सोमवार, 20 दिसंबर 2021

‘‘कानून’’ अपना काम कर रहा है? परन्तु ‘‘सरकार’’ अपना काम कब करेगीं?

लखीमपुर खीरी के तिकुनिया गांव में घटित वीभत्स, नरसंहार हत्याकांड में 8 लोग मारे गये। इनमें से 4 किसान आरोपी आशीष मिश्रा जो कि केन्द्रीय गृहराज्य मंत्री अजय मिश्रा उर्फ टेनी के सुपुत्र की एक्सयूवी गाड़ी से कुचलकर मारे गये। 1 पत्रकार और 3 राजनैतिक कार्यकर्ताओं (भाजपा) की भीड़ ने हत्या कर दी। उक्त वीभत्स कांड की जांच हेतु उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा नियुक्त एसआईटी पर माननीय उच्चतम न्यायालय ने हस्तक्षेप करते हुये असाधारण कदम उठाते हुये राज्य सरकार द्वारा नियुक्त एक सदस्यीय न्यायिक आयोग पर भरोसा न करते हुये एक सेवानिवृत्त (रिटायर्ड) हाईकोर्ट जज जस्टिस राकेश जैन की नियुक्ति की। साथ ही एसआईटी के जांच अधिकारियों की सूची मंगाकर तीन इंसपेक्टर श्रेणी के अधिकारियों की जगह यूपी के न रहने वाले यूपी केडर के तीन आई.पी.एस. अधिकारियों को एसआईटी में नियुक्त करने के निर्देश दिये। वरना उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा नियुक्त एस आई की हैसियत तो यह थी कि- 
वही कातिल, वही शाहिद, वही मुंसिफ़ ठहरे,                     
अक़रबा मेरे करें क़त्ल का दावा किस पर। 
इस तरह की जब भी कोई घटनाएं घटित होती है तो,पीडि़त जनता व नेताओं द्वारा न्यायिक जांच की ही मांग की जाती है। क्योंकि वही एकमात्र सही व निष्पक्ष जांच मानी जाती है, जिसमें जनता को भी भागीदारी करने का मौका मिलता है। ऐसी स्थिति में उच्चतम न्यायालय द्वारा एक सदस्ययी न्यायिक जांच पर भरोसा न करने का मतलब साफ है कि उच्चतम न्यायालय उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा नियुक्त जज पर भरोसा नहीं कर रही है। न्यायिक जांच पर प्रश्न नहीं है। बल्कि यह उत्तर प्रदेश की न्यायिक स्थिति पर एक गंभीर प्रश्न हैं? उच्चतम न्यायालय के निर्देश में हो रही जांच में एसआईटी ने अंततः रिपोर्ट दी। इस रिपोर्ट के आधार पर सीजीएम न्यायालय में धारा 279, 338, 304ए हटाकर और उसकी जगह भारतीय दंड संहिता की धारा 326, 307, 302, 34 एवं 120बी, लगाये जाने का आवेदन दिया, जिसे न्यायालय ने स्वीकार कर लिया।
तत्पश्चात ही वस्तुतः जहां मुकदमें की कानूनी लड़ाई और जांच तेजी से होनी चाहिये थी, अर्थात एक तरफ एफआईआर में पूर्व से ही दर्ज केन्द्रीय गृह राज्य मंत्री अजय मिश्रा उर्फ टेनी का बयान लिया जाना था। तो दूसरी ओर अभियुक्तों द्वारा मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी के आदेश के विरूद्ध सक्षम न्यायालय में अपील तथा अग्रिम जमानत के लिए कार्यवाही की जानी चाहिये थी। परन्तु बजाए इसके चलती राजनीति की धार और तेज हो गई और दोनों पक्ष बल्कि तीनों पक्ष सत्ता पक्ष, विपक्ष और पीडि़त पक्ष अपनी-अपनी तलवार भांझकर सामने आ गये। 
एक तरफ पीडि़त पक्ष, एफआईआर में दर्ज अभियुक्त मंत्री को पूर्व से चली आ रही बर्खास्तगी और गिरफ्तारी की मांग पर तुरंत जोर देने लगा तो, सरकार हमेशा की तरह यह कहकर कि कानून अपना काम कर रहा है और करेगा, पल्ला झाड़कर अपना बचाव करने लगी। इस घिसे-पिटे ‘‘स्टीरियो टाइप’’ बचकाने तर्क के साथ सरकार व पार्टी आरोपी मंत्री के बचाव में आगे आकर यह कथन कि हमारी सरकार द्वारा बैठाई गई एसआईटी की जांच रिपोर्ट में ही तो हमारे ही मंत्री पुत्र के खिलाफ रिपोर्ट आई है। इसका मतलब स्पष्ट है कि न केवल सरकार बल्कि जांच एजेंसी निष्पक्ष रूप से कार्य कर न्याय दिलाने की ओर अग्रसर हो रही है। तथ्यात्मक रूप से समस्त पक्षों के तर्क, बहुत कुछ तथ्यों पर आधारित होने के बावजूद राजनीति कैसी की जाती है, खासकर उत्तर प्रदेश में होने वाले आगामी चुनाव के परिपेक्ष को देखते हुये इसे आगे देखना आवश्यक है।
केन्द्रीय एवं संसदीय कार्य मंत्री प्रहलाद जोशी का यह कथन कि, चूंकि मामला उच्चतम न्यायालय में विचाराधीन है, जो उक्त पूरे मामले को देख रहा है, निरीक्षण व परिवेक्षण कर रहा है, तब इस मामले में सरकार का हस्तक्षेप कदापि उचित नहीं होगा। बचाव में दिया गया उक्त तर्क प्रकरण की वीभत्सता, गंभीरता व स्वरूप को देखते हुए एक मजाक ही कहलायेगा। इसी तरह की प्रतिक्रिया केन्द्रीय मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी ने भी दी। उन्होंने कहा कि कानून अपना काम कर रहा हैं। बिना किसी भेदभाव के निष्पक्षता के साथ कार्यवाही हो रही है और इस पर किसी के ज्ञान (विरोधी दलों) की जरूरत नहीं है। बकौल अकबर इलाहाबादी-
क़ौम के गम में डिनर खाते हैं हुक़्काम के साथ                                                                                    
रंज़ लीडर को बहुत है मगर आराम के साथ 
घटना की वीभत्सता से उत्पन्न रोष के प्रभाव को कम करने के लिए तथा आगे और प्रतिक्रिया स्वरूप स्थिति रौद्र रूप न ले ले, को देखते हुये उत्तर प्रदेश सरकार ने पुलिस जांच, एसआईटी व न्यायिक आयोग की घोषणा कर जांच शुरू कर दी थी। उच्चतम न्यायालय ने स्वतः संज्ञान लेते हुये जांच के तरीके दिशा और गति से असंतुष्ट होकर तीन बार सरकार को फटकार लगाते हुय हस्तक्षेप कर एसआईटी में मूलभूत परिवर्तन कर एक न्यायिक सदस्य की नियुक्ति करवायी। तत्पश्चात उस जांच की गति व दिशा कुछ हद तक ठीक हुई। एसआईटी के उक्त कार्यवाही का श्रेय लेते समय नेतागण इस तथ्य को भूल गये।
जांच एजेंसी की निष्कलंकता व पवित्रता को प्रमाणित करने वाले लोगो को इस बात पर ध्यान देना होगा कि उच्चतम न्यायालय के निर्देश में होने वाली जांच के बावजूद ‘‘बालू की दीवार पर टिकी हुई’’ हमारी जांच एजेंसी की जो कार्यपद्धति है व सत्ता का जो चरित्र व तंत्र विद्यमान है, उसके कारण सत्ता से अप्रभावित हुये सही जांच करने में आंशिक रूप से ही सफल हो पाती है, जैसा कि जैन हवाला कांड में उच्चतम न्यायालय की लताड़ के बावजूद सीबीआई ने आधे अनमने मन से आधी अधूरी जांच की थी और सही निष्कर्ष पर नहीं  पहुंच पायी।  
अतः यह कहना तथ्यों के विपरीत है कि यह जांच उच्चतम न्यायालय द्वारा गठित की गई एसआईटी द्वारा की जा रही है। इसके विपरीत एसआईटी में लगे जांच अधिकारीगण व स्टाफ राज्य के गृह मंत्रालय के अधीन है। दुर्भाग्यवश? अथवा सौर्भाग्यवश? जो मुख्य आरोपी आशीष मिश्रा और षड़यत्रंकर्ता के रूप मंे उसके पिताजी केन्द्रीय गृह राज्यमंत्री जिनके अधीन पूरे देश का पुलिस विभाग आता है। क्या देश का लोकतंत्र इतना परिपक्व और कार्यपालिका खासकर पुलिस विभाग इतनी स्वच्छ, सक्षम, साहसी और ईमानदार हो गयी है कि इन विशिष्ट परिस्थितियों के रहते केंन्द्रीय गृह राज्यमंत्री के सुपुत्र के खिलाफ चल रही जांच 100 प्रतिशत ईमानदारी के साथ हो सके? यदि प्रधानमंत्री सिर्फ गृह राज्य मंत्री से गृह विभाग ही छीन ले ते तो भी इतना भद नहीं होती। यदि उत्तर प्रदेश सरकार ने उसके द्वारा नियुक्त एसआइटी (उच्चतम न्यायालय के परवेेक्षण में) के द्वारा दी गई रिपोर्ट के आधार पर कानून की धारा बढ़ायी है, तो निश्चित रूप से उससे उसकी 50 प्रतिशत निष्पक्षता तो सिद्ध होती है। परन्तु सरकार की कानून के प्रतिबद्धता न केवल 100 प्रतिशत होनी चाहिये, बल्कि ऐसा होते हुये भी निष्पक्ष दिखना भी चहिये। 
केन्द्रीय गृह राज्य मंत्री के अधीन वह पुलिस विभाग आता है, जो केन्द्रीय मंत्री के सुपुत्र की आपराधिक जांच कर रही है, तो निष्पक्ष होकर भी (यदि यह मान लिया जाए) निष्पक्ष दिखना संभव नहीं है। ठीक उसी प्रकार जैसा कि न्याय का यह मान्य सिद्धांत है कि न्याय न केवल मिलना चाहिये, बल्कि न्याय होते हुये दिखना भी चाहिये। इस प्रकार 50 प्रतिशत नकारात्मक प्रभाव को इस पूरे प्रकरण में वह भाजपा नकार रही है, जिनके नेता लालकृष्ण आडवानी और एनडीए के अध्यक्ष रहे शरद यादव जैसे व्यक्तियों ने जैन हवाला कांड में नाम आने मात्र पर अपने-अपने पदों से इस्तीफा दे दिया था। क्या मामला कोर्ट मंे लम्बित होने से अभियुक्त को प्रत्येक स्थिति के लिये प्रत्येक स्थिति के लिये अभयदान मिल जाता है? 
मंत्री को बर्खास्त करना या उसके द्वारा इस्तीफा देना तो दूर बल्कि ‘‘एक तो करेला दूजे नीम चढ़ा’’वाली स्थिति तब हो गई, जब केन्द्रीय गृहराज्य मंत्री, आरोपी ने जिस तरह का व्यवहार पत्रकारों से किया, वे अपना वही पुराने अंदाज में दिखने लगे, जिसके लिये वे न केवल जाने जाते है। बल्कि खुद सार्वजनिक रूप से उक्त घटना के पूर्व दावा भी कर चुके है। सार्वजनिक जीवन जीने वाले व्यक्ति का लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ कहलाने वाले मीडिया पर ऐसे दुर्जन प्रहार का संज्ञान आखिर कौंन लेगा? मीडिया (संबंधित पत्रकार) ने भी अभी तक इस संबंध में कोई एफआईआर दर्ज नहीं कराई है। क्या उनके भी हाथ पाव फूल गये? मंत्री महोदय ने जब गलत व्यवहार किया है और यदि उन्होंने कानून का उल्लघंन नहीं किया है, जिस कारण से यदि एफआईआर दर्ज नहीं कराई गई है तो, फिर ‘‘एक हाथ से ताली बजाने की कोशिश’’ करती हुई मीडिया की इस हाय तौबा का मतलब क्या है? अपशब्दों का बवाल राजनेताओं में ही नहीं बल्कि मीडिया में भी प्रचलित है। वे अपने को सबसे ऊपर मानकर कालर खड़ी कर दूसरों को कुछ न मानकर मुह से उन पर बंदूक छोड़ने पर गुरेज़ नहीं करते है।     
अंततः अटल बिहारी वाजपेयी के ‘‘राजधर्म’’को अपनाने की नीति को आगे बढ़ाते हुये प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के लिए सबसे अच्छी बात तो यही होगी कि वे मंत्री अजय मिश्रा को तुरन्त अपने मंत्रिमंडल से बर्खास्त कर ‘‘देर आयद दूरूस्त आयद’’ की तर्ज पर ठीक उसी तरह जिस प्रकार तीनों कृषि कानून बिल को वापस लिया गया, अपनी दृढ़ छवि को बनाए रखे, जो देश के लिए भी आवश्यक है। उनका यह कदम लोकतंत्र को और मजबूत ही करेगा। पुरानी कुछ अच्छी परिपाटी व उदाहरणों को आगे बढ़ाने में भी यह सार्थक सिद्ध होगा।

