शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2022

लोकतंत्र के लिए ‘‘परिवारवाद’’ से ज्यादा घातक ‘‘व्यक्तिवाद’’ है?

राष्ट्रव्यापी बहस होनी चाहिए।

प्रधानमंत्री ने ‘‘परिवारवाद’’ (एक ही कुन्बे का सत्ता पर एकाधिकार) को ‘‘लोकतंत्र के लिए खतरा’’ बतलाया है। इस पर मैं पूर्व में लेख लिख चुका हूं। परंतु वास्तव में लोकतंत्र को ज्यादा खतरा परिवारवाद से ज्यादा ‘‘व्यक्तिवाद’’ से है। वह कैसे! आगे देखते हैं।

प्रधानमंत्री जब एक परिवार के वर्षों से पार्टी पर शीर्षस्थ कब्जे़ की बात कहकर उन्हें परिवारवादी पार्टी कहते हैं और इस परिवारवाद रूपी ‘‘अरहर की टटिया पर अलीगढ़ी ताला‘‘ लगाना चाहते हैं, तब शायद अथवा जान बूझकर? उनका ध्यान सिक्के के दूसरे पहलू की ओर गया ही नहीं। परिवार वाद के सिक्के का दूसरा पहलू जो ज्यादा खतरनाक है, वह व्यक्तिवाद है। अतः वस्तुतः व्यक्तिवाद क्या है, इसको समझना पहले आवश्यक हैं। 

परिवारवाद में कम से कम एक व्यक्ति से ज्यादा व्यक्ति होते है। अर्थात जब एक से अधिक व्यक्ति होंगे तब परस्पर विचार विमर्श या विरोधाभास दोनों ही स्थिति में निरंकुश होने की स्थिति में कुछ न कुछ रुकावट अवश्य आयेगी। लेकिन व्यक्तिवाद में मात्र एक ही व्यक्ति का सर्वाधिक पूर्णतः नियंत्रण, अंकुश होता है। इसलिए उसके निरंकुश तानाशाही होने का खतरा हमेशा बना रहता है। यह न केवल स्वस्थ्य लोकतंत्र की भावना के बिल्कुल विपरीत है, बल्कि वह उसकी जड़ व मूल आधार को चोट करने वाला होता है। वास्तविक व परिपक्व लोकतंत्र तभी सफल कहलाता है, जहां सत्ता में भागीदारी-हिस्सेदारी से लेकर लोकप्रिय चुने गये शासन की नीतियों का फायदा अधिकतम लोगों की भागीदारी के साथ अधिकमत से अधिकतम लोगों को मिले। जब लोकतंत्र को जींवत-जीवित रखने वाली संस्थाएं विधायिका अथवा लोकतंत्र का आधार राजनीतिक पार्टियों के उच्चतम शीर्षस्थ पद पर लगातार या अंतराल से बारम्बार एक ही व्यक्ति की भागीदारी हो रही हो, तो वह संवैधानिक तो हो सकती है, परंतु सही मायने में लोकतंत्र में ‘‘वीर भोग्या वसुंधरा‘‘ की भावना किसी भी रूप में लोकतांत्रिक नहीं ठहराई जा सकती है।

शायद इसी कारण व्यक्तिवाद को रोकने के लिए ही कुछ पार्टियों के संविधान में यह प्रावधान है कि एक ही व्यक्ति दो बार लगातार पार्टी अध्यक्ष नहीं बन सकता है। भाजपा में यह प्रावधान था। लेकिन नितिन गडकरी को दोबारा अध्यक्ष बनाने के लिए तत्समय समय संशोधन किया गया था। तथापि उसका उपयोग नहीं किया गया। अलग-अलग समय में तीन बार बने राष्ट्रीय अध्यक्ष लालकृष्ण आडवानी को अपवाद स्वरूप छोड़कर किसी भी व्यक्ति को दोबारा अध्यक्ष नहीं चुना गया। अर्थात भाजपा में पार्टी के स्तर में एक व्यक्ति के अधिनायकवाद को प्रोत्साहित नहीं किया। परन्तु आप (आम आदमी पार्टी) ने अपने संविधान में दो बार संशोधन कर अरविंद केजरीवाल का कार्यकाल बढ़ाया। परन्तु विधायिका (शासन) के स्वरूप में कार्यकाल की पुनरावृत्ति पर प्रतिबंध क्यों नहीं? शिवराज सिंह के लगातार (एक अंतराल को छोड़कर) 15 वर्ष से मुख्यमंत्री के पद पर विराजमान है, (डॉ. रमन सिंह 18 वर्ष सहित ऐसे अनेकानेक उदाहरण है) क्या यह परिवारवाद की तुलना में ज्यादा खतरनाक होकर व्यक्तिवादी अधिनायकवाद की ओर बढ़ता हुआ खतरा नहीं है? मतलब ‘‘मुंह में दही जमा कर बैठ जाना‘‘ क्या ‘‘थोथा चना बाजे घना‘‘ की नजीर नहीं है? क्या व्यक्तिवाद संवैधानिक संरक्षित राजनैतिक अधिकारों पर कुठाराघात व राजनैतिक प्रतिभाओं के विकास पर ‘‘कुंडली मारना’’ नहीं होगा? 

