गुरुवार, 10 फ़रवरी 2022

‘‘जातिवाद‘‘ का नासूर ‘‘राष्ट्रवाद’’ के आड़े नहीं है?

हमारी प्राचीन संस्कृति में वर्ण व्यवस्था रही है। ऋग्वेद के पुरूष सूक्त में चार वर्णों का उल्लेख मिलता हैं। ये चार वर्ण हैंः-समाज से अज्ञान के नाश के लिए शिक्षक के रूप में ब्राह्मण, अन्याय-अत्याचार को मिटाने के लिए रक्षक के रूप में क्षत्रिय, अभाव के लिए पोषक के रूप में वैश्य तथा असहयोग को मिटाने के लिए सेवक के रूप में शूद्र की परिकल्पना की गई थी। व्यक्ति की कार्य क्षमता के आधार पर कर्म विभाजन करना वर्ण व्यवस्था है। तत्समय की आवश्यकताओं के अनुरूप शायद वह एक जरूरत रही थी। यद्यपि मनु स्मृति व अन्य धर्म शास्त्रों में वर्ण व्यवस्था कर्म आधारित थी और कर्म के आधार पर कोई भी अपना वर्ण बदलने के लिए स्वतंत्र था। गीता में कहा गया है। ‘‘चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः’’। 

यद्यपि भारतीय इतिहास का पहला साम्राज नंद वंश व तत्पश्चात मोर्यवंश का था जो शूद्र वंश ही था। जाति व वर्ण अलग होकर एक दूसरे के विरोधी है। वर्ण कर्मो को बताता है जबकि जाति वंश को। वर्ण, अवसर की समानता वाले समाज का प्रतिनिधित्व करता है, वहीं जाति, इसके विपरीत है। जाति केवल भारतीय उपमहाद्वीप में पायी जाने वाली अनोखी घटना है। जाति व वर्ग में भी अंतर है। जाति व्यवस्था स्थिर है, जबकि वर्ग व्यवस्था गतिशील है। वर्ग प्रणाली में विभिन्न वर्गो के बीच कोई औपचारिक प्रतिबंध नहीं होता है जैसा कि जाति व्यवस्था में पाया जाता है। वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था का कोई वजूद नहीं था। उत्तर वैदिक काल के बाद कर्म आधारित वर्ण व्यवस्था जन्म आधारित हो गयी। कालांतर में बीते समय के साथ न केवल उक्त व्यवस्था का विरोध होने लगा, बल्कि इसमें आमूलचूल परिवर्तन भी आए। 

स्वतंत्रता के बाद हमारे देश में समाज की इस जातिवादी व्यवस्था को जड़-मूल से समाप्त करने के लिए कई कानूनी प्रावधान भी लाए गए। वैसे स्वतंत्रता के पूर्व भी ब्रिटिश भारत में 1850 में जाति विकलांगता हटाने का अधिनियम लागू कर जातीय भेदभाव व अस्पृश्यता के विरूद्ध प्रतिबंध लगाया गया। भारत सरकार अधिनियम 1935 में अनुसूचित जनजाति के लोगों को विशेष सुरक्षा दी। 1955 में अस्पृश्यता (अपराध) कानून जिसका वर्ष 1976 में नाम बदलकर नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम कर दिया गया, बनाया गया। 1989 में अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम लाया गया। संविधान के अनुच्छेद 15 में यह प्रावधान है कि राज्य किसी भी नागरिक को धर्म, जाति के आधार पर भेदभाव नहीं करेंगें। परन्तु इन सब उपायों के रहते स्वतंत्रता के 75 वर्ष व्यतीत होकर आज हम अमृत महोत्सव मना रहे है, बावजूद इसके क्या हम जातिवादी व्यवस्था जहाँ 6743 कुल जातियां (उपजातियों को छोड़कर) है, से उबर पाए हैं? निजात पा लिया है? उत्तर न केवल नहीं में मिलेगा, बल्कि आज तो स्थिति यह है कि ‘‘ज्यों ज्यों भीगे कामरी, त्यों त्यों भारी होय’’। आखिर इस अवस्था व अव्यवस्था के लिए जिम्मेदार कौंन? क्या यह देश की प्रगति में सबसे बड़ा रोड़ा व बाधक नहीं है? इस पर गहराई से विचार करने की नितांत आवश्यकता है।