रविवार, 19 दिसंबर 2021

‘‘राष्ट्र निर्माण में प्रत्यक्ष करों का योगदान‘‘।

केन्द्रीय वित्त मंत्रालय, आयकर विभाग द्वारा पूरे देश में 13 सितंबर 2021 से 17 दिसम्बर 2021 के बीच ‘‘आजादी का अमृत महोत्सव’’ कार्यक्रम के अंतर्गत उपरोक्त विषय पर सेमीनार का आयोजन किया गया। आयकर अधिकारी, बैतूल द्वारा आयोजित इस सेमीनार में भाग लेते हुये मेरे द्वारा कहे गये उद्बोधन के प्रमुख अंश प्रस्तुत है।

किसी भी राष्ट्र का विकास निसंदेह उसकी आर्थिक मजबूत स्थिति पर ही निर्भर होता है। देश की दृढ़ व मजबूत आर्थिक स्थिति के लिए नागरिकों को कर के रूप में अपना अंशदान देना होता है। कर अर्थात टैक्स  लैटिन भाषा "टैक्सो" से लिया गया शब्द है। वैसे "कर" कराधान से निकला शब्द है, जिसका तात्पर्य आकलन से होता है। कर देश के नागरिकों द्वारा स्थानीय शासन, राज्य शासन या केंद्रीय शासन को दिए जाने वाला अनिवार्य वित्तीय भुगतान है, जो आर्थिक असमानता को दूर करता है। आधुनिक लोकतंत्र में किसी भी सरकार के लिए यह आय का मुख्य स्त्रोत हो गया है। कर के रूप में यह अंशदान भारत में दो तरह से हैं। एक प्रत्यक्ष कर व दूसरा अप्रत्यक्ष कर। आपको पहले यह समझना होगा कि प्रत्यक्ष कर किसे कहते हैं। वह कर जो सामान्यतया आय पर और उसका भुगतान व्यक्ति सीधे करता है, सामान्यतया प्रत्यक्ष कर कहलाता है। इसे हम मुख्य रूप से आयकर के रूप में जानते हैं। यह भी दो मुख्य प्रकार का होता है। व्यक्तिगत आयकर एवं दूसरा निगमित (कम्पनी) कर। आयकर पर सरचार्ज व सेस भी लगता है। तथापि दान कर और राज्यों द्वारा आरोपित वृत्ति कर भी प्रत्यक्ष कर ही है। पूर्व में प्रत्यक्ष कर के रूप में एस्टेट ड्यूटी (संपत्ति शुल्क) व वेल्थ टैक्स ( धन कर) भी लगता था, जिसे समय-समय पर  आवश्यकता के अनुरूप समाप्त कर दिया गया था। फ्रिज बेनिफिट टैक्स नियोक्ता द्वारा अपने कर्मचारियों को दिये जाने वाले बेनिफिट पर राज्य सरकार को दिया जाता है। सर्वप्रथम देश में आयकर वर्ष 1860 में लगाया गया। वैसे मनुस्मृति और कौटिल्य के अर्थशास्त्र में कर का संदर्भ मिलता है। वर्ष 1922 में पहला  आयकर कानून आया। जबकि 1961 में वर्ष 1922 के अधिनियम को समाप्त कर नया आयकर अधिनियम लाया गया। वर्तमान में भी आयकर अधिनियम 1961 को समाप्त कर नये आयकर अधिनियम की आवश्यकता महसूस की जा रही  है। इस कारण से एक नया आयकर कोड भी कुछ वर्ष पूर्व बनाया गया था जो विचार विमर्श के लिए सार्वजनिक रूप से लम्बित है।  