हमारे संविधान में भी विधायिका के संवैधानिक पद विधायक-सांसद की एक निश्चित समयावधि 5 वर्ष निश्चित की गई हैं। परन्तु उनके लगातार या अंतराल से एक से अधिक अवधि के लिए अर्थात पुनः चुने जाने पर कोई संवैधानिक प्रतिबंध नहीं है, जैसा कि अमेरिका में! जहां प्रेसिडेंट सिर्फ दोे लगातार अवधि के लिए ही प्रेसिडेंट पद पर चुने जा सकते हैं। विश्व के कई देशो में इस तरह के प्रावधान हैं। स्विजरलैंड विश्व का एकमात्र ऐसा देश है, जहां प्रत्येक वर्ष राष्ट्रपति का चुनाव होता है तथा राष्ट्रपति को दोबारा चुनाव लड़ने की अनुमति नहीं होती है। अर्थात मात्र एक वर्ष की अवधि के लिए ही एक व्यक्ति राष्ट्रपति रह सकता है। यहां पर 87 प्रतिशत शिक्षित है। अपराधों की दर भी यहां पर विश्व में न्यूनतम स्तर पर है। मतलब एक वर्ष की अवधि का कार्यकाल लिये भी लोकतंत्र यहां पर पूरी तरह से सफल है। इसका मुख्य कारण एक व्यक्ति के एकाधिकार के वजूद को समाप्त करना ही है क्योंकि ‘‘मुर्गा बांग दे या न दे सुबह तो होनी ही है‘‘। बावजूद अवधि प्रतिबंध के वे देश लोकतांत्रिक देश कहलाते है। जिस कारण से लोकतंत्र वास्तविक अर्थो में हर समय हरा-भरा तथा फल-फूल सकें।

यदि विधायिका के संवैधानिक पदों पर अवधि की सीमा पर रोक को इस आधार पर नही लगाए जाने का तर्क दिया जाता हैं कि लोकतंत्र में अंततः व अंतिम रूप से जनता ही अपने प्रतिनिधित्व को चुनती हैं, जिससे उसके वोट के अविछिन्न व अभिन्न अधिकार पर संवैधानिक पदों पर चुनने की स्वतंत्रता के विकल्प को सीमित कर देने पर, यह उनके अधिकारों पर एक कुठाराघात नहीं होगा? तब यही सिंध्दान्त पार्टी के सर्वोच्चम पद अध्यक्ष पर भी क्यों नहीं लागू किया जाता है और क्यों नहीं लागू होना चाहिए? जिसके आधार पर प्रधानमन्त्री परिवारवादी पार्टियों की आलोचना कर उसे लोकतंत्र के लिए खतरा बतला रहे हैं। वहां पर भी पार्टी, कार्यकर्ता पार्टी संविधान के अनुसार वोटर बन कर जन-प्रतिनिधित्व कानून का पालन करते हुए संविधान द्वारा संरक्षण प्राप्त वैधानिक प्रक्रिया का पालन कर चुने गये ‘वंशज’ अध्यक्षों पर परिवारवादी पार्टी के आरोप का अस्तित्व कैसे रह सकता हैं? वैसे पार्टी अध्यक्ष का चुनाव ढ़कोसला मात्र होकर खानापूर्ति है, यह आरोप लगा कर प्रश्नवाचक चिन्ह लगाया जा सकता है। परन्तु यही आरोप संसदीय व विधानसभा चुनावों के लिए भी लगता रहता है कि वे कितने स्वतंत्र और निष्पक्ष होते हैं? चार एमः-मनी पावर, मसल पावर, माब पावर और मीडिया पावर बिना सामान्यत्या आप कोई चुनाव जीतने की कल्पना कर सकते है। परिवारवादी पार्टी का आरोप को अस्तित्व में लाने के पूर्व क्या इस बात पर गंभीरता से सोचने की आवश्यकता नहीं हैं कि इन तथाकथित परिवारवादी पार्टीयों के हजारों कार्यकर्ता को यह ‘‘पेटर्न सुहाता’’ हैं, ‘‘मियां बीवी राजी तो क्या करेगा काजी’’ (वैधानिक चुनरी पहने)। तब उनके विवेक पर प्रश्नवाचक चिन्ह क्यों? व इस कार्यकर्ताओं के इस पैर्टन के लिये परिवार/वंशवाद का मुखिया कैसे जिम्मेदार? जिस प्रकार राजतंत्र में ‘‘जैसा राजा वैसी प्रजा‘‘ होती है, उसी प्रकार प्रजातंत्र में ‘‘जैसी प्रजा वैसा राजा ‘‘होता है। ठीक वैसे ही जैसे लोकतंत्र में जनता फूलनदेवी, मुख्तार अंसारी, अतीक अहमद, राजा भैया, अमरमणि त्रिपाठी, हरिशंकर तिवारी, मोहम्मद शहाबुद्दीन, सूरजभान, आंनद मोहन, अनंत सिंह, पप्पू यादव आदि-आदि (सूची लंबी है) को चुन लेती हैं।

वैसे जब एक कार्यकाल के सिंद्धान्त को पार्टी अध्यक्ष पर लागू करके परिवावादी पाटी बनने से बचा जा सकता है तब यही सिंद्धान्त शासन पद (प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, नेता विपक्ष व फिर नीचे तक अन्य लोकतंात्रिक पदों पर) क्यों नहीं लागू कर परिवारवादी एवं व्यक्तिवादी दोनों शासन की बुराइयों से बचा जा सकें। प्रधानमंत्री ने गांधी परिवार पर निशाना लगाते हुए परिवारवाद का आरोप लगाकर कांग्रेस पार्टी को परिवार वादी पार्टी तक कह दिया। परन्तु उसी आरोप के साथ उन्होंने उसी परिवारवाद में शामिल व्यक्तिवादी अधिनायकवाद जो नेहरू-इंदिरा गांधी के लगभग 16-16 वर्षों के लम्बे कार्यकाल से पनपा, पर एक शब्द भी नहीं बोले। क्यों? भविष्य की दृष्टिगत करते हुये? शायद इसीलिए प्रधानमंत्री एक ही परिवार के अन्य सदस्यों के चुनाव लड़ने को परिवारवाद नहीं मानते हैं। वास्तव में अब यह समय आ गया है जब केंद्र की सत्ता पर व कई राज्यों में आरूढ़ भाजपा को इस दिशा में पहल कर ‘‘चौरिटी बिगन्स एट होम‘‘ का उदाहरण प्रस्तुत करती? लोकतंत्र के लिए विधायिकी व राजनैतिक पार्टी दोनों चक्को का मजबूत होना आवश्यक है, जो एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, जिन पर समान रूप से कार्यकाल की अवधि का सिंद्धान्त लागू किया जाना चाहिए। ताकि सिर्फ परिवारवाद से ही नहीं बल्कि व्यक्तिवादी अधिनायकवाद से भी बचा जा सकें। इसके लिये देशव्यापी विस्तृत चर्चा के बाद आम सहमति बनाकर संविधान में संशोधन किये जाने की आज के समय की मांग व आवश्यकता है।

