शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2022

लोकतंत्र के लिए ‘‘परिवारवाद’’ से ज्यादा घातक ‘‘व्यक्तिवाद’’ है?

राष्ट्रव्यापी बहस होनी चाहिए।

प्रधानमंत्री ने ‘‘परिवारवाद’’ (एक ही कुन्बे का सत्ता पर एकाधिकार) को ‘‘लोकतंत्र के लिए खतरा’’ बतलाया है। इस पर मैं पूर्व में लेख लिख चुका हूं। परंतु वास्तव में लोकतंत्र को ज्यादा खतरा परिवारवाद से ज्यादा ‘‘व्यक्तिवाद’’ से है। वह कैसे! आगे देखते हैं।

प्रधानमंत्री जब एक परिवार के वर्षों से पार्टी पर शीर्षस्थ कब्जे़ की बात कहकर उन्हें परिवारवादी पार्टी कहते हैं और इस परिवारवाद रूपी ‘‘अरहर की टटिया पर अलीगढ़ी ताला‘‘ लगाना चाहते हैं, तब शायद अथवा जान बूझकर? उनका ध्यान सिक्के के दूसरे पहलू की ओर गया ही नहीं। परिवार वाद के सिक्के का दूसरा पहलू जो ज्यादा खतरनाक है, वह व्यक्तिवाद है। अतः वस्तुतः व्यक्तिवाद क्या है, इसको समझना पहले आवश्यक हैं। 

परिवारवाद में कम से कम एक व्यक्ति से ज्यादा व्यक्ति होते है। अर्थात जब एक से अधिक व्यक्ति होंगे तब परस्पर विचार विमर्श या विरोधाभास दोनों ही स्थिति में निरंकुश होने की स्थिति में कुछ न कुछ रुकावट अवश्य आयेगी। लेकिन व्यक्तिवाद में मात्र एक ही व्यक्ति का सर्वाधिक पूर्णतः नियंत्रण, अंकुश होता है। इसलिए उसके निरंकुश तानाशाही होने का खतरा हमेशा बना रहता है। यह न केवल स्वस्थ्य लोकतंत्र की भावना के बिल्कुल विपरीत है, बल्कि वह उसकी जड़ व मूल आधार को चोट करने वाला होता है। वास्तविक व परिपक्व लोकतंत्र तभी सफल कहलाता है, जहां सत्ता में भागीदारी-हिस्सेदारी से लेकर लोकप्रिय चुने गये शासन की नीतियों का फायदा अधिकतम लोगों की भागीदारी के साथ अधिकमत से अधिकतम लोगों को मिले। जब लोकतंत्र को जींवत-जीवित रखने वाली संस्थाएं विधायिका अथवा लोकतंत्र का आधार राजनीतिक पार्टियों के उच्चतम शीर्षस्थ पद पर लगातार या अंतराल से बारम्बार एक ही व्यक्ति की भागीदारी हो रही हो, तो वह संवैधानिक तो हो सकती है, परंतु सही मायने में लोकतंत्र में ‘‘वीर भोग्या वसुंधरा‘‘ की भावना किसी भी रूप में लोकतांत्रिक नहीं ठहराई जा सकती है।

शायद इसी कारण व्यक्तिवाद को रोकने के लिए ही कुछ पार्टियों के संविधान में यह प्रावधान है कि एक ही व्यक्ति दो बार लगातार पार्टी अध्यक्ष नहीं बन सकता है। भाजपा में यह प्रावधान था। लेकिन नितिन गडकरी को दोबारा अध्यक्ष बनाने के लिए तत्समय समय संशोधन किया गया था। तथापि उसका उपयोग नहीं किया गया। अलग-अलग समय में तीन बार बने राष्ट्रीय अध्यक्ष लालकृष्ण आडवानी को अपवाद स्वरूप छोड़कर किसी भी व्यक्ति को दोबारा अध्यक्ष नहीं चुना गया। अर्थात भाजपा में पार्टी के स्तर में एक व्यक्ति के अधिनायकवाद को प्रोत्साहित नहीं किया। परन्तु आप (आम आदमी पार्टी) ने अपने संविधान में दो बार संशोधन कर अरविंद केजरीवाल का कार्यकाल बढ़ाया। परन्तु विधायिका (शासन) के स्वरूप में कार्यकाल की पुनरावृत्ति पर प्रतिबंध क्यों नहीं? शिवराज सिंह के लगातार (एक अंतराल को छोड़कर) 15 वर्ष से मुख्यमंत्री के पद पर विराजमान है, (डॉ. रमन सिंह 18 वर्ष सहित ऐसे अनेकानेक उदाहरण है) क्या यह परिवारवाद की तुलना में ज्यादा खतरनाक होकर व्यक्तिवादी अधिनायकवाद की ओर बढ़ता हुआ खतरा नहीं है? मतलब ‘‘मुंह में दही जमा कर बैठ जाना‘‘ क्या ‘‘थोथा चना बाजे घना‘‘ की नजीर नहीं है? क्या व्यक्तिवाद संवैधानिक संरक्षित राजनैतिक अधिकारों पर कुठाराघात व राजनैतिक प्रतिभाओं के विकास पर ‘‘कुंडली मारना’’ नहीं होगा? 