दूसरा अप्रत्यक्ष कर जो माल के विक्रय या सर्विस के रूप में एक उपभोक्ता को सामान्यतया खर्चे के रूप में देना होता है। इसमें पहले विक्रय कर, कमर्शियल टैक्स, वेट, प्रवेश कर, सर्विस टैक्स, सीमा शुल्क, उत्पाद कर, स्वच्छ भारत सेस (15.11.2015 से लागू), कृषि कल्याण सेस, इंफ्रास्ट्रक्चर सेस इत्यादि अप्रत्यक्ष कर होते थे। इन सब अधिकांश करों को मिलाकर अब जीएसटी के नाम से एक अप्रत्यक्ष कर 1-7-2017 से लागू किया गया है। वस्तुओं पर अभी भी वेटकर लागू है, जैसे पेट्रोलियम उत्पाद। स्टॉक एक्सचेंज में सिक्योरिटीज पर भी वर्ष 2004 में सिक्योरिटी ट्रांजैक्शन टैक्स  लगाया गया है। कम्पनी को अपने लाभ निवेशकों को दिये गये लाभाश पर डिविडेंड डिस्ट्रीब्यूशन टैक्स देना होता है। इसके अतिरिक्त राज्य शासन भी अनेक प्रकार के प्रत्यक्ष कर जैसे प्रॉपर्टी टैक्स, स्टैंप ड्यूटी, पंजीकरण शुल्क, लग्जरी टैक्स, टोल टैक्स व अप्रत्यक्ष कर मनोरंजन शुल्क, मंडी टैक्स इत्यादि लगाते रहें हैं, जो राज्यों की आय के स्त्रोत के अतिरिक्त साधन है।

हमारे देश की आय में प्रत्यक्ष करों का भी महत्वपूर्ण योगदान है। चालू वित्तीय वर्ष में प्रथम तिमाही में कुल राजस्व रुपए 2,46,519.80 करोड़ प्राप्त हुआ जबकि इसी अवधि में पिछले वर्ष रुपए 1,17,783.87 करोड़ मिले थे। इस प्रकार लगभग 109% की वृद्धि हुई। सितंबर 2021 को समाप्त हुई तिमाही तक कुल प्रत्यक्ष कर के रूप में भारत सरकार को 570568 लाख करोड़ रुपए की शुद्ध राजस्व (रिफंड राशि घटाने के बाद) की प्राप्ति हुई है, जो पिछले साल की इसी अवधि की तुलना में लगभग 56% अधिक है। जबकि इसी अवधि में अप्रत्यक्ष करों से कुल राजस्व 675742 करोड़ हुई जो मासिक औसत 1.15 लाख करोड़ हुई है। माह नवंबर तक राजस्व संग्रहण 93795 लाख करोड़ रू. का हुआ है । नवंबर माह में 131526 करोड़ रुपए की प्राप्ति हुई ,जो जीएसटी लागू होने के बाद का अभी तक का  दितीय द्वितीय उच्चतम राजस्व है। अप्रैल 2021 में रुपए 141354 करोड़ राजस्व प्राप्त हुआ था जो अभी तक का जीएसटी का उच्चतम रिकॉर्ड है। इस प्रकार जीएसटी का संग्रहण (कलेक्शन)  भी अनुमानित बजट की आय से कहीं ज्यादा हुआ है।

भारत में आयकर की अधिकतम दर 42.74% (सरचार्ज  सहित) है। विश्व में सबसे अधिकतम आयकर की  दर स्वीडन में 57.19% है । विश्व के 14 देश ऐसे हैं जहां पर किसी प्रकार का व्यक्तिगत या निगमित आयकर नहीं है। इनमें अधिकतर तेल उत्पादक देश शामिल है । जहां तक देश में कुल (डायरेक्ट टैक्सपेयर्स) प्रत्यक्ष करदाता की संख्या का प्रश्न है, उनकी कुल संख्या अभी लगभग 82.7 मिलियंस है, जो देश की कुल जनसंख्या का मात्र 6.25% है। जबकि अमेरिका में 40% से अधिक लोग आयकर दाता हैं। अतः स्पष्ट है हमारे देश मे टैक्स देने वालो की संख्या तुलनात्मक रूप से बहुत कम है। इसलिए सरकार को देश के विकास में और अधिक नागरिकों को भागीदार बनाने के लिए उन्हे प्रत्यक्ष कर की सीमा में लाने की नीति व प्रयास करने चाहिए। बहुत से ऐसे क्षेत्र हैं, जैसे कृषि क्षेत्र जहां बड़े कृषक हैं, फार्म हाउस खेती करते हैं, उनको आयकर की परिधि में लाने पर सरकार को गंभीरता से विचार करना चाहिए। ताकि वे भी देश के विकास में अपना अंश देकर अपने को गौरवान्वित महसूस कर सकें। एक अध्ययन के मुताबिक 4% अमीर किसानों को आयकर के दायरे में लाकर लगभग 25 हजार करोड रू. से अधिक का राजस्व जुटाया जा सकता है और साथ ही इस तरीके से काले धन को सफेद का जो माध्यम बन गया है उस पर भी रूकावट भी आ जायेगी, जिससे सरकार को राजस्व का नुकसान हो रहा है।

परंतु सरकार का डायरेक्ट प्रत्यक्ष कर करदाता के प्रति उतना संवेदनशील रुख नहीं रहा है जितना (इनडायरेक्ट टैक्सपेयर्स) अप्रत्यक्ष करदाता के प्रति। आपको याद होगा कि जब डीजल और पेट्रोल की कीमतें लगातार दिन प्रतिदिन बढ़ रही थी, तब पेट्रोलियम मंत्री से लेकर पूरी सरकार का यही रुख रहा कि नागरिकों को देश के विकास में अपना अंश देने के लिए इस मूल्य वृद्धि में कर के रूप में अपना सहयोग देकर आगे आना चाहिए और यह उनका देश के प्रति कर्तव्य व दायित्व भी है। परंतु यही भावना सरकार ने डायरेक्ट टैक्स करदाता के प्रति व्यक्त नहीं की, जो खेद जनक है। 

