापनों में अब मोदी-शिवराज ( मोदी पहले शिवराज बाद में) सरकार का उल्लेख किया जा रहा है, जो पिछले आम चुनाव में नहीं था। अर्थात प्रधानमंत्री के चेहरों को शिवराज सिंह के चेहरे के साथ नहीं बल्कि उनके ऊपर रखकर शिवराज सिंह को मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित न किया जाकर सिर्फ मोदी के नाम पर केन्द्रित करने की चुनावी रणनीति बनाई जा रही है। 

‘‘मामा’’ के साथ अब ‘‘भाई’’ शिवराज

    यदि हम मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की बात करे तो भाजपा शासित किसी भी प्रदेश की तुलना में शिवराज सिंह चौहान पिछले लगभग 17 सालों से लगातार लोकप्रिय चेहरे के रूप में रहे है। पहले ‘‘मामा’’ और अब साथ में ‘‘भाई’’ (लाडली बहना योजना के कारण) के रूप में अपनी पहचान बना रहे हैं। 

सत्ता विरोधी कारक-शिवराज सिंह का चेहरा

याद कीजिए वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव के समय जब नरेन्द्र मोदी का प्रधानमंत्री के पद के लिए नाम आया था, तब लालकृष्ण आडवानी ने शिवराज सिंह का नाम आगे किया था। इससे उनकी महत्ता स्थापित होने के बावजूद और पंचायत स्तर तक उनकी लोकप्रियता व अपनी पहचान बनाये रखने के बावजूद यदि भाजपा को मध्यप्रदेश में अलग तरीके से मोदी का चेहरा बनाना पड़ रहा है या बनाया जायेगा, तो इसका कारण एकमात्र यही है कि शिवराज सिंह चौहान ने इस समय अपने व्यक्तित्व केे स्वरूप को बड़ा कर दूधारू तलवार के रूप में बना लिया है। शिवराज सिंह ने प्रदेश में नया नेतृत्व पैदा न होने के साथ दूसरे विद्यमान नेतृत्व की धार को बोठल कर दिया है। दूरस्थ अंचल तक पूरे प्रदेश में अपनी पहचान बनाई और अपना प्रभाव बनाया। इस कारण भाजपा नेतृत्व को शिवराज सिंह को छेड़ने में कहीं न कहीं भय बना रहता है। शायद इसीलिए केंद्रीय नेतृत्व शिवराज सिंह को छेड़ने से परहेज भी कर रही है। क्योंकि कर्नाटक में अपने प्रादेशिक मजबूत नेता येदुरप्पा को अपेक्षा के अनुरूप उतना महत्व न दिये जाने का परिणाम भुगत चुकी है। विपरीत इसके नेतृत्व का एक मत यह भी है कि 17 सालों की लम्बी सत्ता की कुर्सी पर विराजमान होने के कारण स्वभावत: उत्पन्न एंटी इनकंबेंसी फैक्टर (सत्ता विरोधी कारक) के पैदा होने के कारण उससे निपटने के लिए शिवराज सिंह की रवानगी ही सबसे सफल अस्त्र होगा। सबसे प्रमुख लक्षण जो चिंताजनक है, वह सत्ता विरोधी कारक संगठन अथवा सत्ता के प्रति उतना नहीं है, जितना शिवराज सिंह के व्यक्तिगत चेहरे को लेकर है। यह तो वही बात हो गयी कि "बूढ़ा हाथी फ़ौज पर भारी"। 

शायद इसीलिए इसके पूर्व ‘‘अबकी बार शिवराज सरकार’’ का नारा देने वाले कार्यकर्ताओं से जब बात करते है तो वे अब यह कहते हैं कि ‘‘अबकी बार भाजपा सरकार’’ लेकिन चेहरा शिवराज सिंह चौहान का नहीं। पार्टी के समर्थक लोग भी जो सामान्यतया कोई कमियां या बुराइयां नहीं गिनाते है, वे भी यही कहते है कि अब तो बख्सो शिवराज! अतः शिवराज के चेहरे व नाम से ऊब सी गई है, जो सिर्फ कार्यकर्ताओं में नहीं बल्कि उस आम जनता के बीच में भी है, जिनके लिए शिवराज सिंह ने पैदा होने से लेकर जीवन की अंतिम यात्रा तक में निर्धन वर्गो के लिए विभिन्न योजनाएं लागू की है। राजनीति का यह नया और विरोधाभास विरोधाभासी चेहरा, व्यक्तित्व शिवराज सिंह का बन गया है, जिसका सफलता पूर्वक सामना करने की समझ भाजपा अभी तक बना नहीं पा रही है। इसीलिए विभिन्न एजेंसीस् के लगातार आ रहे आंतरिक सर्वो में, जहां कांग्रेस को अच्छी खासी बढ़त दिखाई जा रही है और विरोधी मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में भी कमलनाथ को बढत दिखाई जा रही है, बावजूद इसके भाजपा जीत को सुनिश्चित करने के लिए चुनाव शिवराज सिंह को मुख्यमंत्री या बिना मुख्यमंत्री के रूप में लडाया जाये अथवा नहीं को अंतिम रूप से शायद कुछ समय के भीतर तय कर ही लेगी । मेरा मानना है कि यदि आगे शिवराज सिंह के जनता को लुभावने के समस्त प्रयासों के बावजूद मौजूदा परिस्थितियों में सकारात्मक झुकाव नहीं आता है, तो फिर पार्टी के पास विकल्प क्या है?

भाजपा हाईकमान को एक संशय प्रधानमंत्री की छवि को लेकर भी है। पिछले आम चुनाव के परिणाम के समान  इस आम चुनाव में भी मध्यप्रदेश में भी यदि वहीं पिछले परिणाम दोहराये गये तो, दो चुनाव लगातार हारने की स्थिति में 2024 के चुनाव में प्रधानमंत्री की  जिताऊ छवि को गंभीर खतरा उत्पन्न हो सकता हैं। इसलिए मध्यप्रदेश में लगातार पार्टी संगठन के स्तर पर कसावट लाकर धरातल पर कार्यकर्ताओं को चुनाव की भट्टी में धोक रही है। पहली बार काफी समय बाद यह देखने को मिला कि भाजपा के पहले कांग्रेस ने प्रियंका गांधी की जबलपुर में सभा कराकर चुनावी एलान की घोषणा कर दीथी। याद कीजिए मध्यप्रदेश के चुनावों में प्रधानमंत्री की इसके पूर्व इतनी भागीदारी नहीं रही। 18 साल के भाजपा के शासन और प्रयोगशाला होने के बाद भी यदि आज प्रधानमंत्री के चेहरे के रूप में या नाम पर चुनाव लड़ने की नीति बनाई जा रही है, तो निश्चित रूप से भाजपा कहीं न कहीं कमजोर होती दिख रही है। पिछले विधानसभा चुनाव के परिणाम से भी यही सिद्ध होता है। प्रधानमंत्री के चेहरे का प्रभाव लड़ाई को कांटे में और कांटे की लड़ाई को जीत में बदल सकता है। "अलख राजी तो ख़लक़ राजी"।

बुधवार, 16 अगस्त 2023

‘‘राक्षस प्रवृत्ति’’ की ‘‘स्व-स्वीकृति’’


