शुक्रवार, 30 जून 2017

राष्ट्रपति चुनाव लड़ने के पूर्व ही विपक्ष ने वाकओवर दे दिया!






         "क्या भाजपा नेतृत्व को रामनाथ कोविंद की घोषणा करते हुए दलित कार्ड खेलने के बजाय यह कथन एवं दावा करना चाहिए था कि उसने एक सरल, प्रखर बुद्धिजीवी, वकील, गहन सवैंधानिक व राजनैतिक अनुभव रखने वाले एवं संयुक्त राष्ट्र संघ में उच्च पद पर काम करने के अनुभवी बेदाग छवि के व्यक्ति को सर्वोच्य पद के लिये उतारा हैं?"
             "देश में विपक्ष (यूपीए) का रवैया ऐसा कैसे हो सकता है कि जैसे उन्होंने मान लिया हो की सत्तापक्ष के उम्मीदवार रामनाथ कोविंद का चुनाव जीतना तय हैं? "
           "क्या वास्तव में मोदी के आने के बाद से देश में लम्बे समय से सत्ता पर काबिज रही कांग्रेस के दिमाग का दिवालियापन हो गया हैं? "
           "क्या मोदी वास्तव में ‘‘कांग्रेस विहीन भारत’’ से भी एक कदम आगे ‘‘विपक्ष विहीन भारत’’ की ओर बढ़ चुके हैं?"

          भाजपा ने चतुर पहल करते हुये बिहार के गर्वनर रामनाथ कोविंद का नाम राष्ट्रपति पद के लिये घोषित करके राजनैतिक श्रेष्ठता के साथ बढ़त प्राप्त कर एक बड़ी सफलता हासिल की हैं। विपक्ष को तो मानो सांॅंप ही सूंघ गया हैं। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने उनकी उम्मीदवारी की घोषणा करते समय यह कहां ’’रामनाथ कोविंद दलित समाज से उठकर आये हैं और उन्होंने दलितो के उत्थान के लिए बहुत काम किया हैं वे पेशे से एक वकील हैं उन्हे संविधान का अच्छा ज्ञान भी हैं इसलिए वे एक अच्छे राष्ट्रपति साबित होंगे और आगे भी मानवता के कल्याण के लिए काम करते रहेंगे।’’ भाजपा के पास जातिवादी राजनीति पर चोट करने का यह एक अति सुंदर मौका था। यदि भाजपा नेतृत्व इस समय थोडी बहुत सूझ बूझ से काम लेता तो मतदाता के सामने अधिकृत रूप से रामनाथ कोविंद के नाम की घोषणा करते समय उन्हे ‘‘दलित’’ के रूप में पेश न करके योग्यता (जो उनके पास भरपूर मौजूद हैं) के आधार पर उनके नाम को पेश करते तब भाजपा एक और राजनैतिक धमाके की अधिकारी भी बन जाती। तब भी क्या उनका स्पष्ट दिखने वाला यह ‘‘दलित कार्ड़’’ एक अघोषित मेसेज नहीं देता? ऐसा करके भाजपा कम से कम अपने आप को जातिवादी राजनीति के आरोपो से तो अलग कर लेती, जिसकी वह शुरू से ही घोर विरोधी रही हैं। विपक्ष ने भी विरोध में दूसरा उम्मीदवार ‘‘एक दलित’’ नेत्री मीरा कुमार को उतारा। 