वैसे प्रत्यक्ष कर की वसुली हेतु हो रहे खर्चे तथा अप्रत्यक्ष कर के समान लगभग अधिकाश  नागरिकों को देश के राजस्व में कर के रूप में अपना अंश देने के लिये कुछ क्षेत्रों से यह सुझाव  कॉफी समय पूर्व से आया है कि आयकर की बजाय बैंकिंग कैश ट्रान्जेक्सन टैक्स (बीसीटीटी)(बैंक से लेन-देने पर कर) (0.25%/0.50%/1.00%) लगा देना चाहिये। इससे  न केवल अधिकतम नागरिक कर देने वालों की संख्या में शामिल होकर कर दाताओं का दायरा बढ़ जायेगा बल्कि राजस्व में भी वृद्धि होगी।  क्योंकि जन-धन योजना के अंतर्गत आज देश में अधिकाश नागरिकों के न केवल बैंक खाते खुले है, बल्कि बैंक ट्रान्जेक्संस् भी बढ़े है। साथ ही कर वसूली के लिए इतने बड़े आयकर के अमले की आवश्यकता न होने पर कर वसूली के खर्चे में जो अभी लगभग 1% कुल राजस्व का है, मैं भी काफी कमी हो जाएगी।वैसे वर्ष 2005 में आयकर के अतिरिक्त कुछ मामलों में यह टैक्स लगाया गया था, जो वर्ष 2009 में वापस ले लिया गया। इसके अतिरिक्त राजस्व बढ़ाने के लिए व्यय कर के भी सुझाव कुछ क्षेत्रों से आये है जिस पर भी गंभीरता से विचार करना चाहिये।

गुरुवार, 16 दिसंबर 2021

किसान आंदोलन! किसने! ‘‘क्या खोया’’ ‘‘क्या पाया’’! लेखा-जोखा!

वास्तव में यह किसान आंदोलन किसके लिए? और किन मांगों? को लेकर शुरू हुआ था, इस को जानना अत्यंत जरूरी है। तभी आप वस्तु स्थिति का सही आकलन कर पाएंगे। निश्चित रूप से किसानों का सबसे संगठन, अखिल भारतीय किसान संघ (बी.के.यू) के साथ देश की अन्य छोटी-बड़ी लगभग 500 से ज्यादा संघो से मिलकर संयुक्त किसान मोर्चा बना। इसके बैनर तले देश की जनसंख्या का लगभग 50 प्रतिशत से अधिक किसान जिन्हें जनता से लेकर सत्ता व विपक्ष अन्नदाता कहते थकते नहीं हैं, की विभिन्न लम्बित समस्याओं को लेकर यह आंदोलन प्रारंभ किया गया था। संयुक्त किसान मोर्चे ने किसानों की खुशहाली के लिए 6 प्रमुख मांगे रखी। आंदोलन प्रारंभ करने के पूर्व तीनों कृषि कानूनों की वापसी, एमएसपी पर खरीदी की गारंटी के लिए कानून, विद्युत अधिनियम संशोधन विधेयक 2020-21 को रोका जाना और नए प्रदूषण कानून (वायु गुण्वत्ता प्रबंधन के लिये आयोग अधिनियम) से धारा 15 को हटाने की मांग थी। बाद में इस आंदोलन से उत्पन्न मांग अर्थात आंदोलन के दौरान किसानों पर दर्ज मुकदमे की वापसी, और शहीद हुए किसानों के परिवारों को मुआवजा व पुर्नवास, तथा शहीद स्मारक निर्माण की मांग जोड़ी गई। अतिरिक्त मांग के रूप में लखीमपुर खीरी हत्याकांड में धारा 120बी के अंतर्गत आरोपी केन्द्रीय गृहराज्य मंत्री की बर्खास्तगी व गिरफ्तारी की भी थी। 

इनमें से दो सबसे महत्वपूर्ण मांगे जिस पर किसान नेता सबसे ज्यादा जोर देकर शोर कर रहे थे, वे एक तरफ तीनों कृषि कानून की वापसी तो, दूसरी तरफ एमएसपी के लिए कानून निर्माण की बात। परंतु जब प्रधानमंत्री जी ने मीडिया के माध्यम से तीनों कृषि कानूनों की वापसी की घोषणा की, तब संयुक्त किसान मोर्चा ने यह कहकर आंदोलन वापस लेने से इंकार कर दिया था कि, हमारी मुख्य मांग कानून वापसी के साथ एमएसपी को कानूनी दर्जा देने की भी है। तीनों कानूनों की वापसी की मांग इसलिए की गई थी, क्योंकि उसके रहते एमएसपी मिलना संभव नहीं था। 

सरकार अपनी पीठ जरूर थपथपा सकती है कि उसे एमएसपी पर कानून बनाने की लिखित गारंटी आंदोलन समाप्ति के लिए नहीं देनी पड़ी। (अर्थात साँप भी मर गया व लाठी भी नहीं टूटी) जिसे किसान नेताओं ने अपनी ‘‘नाक की बाल’’ (प्रतिष्ठा का प्रश्न) बना लिया था। इस प्रकार यदि किसान नेताओं ने तीनों कानून की सरकार से वापसी करा कर उनकी नाक नीची करवाई तो, एमएसपी पर कानून बनाए बिगर माने सरकार ने आंदोलन की वापसी करा कर संयुक्त किसान मोर्चा के नेताओं की भी नाक नीची ही हुई। केवल यहां तक ही नहीं, बल्कि सरकार ने एमएसपी के लिये प्रस्तावित कमेटी में एसकेएम की किसानों के प्रतिनिधि के रूप में उन किसान नेताओं को जिन्होंने कृषि कानून का समर्थन किया था को शामिल न करने की मांग की थी, पर भी कोई आश्वासन नहीं दिया। साथ ही सरकार ने सरकार की ओर से किसान प्रतिनिधित्व के रूप में शामिल किये जाने वाले व्यक्तियांे के समिति में नामों की घोषणा नहीं की, जैसा कि एसकेएम ने मांग की थी। किसान नेताओं खासकर राकेश टिकैत की यह महत्वपूर्ण इच्छा कि टेबिल पर बातचीत के दौरान सहमति की घोषणा हो, को सरकार ने विफल कर अपनी खोई हुयी प्रतिष्ठा की कुछ भरपाई अवश्य की है। तो क्या हिसाब बराबर? बिल्कुल नहीं! 

तीनों कृषि कानूनों के जो फायदे छोटे किसानों को मिलने थे, उन कानूनों के समाप्त हो जाने के बाद उन फायदों के लिए कोई लड़ाई न तो एसकेएम ने की और न ही सरकार ने, जो लगातार कानून वापिस लेने की घोषणा करते समय भी उन कानूनों के फायदे का बखान कर रही थी। परोपकारी जनोपयोगी सरकार के रूप में सरकार का यह दायित्व था कि, किसानों को उक्त विलुप्त कानूनों में प्रावधित किए गए फायदे छोटे किसानों को पहुंचें। वे अब कैसे पहुंचेंगे, इस बाबत कोई भी योजना, आश्वासन या कथन नहीं किया गया। यहां पर सरकार और किसान नेता दोनों असफल रहे। 

इस आंदोलन का लेखा-जोखा, खाता-बही पूरा करने में एक और जहां आपको किसान के खाते में यह उपलब्धि जोड़नी होगी कि इतना लंबा चला आंदोलन को तोड़ने के लिये समय-समय पर की गई समस्त चाले, प्रयास, कोशिशें अंततः असफल होकर संयुक्त किसान मोर्चा एक मजबूत संगठन के रूप में पहचान बनाकर मजबूत होकर उभर कर निकला है, जो भविष्य में किसानों के हित के लिए लड़ता रहेगा और सरकार पर हमेशा तलवार लटकती रहेगी। इसी प्रकार सरकार के खाते में इस बात को जोड़ना होगा कि किसानों के आगे झुकती दिखती हुई सरकार ने अंततः आखिरी समय में किसानों की ‘‘एमएसपी’’ पर कानून बनाने की बात का कोई लिखित आश्वासन न देकर, और समस्त मुद्दों पर सहमति की घोषणा टेबिल पर बातचीत के बजाए पत्र के द्वारा कर उन्हें हिट विकेट आउट कर अपनी गिरती साख को कुछ हद तक बचाने में सफल अवश्य रही है।