शुक्रवार, 18 फ़रवरी 2022

परिवारवाद! लोकतंत्र को खतरा! कैसे ! कितना! कौंन जिम्मेदार?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोकसभा और राज्यसभा में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव का जवाब देते होते हुए कई मुद्दों के साथ-साथ कांग्रेस पर परिवारवाद का गंभीर आरोप भी लगाया। यद्यपि कांग्रेस पर परिवारवाद का आरोप कोई नया नहीं हैं। वर्षो से यह आरोप लगाया जाता रहा है। लेकिन अब नई पोशाक में पहनाकर नये तरीके से यह आरोप लगाया जा रहा है। पांच राज्यों में हो रहे चुनावों कें मद्देनजर प्रधानमंत्री ने परिवारवाद को लोकतंत्र के लिए बड़ा खतरा बता दिया है। प्रश्न सबसे बड़ा यह है कि वास्तव में परिवारवाद है क्या? इसके लिए मूलतः जिम्मेदार कौंन हैं? लोकतंत्र के लिए यह खतरा कैसे है? इन प्रश्नों के उत्तर को सही रूप में जानना व समझना आवश्यक होगा।

भाजपा के कांग्रेस के परिवारवाद के आरोप को समयचक्र अनुसार दो भागों में बांटा जा सकता है। प्रथम जनसंघ से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी के समय तक भाजपा बिना किसी हिचक के परिवारवाद की परिभाषा को सीमित किये बिना कांग्रेस पर परिवारवाद का आरोप खुलकर बेहिचक लगाती रही है। तत्पश्चात कांग्रेस के परिवारवाद के घोतक, सूचक और पहचान लिये हुये कई नेता भाजपा में शामिल हुये, तब भाजपा की परिवारवाद के मुद्दे पर नरेंद्र मोदी के जमाने में परिभाषा, दृष्टि व शैली ही बदल गई। परिवारवाद को समझने के पूर्व परिवार को समझना भी आवश्यक है। 

सामान्यतः एक परिवार में माता-पिता, पुत्र-पुत्रिया, भाई-बहन (यदि वे साथ रहते हैं) परिवार के सदस्य होते हैं। वैसे संयुक्त हिन्दु परिवार और परिवार को वृहत रूप से देखने की दृष्टि सेे परिवार में समस्त बच्चों के परिवार को मिलाकर भी एक परिवार कहा जा सकता हैं। प्रश्न यह है कि परिवार की किस श्रेणी व आकार को राजनैतिक पार्टियां परिवारवाद के घेरे में लाना चाहती हैं। यह स्पष्ट नहीं हैं। नरेन्द्र मोदी के पूर्व तक भाजपा सहित विपक्ष, कांग्रेस पर वृहत परिवार के लड़कें, लड़की, भाई-भतीजे परिवार के मुखिया की पत्नी, माँ इत्यादि को राजनीति में उन्हे अलोकतंात्रिक रूप से स्थापित कर मंत्री, सांसद व विधायक बनाने पर परिवारवाद का आरोप लगाया जाता रहा हैं। लेकिन यह भी समझना होगा कि ‘‘सब धान बाइस पसेरी नहीं होता‘‘ और ‘‘न एक डंडे से ही सबको हाका जा सकता हैं’’। 

परन्तु राजनीतिक सुविधा की दृष्टि से अब परिवारवाद को दो नयें तरह से परिभाषित किया जाकर समझाने का प्रयास किया जा रहा है। अब राजनैतिक दलों में राजनैतिक विरासत (डायनेस्टिक पालिटिक्स) को लेकर परिवारवाद को प्रधानमंत्री ने पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष, पद तक सीमित कर भाजपा दम ठोककर यह दावा करने लगी है कि उसका कोई भी राष्ट्रीय अध्यक्ष दुबारा अध्यक्ष पिछले कई वर्षो के इतिहास में नही बना है। (जो सत्य भी है) जबकि कुछ अपवादो, को छोड़कर कांग्रेस के यहां राष्ट्रीय अध्यक्ष पद पर ‘गांधी’ ही काबिज व आरूढ़ हैं। प्रधानमंत्री के शब्दों में यही वास्तविक परिवारवाद है, जो लोकतंत्र के लिये गंभीर खतरा है। दूसरे शब्दो में ‘‘अंधा बाटे रेवड़ी फिर अपनो को देय‘‘ उक्ति को उन्होनें सीमित अर्थाे में स्वीकार्यता प्रदान कर दी हैं। इस प्रकार प्रधानमंत्री ने अब परिवारवाद को परिवारवादी (पारिवारिक) पार्टी की ओर मोड़ दिया हैं। 

मोदीजी के कथनानुसार परिवार के अन्य पारिवारिक सदस्य योग्यता के आधार पर जनता के आशीर्वाद से राजनीति में आये, यह परिवारवाद नहीं है और न हीं इससे पार्टी परिवारवादी बन जाती है। परन्तु पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष पर सिर्फ परिवार के लोग ही अर्थात पार्टी फार द फैमली, बाय द फैमली तथा ऑफ द फैमिली हो जाए, तब वह पार्टी परिवारवादी पार्टी बन जाती है, जो कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, बीजू जनता दल ,शिवसेना, राकंपा, पीडीपी, तेलंगाना राष्ट्र समिति, तेलगु देशम (टीडीपी), अकाली दल, आईएनएलडी, नेशनल कांफेंस, डीएमके, लोजपा आदि पार्टी का इतिहास व वर्तमान है। वैसे जब लो लोजपा पीडीपी तेलुगू देशम का भाजपा के साथ गठबंधन होता है तब शायद वे  पारिवारिक पार्टी नहीं रह जाती है? चुकि भाजपा में अनेक ऐसे उदाहरण है, जहां परिवार के कारण साहबजादों भाई-भतीजें को मन्त्री-विधायक, सांसद पद पर सुशोभित किया गया हैं, तब भाजपा परिवारवाद को मंत्री, सांसद, विधायक पद से मुक्त कर देता हैं। यानी ‘‘शोरबा चलेगा बोटी नहीं‘‘। भाजपा की सुविधा की राजनीति ने परिवारवाद की परिभाषा को यहीं तक सीमित कर दिया है। 