भाजपा नेतृत्व को रामनाथ कोविंद की घोषणा करते समय यह कथन एवं दावा करना चाहिए था कि उसने एक सरल, प्रखर बुद्धिजीवी, वकील, गहन सवैंधानिक व राजनैतिक अनुभव रखने वाले एवं संयुक्त राष्ट्र संघ में उच्च पद पर काम करने के अनुभवी बेदाग छवि के व्यक्ति को सर्वोच्य पद के लिये उतारा हैं। रामनाथ कोविंद जिस राज्य के राज्यपाल थे उसके मुख्यमंत्री ने भी उनकी इन्ही योग्यताओं को सराहा एवं स्वीकारा हैं। जबकि देश के अन्य प्रांतो में जहॉं विपक्ष की सरकारे हैं तथा जहॉ के राज्यपाल सत्ताधारी सरकार द्वारा नियुक्त किये गये एवं अन्य दल से संबंधित रहे हैं, वहॉं अकसर आपस में टकराव की स्थिति ही निर्मित होती रही हैं। 
ऐसा व्यक्ति जो कि भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता के साथ-साथ पार्टी के अनुसूचित जाति के राष्ट्रीय मोर्चे का अध्यक्ष रहा हो, यदि उनके नाम की उपरोक्त योग्यताओं के आधार पर राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवारी की घोषणा की जाती तो निश्चित रूप से भाजपा को दलित कार्ड़ फेके बिना भी स्वयं दलित वर्ग का फायदा मिल जाता व विपक्षी दलों को आरोप लगाने का मौका भी नहीं मिलता। ऐसे व्यक्तित्व के धनी व्यक्ति मात्र दलित होने के कारण नहीं वरण अपनी योग्यता के आधार पर चुने जाते। लेकिन आज की छुद्र राजनीति में शायद ऐसी गंभीर सोच लुप्त हो गई हैं। 
 ऐसा लगता हैं कि भाजपा की इस घोषणा पर विपक्ष ने राष्ट्रपति चुनाव में उम्मीदवार उतार कर मानो वाकओवर ही दे दिया हैं। यूपीए ने उम्मीदवार की घोषणा अवश्य की हैं लेकिन ऐसा लगता हैं कि वह एनडीए के उम्मीदवार की जीत के प्रति (निराशा के कारण) इतने ज्यादा आश्वस्त हैं कि वेे होश खोकर विरोध के जोे वास्तविक मुद्दे उनके पास हैं उनको भी वे उठाना तक भूल गये हैं। इस सुनिश्चित जीत की प्रत्याशा में पूरे देश के मीड़िया से लेकर बुद्धिजीवी वर्ग का ध्यान भी एक बड़ी भूल की ओर नहीं गया। एनडीए के उम्मीदवार श्री रामनाथ कोविंद राज्यपाल के पद पर थे जिन्हे प्रोटोकाल के तहत सुरक्षा प्राप्त थी। राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी की घोषणा होने के साथ ही रामनाथ कोविंद को बिना मांगे केन्द्रीय सरकार द्वारा जेड़ प्लस सुरक्षा प्रदान की  गई। हो सकता हैं कि राज्यपाल पद से इस्तीफा देने व स्वीकार होने के बाद उनकी पूर्ववर्ती सुरक्षा हटा ली गई हो। लेकिन जब यूपीए ने मीरा कुमार को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया तब से अभी तक भी उन्हे रामनाथ कोविंद के सम्यक श्रेणी की सुरक्षा प्रदान नहीं की गई हैं। यदि रामनाथ कोविंद गर्वनर रह चुके थे, तो मीरा कुमार भी स्पीकर व केन्द्रीय मंत्री रह चुकी हैं। चूॅंकि वे देश के तीन सबसे उच्च पद राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री व उसके बाद तीसरा बड़ा पद लोकसभा के स्पीकर के पद में से एक स्पीकर पद पर रही हैं, अतः उन्हे भी वही सुरक्षा प्रदान की जानी चाहिए थी। देश के संविधान में सभी उम्मीदवारों को बराबर का हक व अधिकार हैं। दोनो व्यक्ति फिलहाल दोे