केन्द्रीय कृषि सचिव का केन्द्रीय शासन की ओर से लिखा गया उक्त पत्र एक नई बहस को भी जन्म दे सकता है। क्योंकि उन्होंने पत्र में सिर्फ भाजपा शासित राज्यों के मुकदमे वापस लेने का उल्लेख किया है। इस संबंध में पंजाब सरकार की सार्वजनिक घोषणा का भी उल्लेख किया गया। लेकिन अन्य राज्यों के संबंध में केन्द्र द्वारा अपील करने की बात कही है। जब भाजपा शासित राज्य उत्तर-प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, मध्यप्रदेश, हरियाणा से सहमति लेने का उल्लेख पत्र में है तब अन्य विपक्षी शासित प्रदेश तमिलनाडू, आंध्रप्रदेश, राजस्थान इत्यादि से पत्र लिखने के पूर्व क्यों नहीं सहमति ली गई? अथवा उनसे अनुरोध करने के बावजूद उन्होंने सहमति देने से इंकार कर दिया? स्थिति स्पष्ट होनी चाहिए।

इस आंदोलन के अंतिम दौर के परिणाम ने कृषि मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर की विश्वसनीयता को भी जरूर कुछ कम किया है। 22 जनवरी को 11वीं दौर की बातचीत के बाद लम्बे समय एसकेएम व कृषि मंत्री की बीच कोई संवाद स्थापित न होने के कारण गृहमंत्री अमित शाह के हस्तक्षेप के बाद एसकेएम के दो नेताओं युद्धवीर सिंह और बलवीर राजेवाल को किये गये फोन के बाद ही पत्रों का संवाद प्रारंभ होकर अंततः सहमति का निर्णय हुआ। इससे लगता है कि समझौंते के अंतिम दौर में नरेन्द्र सिंह तोमर को अलग-थलग रखा गया। वैसे भी नरेन्द्र (स्वामी विवेकानंद) के देश में एक ‘‘नरेन्द्र’’ के रहते दूसरे नरेन्द्र की आवश्यकता महसूस करने का दुःसाहस कौंन कर सकता है?

सोमवार, 13 दिसंबर 2021

किसान आंदोलन!क्या मांगा और क्या मिला? किसानों के साथ ‘‘देश ने छल किया’’?

26 नवंबर 2020 से प्रारंभ होकर 9 दिसंबर 2021 को समाप्त (या स्थगित? कुछ क्षेत्रों में स्थगित होना बतलाया गया है) हुए किसान आंदोलन का प्रारंभ-समाप्ति, उपलब्धि-अनुपलब्धि, संवाद-संघर्ष, हिंसा-अहिंसा, समयावधि आदि समस्त समग्र दृष्टि से आंकलन का परिणाम बहुत कुछ अप्रत्याशित, अनपेक्षित व अनूठा हो सकता है। कुछ लोग इसे सरकार की जीत, या किसानों की जीत, तो कुछ खट्टे-मीठे उपलब्धि की बात कह सकते हैं। परन्तु वास्तव में क्या हुआ और आम साधारण सीमांत किसान जिसके नाम पर और जिसके लिये यह आंदोलन वास्तव में शुरू किया गया और सरकार द्वारा अंततः प्रायः मांगे मानकर समाप्त करवाया गया, ऐसा परसेप्शन बनाया गया। परन्तु आखिर इससे किसको क्या हासिल हुआ? यह गंभीर, विचारणीय एवं चिंतनीय प्रश्न नहीं, विषय है। 

मतलब! सरकार व किसान नेताओं की विश्वसनीयता? (सरकार ने भी एमएसपी को कानूनी दर्जा के लिये समिति बनाने की मांग कही थी, जो नहीं की गई) 378 बहुमूूल्य दिनों (समय) की बर्बादी? ठंड-धूप-बरसात को सहता हुआ निरीह किसान का मजबूत शरीर? जन-धन की छति। (700 से ज्यादा किसानों की मृत्यु)। कोरोना काल में देश की आर्थिक तंगी की स्थिति में भी पैसों का अनावश्यक अपव्यय? (आंदोलन का शाही खर्चा) संसद की सर्वोच्चता पर सिद्धांतः नहीं बल्कि कार्यरूप से प्रश्नवाचक चिन्ह? (संसद में पारित कानून की वापसी) लोकतंत्र में बहुमत की बजाय अल्पमत की विजय! (अल्पमत को स्वीकार कर कानून रद्द किए गए) दृढ़, मजबूत, अटल छवि (प्रधानमंत्री की) में चुनावी राजनैतिक मजबूरी के कारण दरार? शब्दावली, वाक्यों व कथनों का गिरता निम्न से निम्नतर स्तर और न जाने क्या क्या क्या? आपको मेरे इन कथनों पर आश्चर्य अवश्य हो सकता है। लेकिन यदि आप इसका विश्लेषण आगे देखेंगे तो, आप भी अपने को ठगा सा ही महसूस पाएंगे। 

सबसे बड़ा प्रश्न आज यह उत्पन्न होता है कि किसान आंदोलन की समाप्ति के बाद ‘‘एसकेएम’’ की मुख्य मांग एमएसपी को कानूनी दर्जा मिलने की क्या पूरी हो गई? आज जो सहमति बनी, घोषणा हुई और केन्द्रीय सरकार की ओर से जो लिखित पत्र केन्द्रीय कृषि सचिव संजय अग्रवाल ने भेजा, उसमें एमएसपी प्रभावी बनाने के लिये समिति गठित करने का निर्णय की बात कही गई। उक्त प्रस्तावित समिति में केन्द्र व राज्य सरकार कृषि वैज्ञानिक एवं किसान प्रतिनिधि के साथ ‘‘एसकेएम’’ के प्रतिनिधी भी शामिल होंगे। यानी ‘‘गयी भैंस पानी में’’। क्योंकि उक्त पत्र में एमएसपी को कानूनी जामा पहनाने संबंध कोई सहमति या उल्लेख कहीं नहीं है, जो मांग काफी पुरानी थी और मूल रूप से जिस की ही लड़ाई ‘‘एसकेएम’’ लड़ रहा था। प्रधानमंत्री ने जब तीनों कानून वापसी की घोषणा की थी, तब भी उन्होंने उक्त घोषणा के साथ एमएसपी को अधिक कारगार, प्रभावी बनाने के लिए एक कमेटी बनाई जाने की बात स्पष्ट रूप से कही थी। जब एमएसपी पर यही स्थिति व इसी बात को मानना था, तब आंदोलन को प्रधानमंत्री की कानून वापसी की घोषणा के दिन ही क्यों नहीं समाप्त कर दिया गया? इसका जवाब देने में किसान नेता हकला जाएंगे। परन्तु वे अपनी असफलता को छुपाने के लिये बेशर्मी से खुशियों का इज़हार कर रहे हैं। 

इस पूरे आंदोलन और सरकार के रुख से छन कर निष्कर्ष रूप में यह ध्वनि निकलती है कि, इस आंदोलन के समस्त पक्ष अर्थात संयुक्त किसान मोर्चा, केंद्र व राज्य की सरकारें, राजनैतिक दल, मीडिया और तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग, सबने मिलकर इस आंदोलन के माध्यम से देश के आम व ‘‘आंदोलनजीवी’’ किसानों को मूर्ख बनाकर सिर्फ ठगा ही है। वह कैसे! इस बात को आप को समझना होगा। वास्तव में किसानों का मुद्दा या समस्या एमएसपी पाने की नहीं है। 1952 से एमएसपी चली आ रही है। एमएसपी का मतलब होता है, विभिन्न सरकारी एजेंसी अर्थात भारतीय खाद्य निगम, नागरिक आपूर्ति निगम, नाबार्ड, स्टेट ट्रेडिंग कारपोरेशन, राज्य विपणन संस्थाएं आदि केंद्रीय व राज्य स्तर पर तथा व्यापारियों द्वारा कृषि मंडी में कृषि उत्पादों की खरीदी सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) से कम मूल्य पर न हो। मुझे कोई भी किसान नेता यह सरकार या बतला सकती है क्या कि मंडियों में जहां पर अधिकांश खरीदी किसानों की कृषि उत्पाद की, आती है, वहाँ पर क्या सरकार द्वारा घोषित मूल्य से कम पर कृषि उत्पाद की खरीदी होती है? यह होना संभव नहीं है। एक भी उदाहरण रिकॉर्ड पर मिलना संभव नहीं है। परन्तु खरीदी न होने का मतलब कदापि एमएसपी न मिलना नहीं है।