जब भाजपा प्रवक्ताओं से यह पूछा जाता है कि ज्योतिरादित्य सिंधिया (सिंधिया परिवार), आरपीएन सिंह (सुपुत्र सीपीएन सिंह पूर्व केन्द्रीय मंत्री), जतिन प्रसाद (पूर्व केन्द्र्रीय मंत्री जितेन्द्र प्रसाद सिंह के पुत्र), पंकज सिंह (रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के पुत्र), कर्नाटक के बसवराज बोमई मुख्यमंत्री (एस.आर.बोमई पूर्व मुख्यमंत्री के पुत्र) अर्पणा यादव आदि लोग क्या परिवारवाद के द्योतक नहीं है? तब जवाब में परिवारवाद की उक्त परिवर्तित सीमित परिभाषा आ जाती है।

कांग्रेस परिवारवाद के आरोपांे का तथ्यों से सही जवाब देने में भी असफल रही है। राहुल गांधी ने जब कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा दिया था, तब यही कहा था कोई गैर-गांधी को ही अध्यक्ष चुना जाये। इतना नहीं नये अध्यक्ष चुनने की प्रक्रिया से राहुल प्रियंका सहित सोनिया गांधी ने अपने को दूर रखने के लिए सी.डब्लू.सी मीटींग से दूर रहने का फैसला लिया। बावजूद इसके कांग्रेसीयों का बहुमत गैर-गांधी को चुनने को तैयार नहीं हुआ। और राहुल गांधी को ही मनाने का लगातार प्रयास करते रहे। तब फिर कांग्रेस पर परिवारवादी पार्टी का आरोप कैसे लगाया जा सकता है? और यदि यह आरोप सही है तो, क्या इसके लिए इसके लिए सिर्फ ‘‘गांधी’’ ही जिम्मेदार है? हजारों कांग्रेसी कार्यकर्ताओं, सैकड़ों नेताओं की मानसिकता व क्रियाशीलता जिम्मेदार नहीं है? जो गांधी छोड़कर नया अध्यक्ष चुनने को तैयार ही नहीं है। स्व. पडित रवीशंकर शुक्ल पूर्व मुख्यमंत्री के सुपुत्र स्व. प. श्यामाचरण शुक्ल कांग्रेस विधायक दल के नेता पद के चुनाव में वसंतराव उइके  को हराकर नेता विधायक दल बन मुख्यमंत्री बने थे (यद्यपि हाईकमान का वरद हाथ उन्हें प्राप्त था)। क्या यह भी परिवारवाद का द्योतक कहलायेगा? 

एक ही परिवार की तीन पीढ़ियों का मुख्यमंत्री बनने का एकमात्र रिकार्ड शेख अब्दुल्ला उनके पुत्र फारूख अब्दुल्ला व उनके पुत्र उमर अब्दुल्ला का है। ऐसे अन्य कई और भी उदाहरण  है, जहां पिता-पुत्र या पुत्री मुख्यंमत्री रहे है जैसेः-मुफ्ती मोहम्मद सईद व  उनकी पुत्री मेहबुबा मुफ्ती सईद, मुलायम सिंह यादव-अखिलेश यादव, चौधरी देवीलाल- ओमप्रकाश चौटाला, शिबू सोरेन-हेमंत सोरेन, एचडी देवेगोडा-एचडी कुमार स्वामी, करणानिधि-स्टालिन, बीजू पटनायक-नवीन पटनायक, शंकर राव चव्हाण- अशोक चव्हाण, पंडित रविशंकर शुक्ला-श्यामा चरण शुक्ला, वाईएस राजशेखर रेड्डी-वाईएस जगन मोहन रेड्डी, पी ए संगमा-कोनराड संगमा, दोरजी खाडू-पेका खाडू, एनटीआर व उनके दामाद चंद्रबाबू नायडू । क्या ये सब परिवारवाद का प्रतीक है या लोकतंत्र की असफलता? अथवा जनता की अविवेकशीलता? लोकतंत्र की यही खूबी है, बहुमत की इच्छाओं का आदर करते हुये उसका परिपालन किया जावें।

आखिर परिवारवाद है क्या? परिवारवाद वह होता है जहां पर परिवार का मुखिया राजनीति में लम्बे समय से सफलतापूर्वक स्थापित होकर  अर्जित अपनी राजनैतिक साख व विरासत को परिवार के बाहर के अन्य समस्त योग्य दावेदारों के दावों को नकारते हुये सिर्फ और सिर्फ अपने परिवार के नालायक व अयोग्य सदस्यों को  सौंपना चाहता है, राजनीति में स्थापित करता है। अर्थात अलोकतंत्रीय तरीके से दबाव बनाकर धमकी देकर उन्हे विधायक, सांसद पद के लिये पार्टी टिकिट या अन्य महत्वपूर्ण पार्टी पद दिलाता है और पार्टी हाईकमान ‘‘बाज के बच्चे मुंडेरो पर थोडे ही उड़ा करते है, की भावना के अनुसार उनके आगे झुक जाता है। तभी उसे लोकतंत्र में परिवारवाद का काला धब्बा कहा जा सकता है। मैं स्वयं भी परिवारवाद की स्थिति से गुजर चुका हूं। परंतु मेरे मामले में  मुझे टिकट देने की पार्टी कार्यकर्ताओं व जनता  की मांग को परिवारवाद के आरोप की आशंका के चलते परिवार ने  नकारा था।