विरोधी गठबंधन एनडीए व यूपीए के घोषित उम्मीदवार हैं जिनके फार्म की तकनीकी जांच (स्क्रुटिनी) भी अभी नहीं हुई हैं। (अर्थात् फार्म निरस्त भी हो सकता हैं) चुनाव परिणाम की घोषणा आज नहीं की जा सकती हैं? न ही तकनीकि रूप से (जीत की) कल्पना ही की जा सकती हैं। देश का इतिहास आश्चर्यजनक चुनाव परिणामों से भरा पड़ा हैं। चुनावो में इंदिरा गांधी से लेकर अटलजी सहित अनेक नामी ज्ञानी व्यक्ति भी संभावनाओं के विपरीत हार चुके हैं। लेकिन सबसे खराब हालत तो वर्तमान समय में यूपीए की हैं जिसने यह मान लिया हैं कि रामनाथ कोविंद का चुनाव जीतना तो तय ही हैं। इसीलिए न तो उसने रामनाथ कोविंद को जेड़ प्लस सुरक्षा देने का विरोध ही किया और न ही अपने उम्मीदवार मीरा कुमार के लिये कोविंद समतुल्य सुरक्षा की मांग ही की।  
इस अवसर पर मैं नरेन्द्र मोदी एवं अमित शाह की जोड़ी को बधाई देना चाहता हैूंॅ जिन्होने एक नेक, सामान्य व सरल स्वभाव वाले, उपयुक्त, योग्य एवं बेदाग व्यक्ति को राष्ट्रपति बनाने का अवसर देकर दलित वर्ग में अपनी पैठ को और मजबूत कर लिया हैं। राजनीतिक दृष्टि से कई निशाने एक साथ मारने में माहिर मोदी अपने इस कदम में पूर्णतः सफल रहे हैं। इसलिये अब यूपीए को राष्ट्रपति चुनाव को सैद्धांतिक आवरण देने में भी मुश्किल हो रही हैं। यूपीए का यह आरोप हैं कि सर्वसम्मति के प्रयास किये जाने के दौरान भाजपा द्वारा उम्मीदवार का कोई नाम प्रस्तावित नहीं किया गया, अतः भाजपा किस बात पर सर्वसम्मति का प्रयास कर रही थी? वास्तव में यह उनकी अक्ल के खोखलेपन व सोच के दिवालियापन को ही दर्शाता हैं। यह वास्तविकता हैं व राजनीति का सिंद्धात भी यही हैं कि सत्ताधारी पार्टी जिसके पास बहुमत होता हैं वह अपनी मरजी/इच्छा के व्यक्ति को उम्मीदवार बनाती हैं व सही सोच रखने वाली पार्टियॉं उस पर सर्वानुमति बनाने का प्रयास करती हैं। अभी तक कंाग्रेस जो करती आ रही थी भाजपा ने भी वही किया हैं। कांग्रेस ने पूर्व में राष्ट्रपति के चुनाव में शायद ही कभी सर्वानुमति के प्रयास किये हांे। यदि कंाग्रेस का आरोप सही हैं तो कंाग्रेस ने भी उम्मीदवारी पर संशय क्यों बनाए रखा? उसने भी तो भाजपा से चर्चा के दौरान अपनी ओर से कोई उम्मीदवार या उम्मीदवारों का पेनल पेश करके भाजपा को सीमा में बॉंधने का प्रयास नहीं किया? वास्तव में मोदी के आने के बाद से देश में लम्बे समय से सत्ता पर काबिज रही कंाग्रेस के दिमाग का दिवालियापन हो गया हैं। इसलिये उसे कुछ समझ मेें ही नहीं आ रहा हैं कि वह मोदी के कदमो का राजनैतिक जवाब कैसे दे। यूॅं भी मोदी ‘‘कांग्रेस विहीन भारत’’ से भी एक कदम आगे ‘‘विपक्ष विहीन भारत’’ की ओर बढ़ चुके हैं।

बुधवार, 14 जून 2017

राज(नीति)!आंदोलन से उपवास तक!