‘श्राप’’ कहीं ‘‘भस्मासुर’’ न बन जाये।

भूमिका

‘‘लोकतंत्र’’ में जनता जनार्दन ही सब कुछ ही होती है। जनता को ‘‘भगवान’’ मानते है, खासकर राजनेता गण। यह बात कहते-कहते हमारे जन नेता थक जाते हैं, फिर भी लगातार कहते है। लोकतंत्र में चुनाव परिणामों में जनता के निर्णय अर्थात ‘‘जनादेश’’ को सिर-आंखों पर रखकर ‘‘शिरोधार्य’’ किया जाता है, चाहे परिणाम आपके पक्ष में हो अथवा विपक्ष में हो। परन्तु राजनीति के इतिहास में आज तक कभी ऐसा नहीं हुआ, न देखा, न पढ़ा, न कोई सोच सकता है, जैसा कि रणदीप सिंह सुरजेवाला ने उस जनता के प्रति जिसने साठ सालों से अधिक समय तक कांग्रेस को शासनारूढ़ किया, के प्रति कहा। अभी तक तो सिर्फ यह कल्पना की बात थी, लेकिन श्राप देने वाले स्वयं को ‘‘भगवान’’ की श्रेणी में रखकर अपने मुखारविंद से उक्त शब्दों को जमीन पर भी उतार दिया है। आखिर सुरजेवाला ने कह क्या दिया, जिससे इतना बड़ा बवंडर मच गया। 

सुरजेवाला के ‘‘सत्य वचन’’? ‘‘आत्मघाती गोल’’!

कांग्रेस महासचिव जो खुद जनता के सीधे चुनाव में कई बार हार चुके हैं, पीछे के दरवाजे से संसद (राज्यसभा) में जरूर प्रवेश करने वाले रणदीप सिंह सुरजेवाला ने हरियाणा के कैथल के उदयसिंह किले में आयोजित जन आक्रोश रैली में बयान दिया ‘‘भाजपा का जो समर्थन करता है या जो भी उन्हें वोट देता है, वह ‘‘राक्षस प्रवृत्ति’’ का हैं। मैं उन्हें महाभारत की धरती से श्राप देता हूं’’। ‘‘अंधा कहे ये जग अंधा’’। यह कथन जनता के लिए अथवा दूसरों के लिए जरूर शर्मसार करने वाला हो सकता है। परन्तु कांग्रेस के लिए यह वास्तव में ‘‘गर्व’’ करने वाली बात है, शायद इसलिए ही उक्त बयान दिया गया है। वास्तव में इस बयान के द्वारा रणदीप सुरजेवाला ने अपनी ‘‘असलियत’’ ही स्वीकार की है। इसलिए आप काहे उनकी आलोचना कर कर उन्हें सुधरने का मौका दे रहे है? देश की लगभग जिन 37 प्रतिशत मतदाताओं ने पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा को चुना, उन्हें सुरजेवाला ने राक्षस प्रवृत्ति करार ठहराया दिया। वह शायद इसलिए कि यदि कांग्रेस की ‘‘राक्षसी प्रवृत्ति’’ से निपटना है, तो जनता को भी उसी राक्षस प्रवृत्ति को ही अपनाना होगा। ठीक उसी प्रकार जैसे कि लोहा, लोहा को काटता है। यह बात जनता के दिमाग में भी है और कांग्रेस के दिमाग में तो है ही। इसलिए जब-जब आवश्यकता होती है, जनता राक्षसी स्वरूप अपनाकर रावण रूपी राक्षस को ‘‘राम’’ के सिंहासन पर आने से रोकती है। इसलिए कभी 404 सांसदों वाली पार्टी आज 52 पर ही सिमट गई। क्योंकि कांग्रेस के ‘‘अंधे हाथी अपनी ही फौज को रौंदते हैं’’। कांग्रेस की राक्षस प्रवृत्ति का स्वाभाविक परिणाम जनता की ‘‘अस्वाभाविक स्थिति’’ ‘‘राक्षस प्रवृत्ति बनकर’’आयी। 

सुरजेवाला! ‘‘ऋषि’’?

सुरजेवाला का अगला कथन तो और भी खतरनाक है, जब वे यह कहते हैं कि मैं उन्हें महाभारत की धरती से श्राप देता हूं। यह कहकर उन्होंने प्रधानमंत्री के उक्त कथन की पुष्टि ही की है, जब नरेन्द्र मोदी ने ‘‘इंडिया’’ गठबंधन को ‘‘घमंडिया गठबंधन’’ कहा। क्योंकि ‘‘अक्ल और हेकड़ी दोनों साथ-साथ नहीं चल सकते’’। और ‘‘अक्ल का तो आवा का आवा ही कच्चा रह गया’’। 21वीं सदी के कलयुग में ‘‘श्राप’’ देने का अधिकार यदि कोई मानव अपने पास मानता है, तो निश्चित रूप से वह भगवान के अधिकार को छीनकर घमंडी होकर ही ऐसा कर सकता है। ‘‘र्दुःविचार’’ रखने वाले सुरजेवाला शायद स्वयं को आज के ‘‘महर्षि दुर्वासा ऋषि’’ मान बैठे हैं? चूंकि हरियाणा की जनता ने उन्हें दो-बार चुनावों में हराया है। शायद कही इस कारण से तो ही नहीं उन्होंने क्रोधित होकर हरियाणा की जनता को श्राप देकर अपनी ‘‘औकात’’ दिखाई या जनता की अप्रत्यक्ष रूप से औकात में रहने को कहां? यह तो वक्त ही बतलायेगा।

‘‘अमर्यादित बिगड़ते बोलों पर रोक आखिर कब?’

संसद, विधानसभा के अंदर कहे जाने वाले असंसदीय शब्दों को तो स्पीकर के द्वारा परिभाषित किया जा चुका है। इसकी किताब/शब्दावली भी लिखी जा चुकी है। परन्तु चुनाव आयोग ने संसद के बाहर राजनीतिक पार्टियों द्वारा बोले जाने वाले ‘‘असंसदीय’’ ही नहीं, बल्कि ‘‘अमर्यादित’’, अराजक शब्दों की कोई सूची अभी तक नहीं बनाई है। यदि टीएन शेषन समान कोई चुनाव आयुक्त आज होते तो इस बात पर वे जरूर सोचते। टीएन शेषन के जमाने में इस तरह का निम्न स्तर की इतनी गाली गलौज अपशब्द या अशोभनीय भाषा का उपयोग नहीं हुआ करता था अन्यथा वे तभी इस ‘रोग’ को भी ठीक कर देते। परन्तु आज की राजनीति के बिगड़ते हालात को देखते हुए शायद टीएन शेषन जैसा चुनाव आयुक्त आ भी जाये, तब भी वह ऐसी सूची, शब्दावली बनाने से इंकार कर देता। क्योंकि ‘‘तू डाल डाल मैं पात पात’’ की तर्ज पर जितने शब्दों को चुनाव आयोग असंसदीय घोषित करता, तत्पश्चात हमारे प्रिय नेतागण चाहे वह किसी भी झंडे के तले हो, प्रत्येक दिन नये-नये अमर्यादित, शब्दावली ले आयेगें। आखिरकार चुनाव आयोग को थककर हारकर इस मुहिम को बंद करना ही पड़ेगा। क्योंकि यह अंतहीन किताब लिखी जाने वाली हो जायेगी। वर्तमान में हमारे देश में जो लोकतंत्र है, वह ‘‘राजनीति’’ से चलता है, ‘‘नीति’’ से नहीं! आज की राजनीति की ‘‘भूमि’’ इतनी उपजाऊ हो गई है कि नये-नये गाली गलोच से भरे शब्दों की उत्पत्ति होते ही रहेगी। इसलिए कृपया सुरजेवाला को बख्श दीजिए। जनता पहले तो ‘‘इहां कुम्हड़बतिया कोऊ नाहीं’’ वाले रूख पर रहती हैं, फिर अपना रूप बदलकर सक्षम होकर सबक सिखाना भी जानती है, इसमें और किसी की सलाह की आवश्यकता नहीं है।

न तो बयान से इंकार! न क्षमा!