मतलब साफ है परिवारवाद का आरोप तभी लगता है, जब परिवार का मुख्यिा अपने राजनैतिक रसूख व दबाव का उपयोग अपने परिवार के सदस्यांे के राजनैतिक हित साधने हेतु कार्यकर्ताओं व जनता की इच्छाओं के विपरीत इस्तेमाल कर उन्हे स्थापित करता है। परिवारवाद पर विचार करते समय एक और महत्वपूर्ण तथ्य पर गौर करने की आवश्यकता है। जिस प्रकार ‘‘घी का दान करने पर घी की खुशबू से हाथ तो सुगंधित हो जाते है‘‘, उसी प्रकार परिवार के मुखिया की राजनैतिक साख, प्रभाव व दबाव होनेे का सामान्य रूप से कुछ फायदा निश्चित रूप से परिवार के सदस्यों को कुछ किये बिना भी मिलता है। क्या यह परिस्थितिवश उत्पन्न अतिरिक्त लाभ को भी परिवारवाद कहा जायेगां? क्योंकि जनता की नज़र में एक तथ्य उभर कर आता है कि परिवार के मुखिया द्वारा मेहनत से, गढ़ी गई, राजनैतिक कमाई साख का कुछ फायदा उसके सदस्यों को मिलना चाहिए क्योंकि पारिवारिक प्रष्ठ भूमि से उमरा हुआ व्यक्ति ‘‘सहज पके सो मीठा होय‘‘ के अनुरूप होता हैं। इसलिए मूलरूप से परिवारवाद की भावना को सही परिपेक्ष में समझने की आवश्यकता है। 

चूंकि भाजपा सहुलियत की राजनीति कर रही है इसलिए उसे परिवारवाद की परिभाषा को पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष, तक सीमित कर कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय लोकदल इत्यादि पर आरोप लगाने का अधिकार प्राप्त कर विपक्षियों के इस संबंध में लगाये जाने वाले आरोपों को बोठिल कर दिया। परन्तु यह  समझ से परे है कि परिवारवाद लोकतंत्र के लिये खतरा कैसे? परिवारवाद लोकतंत्र का हत्यारा नहीं बल्कि पूरक है,अपितु लोकतंत्र परिवारवाद का  पोषक है। यदि परिवारवाद परिवार वादी पार्टियां लोकतंत्र के लिए खतरा है तो भी  इसके लिए परिवार वादी पार्टियों के मुखिया जिम्मेदार नहीं है बल्कि जनतंत्र में जनता ही जिम्मेदार है जो इन परिवार वादी पार्टी को लोकतंत्र विरोधी होने के बावजूद चुनावों में हराती क्यों नहीं है ?  विपरीत इसके जनता के वोट पाकर परिवारवाद मजबूत होता है तभी तो परिवारवाद का सिक्का चलता है।यह राजशाही नहीं जहॉ अयोग्य वारिस भी स्वयं को जनता पर थोप सकता हो क्योंकि ‘‘हथेली पर सरसो नही जमती हैैं।‘‘ मतदाता का मत जिसके पास हो, वही देश के नागरिकों की सेवा करने का अधिकार पाता है, और वह भी सीमित समय के लिए। अतः परिवारवाद का मुद्दा किसी भी लोकतंत्र के लिए बेमानी है, क्योंकि इसे बढ़ावा देने या नकारने का अधिकार अंत में जनता के हाथ में ही होता है। ‘‘जनतंत्र‘‘ में ‘‘अपनी करनी ही पार उतरनी होती हैं।‘‘  हां जनता यदि विवेकशील नहीं है, तब परिवारवाद नहीं बल्कि जनता की अविवेकशीलता लोकतंत्र के लिये खतरा है। इसलिए जनता को विवेकशील बनाने की ज्यादा आवश्यकता है।

गुरुवार, 10 फ़रवरी 2022

‘‘जातिवाद‘‘ का नासूर ‘‘राष्ट्रवाद’’ के आड़े नहीं है?

हमारी प्राचीन संस्कृति में वर्ण व्यवस्था रही है। ऋग्वेद के पुरूष सूक्त में चार वर्णों का उल्लेख मिलता हैं। ये चार वर्ण हैंः-समाज से अज्ञान के नाश के लिए शिक्षक के रूप में ब्राह्मण, अन्याय-अत्याचार को मिटाने के लिए रक्षक के रूप में क्षत्रिय, अभाव के लिए पोषक के रूप में वैश्य तथा असहयोग को मिटाने के लिए सेवक के रूप में शूद्र की परिकल्पना की गई थी। व्यक्ति की कार्य क्षमता के आधार पर कर्म विभाजन करना वर्ण व्यवस्था है। तत्समय की आवश्यकताओं के अनुरूप शायद वह एक जरूरत रही थी। यद्यपि मनु स्मृति व अन्य धर्म शास्त्रों में वर्ण व्यवस्था कर्म आधारित थी और कर्म के आधार पर कोई भी अपना वर्ण बदलने के लिए स्वतंत्र था। गीता में कहा गया है। ‘‘चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः’’। 

यद्यपि भारतीय इतिहास का पहला साम्राज नंद वंश व तत्पश्चात मोर्यवंश का था जो शूद्र वंश ही था। जाति व वर्ण अलग होकर एक दूसरे के विरोधी है। वर्ण कर्मो को बताता है जबकि जाति वंश को। वर्ण, अवसर की समानता वाले समाज का प्रतिनिधित्व करता है, वहीं जाति, इसके विपरीत है। जाति केवल भारतीय उपमहाद्वीप में पायी जाने वाली अनोखी घटना है। जाति व वर्ग में भी अंतर है। जाति व्यवस्था स्थिर है, जबकि वर्ग व्यवस्था गतिशील है। वर्ग प्रणाली में विभिन्न वर्गो के बीच कोई औपचारिक प्रतिबंध नहीं होता है जैसा कि जाति व्यवस्था में पाया जाता है। वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था का कोई वजूद नहीं था। उत्तर वैदिक काल के बाद कर्म आधारित वर्ण व्यवस्था जन्म आधारित हो गयी। कालांतर में बीते समय के साथ न केवल उक्त व्यवस्था का विरोध होने लगा, बल्कि इसमें आमूलचूल परिवर्तन भी आए। 