पिछली एक तारीख से महाराष्ट्र व मध्यप्र्रदेश के कुछ भागो में विभिन्न मांगो को लेकर किसानों एवं भिन्न -भिन्न किसान संगठनों द्वारा आंदोलन चलाया जा रहा हैं जो दिन प्रति दिन तीव्र होकर फैलता जा रहा हैं। देश के मध्य स्थित प्रदेश हमारे मध्य प्रदेश मंे भी आंदोलन इतना तीव्र हो गया हैं कि उसके हिंसक रूप धारण कर लेने के कारण हुई गोली चालन व मारपीट के कारण 6 किसानो की दुखदः मृत्यु हो गई। अकेला मध्यप्रदेश ही वह प्रदेश हैं जिसे लगातार पिछले पांच वर्षो से कृषि क्षेत्र में उल्लेखनीय सफलता व किसानो के हित में कार्य प्रणाली के कारण पुरष्कार स्वरूप केन्द्र सरकार द्वारा ‘‘कृषि कर्मण’’ पुरस्कार दिया जाता रहा हैं। प्रदेश के कृषि मंत्री 5-5 बार पुरष्कार प्राप्त कर फूले नहीं समा रहे हैं। लेकिन कृषि क्षेत्र में लगातार अवार्ड़ प्राप्त करने वाले प्रदेश में किसानो का आंदोलन होना व उस आंदोलन का उग्र व हिंसक हो जाना और उक्त हिंसक आंदोलन के दमन हेतु गोली चालन होना (जिससे 5 किसानो की मृत्यु हो गई हैं,) अपने आप में एक बड़ी संजीदगी विहीन विरोधाभाषी स्थिति को प्रकट करता हैं।
प्रदेश सरकार का रवैया तो बहुत ही अक्षोभनीय व निर्लजता लिये हुये मूर्खता पूर्ण रहा हैं। एक तरफ मुख्यमंत्री किसानांे की मृत्यु पर क्षति राशि की घोषणा करते रहे, तो दूसरी ओर उनके गृहमंत्री पुलिस द्वारा गोली चालन से न केवल लगातार साफ इंकार करते रहे बल्कि कुछ असामाजिक अज्ञात तत्वों को इस गोलीकांड के लिये जिम्मेदार भी ठहराते रहे। लेकिन अंततः उन्हे वस्तुस्थिति को स्वीकार कर पुलिस गोली चालन से 5 किसानों की मृत्यु को स्वीकार करना पडा़। गृहमंत्री का यह रवैया न केवल उनकी गैर संवेदनशीलता व अकुशलता को दर्शाता हैं बल्कि मुख्यमंत्री के स्टेंड़ के विरूद्ध भी रहा जिन्होेंने किसानो की गोली चालन में मृत्यु के पश्चात् तुरंत  प्रांरभ में मुआवाजा राशि 5 लाख की घोषणा कर दी थी, जिसे 5 लाख से बढ़ाकर 10 लाख किया गया और अंततः1 करोड़ करके संवेदनशील होने का अहसास (असफल) प्रयास किया गया। यदि सरकार की नजर में घटित नुकसान की पूर्ति मुआवजा राशि से हो जाती हैं तो पहले मात्र 5 लाख की घोषणा क्यांे की गई? यदि वह राशि सही थी तो फिर बढ़ाकर 10 लाख व दो दिन बाद 1 करोड़ क्यों कर दी गई? क्या 5 लाख की राशि की घोषणा के बाद आंदोलन में नरमी न आने के कारण आंदोलन को कमजोर करने के लिये 1 करोड़ रू. की राशि का दॉंव फेंका गया? प्रथम बार ही 1 करोड़ रू. की घोषणा क्यों नहीं की गई? आखिर कब तक इस तरह आंदोलनो में गई जाने व मृत्यु की एवज में मुआवजे की घोषणा कर मरहम लगाने का प्रयास किया जाता रहेगा? क्या जीवन के क्षतिपुर्ति का विकल्प सिर्फ पैसा (मुआवजा राशी) ही हो सकता हैं? आंदोलन से निपटने में विफल होने के लिये शासन, उपस्थित जनप्रतिनिधि प्रशासनिक मशीनरी व अराजक तत्वों को निश्चित सीमित समय में कड़क सजा मिलने का प्रावधान क्यों नहीं बनाया जाता हैं?, ताकि जान माल की हानि न हो सके। ऐसी स्थिति पैदा करने के लिये जो सामूहिक रूप से जिम्मेदार होते हैं उन पर कार्यवाही होकर उन्हे कड़क सजा़ क्यों नहीं दी जाती हैं? एक तरफ ‘‘सरकार की मुआवजा की घोषणा करते जाना’’ व दूसरी ओर आंदोलन में ‘‘असामाजिक तत्वों द्वारा गोली चालन किये जाने का कथन करना’’ क्या यह सब सरकार के मुखिया व गृहमंत्री के बीच संवादहीनता को नहीं दर्शाता है? क्या यही संवादहीनता की खाई प्रशासक, शासक, आंदोलित किसान एवं प्रबुद्ध नागरिकांे के बीच इतनी तो नहीं बढ़ गई जिसका दुष्परिणाम ही 6 लोगो की मौत का कारण बना? 