अतः समस्या एमएसपी से कम पर खरीदी की नहीं है, बल्कि कृषि उत्पाद की जाने की है। वास्तविक समस्या ’कृषि उत्पाद की न्यूनतम मात्रा की खरीदी की है। यदि सरकार या उसकी एजेंसीज् कृषि उत्पाद नहीं खरीदते हैं, तो एमएसपी की गारंटी का कानूनी आधार बन जाने के बावजूद भी वे कानून के उल्लंघन के दोषी नहीं पाए जाएंगे। क्योंकि खरीदी न करना कानूनन् तब भी एक संज्ञेय अपराध नहीं होगा, जब तक की न्यूनतम मात्रा की खरीदी न करने पर सजा होने का कानून न बने। इसके बनाने की मांग कोई भी नहीं कर रहा है। क्या यह किसानों की आंखों में धूल झोकना नहीं हैं? एमएसपी न मिलने का मूल कारण उचित मात्रा में कृषि उत्पादों की खरीदी न होना मात्र है। यद्यपि आखिरी में आंदोलन के अंतिम चरण में कहीं-कहीं दबी जबान में यह बात जरूर कही गई। परंतु वह भी अंदर खाने में ‘‘हाथों के तोते उड़ जाना’’ समान ही सिद्ध हुई। 

अतः यदि ऐसी न्यूनतम मात्रा की खरीदी का कानून बनाया जाता है तो, उसमें यह व्यवस्था भी की जानी आवश्यक है कि 5 एकड़ से कम खाते वाला छोटा सीमांत किसान (जो कृषको की कुल संख्या का लगभग 80 प्रतिशत है) की मंडी में आयी उपज की पूरी खरीदी हो, 5 से 10 एकड़ की 50 प्रतिशत और इससे अधिक वालों की 10 प्रतिशत खरीदी की गारंटी हो। कुछ इस तरह की या इससे मिलती-जुलती व्यवस्था कानूनी रूप से किए जाने पर ही आम जरूरतमंद किसानों की जरूरतें कुछ हद तक पूरी हो पाएगी व बड़े प्रभावशाली किसानों का वर्चस्व कम होकर वे सीमांत कृषकों का हक छीन नहीं पायेगें। चंूकि आंदोलन चलाने वाले मंच पर बैठे नेता एमएसपी पाने वाले बड़े किसान नेता है। अतः छोटे किसानों के हित की बात कौंन करेगां? वह तो मंच के सामने ठंड में ठिढुरकर, गर्मी में तपकर व बरसात में भीग कर नीचे बैठा रहा। उसे तो ‘‘न माया मिली न राम’’ सिर्फ ‘‘ठन-ठन गोपाल’’!

एक अनुमान के अनुसार सरकार अभी तक कुल कृषि उत्पाद का सालाना लगभग मात्र 8 प्रतिशत ही वह भी कुछ उत्पादों (फिलहाल 23 फसलों) की ही एमएसपी पर खरीदी कर रही है। यह मात्रा व कृषि उत्पादों की संख्या बढ़ाई जाकर खरीदी की न्यूनतम मात्रा की सीमा निश्चित किया जाना अति आवश्यक है। तभी आम किसानों को वास्तविक फायदा मिल सकता है। अतः किसानों की मांग एमएसपी के साथ न्यूनतम मात्रा की खरीदी के लिए कानून बनने की मांग होनी चाहिए थी, जो वास्तव में नहीं रही। इसीलिए आज आम किसान समस्त पक्षों द्वारा ठगा हुआ है। सही है, ‘‘मरे को मारे शाह मदार’। बावजूद इसके वह अपने ठगे जाने को महसूस व समझ भी नहीं पा रहा है। आंदोलन की समाप्ति के बाद किसान जिस तरह से खुशियों इजहार करते हुये घर वापिस जा रहे हैं, इससे किसानों के ठगे जाने का उन्हे एहसास न होने की तथ्य की पुष्टि होती है। शायद इस देश के आम किसान की नियति भी ही यही है। देश की लोकततांत्रिक राजनीति का इससे बड़ा दुर्भाग्य और कुछ नहीं हो सकता है। ‘‘इस हमाम में सब नंगे हैं’’। इस अटल सत्य से कोई इनकार नहीं कर सकता है। 

अन्नदाता आंदोलन स्थल से क्या लेकर घर खेत, खलियान वापस जा रहे हैं? इस दृष्टि से यदि आंकलन किया जाए तो किसानों के खाते में आयी सबसे बड़ी उपलब्धि संसद द्वारा पारित तीनों कृषि कानूनों की वापसी ही है, जो आज तक के इतिहास में पूर्व में शायद ऐसा कभी नहीं हुआ। परंतु ‘‘ओस चाटने में प्यास नहीं बुझती’’। यदि यही सबसे बड़ी उपलब्धि किसानों की दृष्टि में होती तो, निश्चित रूप से आंदोलन प्रधानमंत्री की घोषणा के दिन ही समाप्त हो जाता, जो नहीं हुआ। मतलब ‘‘एमएसपी’’ को कानूनी दर्जा देने की उनकी मांग कानून वापसी की मांग से ऊपर रही, जो अंततः पूरी नहीं हुयी। यह तब हुआ, जब सरकार का बार-बार इस पर यह स्पष्ट कथन व संदेश रहा कि एमएसपी थी, है, और रहेगी। बावजूद इसके सरकार ने एमएसपी की गारंटी के लिए कोई कानून बनाने का लिखित आश्वासन या यहाँ तक कि इसका उल्लेख भी सरकार की ओर से केन्द्रीय कृषि सचिव द्वारा दिए गए पत्र में नहीं है। अतः निष्कर्ष रूप में आंदोलन वापसी के लिये हुई यह सहमति आम किसानों की पीठ पर छुरा घोपनें समान है।

अंतिम समय तक ‘‘टिककर’’ टिकैत ने नाम को ‘‘सार्थक’’कर ‘‘गोल’’ प्राप्त किया।

 

संयुक्त किसान मोर्चा (एस.के.एम) का सबसे प्रमुख चेहरा और अखिल भारतीय किसान यूनियन के राष्ट्रीय प्रवक्ता राकेश टिकैत इस पूरे 1 साल से अधिक समय (378 दिन) 26 नवंबर 2020) से चले आ रहे किसान आंदोलन में एक नये लुक व व्यक्तित्व के रूप में उभरकर सामने आये हैं। जो आजकल प्रायः सामान्यतः आंदोलनकारियों नेताओं या राजनेताओं में "दुर्लभ में से दुर्लभतम" में भी देखने को नहीं मिलता है। पूर्णतः ग्रामीण परिवेश से भरपूर, सिर्फ पहनावे में ही नहीं, बल्कि बातचीत का लहजा और शब्दों व वाक्यों का चुनाव और प्रश्नों के उत्तर में सामने वाले को अचभिंत करने वाले प्रति प्रश्नों से भरपूर राकेश टिकैत जैसा व्यक्तित्व अभी तक के किसी भी आंदोलन में शायद ही देखने को मिला हो। राकेश टिकैत का यह व्यक्तित्व उनके पिता स्व. श्री महेन्द्र सिंह टिकैत से भी थोड़ा हट कर है। महेन्द्र सिंह टिकैत निर्विवादित खाँटी ग्रामीण किसान नेता रहे। लेकिन जैसा कि कहते हैं न कि "आदमी से बड़ी उसकी परछाईं होती है", राकेश टिकैत ने पिताजी के व्यक्तित्व के साथ एक राजनेता के भी गुण भी अपने में विकसित किये। इसी कारण वे पिताजी की प्रवृत्ति व प्रकृति के विपरीत चुनाव भी लड़ चुके है। इसलिये वे नरेन्द्र मोदी और अमित शाह जैसे धुरंधर, मजबूत, चाण्क्य कहे जाने वाले नेताओं को शांतिपूर्वक, बिना बड़बोलापन दिखाये, अपनी उंगली पर नाच नचाते दिखते हुये दिख रहे है और आभास करवा रहे है। उनके व्यक्तित्व की एक छोटी सी बानगी को आगे उद्हरण से आप अच्छी तरह से समझ सकते है।