स्वतंत्रता के बाद हमारे देश में समाज की इस जातिवादी व्यवस्था को जड़-मूल से समाप्त करने के लिए कई कानूनी प्रावधान भी लाए गए। वैसे स्वतंत्रता के पूर्व भी ब्रिटिश भारत में 1850 में जाति विकलांगता हटाने का अधिनियम लागू कर जातीय भेदभाव व अस्पृश्यता के विरूद्ध प्रतिबंध लगाया गया। भारत सरकार अधिनियम 1935 में अनुसूचित जनजाति के लोगों को विशेष सुरक्षा दी। 1955 में अस्पृश्यता (अपराध) कानून जिसका वर्ष 1976 में नाम बदलकर नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम कर दिया गया, बनाया गया। 1989 में अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम लाया गया। संविधान के अनुच्छेद 15 में यह प्रावधान है कि राज्य किसी भी नागरिक को धर्म, जाति के आधार पर भेदभाव नहीं करेंगें। परन्तु इन सब उपायों के रहते स्वतंत्रता के 75 वर्ष व्यतीत होकर आज हम अमृत महोत्सव मना रहे है, बावजूद इसके क्या हम जातिवादी व्यवस्था जहाँ 6743 कुल जातियां (उपजातियों को छोड़कर) है, से उबर पाए हैं? निजात पा लिया है? उत्तर न केवल नहीं में मिलेगा, बल्कि आज तो स्थिति यह है कि ‘‘ज्यों ज्यों भीगे कामरी, त्यों त्यों भारी होय’’। आखिर इस अवस्था व अव्यवस्था के लिए जिम्मेदार कौंन? क्या यह देश की प्रगति में सबसे बड़ा रोड़ा व बाधक नहीं है? इस पर गहराई से विचार करने की नितांत आवश्यकता है।

मेरा हमेशा से यह दृढ़ निश्चित मत रहा है कि व्यक्ति, समाज और अंततः देश के विभिन्न क्षेत्रों में गिरते स्तर का मूलभूत कारण मूल्यों का ह्रास होना है। अर्थात् नैतिक मूल्यों के पतन का होना है। रसातल तक पहुंचते हुएष् इस पतन के लिए पिछले कुछ समय से चली आ रही राजनीति खासकर जातिवादी एक प्रमुख कारक है। प्रारंभ से ही देश की राजनीति खासकर ग्रामीण इलाकों में जातिवादी राजनीति ‘‘दुष्चक्र’’ की तरह बुरी तरह से जकड़ी हुई है। इसमें कोई दो मत नहीं है, और न ही कोई विवाद है। चूंकि देश में लंबे समय तक कांग्रेस का शासन रहा है, इसलिए इस जातिवादी राजनीति की प्रणेता और पोषक कांग्रेस ही रही है। यह एक कटु सत्य है, जिससे इनकार नहीं किया जा सकता है। समस्त राजनीतिक पार्टियों के बीच राष्ट्रवाद का सबसे तेज व मजबूती से झंडा उठाने वाली जनसंघ से ले लेकर भाजपा तक की यात्रा में भाजपा ने ही ‘‘अंगारों पर पैर रखकर’’ भी राष्ट्रवाद के मुद्दे पर समस्त राजनीतिक पार्टियों के बीच बिना शक अपने को अलग दिखा कर विशिष्ट राष्ट्रवादी पार्टी के रूप में पहचान बनाई है। आज देश में वह एक प्रमुख शासक पार्टी के रूप में स्थापित हो चुकी है, विपरीत इसके कांग्रेस अपने अस्तित्व को बचाए जाने के दौर से गुजर रही है। 

भाजपा के इस मुकाम तक पहुंचने की इस यात्रा के दो दौर रहे हैं जो एक दूसरे के पूरक/विपरीत दौर कहे जा सकते हैं। प्रारंभिक पहले दौर में विपक्ष के रूप में रहा जहां कार्यकर्ताओं के जमीनी संघर्ष और अटल आडवाणी के नेतृत्व के कारण भाजपा विपक्ष से सत्ता पर पहुंची, जो राजनीति का अंतिम लक्ष्य भी होता हैं। विपक्ष से सत्ता पर पहुंचना तभी पूरक हो सकता है जब सत्तारूढ़ होने के बाद अपने विपक्ष के मूल चरित्र, पहचान, आचरण को न भूले और न छोड़े। अन्यथा विपक्ष से सत्ता पर पहुंचने का रास्ता पूरक न होकर विरोधाभासी ही कहलाएगा। भाजपा की स्थिति वर्तमान में ऐसी ही हुई है। वर्तमान में भाजपा ने भी जातिवादी राजनीति का सिर्फ सिद्धांतः मात्र विरोध किया है, जैसा कि कांग्रेस शब्दों में करती आ रही है, परन्तु अंगीकृृृृत कर धरातल पर भाजपा ने उसे शाब्दिक नहीं बल्कि वास्तविक अर्थो में उतारा नहीं हैं। आज क्या भाजपा की व्यवहारिक राजनीति में जातिवादी राजनीति नहीं है? यह कहना व सोचना बिल्कुल गलत होगा। आज जाति आधारित जनगणना की मांग की जा रही है, जहां भाजपा ने बिहार में ‘‘अपना रख, पराया चख’’ की तर्ज पर इस मांग का समर्थन कर विधानसभा में सर्वसम्मत से प्रस्ताव पारित करने में सहयोग किया है। इसके बाद तो भाजपा ‘‘घी खाया बाप ने, सूंघो मेरा हाथ’’ कहने की स्थिति में भी नहीं है। उत्तर प्रदेश सहित पांच प्रदेशों की विधानसभाओं के चुनाव हो रहे हैं, जहां इस जातिवादी राजनीति का नंगा नाच दिखाने में कोई भी राजनीतिक पार्टी पीछे नहीं है। बल्कि ‘‘तुम डाल डाल, हम पात पात’’ की तरह एक से बढ़कर एक, सबसे पहले, सबसे आगे, हम किसी से कम नहीं, दृढ़ व मजबूत भावना (जातिवादी) व कू-उद्देश्य के साथ इस राजनीतिक हवन में जनता की भी एक आहुति के साथ समस्त पाटियांँ कदम से कदम मिलाकर चल रही हैं। ताकि यह दावा किया जा सके कि इस महायज्ञ में ‘‘जैसा राजा वैसी प्रजा’’ के अनुरूप जनता भी उनके साथ है, पूरी तन्मयता से लगी हैं। भाजपा का सर्वोच्च नेतृत्व नरेन्द्र मोदी, अमित शाह से लेकर उत्तर प्रदेश के समस्त प्रमुख नेतागण द्वारा उत्तर प्रदेश की विभिन्न अंचलों की एक-एक जाति की सार्वजनिक मंचों से गिनती गिना दी जा रही है। तब भाजपा व अन्य राजनैतिक पार्टी में अंतर रह गया है क्या? शायद इसीलिए भाजपा अब ‘‘पार्टी ‘‘विद-ए-डिफरेंस’’ का नारा नहीं दे रही है। 