देश की सुरक्षा के लिये सीमा पर मरने वाले प्रदेश के जवानो के लिये कभी 1 करोड़ का मुआवजा मध्यप्रदेश सरकार द्वारा दिया गया? हर पक्ष यही कहता हैं कि ऐसे समय राजनीति नहीं की जानी चाहिए। लेकिन दूसरे ही पल परस्पर एक दूसरे पर राजनीति करने का आरोप जड़ दिया जाता हैं। प्रदेश के संवेदनशील मुख्यमंत्री मुआवजा की राजनीति में ही मशगूल हो गये। हाल में ही कुछ दिन पूर्व प्रदेश के मुख्यमंत्री जब बैतूल जिले के दौरे पर आये थे तब बैतूल शहर में रहने वाले एक जवान जिसकीे सीमा पर मृत्यु हो गई थी उसकेे घर वे (दो मिनट शोक व्यक्त करने) शायद ‘राजनीति’ न करने के कारण ही नहीं पंहुचे। जबकि उसके एक दिन पहले ही वे भोपाल से रीवा जाकर एक शहीद को श्रृद्धाजंली देकर आए थे। 
कश्मीर में सुरक्षा बल पर पत्थर फेकने वाले ‘व्यक्ति’ पर रबर बुलेट चलाने के मामले में तो उच्चतम् न्यायालय से लेकर मानवाधिकारी प्रश्न उठा देते हैं। लेकिन देश की पेट पूजा करने वाले किसानो की जब पुलिस/अर्द्धसैनिक बल द्वारा गोली चालन में हत्या हो जाती हैं तब न तो न्यायालय सामने आता हैं न ही तथाकथित बुद्धिजीवी मानवाधिकार के रखवाले लोग बस किसी न किसी रूप में एक जांच के आदेश की नियुक्ति की घोषणा हो जाती हैं।.
बात कुछ राहुल गांधी के दौरे की भी कर ले। राहुल गांधी ने ट्वीट किया कि ‘‘वे प्रभावित किसान परिवारो से मिलने मंदसौर जा रहे हैं’’। यह आंदोलन जिसने हिंसक रूप ले लिया (किसके कारण/द्वारा, यह न्यायिक जांच का विषय हो सकता हैं) जिस कारण करोड़ो रू. की आम नागरिकों व सार्वजनिक सम्पत्ति का नुकसान हुआ। एक बस जिसमें बच्चे व महिलाएॅं सवारी थी उस पर लगातार पत्थर फेके गए उन्हे उतार कर बाद में बस जला दी गई। ऐसे आंदोलन के बीच ऐसी अमानवीय हरकतो से प्रभावित व डरे हुये लोगो के ऑंसू पोछने के लिए राहुल गांधी से लेकर अन्य कोई नेता ने पहंुचने की इच्छा व्यक्त नहीं की। क्यों? तब वह राजनीति कहलाती और वे ऐसी जनहितैषी राजनीति नहीं करना चाहते हैं। वाह री राजनीति! 
शिवराज सिंह चौहान द्वारा उपवास पर बैठना कौन सी नीति हैं जिसमें राज-नीति बिलकुल  नहीं हैं? यदि 24 घंटे के उपवास से शांति आ सकती हैं, तो मुख्यमंत्री 3-4 दिन पूर्व ही, हिंसा प्रारंभ होते ही क्यों नहीं अनशन पर बैठ गये? उपवास पर बैठने को एक जुमले में ‘‘गंाधी गिरी’’ कहा जा सकता हैं। लेकिन यदि यह गांधी-गिरी हैं तो उसका हिंसा से क्या लेना देना हैं। लेकिन यहॉं पर दोनो पक्षों द्वारा हिंसा का रास्ता अपनाया गया। मुख्यमंत्री द्वारा हिंसा की उच्चस्तरीय जांच कराने का भी निर्णय उपवास पर बैठने के बाद किया गया। जब एक न्यायिक जांच की घोषणा पहिले ही कर दी थी तब दूसरी उच्चस्तरीय जांच का क्या औचित्य? इससे तो यही मतलब निकलता हैं कि जंाच की घोषणा कर मामले को ठंडे बस्ते में डालना जो कमोवेश प्रत्येक सरकार किसी भी घटना को घटित होने पर अपने बचाव में (सफलतापूर्वक) करती चली आ रही हैं।

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