मेरा हमेशा से यह दृढ़ निश्चित मत रहा है कि व्यक्ति, समाज और अंततः देश के विभिन्न क्षेत्रों में गिरते स्तर का मूलभूत कारण मूल्यों का ह्रास होना है। अर्थात् नैतिक मूल्यों के पतन का होना है। रसातल तक पहुंचते हुएष् इस पतन के लिए पिछले कुछ समय से चली आ रही राजनीति खासकर जातिवादी एक प्रमुख कारक है। प्रारंभ से ही देश की राजनीति खासकर ग्रामीण इलाकों में जातिवादी राजनीति ‘‘दुष्चक्र’’ की तरह बुरी तरह से जकड़ी हुई है। इसमें कोई दो मत नहीं है, और न ही कोई विवाद है। चूंकि देश में लंबे समय तक कांग्रेस का शासन रहा है, इसलिए इस जातिवादी राजनीति की प्रणेता और पोषक कांग्रेस ही रही है। यह एक कटु सत्य है, जिससे इनकार नहीं किया जा सकता है। समस्त राजनीतिक पार्टियों के बीच राष्ट्रवाद का सबसे तेज व मजबूती से झंडा उठाने वाली जनसंघ से ले लेकर भाजपा तक की यात्रा में भाजपा ने ही ‘‘अंगारों पर पैर रखकर’’ भी राष्ट्रवाद के मुद्दे पर समस्त राजनीतिक पार्टियों के बीच बिना शक अपने को अलग दिखा कर विशिष्ट राष्ट्रवादी पार्टी के रूप में पहचान बनाई है। आज देश में वह एक प्रमुख शासक पार्टी के रूप में स्थापित हो चुकी है, विपरीत इसके कांग्रेस अपने अस्तित्व को बचाए जाने के दौर से गुजर रही है। 