उत्तर प्रदेश में कितनी जातियां व उनकी संख्या हैं इसका सही सही हिसाब शायद चुनाव आयोग व सरकार को भी नहीं होगा जो आप राजनेताओं के मुख्यविंद से सुनकर जान जाएंगे। ब्राह्मण, केवट, जाटव, जाट, कुर्मी, निषाद आदि अनेक जातियों के नाम पर जाति सम्मेलन सिर्फ हिन्दुओं को छोड़कर भाजपा सहित अधिकतर पाटियां कर रही है। जातियों के नाम और जनसंख्या पर तड़का तो मीडिया भी बखूबी लगा कर अपने कर्तव्य का पूरी तरह से पालन कर रहा है? इस देश में गुप्त मतपत्र द्वारा मतदान से चुनाव होता है। तब मीडिया से लेकर राजनेताओं को यह कैसे ज्ञात हो जाता है की पिछले चुनाव में किसी प्रदेश या उसके किसी भाग (जैसे पूर्वांचल, पश्चिम उत्तर प्रदेश आदि) फँला-फँला जाति (यादव, जाट, कुर्मी आदि) को फलाना परसेंटेज वोट मिला था। इस पर मीडिया के चौनलों में दिन भर बहस चलती रहती हैं व जो चुनाव भर चलती है। इस देश में क्या सब समझदार लोग हैं? एक भी पागल व्यक्ति नहीं है? जो राजनीतिक पार्टियों नेताओं और मीडिया से यह पूछने की जुर्रत करें की आपने जातिगत वोट मिलने के आंकड़े आपने गुप्त चुनावी पेटी (ईवीएम) से किस तरीके से निकाले? इसलिए यह प्रश्न पूछने के लिए मैं पागल बनने को तैयार हूं। देश के समस्त कर्णधारों व संस्थाओं से यही अनुरोध है कि जाति को बख्शिये! फिर देखिये! देश जातिवाद के जकड़न से मुक्त होता जायेगां।

सोमवार, 7 फ़रवरी 2022

‘‘डबल इंजन’’ की सरकार! ‘‘संघ’’ के रहते ‘‘संघवाद’’ के सिद्धान्त पर ‘‘आघात’’ नहीं?

उत्तर प्रदेश सहित पांच राज्यों में विधानसभा के चुनाव हो रहे है। इन पांच प्रदेशों में चार में भाजपा की सरकारें हैं। भाजपा का नारा है, ‘‘डबल इंजन की सरकार’’ के रहते विकास भी डबल हो जायेगा। नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से ही राज्यो में हुए चुनावों में भाजपा ने उक्त नारे को एक प्रमुख मुद्दा बनाया है। अटल बिहारी बाजपेयी के जमाने में इस नारे की उत्पत्ति नहीं हुई थी, और न ही कांग्रेस के लम्बे शासन काल में जहां केन्द्र व राज्य सरकारें एक ही पार्टी की थी, तब भी उक्त नारे की आवश्यकता नहीं पड़ी। त्वरित व दोहरी गति से विकास के लिए इस सिद्धांत की आवश्यकता से कुछ मूलभूत प्रश्न उत्पन्न होते हैं। दुर्भाग्य से जागरूक मीडिया से लेकर देश के प्रबुद्ध वर्ग व विधि व संविधान विशेषज्ञों तक का ध्यान इस ओर नहीं गया। आइये उन मूलभूत प्रश्नों की आगे चर्चा करते हैं।