अभी तक सुरजेवाला ने न तो इस बयान से इंकार किया और न ही कोई स्पष्टीकरण दिया है। ‘‘कहते नाहिं लाजे तो सुनते क्यों लाजे’’ कांग्रेस पार्टी ने भी न तो इस बयान की आलोचना की है और न ही इससे अपने को अलग किया है। साथ ही कांग्रेस ने इसे सुरजेवाला का निजी बयान भी अभी तक नहीं बतलाया है। हो यह जरूर कहा गया कि उनके भावार्थ को समझिए, शाब्दिक अर्थों को नहीं। तो फिर कथन के आपत्तिजनक शब्दों को अभी तक ठीक क्यों नहीं किया? अतः यहां अर्थ का अनर्थ कोई नहीं निकाल रहा है?

शुक्रवार, 11 अगस्त 2023

‘‘फ्लाइंग किस’’! फ्लाइंग (‘‘हवा हवाई’’) आरोप? या शिष्टाचार!

 राहुल गांधी! क्या ‘‘पुनः निष्कासन की तैयारी’’?

धारा 354ः-

कृपया भारतीय दंड संहिता की धारा 354 (यौन उत्पीड़न) का अवलोकन करें। संसद में अविश्वास प्रस्ताव के बहस के दौरान राहुल गांधी द्वारा स्मृति ईरानी के प्रति अभद्र तरीके से ‘‘अनुचित इशारा’’ (तथाकथित फ्लाइंग किस) के संबंध में केंद्रीय मंत्री शोभा करंदलाजे ने एनडीए की 20 सांसदों के हस्ताक्षर युक्त एक लिखित शिकायत स्पीकर को दी। (सदन के बाहर, कोतवाली में नहीं?) जबकि प्रेस से बातचीत करते हुए उन्होंने यह कहा कि राहुल गांधी; स्मृति ईरानी एवं सभी महिला सदस्यों को फ्लाइंग किस देकर चले गये। तथापि स्मृति ईरानी ने स्वयं के प्रति उक्त अभद्र व्यवहार का आरोप न लगाते हुए महिला सांसदों के प्रति अभद्र तरीके से अनुचित इशारे के हाव भाव के साथ स्त्री द्वेष का आरोप राहुल गांधी की तथाकथित हरकत के लगभग 35 मिनट बाद (12.47 दोप.-1.22 दोप.) (जानकारी प्राप्त होने पर?) राहुल गांधी पर लगाया। तथापि उल्लेखनीय बात यह भी है कि यौन शोषण (‘‘फ्लाइंग’’ नहीं ‘‘टच’’) के आरोपी ब्रज भूषण शरण सिंह जो आसपास दो ही लाइन पीछे बैठे थे, पर इन शिकायतकर्ता महिला सांसदों को कोई आपत्ति नहीं होती है। मणिपुर में 2 महिलाओं को वस्त्र हीन कर सार्वजनिक रूप से जुलूस में घुमाने पर कोई लिखित या मौखिक आपत्ति या बयान दर्ज नहीं कराती है? अजीब बात है ‘‘औरों को नसीहत खुद मियां फजीहत’’। 

अध्यक्ष द्वारा कार्रवाई की जाने की स्थिति में राहुल गांधी के विरूद्ध उक्त तथाकथित अपराध के लिए अधिकतम धारा 354 भादस के अंतर्गत प्रकरण दर्ज हो सकता है। वैसे अध्यक्ष की अनुमति के बिना संसद के भीतर कहे गए किसी भी कथन का आपराधिक संज्ञान न्यायालय में नहीं लिया जा सकता है। धारा 354 में न्यूनतम 1 वर्ष से अधिकतम 5 वर्ष की सजा का प्रावधान है। अर्थात 2 वर्ष से अधिक की सजा का प्रावधान होने के कारण यदि राहुल गांधी के विरुद्ध प्राथमिकी दर्ज होकर मुकदमा चलता है और यदि राहुल गांधी को पुनः सजा 2 साल से अधिक की हो जाती है, तो राहुल गांधी फिर से संसद से निष्कासित हो जाएंगे। इसे कहते हैं ‘‘ओखली में हाथ डाले, मूसली को दोष देवें’’। अप्रैल 2021 में चुम्बन फेंकने के एक मामले में मुम्बई की एक अदालत में 20 वर्ष के एक व्यक्ति को सजा हुई थी।

मणिपुर मुद्दा! साइड लाइनः

दुर्भाग्यवश देश का सुलगता हुआ ज्वलंत मुद्दा ‘‘मणिपुर की हिंसा’’ पर नियमों के चक्रव्यूह में फंसने के कारण सीधे बहस न होने के कारण विपक्ष को मजबूरी में अविश्वास प्रस्ताव लाना पड़ा। परंतु यहां भी ‘‘अवसर चूकी डोमनी गावे ताल बेताल वाली बात हो गई’’, जबकि जहां बहस में सदन के माननीय सदस्य गण बजाय इस बात के कि वे मणिपुर के वर्तमान और भविष्य का स्वर्णिम इतिहास बनाने की योजना को बताते? वे मणिपुर पर कम, परन्तु एक दूसरे का इतिहास खंगालने में ज्यादा लग गए। बहस के दौरान राहुल गांधी के चुभते बाणों (कितने सही या गलत? यह अलग विषय है) से विचलित होकर ‘‘विषयांतर’’ करने के उद्देश्य से फ्लाइंग किस का मुद्दा बनाकर, उछाल कर एनडीए सफल होता हुआ दिख रहा है, जब मीडिया में राहुल गांधी के भाषण पर फ्लाइंग किस कदर हावी हो गया। दरअसल ‘‘एब को भी हुनर की दरकार होती है’’ अन्यथा ‘‘गुनाहे बेलज्जत’’ वाली स्थिति बन जाती है, यह स्पष्ट दिखाई दे रहा है। 

फ्लाइंग (ब्लोइंग) किस! (उड़न चुम्बन)ः-

अतः सर्वप्रथम इस बात को समझना अत्यंत जरूरी है कि ‘‘फ्लाइंग किस’’ होता क्या है? क्या यह एक अभिवादन है? सही या गलत गेस्चर (हाव भाव, इशारा) है? अथवा अनैतिक संकेत है? या ‘‘यौन अपराध’’ के अंतर्गत आता है? फ्लाइंग किस किसे ब्लोइंग (फेका हुआ) किस भी कहा जाता है, एक हाव भाव है, जो ‘‘स्नेह’’ (अफेक्शनेट) भाव, आभार का प्रतीक है। यह सामान्य रूप से कुछ दूरी से सुनने वाले समर्थकों को सामान्यतः एकनॉलेज (स्वीकार) के लिए किया जाता है। इसका प्रयोग प्रेम, आदर व आशीर्वाद व शुभकामनाएं के रूप में किया जा सकता है। इसका मूल सामाजिक अर्थय इसके माध्यम से दूसरों को अपनी खुशी और प्रेम की भावना का अनुभव कराना हैं। यह एक सामाजिक और नैतिक मापदंड का प्रतीक है। वैसे किस 20 से ज्यादा प्रकार के (लगभग 23) होते है और वे आपत्तिजनक होकर अपराध की श्रेणी में आते है या नहीं है यह आशय व परिस्थितियों पर निर्भर करता है। राहुल गांधी के संसद के पिछले सत्रों में ‘‘गले मिलने’’ ‘‘झपकी’’ से लेकर ’’आंख मारने‘‘ तक की ‘‘ऐसी करी की धोए न छूटे’’ वाली हरकतें होने के साथ ‘‘मोहब्बत की दुकान’’ कथन का बार-बार रट लगाने वाले से ‘‘फ्लाइंग किस’’ की हरकत को एकदम से नकारा भी नहीं जा सकता है। बावजूद इसके इस बात को देखना आवश्यक होगा कि राहुल गांधी के भाषण समाप्त होने के बाद और केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी के भाषण प्रारंभ होने के पूर्व वास्तव में राहुल गांधी ने क्या किया था? स्वयं राहुल गांधी का अभी तक इस संबंध में कोई खंडन या बयान नहीं आया है। बावजूद इसके वे इस आरोप को कम से कम में स्वीकार करने से तो रहे? तथापि प्रसिद्ध अभिनेत्री व भाजपा महिला सांसद हेमा मालिनी ने उक्त घटना को देखने से इनकार किया है। ‘अपराध’ का भी सत्ता पक्ष-विपक्ष के बीच विभाजन