पत्रों के द्वारा संवाद और टेबिल पर बैठकर संवाद के बीच के बारीक व महत्वपूर्ण अंतर को जितना बढ़िया रेखांकित राकेश टिकैत ने किया है, वह उनकी एक आंदोलनकारियों नेताओं के रूप में ही नहीं, बल्कि उनकी छवि एक मजे हुये राजनेताओं के रूप में उनके व्यक्तित्व को प्रर्दशित करती है, जो यह दिखाती है कि "लाल गुदड़ियों में नहीं छुपते"। 11 वें दौर की आखरी बातचीत 22 जनवरी के बाद, लम्बा समय व्यतीत होने के बाद,‘‘एस.के.एम'. द्वारा दिये गये 6 सूत्रीय मांगों के पत्र के जवाब में सरकार से जवाबी पत्र प्राप्त होने के बाद उस पर संयुक्त किसान मोर्चा की बैठक में चर्चा उपरांत किसान आंदोलन के समाप्ति के शुभ संकेत दिखने लगे। बावजूद मामला अगले दिन 24 घंटे के लिये टल गया। यानी "हाथी निकल गया लेकिन पूंछ अभी नहीं छोड़ी" है। पत्रकारों द्वारा राकेश टिकैत से यह पूछने पर कि क्या आंदोलन अगले दिन बैठक होने के बाद समाप्त हो जायेगा? तब राकेश टिकैत का यह नपा-तुला जवाब उसके व्यक्तित्व को निखारता है कि सरकार टेबिल पर अभी हमारी पांच  सदस्ययी कमेटी को बुलाकर बैठाल ले, बातचीत के दौरान जो कुछ शंका है या होगी,  वह दूर हो जायेगी, आंदोलन समाप्त हो जायेगा। सरकार सिर्फ पत्राचार के द्वारा ही संवाद क्यों करना चाहती है? सरकार यदि तुरंत आंदोलन समाप्त करना चाहती तो, विचार करने के लिए पांच सदस्यीय कमेटी को अभी ही बुला लेती? बार-बार पत्रों का आदान-प्रदान कर समय जाया नहीं करती। परन्तु अभी भी सरकार ने एस.के.एम. द्वारा मांगे गये स्पष्टीकरण का मात्र जवाब भेजा है, लेकिन बुलावा अभी भी नहीं भेजा है। यही सबसे बड़ी चूक भाजपा, प्रधानमंत्री, गृहमंत्री व कृषि मंत्री के स्तर पर परिलक्षित हो रही है। कारण स्पष्ट दिखता है! सरकार टेबिल पर बैठकर पूरी तरह सरेंड़र होते हुए  न दिखने (मोड) के कारण तथा पूरा श्रेय संयुक्त किसान मोर्चा को न मिल जाए, उस कारण से इस मामले में एक ओर जहां लगातार 11 दौर की टेबिल पर हुयी बातचीत के  पश्चात आश्चर्यजनक रूप से विपरीत आचरण कर सरकार ने "अंगारे सिर पर धरे होने के" बावजूद भी सीधे बैठकर संवाद करने से अभी तक परहेज रखा, शायद उसका ही यह दुष्परिणाम सरकार के खाते में आ रहा है। सब कुछ देकर, लूटकर भी हम बेगाने हो गये। "न ख़ुदा ही मिला न विसाले सनम"।

सबसे बड़ा अनपेक्षित महत्वपूर्ण कदम तीनों कृषि कानून की वापसी उठाये जाने के बावजूद, चूंकि वह कदम एकतरफा आकाशवाणी के माध्यम से घोषित किया गया था, उसका वह सकारात्मक परिणाम व फायदा सरकार को नहीं मिला, जो टेबिल पर बातचीत के दौरान मांगों के संबंध में लेन-देन कर संयुक्त घोषणा किये जाने कि स्थिति में निश्चित रूप से मिलता। उक्त गलतियां होने के बाजवूद अभी भी सरकार संवाद का पत्राचार का माध्यम चुनने की वही गलती बार-बार दोहरा रही है। यह सरकार का ही तो कमिटमेंट (प्रतिबद्धता) था कि वह एक फोन दूर पर संवाद के लिए तैयार बैठी है। लेकिन दुर्भाग्यवश राकेश टिकैत के पास शायद वह फोन नम्बर नहीं था या अन्यथा कहीं न कही विश्वास की कमी जरूर रही, जो सरकार की तरफ से आयी चिट्टी पर टिकैत का यह दुर्भाग्यपूर्ण कथन कि उसका ग्यारंटर कौंन? प्रश्न पूछने से उभर कर सामने आती है। मुद्दे की बात यह है कि राकेश टिकैत ने सरकार को हर बार टेबिल पर चर्चा हेतु बुलाने के लिए न्योता देने को कहा, लेकिन सरकार ने इससे दूरी बनाये रखी, यह समझ से परे है।

इस किसान आंदोलन ने कुछ महत्वपूर्ण तथ्यों, मूल्यों को स्थापित किया। सर्वप्रथम यह शायद देश का ही नहीं बल्कि विश्व का सबसे लम्बा सफल किसान आंदोलन रहा। सामान्यतः किसी भी आंदोलन से निपटने का मूल मंत्र "दीर्घ सूत्री विनश्यति" अर्थात आंदोलन को लम्बा खिचाने की प्रकिया/परिस्थितियां पैदा करो। समय की मार से आंदोलन स्वतः मर जायेगा। याद कीजिये यहां पर राकेश टिकैत ने आंदोलन के प्रारंभिक दौर में ही कुछ समय बाद ही उन्होंने यह कहना प्रारंभ कर दिया था कि हम अपनी मांग पूरी लेकर मनवाकर ही जायेंगे, चाहे आंदोलन एक साल क्यों न चले। यहां उनकी दूरदर्शिता, "अंगद के पांव की तरह" की दृढ़ता व भविष्य के खाके (योजना) का आभास होता है। इस आंदोलन की दूसरी विशेषता यह रही कि इतना लम्बा और 700 से ज्यादा लोगो को अकाल मृत्यु के काल में जाने के बावजूद आंदोलन में 26 जनवरी को हुई तथाकथित हिंसा व अन्य कुछ छुट-पुट घटनाओं को छोड़कर (समस्त हिंसक घटनाओं से एस.के.एम.ने अपनी जिम्मेदारी से हाथ खडे़ कर दिये थें) 700 लोगों की मृत्यु से आंदोलन में कही भी उत्तेजना फैली नहीं, यह एक बड़ी गंभीर व दिल को शांति देने वाली बात रही। जबकि कहा यह जाता है कि "क्राउड नोज़ नो लाॅ"। किसान नेताओं को इसका श्रेय अवश्य दिया जाना चाहिये। साथ ही सरकार को भी इस शांति बनाये रखने का श्रेय जरूर दिया जाना चाहिए, क्योंकि सरकार भी बिना उत्तेजित अत्याधिक धैर्य धारण करते हुये आंदोलनकारियों के विरूद्ध कोई हिंसा या बल प्रयोग नहीं किया। (लखमीपुर की घटना मूलतः व्यक्तिगत थीं।)