आप जानते ही है, भारत अनेकता में एकता लिये हुये देश है जो 28 राज्यों औैर 9 केन्द्र शासित प्रदेशों का ‘संघ’ ‘‘संघे शक्तिः कलौ युगे‘‘ की उक्ति को चरितार्थ करता हुआ, एक राष्ट्र के रूप में मजबूती से खड़ा है। इसे एक सूत्र में बांधने और एक सूत में पिरोने वाला ‘‘संघवाद’’ ही है। इसीलिए विश्व में भारत के इस मजबूत संघवाद की प्रशंसा की जाती रही है। संघवाद सरकार का वह रूप है जहां शक्ति का विभाजन आंशिक रूप से केन्द्र सरकार व राज्य सरकारों के बीच होता है। संविधान निर्माताओं ने संघीय संविधान बनाते समय इस बात का ध्यान रखा कि केन्द्र व राज्यों के पास कौन-कौन से अधिकार होने चाहिये। इसके लिए विषयों की तीन सूची केन्द्र (100 विषय तथा अपशिष्ट विषय) राज्य (61 विषय) व समवर्ती (52 विषय) बनाई गयी। अर्थात संघवाद संवैधानिक तौर से (पावर) शक्ति (सत्ता) को साझा करता है। तथापि भारतीय संविधान कुछ प्रावधानों के कारण संघवाद के साथ एकात्मकवाद लिये हुये भी है।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा के पहले तक किसी भी पार्टी ने किसी भी राज्य के चुनाव में इस आधार पर वोट नहीं मांगा कि चूकि वह केन्द्र में सत्ता में है, इसलिए यदि उस राज्य का विकास अधिक और तेजी से करना है तो, डबल इंजन की सरकार अर्थात उस राज्य में केन्द्र में शासन करने वाली पार्टी को ही विजय बनाये। यह सिंद्धान्त न केवल सिंद्धान्तः खतरनाक है, बल्कि संघवाद की आत्मा के मूलतः विरूद्ध है। राज्यों में जहां भी विपक्षी दलों की सरकारें है, वहां पर संवैधानिक रूप से केन्द्रीय सरकार का वाजिब हिस्सा उस राज्य को मिलना चाहिये। यह केन्द्रीय सरकार का दायित्व है, न कि ‘‘अंधा बांटे रेवड़ी‘‘ की तर्ज पर ‘‘अपनों अपनों को ही विकास का लड्डू बांटने का‘‘। उत्पादन और संसाधनों का कच्चा माल तो वस्तुतः राज्यों का ही राज्यों में ही है (मुख्यतः कोयला, पेट्रोलियम उत्पाद, नेचरल गैस को छोड़कर)। तब फिर केंद्र का उस पर बंदरबांट का अधिकार कैसे? इसीलिए डबल इंजन की सरकार का प्रश्न स्वस्थ संवैधानिक लोकतंत्र में कहां, कैसे व क्यों उत्पन्न होता है? 21वीं सदी के युग में हम जहां पर संवैधानिक तंत्र को और मजबूत करना चाहते है, वहां डबल इंजन का नारा देकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अनजाने में राज्यों को ‘‘परजीवी’’ (केन्द्र पर) बनाने की ओर तो नहीं ले जा रहे है? असमंसज व आश्चर्य तो इस बात का है कि उक्त नारा राज्य को स्वयंपूर्ण सेल्फ सफिशियेट (स्वतः यथेष्ट) के लिए ही दिया जा रहा है।

मुझे याद आता है कि दिल्ली-चेन्नई ग्रैंड ट्रंक रेल मार्ग पर कुछ समय पूर्व तक ट्रेनें मेरे जिले बैतूल से गुजरती थी, तब धाराखोह स्टेशन तक सिंगल इंजन से ट्रेन आती थी। बरेठा घाट की चढ़ाई के कारण यहां पर ‘‘डबल इंजन’’ लगाकर जिसे बंकर कहा जाता है, ट्रेन बैतूल के पूर्व मरामझिरी स्टेशन तक लाई जाती थी। रेलवे ने समय के साथ इतनी तरक्की की कि सिंगल इंजन की जगह ज्यादा हाई-हॉर्सपावर का सिंगल इंजन लगाकर लगभग 4 वर्ष पूर्व से धाराखोह स्टेशन पर बंकर लगाने की जरूरत समाप्त कर बिना रूके ट्रेन सीधे गुजरने लगी। मतलब विकास के युग में हम डबल इंजन से सिंगल इंजन पर आ गये। लेकिन डबल इंजन का नारा ‘‘उलटे बांस बरेली को‘‘ ले जाने के समान हैं।

राजनीति में सिंगल इंजन (राज्य) से डबल इंजन (केन्द्र व राज्य) में बदलने का प्रयास सबका साथ, सबका विकास, सबका सहयोग का कथन व नारा देने वाले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ये उल्टी गंगा क्यों बहा रहे है? इससे कहीं न कहीं आप इंदिरा गांधी की तुलना में कमजोर होते तो नहीं दिख रहे है? वर्ष 1967 में कई प्रदेशों में विपक्षी दलों की सरकारें बनी तब उसके बाद हुए राज्य के चुनावों में इंदिरा गांधी ने कभी भी डबल इंजन सरकार का नारा नहीं फेंका। अर्थात राज्य की स्वतंत्रता, सार्वभैंमिकता, स्वायत्तता और स्वयं के पैरों पर खड़े होकर मजबूत बनाएं रखने की भावना की नितांत आवश्यकता है। डबल इंजन का नारा निश्चित रूप से राज्य सरकार की आत्मनिर्भरता को कमजोर करता है, जो कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की स्वर्ण कल्पना आत्मनिर्भर भारत बनाने और राजनीति के ध्येय वाक्य ‘‘आचार परमो धर्मः अनुलंघनीयः सदाचारः‘‘ के ठीक विपरीत है। क्या केन्द्रीय सरकार का यह संवैधानिक बाध्यता व कत्र्तव्य नहीं है कि किसी भी राज्य की उसकी जरूरत को पूर्ण करने के लिए उपलब्ध साधनों में से यथासंभव सहयोग की भावना से अपना दायित्व पूरा करे। राज्य में शासन करने वाले दल के झड़े पर या राष्ट्रीय झंडे़ या केंद्र के डंडे पर उक्त केन्द्र की सहायता निर्भर नहीं रहेगी?

चुनाव आयोग को भी इस संबंध में संविधान के अनुसार गहनता से विचार करने की महती आवश्यकता है। क्या इस विषय को आचार संहिता की परिधि में लाया जा सकता है? माननीय उच्चतम न्यायालय को भी स्वतः संज्ञान लेकर उक्त नारे के प्रकट उद्देश्य की संवैधानिकता पर अवश्य विचार करना चाहिये। अंत में सबसे आश्चर्य की बात तो यह है कि ‘‘संघ‘‘ अर्थात राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के रहते संघवाद को तोड़ने वाले डबल इंजन के इस नारे की बात कैसे विकसित हो रही है? यह सोचनीय विचारणीय है। कहीं ऐसा न हो कि नगर निगम, नगर पालिका व पंचायतों के चुनाव में विकास की गुहार लगाते हुए ट्रिपल इंजन की सरकार का नारा भी लग जाए?

अंत में वर्ष 2014 के बाद ‘‘डबल इंजन की सरकार’’ का नारा देने के साथ लगभग 40 विधानसभाओं के चुनाव हुये है, जहां भाजपा को आधे से कुछ ही अधिक ही सफलता प्राप्त हुई है। इससे इस सिंद्धान्त की सफलता का आप मूल्यांकन कर सकते है।

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