बड़ा प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि राहुल गांधी जैसा कि बताया जा रहा है कि वे स्पीकर की ओर मुखबिर होकर कुछ इशारा कर रहे थे, जिनको 20 महिला सांसदों ने ‘‘फ्लाइंग किस’’ माना है। क्या वह इशारा सिर्फ भाजपा के महिला सांसदों के प्रति कैसे हो गया? जब राहुल गांधी और स्पीकर की आंसदी के बीच क्या सिर्फ वही 20 भाजपा महिला सांसद थी, जो एक साथ एक जगह नहीं, बल्कि विभिन्न जगह बैठी हुई थी? क्या हवा की दिशा (डायरेक्शन) इतनी सधी हुई थी की, "फ्लाइंग किस" किसी विपक्षी महिला सांसदों की ओर नहीं गई? अन्य बैठे पुरुष सांसदों की ओर भी नहीं गई? 20 महिला सांसदों ने अन्य महिला सांसदों को उनके साथ किए गए यौन शोषण के अपराध के विरुद्ध उनके साथ खड़े न होने के लिए संसद या संसद के बाहर लताड़ा क्यों नहीं? क्या ‘‘अपराध’’ भी भाजपा कांग्रेस को देखकर अपनी दिशा व दशा तय करेगा? 

तिल का ताड़?

घटना का दूसरा विवरण यह भी है कि कुछ कागज के जमीन पर गिर जाने से राहुल गांधी कागज उठाने के लिए नीचे झुके। तब बीजेपी सांसदों के हसने पर राहुल गांधी ने ट्रेजरी बेंच की तरफ फ्लाइंग किस देते हुए मुस्कुराते हुए निकल गये। राजनीति में ‘‘तिल का ताड़’’, अथवा ‘‘राई का पहाड़’’ बनाना कोई नई बात नहीं है। परन्तु यहाँ ‘तिल’और ‘राई’ है कहां ? कम से कम यह तो बतलाइये। अभी तक जिसे तथाकथित ‘तिल’ बतलाया जा रहा है, वह ‘तिल’ का अर्थ अभी तक स्नेह पूर्वक इशारा या भाव ही लगता है। आखिर देश की संसद, संसद सदस्यों, मीडिया को हो क्या गया है? देश की गति की उड़ान पर गहन चर्चा व विचार विमर्श करने की बजाय ‘‘उड़न चुम्बन’’ पर चर्चा करके महत्वपूर्ण समय की बर्बादी क्यों की जा रही है?

सोमवार, 7 अगस्त 2023

न्यायालय के निर्णय को ‘‘समझने की समझ’’ बनाइए/बढाइये।

भूमिका। 

हम कई बार महत्वाकांक्षी होने के कारण राजनीतिक महत्व के कुछ एक न्यायिक निर्णयों पर ‘‘ऑन द फेस’’ (मुख पर) निर्णय की गहराई तक विस्तृत रूप से विषय के अंदर तक जाए बिना इतनी तत्परता से अपनी भावनाएं, प्रतिक्रियाएं व्यक्त कर देते हैं, जो निर्णय में लिखी गई बातों से पूर्णतः मेल खाती नहीं है। ठीक उसी प्रकार जैसे किसी समाचार की हेडलाइंस या ब्रेकिंग न्यूज के अंदर लिखी/पढ़ी गई पूर्ण समाचारों के तथ्यों से सामान्यतया उस तरह से मेल नहीं खाती हैं, जैसी हेडलाइंस में बताई या दिखाई जाती है। यदि ऐसा ही तत्परता, तीव्रता के साथ जीवन कर्तव्य के दूसरे क्षेत्रों में भी हम अपना लें, तो हम स्वयं को, समाज को व अंततः देश को सुधार ही लेंगे। अतः पारखी बनाएं, गुड़ियों की कमी नहीं, पारखियों की कमी है।