तीसरी महत्वपूर्ण बात आंदोलन प्रारंभिक चढ़ाव के बाद खासकर 26 जनवरी की हिंसक घटना के बाद जब उतार पर रहा अर्थात दिल्ली की तीनों बॉडर तक ही सीमित रहा जैसा कि सरकार व कई अनेक क्षेत्रों मेें बताया जाने लगा। इसे राष्ट्रीय आंदोलन मानने से इंकार तक कर दिया गया। तब भी उतार के अंतिम दौर में भी "संघे शक्ति: कलौयुगे" की उक्ति को चरितार्थ करते हुए किसान अंततः अपनी बात मनवा कर ही रहे। मतलब या तो सरकार का आंदोलन के बावत आंकलन गलत था या संख्या भले ही आंदोलनकारियों की कम रही हो, लेकिन एक ऐसा परसेप्शन देशव्यापी, जरूर उत्पन्न हो रहा था जिसकी गरमी भले ही सरकार ने देर से महसूस की (शायद आगामी चुनाव आने के कारण) जिस कारण, से सरकार को आंदोलन के उतरते दौर में भी "अटका बनिया देय उधार" की तर्ज़ पर मांगे लगभग संपूर्ण माननी पड़ी। इस प्रकार सरकार की पूरे आंदोलन के दौरान विफलता का मुख्य कारक राकेश टिकैत की बे-लगाम लेकिन अर्थ पूर्ण और सरकार के दिल में ड़र-कम्पन्न पैदा करने वाले कथन रहे। जिसके कारण ही सरकार ने "सौ कोड़े भी खाये और सौ प्याज़ भी", और राकेश टिकैत आंदेालन को अपने अंतिम उद्देश्यों की पूर्ण पूर्ति की ओर ले जाने में सफल रहे। इसलिये समस्त आंदोलनकारियों नेताओं में यदि किसी एक व्यक्ति को इस आंदोलन की सफलता का श्रेय दिया जा सकता है, तो वह आंदोलन के दौरान रोता हुआ आंखो से आंसुओं से टपकता हुआ भीगा राकेश टिकैत का चेहरा ही था। इस आंदोलन की एक विशेषता यह भी रही कि कमोवेश विभिन्न राजनैतिक पार्टियों के द्वारा उसे हथियाने, हथियार बनाने व अपना ही राजनैतिक हित साधने के लिए अपनी सार्थक उपस्थिति दर्ज कराने के प्रयास को आंदोलनकाररियों नेताओं ने प्रायः असफल कर दिया। 

इस आंदोलन का एक और महत्वपूर्ण व मजबूत उल्लेखनीय बात यह भी रही है कि वे अकेले राकेश टिकैत ही थे, जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा अचानक आकाशवाणी से तीनों कृषि कानून की वापसी की घोषणा किए जाने पर अनेक किसान नेताओं सहित अनेक क्षेत्रों में आंदोलन समाप्ति की अटकले तेजी से लगनी शुरू हो गई थी, तब भी राकेश अड़िग रहे, अटल रहे और आंदोलन समाप्ति पर उनका अपने चिर-परिचित शैली में यही जवाब रहा, जब हमारी शेष मांगों का संतुष्टि पूर्ण समाधान हो जाएगा, तभी घर वापसी होगी। और अंततः यह भी हो भी गया। देर आये दुरूस्त आये की तर्ज पर अंत में समस्त पक्षों को समझदारी दिखाने के लिए बधाई। "अंत भला तो सब भला"।

सोमवार, 6 दिसंबर 2021

क्या ‘‘कांग्रेस’’ ‘‘भाजपा’’ से ‘‘बड़ी’’ नहीं हो गई है?


निसंदेह विश्व की सबसे बड़ी पार्टी भाजपा ही है। फिर चाहे सदस्य संख्या की दृष्टि से हो, अथवा विश्व का सबसे बड़ा लोकंतात्रिक देश भारत पर शासन करने की दृष्टि से। देश में केन्द्र व राज्यों में कुल 16 (9़+7) राज्यों में वह स्वयं अथवा अपने सहयोगी दलों के साथ सत्ता पर काबिज है। लेकिन जैसा कि कहा जाता है कि "सबसे ऊंची जाने वाली पतंग से ही सबसे ज़्यादा पेंच लड़ाये जाते हैं", अब कांग्रेस भाजपा को एक क्षेत्र में जरूर पछाड़ रही है। देश में आये नये कोरोना वैरिएंट "ओमीक्रॉन" को लेकर देश में अभी तक 23 ओमीक्रॉन कोरोना वैरीअंट से संक्रमितो की संख्या चिंहित हो चुकी है। कुछ के टेस्ट जारी है व उनकी रिपोर्ट आने की है। अभी तक विश्व के लगभग 50 देशों में ओमीक्रॅान फैल चुका है। भारत में पाये गये अभी तक कुल 23 संक्रमितों में से 19 महाराष्ट्र व राजस्थान प्रदेश में है। अर्थात 85% के लगभग संक्रमित कांग्रेस व सहयोगी शासित प्रदेशों में हैं। शेष 4 संक्रमित अन्य राज्यों में हैं। मतलब साफ है! कांग्रेस का ग्राफ इस क्षेत्र में बढ़ रहा है। इस "कीर्तिमान" के लिए कांग्रेसी सरकारों को आप बधाई क्यों नहीं देना चाहते है? वे राहुल गांधी ही तो थे जिन्होंने सबसे पहले प्रथम कोविड-19 के दौर में यह कहकर नरेन्द्र मोदी की आलोचना की थी कि अंतर्राष्ट्रीय एयरपोर्ट व उड़ानों को मोदी ने तुरंत क्यों नहीं बंद किया। किन्तु, "कालस्य कुटिला गति:"। अफ्रीका से यहां से आकर फैला ओमीक्रॉन को रोकने के लिए महाराष्ट्र व राजस्थान की सरकारों ने अंतर्राष्ट्रीय एयरपोर्ट पर उतरने वाले यात्रियों को 14 दिन के अनिवार्य  क्वारेंन्टाईन में और कड़े नियंत्रण में सरकारी व्यवस्था में क्यों नहीं रखा? जब यह ओमीक्रॉन नामक नया कोविड वेरिएंट दक्षिण अफ्रीका में पाया जाने की जानकारी सबको हो चुकी थी। उसके तुरंत बाद ही अफ्रीका से सीधे उड़ाने अथवा विश्व के अनेक देशों से होकर गुजरने वाली उड़ानों से उतरने वाले हवाई यात्रियों पर इन दोनों प्रदेशों की सरकारों ने प्रतिबंध क्यों नहीं लगाया? किन्तु "कांग्रेस को नहिं दोष गुसाईं"। जो लोग सबसे आगे सबसे पहले आकर  यह कहकर चिल्लाते रहे कि मोदी ने कोई रोक नहीं लगाई है, वे अब चिल्लाने में क्यों पिछड़ कर "चुप्पी साधने वालों की" संख्या में आगे रह रहे हैं? क्या कांग्रेस को "रचनात्मक और सकारात्मक" रूप से कार्य करने में सबसे आगे आने का प्रयास करना ही नहीं आता है? सिर्फ और सिर्फ नकारात्मक  दृष्टिकोण व नीति? इसीलिये मैं यह कहता हूं कि दिल को "दरिया के समान"  बड़ा कर कांग्रेस को इस उपलब्धि के लिये बधाई दीजिये। इससे अंततः ‘‘आपका’’ ही फायदा होना हैं?

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