भाजपा के इस मुकाम तक पहुंचने की इस यात्रा के दो दौर रहे हैं जो एक दूसरे के पूरक/विपरीत दौर कहे जा सकते हैं। प्रारंभिक पहले दौर में विपक्ष के रूप में रहा जहां कार्यकर्ताओं के जमीनी संघर्ष और अटल आडवाणी के नेतृत्व के कारण भाजपा विपक्ष से सत्ता पर पहुंची, जो राजनीति का अंतिम लक्ष्य भी होता हैं। विपक्ष से सत्ता पर पहुंचना तभी पूरक हो सकता है जब सत्तारूढ़ होने के बाद अपने विपक्ष के मूल चरित्र, पहचान, आचरण को न भूले और न छोड़े। अन्यथा विपक्ष से सत्ता पर पहुंचने का रास्ता पूरक न होकर विरोधाभासी ही कहलाएगा। भाजपा की स्थिति वर्तमान में ऐसी ही हुई है। वर्तमान में भाजपा ने भी जातिवादी राजनीति का सिर्फ सिद्धांतः मात्र विरोध किया है, जैसा कि कांग्रेस शब्दों में करती आ रही है, परन्तु अंगीकृृृृत कर धरातल पर भाजपा ने उसे शाब्दिक नहीं बल्कि वास्तविक अर्थो में उतारा नहीं हैं। आज क्या भाजपा की व्यवहारिक राजनीति में जातिवादी राजनीति नहीं है? यह कहना व सोचना बिल्कुल गलत होगा। आज जाति आधारित जनगणना की मांग की जा रही है, जहां भाजपा ने बिहार में ‘‘अपना रख, पराया चख’’ की तर्ज पर इस मांग का समर्थन कर विधानसभा में सर्वसम्मत से प्रस्ताव पारित करने में सहयोग किया है। इसके बाद तो भाजपा ‘‘घी खाया बाप ने, सूंघो मेरा हाथ’’ कहने की स्थिति में भी नहीं है। उत्तर प्रदेश सहित पांच प्रदेशों की विधानसभाओं के चुनाव हो रहे हैं, जहां इस जातिवादी राजनीति का नंगा नाच दिखाने में कोई भी राजनीतिक पार्टी पीछे नहीं है। बल्कि ‘‘तुम डाल डाल, हम पात पात’’ की तरह एक से बढ़कर एक, सबसे पहले, सबसे आगे, हम किसी से कम नहीं, दृढ़ व मजबूत भावना (जातिवादी) व कू-उद्देश्य के साथ इस राजनीतिक हवन में जनता की भी एक आहुति के साथ समस्त पाटियांँ कदम से कदम मिलाकर चल रही हैं। ताकि यह दावा किया जा सके कि इस महायज्ञ में ‘‘जैसा राजा वैसी प्रजा’’ के अनुरूप जनता भी उनके साथ है, पूरी तन्मयता से लगी हैं। भाजपा का सर्वोच्च नेतृत्व नरेन्द्र मोदी, अमित शाह से लेकर उत्तर प्रदेश के समस्त प्रमुख नेतागण द्वारा उत्तर प्रदेश की विभिन्न अंचलों की एक-एक जाति की सार्वजनिक मंचों से गिनती गिना दी जा रही है। तब भाजपा व अन्य राजनैतिक पार्टी में अंतर रह गया है क्या? शायद इसीलिए भाजपा अब ‘‘पार्टी ‘‘विद-ए-डिफरेंस’’ का नारा नहीं दे रही है। 

उत्तर प्रदेश में कितनी जातियां व उनकी संख्या हैं इसका सही सही हिसाब शायद चुनाव आयोग व सरकार को भी नहीं होगा जो आप राजनेताओं के मुख्यविंद से सुनकर जान जाएंगे। ब्राह्मण, केवट, जाटव, जाट, कुर्मी, निषाद आदि अनेक जातियों के नाम पर जाति सम्मेलन सिर्फ हिन्दुओं को छोड़कर भाजपा सहित अधिकतर पाटियां कर रही है। जातियों के नाम और जनसंख्या पर तड़का तो मीडिया भी बखूबी लगा कर अपने कर्तव्य का पूरी तरह से पालन कर रहा है? इस देश में गुप्त मतपत्र द्वारा मतदान से चुनाव होता है। तब मीडिया से लेकर राजनेताओं को यह कैसे ज्ञात हो जाता है की पिछले चुनाव में किसी प्रदेश या उसके किसी भाग (जैसे पूर्वांचल, पश्चिम उत्तर प्रदेश आदि) फँला-फँला जाति (यादव, जाट, कुर्मी आदि) को फलाना परसेंटेज वोट मिला था। इस पर मीडिया के चौनलों में दिन भर बहस चलती रहती हैं व जो चुनाव भर चलती है। इस देश में क्या सब समझदार लोग हैं? एक भी पागल व्यक्ति नहीं है? जो राजनीतिक पार्टियों नेताओं और मीडिया से यह पूछने की जुर्रत करें की आपने जातिगत वोट मिलने के आंकड़े आपने गुप्त चुनावी पेटी (ईवीएम) से किस तरीके से निकाले? इसलिए यह प्रश्न पूछने के लिए मैं पागल बनने को तैयार हूं। देश के समस्त कर्णधारों व संस्थाओं से यही अनुरोध है कि जाति को बख्शिये! फिर देखिये! देश जातिवाद के जकड़न से मुक्त होता जायेगां।

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