प्रकरण के तथ्य
13 अप्रैल 2019 को कर्नाटक के कोलार में एक चुनावी सभा में ‘‘मोदी उपनाम’’ के संबंध में की गई कथित विवादित टिप्पणी को लेकर गुजरात के पूर्व मंत्री एवं सूरत पश्चिम क्षेत्र के विधायक पूर्णेश मोदी (जो स्वयं मोदी उपनाम का प्रयोग करते नहीं रहे है, भूटाला उपनाम है व मोध वनिका समाज के हैं) ने राहुल गांधी के खिलाफ आपराधिक मानहानि का मुकदमा सूरत के मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी हरीश हसमुख भाई वर्मा के न्यायालय में दायर किया था। इस पर निम्न न्यायालय ने राहुल को दोष सिद्धि (कनविक्शन) पाकर अधिकतम प्रावधित दो वर्ष की सजा सुनाई।
वो जब्र भी देखा है तारीख़ की नजरों ने,
लम्हों ने ख़ता की थी सदियों ने सजा पाई!
इस दोषसिद्धि एवं अधिकतम दो साल की सजा आदेश के विरुद्ध सत्र न्यायाधीश में अपील की गई, जहां मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी द्वारा 30 दिनों के लिए रोकी गई सजा को तो अपील की सुनवाई तक ‘‘रोक’’ दिया गया, परन्तु दोषसिद्धि पर स्टे नहीं दिया गया। इस कारण से राहुल की लोकसभा की सदस्यता लोकसभा स्पीकर द्वारा कानूनी प्रावधानों के अनुसार परंतु 26 घंटे के भीतर तुरंत-फुरंत आनन-फानन में समाप्त कर जल्दबाजी का एक ‘‘नया इतिहास’’ बना दिया गया। सत्र न्यायाधीश के आदेश के विरूद्ध उच्च न्यायालय में अपील की गई, जहां भी 125 पेज के लंबे चौड़े आदेश द्वारा अस्वीकार कर दी गई। इस आदेश के विरूद्ध प्रस्तुत अपील में उच्चतम न्यायालय ने राहुल गांधी द्वारा चाही गई सहायता देते हुए निम्न परीक्षण न्यायालय के ‘‘दोषी’’ पाये जाने के निर्णय पर स्थगन आदेश जारी कर दिया।
राजनैतिक प्रतिक्रियाएं एवं न्यायालीन टिप्पणी
उच्चतम न्यायालय के उक्त स्थगन आदेश पर जिस तरह की मीडिया रिपोर्टिंग, तथा दोनो राजनीतिक पार्टियां कांग्रेस व उसकी विरोधी पार्टी भाजपा की जिस तरह की प्रतिक्रियाएं आ रही है, वह राजनीतिक अर्थों से ज्यादा प्रभावित होकर तथ्यों से कम मेल खाती है। इसके साथ ही यह भी लगता है कि उच्चतम न्यायालय ने निर्णय देने में सुनवाई के दौरान जो रिमार्क  (टिप्पणियां) किए है, उसमें कहीं न कहीं अनजाने में कुछ ऐसी गलती हुई है, जिनका प्रभाव अंततः राहुल गांधी की सजा व दोषसिद्धि के विरुद्ध की गई अपील की सुनवाई पर सुनवाई करने वाले न्यायाधीश पर पड़ सकता है। कैसे! आइए, इन सब की चर्चा आगे करते हैं।
उच्चतम न्यायालय की निम्न अदालत को प्रभावित कर सकने वाली ‘‘परिहार्य’’ टिप्पणियां
सर्वप्रथम, उच्चतम न्यायालय ने बहस के दौरान विपरीत दिशाओं में जाने वाली दो प्रमुख बातें कही। प्रथम राहुल गांधी को दिये गये अधिकतम सजा पर यह महत्वपूर्ण प्रश्न चिन्ह लगाया कि इस अधीनस्थ न्यायालयों और उच्च न्यायालय का लम्बा आदेश होने के बावजूद भी अधिकतम सजा का कोई कारण नहीं बतलाया, सिवाय अवमानना के एक मामले (राफेल) में शीर्ष अदालत ने चेतावनी दी है, का संदर्भ दिया है। यही प्रश्नचिन्ह शीर्ष न्यायालय के स्थगन आदेश देने का आधार भी बना। दूसरी तरफ राहुल गांधी के अवमानना वाले बयान को लेकर यह गंभीर टिप्पणी भी की कि, ‘‘इसमें कोई संदेह नहीं कि बयान ठीक नहीं था’’ और नसीहत देते हुए कहा, ‘‘ऐसे मामलों में सार्वजनिक जीवन के व्यक्ति से सार्वजनिक भाषण देते समय सावधानी बरतने की उम्मीद जताई जाती है’’। इस प्रकार उच्चतम न्यायालय ने कहीं न कहीं परोक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से राहुल गांधी के बयान को एक तरह से गलत माना है। वास्तव में यह राहुल गांधी की मूल लड़ाई के उसी बयान के बाबत है, जिसके बारे में उन्होंने शपथ पत्र पर बार-बार यह कहा कि ‘‘मैं माफी नहीं मांगूंगा’’।
‘‘अधिकतम सजा’’ पर प्रश्नचिन्ह?
इसी प्रकार जब उच्चतम न्यायालय यह कहता है कि दो साल की अधिकतम सजा क्यों दी? इसका कारण नहीं दिया; यह कहते हुए न्यायालय ने कहा कि, यदि दो साल में एक महीने कम की सजा दी जाती तो, सदस्यता नहीं जाती। यह कहकर उच्चतम न्यायालय ने कहीं गलती तो नहीं की? क्योंकि इसका एक अर्थ यह भी निकाला जा सकता है कि निम्न न्यायालय ने दो साल की सजा दी है इसलिए, ताकि राहुल गांधी की सदस्यता समाप्त हो जावे। तर्क के लिए यह मान भी लिया जाए, ‘‘उच्चतम न्यायालय के अनुसार यदि जज 1 साल 11 महीने की सजा दे देते या 1 दिन कम की’’, तब दूसरे पक्ष द्वारा क्या यह प्रश्न नहीं उठेगा कि न्यायाधीश ने आशय पूर्वक अभियुक्त को बचाने के लिए 1 महीने अथवा 1 दिन की सजा कम कर के दी? उच्चतम न्यायालय के  अधीनस्थ न्यायालयों से उम्मीद करता है कि वे संदर्भ (कांटेक्टस) के बाहर जाकर अपनी बात न रखें। तब कहीं न कहीं (यही बात) उच्चतम न्यायालय पर भी लागू होती है कि वे संदर्भ के अंदर रहते हुए इस तरह के रिमार्क न करे जो कहीं न कहीं निम्न अदालतों पर भार स्वरूप उनके दिल-दिमाग पर भारी न हो जाये, जो अंततः निष्पक्ष न्याय को कहीं न कहीं प्रभावित कर सकते हैं। क्योंकि उच्चतम न्यायालय की टिप्पणियों का अधीनस्थ न्यायालय पर असर होता है, जो अस्वाभाविक नहीं है।
‘‘ओबिटर डिक्टा’’ (प्रासंगिक उक्ति)! अनावश्यक!
      एक न्यायाधीश जो ट्रायल मजिस्ट्रेट है, के आदेश को उच्चतम न्यायालय स्थगन आदेश देकर रोक देता है और उस प्रक्रिया में बहस के दौरान कुछ ऐसे कथन कह देता है, जो कहीं न कहीं केस की कमजोरी अथवा मजबूती को इंगित, प्रकाशित करती है, तब उस निम्न न्यायाधीश से एक पद बड़े ‘‘सत्र न्यायाधीश’’ के लिए उन कमेंट्स को नजरअंदाज कर उससे प्रभावित हुए बिना निष्पक्ष होकर प्रकरण पर विचार करना अधीनस्थ जजों के लिए इतना आसान नहीं होता है। ‘‘तलवार के साये में भला कौन चैन से रह सकता है’’। न्यायालय की भाषा में उच्चतम न्यायालय की इस प्रकार की टिप्पणी को ‘‘ओबिटर डिक्टा’’ कहा जाता है, जो एक लैटिन शब्द होकर उसका अर्थ ‘‘अनुषांगिक’’, ‘‘प्रासंगिक उक्ति’’ होता है। इसका व्यवहारिक प्रभाव उच्चतम न्यायालय के निर्णय देने के समान होता है। तथापि रेशों-डिसेंडी (निर्णय का औचित्य) समान कानूनन बंधनकारी नहीं होता है। तथापि यह तकनीकी कानूनी स्थिति है। इसलिए उच्चतम न्यायालय को इस तरह की टिप्पणियों से बचना चाहिए। अतः इस दृष्टि से उच्चतम न्यायालय ने राहुल गांधी के मोदी सरनेम के संबंध में दिए गए बयान के प्रति जो रिमार्क किया है, वह कहीं न कहीं सत्र न्यायाधीश पर बोझ होकर कही वे उस आधार पर उन्हें अवमानना का दोषी न मान कर सिद्ध दोषी करार न कर दे, इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है। क्योंकि ‘‘चतुर के चार कान नहीं होते’’, वह दो ही कानों से सुन कर ‘‘जैसी बहे बयार पीठ तब तैसी’’ कर लेता है। यद्यपि अपीलीय न्यायालय स्थगन आदेश जारी करते समय यह जरूर निर्देश देते है कि अधीनस्थ न्यायालय गुण-दोष के आधार पर मामले पर विचार करेगी।
‘‘कांग्रेस/भाजपा की प्रतिक्रियाएं।’’
राहुल गांधी प्रतिक्रिया स्वरूप यह कहते है ‘‘सत्य की जीत होती ही है। मुझे क्या कहना है, इसको लेकर मेरे मन में स्पष्टता है’’। लेकिन इस जीत के अवसर पर वे वह ‘‘स्पष्टता’’, ‘‘स्पष्ट’’ (व्यक्त) नहीं करते हैं। कांग्रेसी भी मिठाई बांट कर जीत का जश्न मना रहे है, क्यों न मनाएं मनाए? ‘‘घर का देव, घर के पुजारी’’। परंतु उन्हे इस बात पर विचार करना चाहिए कि राहुल गांधी दोषमुक्त या सजा से बरी नहीं किए गए हैं, जैसा कि मीडिया के कुछ क्षेत्रों में भी कहा अथवा ‘‘कहलवाया’’ जा रहा है। विपरीत इसके उच्चतम न्यायालय ने दोषसिद्धी (कन्विक्शन) को स्थगित करते समय जो उक्त टिप्पणी की है, कहीं वह राहुल के लिए चिंता की लकीर तो नहीं बन जायेगी? फिलहाल यह भविष्य के गर्भ में छुपी है। कांग्रेस व अखिलेश यादव की यह प्रतिक्रिया कि भारतीय जनता पार्टी की ‘‘साजिश बेनकाब’’ हो गई है, बहुत ही हास्यास्पद है। क्या तीनों अधीनस्थ न्यायालयों के निर्णय भाजपा की साजिश और षड्यंत्र अनुसार हुए हैं? जो सरासर न्यायपालिका की कानूनी मानहानि ही नहीं, बल्कि अपमान भी है। इसी प्रकार भाजपा के सांसद मनोज तिवारी का संसद परिसर में राहुल गांधी पर कटाक्ष करते हुए दिये गए बयान से स्वयं उनकी ही बेइज्जती हुई है, जब वे यह कहते हैं कि राहुल गांधी ने सुप्रीम कोर्ट में माफी मांग ली होगी, (जो सत्य से परे है) तभी तो सजा पर रोक लगी है। यदि पहले ही माफी मांग लेते तो इतनी बेइज्जती नहीं होती?
सुनवाई सिर्फ स्थगन आवेदन तक सीमित! प्रकरण के गुण दोष पर नहीं
 वस्तुतः उच्चतम न्यायालय के समक्ष प्रकरण गुण-दोष के आधार पर दोष सिद्धि व सजा  को लेकर सुनवाई के लिए नहीं था, बल्कि मात्र सिर्फ दोष सिद्धि के स्थगन को लेकर था। निम्न परीक्षण न्यायालय द्वारा दोष सिद्धी और दो साल की सजा में से दो साल की सजा को तो अपीलीय सेशन कोर्ट ने ही स्थगित कर दिया था। परंतु दोषसिद्धि को स्टे न करने के कारण द्वितीय अपील उच्च न्यायालय में की गई, जहां भी सफलता न मिलने पर उच्चतम न्यायालय में हुई उक्त अपील में दोषसिद्धि को भी स्टे कर दिया गया। केस की मेरिटस या डी मेरिटस (गुण-अवगुण) का कोई मुद्दा था ही नहीं। यह मुद्दा तो सत्र न्यायालय के समक्ष लंबित अपील में लडा जायेगा व वहां तय होगा। उच्चतम न्यायालय या कोई भी अपीलीय न्यायालय अपील के साथ प्रस्तुत स्थगन आवेदन पर स्टे आदेश देते समय सिर्फ इस बात पर ही विचार करता है कि सुविधा का संतुलन (बैलेंस ऑफ कन्वीनियंस) अपीलार्थी के पक्ष में है अथवा नहीं? ताकि स्टे न होने की स्थिति में उसे अप्राय्प नुकसान (अपूरणीय क्षति) न हो जाये, अन्यथा उसका अपील पेश करने का उद्देश्य ही व्यर्थ हो जाएगा। कानूनी और तकनीकी स्थिति यही है। प्रस्तुत प्रकरण में भी यही स्थिति विद्यमान थी, जहां स्टे न होने पर 6 महीने के भीतर संवैधानिक बाध्यता होने के कारण वयनाड लोकसभा क्षेत्र से उपचुनाव हो जाते, तब राहुल गांधी के अपील जीतने के बाद भी उनकी लोकसभा सदस्य बहाल नहीं की जा सकती थी।
‘‘आपराधिक न्यायशास्त्र’’ में परिवर्तन की आवश्यकता !
अवमानना का यह प्रकरण कहीं न कहीं इस बात पर ध्यान आकर्षित करता है कि  ‘‘आपराधिक न्यायशास्त्र’’ में यह परिवर्तन अवश्यसंभावी होना चाहिए कि जब न्यायालय एक तरफ आरोपी को दोषसिद्ध घोषित करके ही सजा दी जाती है, तब दोषसिद्धि (अर्थात मूल आधार) को स्टे किये बिना, सजा को स्टे कैसे कर सकते है? यह तो वही बात हुई कि ‘‘घर आये नाग पूजे नहीं, बाँबी पूजन जाय’’। जन प्रतिनिधित्व कानून की धारा 8 (3) में स्पष्ट लिखा है कि दोषसिद्धि होने पर ‘‘और’’ (एंड) दो साल से ऊपर की सजा होने पर सदस्यता स्वयमेव समाप्त हो जाएगी। ‘‘एंड’’ का अर्थ है, दोनों शर्तें की पूर्ति होने पर ही सदस्यता जाएगी। जब दो साल की सजा स्वयं निचली अदालत ने 30 दिन के लिए स्थगित कर दी थी, तब फिर प्रभाव में सजा का लागू न होना शून्य प्रभावी हो जाने से धारा 8 (3) की दूसरी शर्त का पालन न होने से सदस्यता समाप्त नहीं की जानी चाहिए थी? अतः यदि सजा के स्टे किया गया है, तो दोषसिद्धि भी स्वयमेव स्थगित हो जानी चाहिए, यह कानून बनाया जाना चाहिए। उच्चतम न्यायालय का यह अवलोकन (ऑब्जरवेशन) कि, अयोग्य करार दिए जाने से न केवल सार्वजनिक जीवन में बने रहने का उनका अधिकार प्रभावित हुआ, बल्कि मतदाताओं के अधिकार को भी प्रभावित किया है, जिन्होंने उन्हें अपने निर्वाचन क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने के लिए चुना था। एक बड़ा प्रश्न यह पैदा होता है कि क्या धारा 8 (3) की अयोग्यता का प्रावधान जिसे उच्चतम न्यायालय ने स्वयं लिली थॉमस मामले में धारा 8 (4) को असंवैधानिक घोषित करते हुए संवैधानिक माना था, क्या वह कानून गलत है?

गुरुवार, 3 अगस्त 2023

‘समाधान’’ नहीं ‘‘समस्या’’ की वजह है ‘‘राज्य सरकार ’’

आखिर हिंसा की आग कब बुझेगी?

यौनाचार के अपराधियों के बढ़ते महिमामंडित करने का परिणाम: मणिपुर कांड! 

कठुआ, बिलकिन बानो, मुजफ्फरनगर, राम-रहीम, ब्रज भूषण शरण सिंह आदि दुष्कर्म काडों को महिमामंडित किए जाने के कारण तथा शिक्षण संस्थानों (शिक्षा मंदिर) जैसे हल्द्वानी मेडिकल कॉलेज, दून तथा पंतनगर विश्वविद्यालय में हो रही यौन उत्पीड़न की घटनाओं पर कोई कार्यवाही न होने के कारण भी बढ़ रही यौन हिंसा व दुराचार के दुष्परिणाम का विस्तार ही मणिपुर का वह गंदा व वीभत्स वायरल वीडियो है, जिसके कारण मणिपुर पर चुप रहे प्रधानमंत्री को बोलना पड़ा है। 4 मई को मणिपुर की राजधानी इंफाल से 35 कि.मी. दूर कांगपोकपी जिले के मैतई बहुल थोबल में हुई घटना की 16 तारीख को पीडित की मां की ‘सेकुल’ थाने में शून्य प्राथमिकी दर्ज हो जाने के लगभग एक महीने बाद 13 जून को ‘जीरो’ एफआईआर क्षेत्राधिकार वाले थाने ‘पारेपैट’ में हस्तांतरित की जाती है। तब भी कोई कार्रवाई नहीं की जाती है। जब तक कि वीडियो वायरल नहीं हो जाता है। प्राथमिकी भारतीय दंड संहिता की धारा 153-ए, 397,398, 392, 326 302, 427, 456, 448, 354, 364 एवं धारा 34 तथा शस्त्र अधिनियम की धारा 25(1सी) 376 के तहत दर्ज की गई। धारा 302 जो पूर्व में दर्ज नहीं थी, सीबीआई के द्वारा प्रकरण हाथ में लेने के बाद दर्ज की गई।

 खुफिया तंत्र की असफलता! 

19 जूलाई को दो महिलाओं के उत्पीड़न का वीडियो जहां घटना में वास्तव में तीन महिलाओं (जिनमें से एक महिला के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया था) के साथ अमानवीय पाशविक व्यवहार किया गया था, के सामने आते ही मुख्यमंत्री ने अमानवीय कृत्य पर संवेदना व्यक्त करते हुए यह कथन किया कि घटना का स्वतः संज्ञान लेते हुए पुलिस हरकत में आयी और एक अपराधी को तुरंत 24 घंटे के भीतर गिरफ्तार कर लिया गया। मुख्यमंत्री आगे यह भी कहते हैं कि ऐसी ‘‘सैकड़ो शिकायते’’ है। उच्चतम न्यायालय ने भी वीडियो आने के बाद इसका स्वतः संज्ञान लेकर आरोपियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करने के निर्देश दिये। न्यायालय ने सख्त लहजे में कहा कि अगर सरकार कार्रवाई नहीं करेगी, तो हम करेंगे। उच्चतम न्यायालय ने लगातार तीन दिन की सुनवाई के दौरान यह भी कह दिया है कि यह सिर्फ एक वीडियो तक सीमित नहीं है। लगभग 5500 से अधिक प्राथमिकी दर्ज हुई है, जिनमें से की जांच सीबीआई ने मात्र 7 प्राथमिकी दर्ज कर जांच प्रारंभ की है। उच्चतम न्यायालय द्वारा इन दर्ज 5500 प्राथमिकी का वर्गीकृत विवरण मांगने पर उस केंद्र सरकार ने जवाब देने के लिए एक महीने का समय मांगा, जिसने स्वयं अनुच्छेद 355 लागू कर बढ़ी हुई जिम्मेदारी को ओढ़ा। अभी तक कुल 10 अपराधियों (जिसमें एक नाबालिग शामिल है) को गिरफ्तार किया जा चुका है। इसका मतलब साफ है कि या तो राज्य में खुफिया तंत्र असफल हो गया। इसे ही कहते हैं ‘‘अंधे अंधा ठेलिया, दोनों कूप पडंत’’। अथवा यदि ‘तंत्र’ की जानकारी में थी, मतलब तंत्र के असफल होने का आरोप गलत है, तब फिर कार्रवाई क्यों नहीं की गई? जब तक कि मामला वीडियो के माध्यम से ‘‘सार्वजनिक’’ नहीं हो गया। 

 सरकार की असफलता एवं अकर्मण्यता

दूसरा! जब यह तथ्य सामने आ चुका है कि शिकायत किए जाने के लगभग एक महीने बाद भले ही देरी से एफआईआर दर्ज हुई, तब वहां से लेकर गिरफ्तारी तक संबंधित थाने के थानेदार से लेकर आईजी तक द्वारा कोई कार्रवाई न किए जाने के कारण मुख्यमंत्री ने उनको नौकरी से बर्खास्त क्यों नहीं किया? न ही अभी तक भी कोई कार्रवाई करने का संकेत दिये हैं। इसका अर्थ यह क्यों यह नहीं निकाला जाए कि पुलिस तंत्र ने मुख्यमंत्री के पास जानकारी भेजी होगी, इसलिए अधिकारियों के विरूद्ध कोई कार्यवाही नहीं गई? क्या इस कारण से एक अतिवादी विवादित तथाकथित आरोप कि यह राज्य द्वारा प्रायोजित हिंसा है, को कुछ बल नहीं मिलता है? आखिर ‘‘उंट की चोरी झुके-झुके तो नहीं हो सकती’’। मुख्यमंत्री ने इस्तीफे की नौटंकी क्यों की? राष्ट्रीय महिला आयोग के पास शिकायत को 12 जून को शिकायत भेजने (अध्यक्ष रेखा शर्मा ने 12 तारीख को शिकायत प्राप्त होने से इंकार किया हैं) के बाद यदि राज्य सरकार ने कोई जवाब नहीं दिया तो, क्या महिला आयोग कार्रवाई नहीं करेगा? "कदली और कांटों में कैसी प्रीत"। और क्या दूसरे प्रदेशों में शोषण व उत्पीड़न की शिकायत आने पर क्या महिला आयोग ने अपने अधिकारी नहीं भेजे है? 

 प्रधानमंत्री की समझ में न आने वाली चुप्पी? 

याद कीजिए! मणिपुर विधानसभा चुनाव में प्रधानमंत्री का यह कथन मणिपुर मेरा है, अपना है, मैं यहां इतने बार आया हूं जिनकी गिनती करना संभव नहीं है। जितने भी प्रधानमंत्री अभी तक आये है, उनसे कहीं ज्यादा बार मैं आया हूं। फरवरी 2017 को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का यह ट्वीट ‘‘जो लोग राज्य में शांति सुनिश्चित नहीं कर सकते है, उन्हें मणिपुर पर शासन करने का अधिकार नहीं है’’। मणिपुर प्रेमी, घुमक्कड़ प्रधानमंत्री की जरूरत के वक्त सुलगते मणिपुर में जाकर आग को अपने प्रयासों से ठंडा करने के लिए न पहुंचना, आज तक भी न पहुंचना तथा हिंसा के संबंध में एक शब्द भी न बोलने का क्या अर्थ निकला जाय? यही कि मूक बधिर बन जाना बचाव का श्रेष्ठ उपाय है? गोया कि ‘‘आंख फूटी पीर गई, कान गयो सुख आयो’’। 

हिंसा प्रारंभ होने के 79 दिन बाद मणिपुर (तब भी हिंसा पर एक शब्द नहीं) पर आया माननीय प्रधानमंत्री का बयान पूरे मीडिया और राजनीतिक दलों की हवा, रूख व नरेशन को ही बदल देता है। इससे यह भी सिद्ध होता है कि इस देश में क्या ‘‘बुद्धि का अकाल’’ हो गया है? विपक्ष व मीडिया के एक भाग द्वारा मणिपुर पर प्रधानमंत्री के बयान की मांग अनुरूप ही क्या प्रधानमंत्री का उक्त बयान आया है? जहां मणिपुर की हिंसा का के बाबत एक शब्द भी न कहा हो। प्रधानमंत्री के 36 सेकेंड के मणिपुर पर बयान को ध्यान पूर्वक सुनिये! संसद में नहीं, संसद परिसर में दिये गये बयान में उन्होंने महिलाओं के साथ हुई घटना का जिक्र करते हुए गहरा छोभ व्यक्त करते हुए कहा घटना ने पूरे देश को शर्मसार किया है। मोदी ने कहा कि ‘‘मणिपुर की बेटियों के साथ जो हुआ, उस पर मेरा हृदय पीड़ा और क्रोध से भरा है, जिन्होंने ये कृत्य किया उन्हे माफ नहीं करेंगे। लेकिन प्रधानमंत्री ने उक्त बयान में क्रमानुसार राजस्थान, छत्तीसगढ़ (परंतु भाजपा शासित राज्यों उत्तर प्रदेश आदि का उल्लेख नहीं) फिर मणिपुर का ‘‘एक तवे की रोटी, क्या पतली क्या मोटी’’ के रूप में उल्लेख किया। जो मणिपुर की घटना की वीभत्सा को कहीं न कहीं ‘कमतर’ करता है। क्योंकि इस तरह की महिला के साथ यौन अत्याचार तथा वस्त्रहीन कर सार्वजनिक परेड कर और उसके बचाव में पिता व भाई के आने पर उनकी हत्या करने जैसे घटना नहीं हुई है।  

 राजनैतिक दलों द्वारा "धर्म नीति" के बजाय "राजनीति"

प्रधानमंत्री के इस बयान को किसी भी तरह मणिपुर की हिंसा पर बयान नहीं कहा जा सकता है, (जैसा कि राज्यपाल ने हिंसा के बाबत कहा है), जिसकी मांग लगातार 78 दिनों से की जा रही थी। यह तो वीडियो वायरल होने के संबंध में देने (दूसरे दिन) वाला ही बयान ही कहलायेगा। प्रधानमंत्री द्वारा हिंसा की घटना पर एक शब्द न बोलने व शांति की अपील न करने के साथ ही घटना स्थल पर और पीड़ित परिवार वालो से मिलने व ढांढस पहुंचाने कितने राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता पहुंचे? क्या इसलिए कि थोबल ग्राम जहां यह दरिदगी घटी; देश के दूरस्थ उत्तर पश्चिम प्रदेश का भाग था? इसलिए वहां जाना उचित नहीं समझा? उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश या अन्य किसी क्षेत्र मध्य भारत में घटित हो जाती, तो नेतागण पहुंच जाते? क्या इसलिए भी पीड़ित दबे, कुचले जनजाति समुदाय के लोग थे? विपरीत इसके 32 लाख की जनसंख्या वाले मणिपुर ने जहां 50 से ज्यादा अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी दिए हैं, के खेल रत्न, अर्जुन, द्रोणाचार्य व अन्य पुरस्कार प्राप्त विभिन्न खिलाड़ियों,  मीराबाई चानू, अनीता चानू, एन कुंजारानी देवी, एल सरिता देवी, संध्या रानी देवी, विमोल जीत सिंह, इबोला सिंह आदि द्वारा पत्रकार वार्ता या  संदेश भेज कर शांति की अपील की है। 16 वर्षो तक मानवाधिकारी की लडाई लड़ने वाली महिला विश्व प्रसिद्ध इरोम शर्मिला मणिपुर की ही थी, जिस के बारे में कहा जाता है कि "कर्ता से कर्तार हारे। "कश्मीर फाइल", "द केरला स्टोरी" बनाने वाले फिल्म निर्माता की क्या अगली कड़ी ‘‘मणिपुर हैवानियत’’ होगी?

तत्काल राष्ट्रपति शासन लागू हो

प्रश्न यह है कि आज भी इस समस्या की जड़ की तह तक कोई नहीं जाना चाहता है। क्योंकि तब राजनीति चमकाने का अवसर कहां मिलेगा? महामहिम राज्यपाल ने वीडियो वायरल होने के बाद गहरा क्षोभ व्यक्त करते हुए यह कहा कि ऐसी हिंसा उन्होंने कभी नहीं देखी। यह भी कहा कि मैंने ‘‘ऊपर तक’’ अपनी बात पहुंचा दी है। अप्रैल के अंत तक पुलिस व कुकी समुदाय के बीच चल रहा संघर्ष आगे कुकी व मैतोई समुदाय के बीच संघर्ष में बदल गया जो न तो एक तरफा है, और न ही पूर्णत: धार्मिक। बल्कि मादक पदार्थ (अफीम) के व्यापार को मणिपुर सरकार द्वारा कुचलने की की गई कार्रवाई की प्रतिक्रिया भी इस हिंसा में शामिल है। क्या राज्यपाल ने लगभग 3 महीने से चल रही इन सब हिंसक घटनाओं और महिलाओं के साथ हुए अत्याचार के कारण संवैधानिक तंत्र के ध्वस्त हो जाने से राष्ट्रपति शासन लागू करने की सिफारिश की है? इसका खुलासा तो महामहिम ही कर सकती हैं। एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया ने भी इस मामले में बेहद सावधानी से रिपोर्टिंग करने की अपील की है, इससे भी मामले की गंभीरता को समझा जा सकता है। बड़ा प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि क्या राष्ट्रपति शासन का उपयोग सिर्फ राज्य को अस्थिर करने व अपनी सरकार को स्थिर करने में राजनीतिक आधार पर ही किया जाएगा? जैसा कि शुरू से होता चला आ रहा है। ‘‘पार्टी विथ डिफरेश’’ का नारा देने वाली भाजपा ने इस ‘‘परिपाटी’’ को आमूल चूल रूप से खत्म करने की बजाय पार्टी ‘‘भाई गति सांप छछूंदति केरी’’ की अवस्था को क्यों प्राप्त हो गयी? राजनीति जरूर कीजिए, क्योंकि आप राजनेता है। परन्तु राजनीतिक दल राजनीतिक करते-करते इस निम्न स्तर तक गिरते जा रहे हैं कि एक दिन ऐसा भी आयेगा, जब ‘‘स्तरहीन राजनीति’’ के कारण ‘‘राजनीति’’ करने की परिस्थितियां व अवसर ही समाप्त हो जायेगी। तब ‘‘स्तरहीन राजनीति’’ करने का भी अवसर कहां मिलेगा? इस बात को यदि समझ ले तो, कुछ ज्यादा समय तक राजनीति कर पायेगें।

 स्तरहीन राजनीति

स्तर हीन राजनीति का ही परिणाम है कि पक्ष-विपक्ष दोनों संसद में मणिपुर के मुद्दे पर बहस के लिए तैयार हैं, ऐसा गला फाड़ फाड़ कर जनता को सुना व दिखा रहे हैं। बावजूद इसके मणिपुर के मुद्दे पर विशिष्ट बहस हो ही नहीं पा रही है। मतलब "मुंह में राम बगल में छुरी"। मतलब दोनों पक्ष चर्चा से भाग रहे हैं। तथापि विपक्ष ने अविश्वास प्रस्ताव लाकर अवश्यंभावी बहस होने का लाने का तरीका निकाला। जिसका सत्तापक्ष ने इसलिए स्वागत किया कि वह विपक्ष को मणिपुर के अतिरिक्त अन्य मुद्दों को लेकर प्रधानमंत्री के धारदार भाषण से घेर सकेगा । परंतु सबसे आश्चर्य जनक बात यह है कि सरकार के संसदीय कार्य चल रहे हैं, बिल प्रस्तुत होकर पारित हो रहे हैं जबकि परिपाटी के अनुसार अविश्वास प्रस्ताव अध्यक्ष द्वारा स्वीकार करते ही अन्य संसदीय कार्य तुरंत सस्पेंड (स्थगित) कर अविश्वास प्रस्ताव पर बहस कराई जाती है। वही दूसरी ओर विपक्ष भी सरकार के दिल्ली सरकार के अधिकार के संबंध में जारी किए गए अध्यादेश पर कानून बनाने के लिए सरकार द्वारा प्रस्तुत विधेयक पर चर्चा के लिए तैयार है, हंगामा बहिष्कार नहीं कर रहा है। इससे राजनेताओं की दोगली नीति स्पष्ट रूप से प्रदर्शित होती है।

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