हमारे संविधान में भी विधायिका के संवैधानिक पद विधायक-सांसद की एक निश्चित समयावधि 5 वर्ष निश्चित की गई हैं। परन्तु उनके लगातार या अंतराल से एक से अधिक अवधि के लिए अर्थात पुनः चुने जाने पर कोई संवैधानिक प्रतिबंध नहीं है, जैसा कि अमेरिका में! जहां प्रेसिडेंट सिर्फ दोे लगातार अवधि के लिए ही प्रेसिडेंट पद पर चुने जा सकते हैं। विश्व के कई देशो में इस तरह के प्रावधान हैं। स्विजरलैंड विश्व का एकमात्र ऐसा देश है, जहां प्रत्येक वर्ष राष्ट्रपति का चुनाव होता है तथा राष्ट्रपति को दोबारा चुनाव लड़ने की अनुमति नहीं होती है। अर्थात मात्र एक वर्ष की अवधि के लिए ही एक व्यक्ति राष्ट्रपति रह सकता है। यहां पर 87 प्रतिशत शिक्षित है। अपराधों की दर भी यहां पर विश्व में न्यूनतम स्तर पर है। मतलब एक वर्ष की अवधि का कार्यकाल लिये भी लोकतंत्र यहां पर पूरी तरह से सफल है। इसका मुख्य कारण एक व्यक्ति के एकाधिकार के वजूद को समाप्त करना ही है क्योंकि ‘‘मुर्गा बांग दे या न दे सुबह तो होनी ही है‘‘। बावजूद अवधि प्रतिबंध के वे देश लोकतांत्रिक देश कहलाते है। जिस कारण से लोकतंत्र वास्तविक अर्थो में हर समय हरा-भरा तथा फल-फूल सकें।

यदि विधायिका के संवैधानिक पदों पर अवधि की सीमा पर रोक को इस आधार पर नही लगाए जाने का तर्क दिया जाता हैं कि लोकतंत्र में अंततः व अंतिम रूप से जनता ही अपने प्रतिनिधित्व को चुनती हैं, जिससे उसके वोट के अविछिन्न व अभिन्न अधिकार पर संवैधानिक पदों पर चुनने की स्वतंत्रता के विकल्प को सीमित कर देने पर, यह उनके अधिकारों पर एक कुठाराघात नहीं होगा? तब यही सिंध्दान्त पार्टी के सर्वोच्चम पद अध्यक्ष पर भी क्यों नहीं लागू किया जाता है और क्यों नहीं लागू होना चाहिए? जिसके आधार पर प्रधानमन्त्री परिवारवादी पार्टियों की आलोचना कर उसे लोकतंत्र के लिए खतरा बतला रहे हैं। वहां पर भी पार्टी, कार्यकर्ता पार्टी संविधान के अनुसार वोटर बन कर जन-प्रतिनिधित्व कानून का पालन करते हुए संविधान द्वारा संरक्षण प्राप्त वैधानिक प्रक्रिया का पालन कर चुने गये ‘वंशज’ अध्यक्षों पर परिवारवादी पार्टी के आरोप का अस्तित्व कैसे रह सकता हैं? वैसे पार्टी अध्यक्ष का चुनाव ढ़कोसला मात्र होकर खानापूर्ति है, यह आरोप लगा कर प्रश्नवाचक चिन्ह लगाया जा सकता है। परन्तु यही आरोप संसदीय व विधानसभा चुनावों के लिए भी लगता रहता है कि वे कितने स्वतंत्र और निष्पक्ष होते हैं? चार एमः-मनी पावर, मसल पावर, माब पावर और मीडिया पावर बिना सामान्यत्या आप कोई चुनाव जीतने की कल्पना कर सकते है। परिवारवादी पार्टी का आरोप को अस्तित्व में लाने के पूर्व क्या इस बात पर गंभीरता से सोचने की आवश्यकता नहीं हैं कि इन तथाकथित परिवारवादी पार्टीयों के हजारों कार्यकर्ता को यह ‘‘पेटर्न सुहाता’’ हैं, ‘‘मियां बीवी राजी तो क्या करेगा काजी’’ (वैधानिक चुनरी पहने)। तब उनके विवेक पर प्रश्नवाचक चिन्ह क्यों? व इस कार्यकर्ताओं के इस पैर्टन के लिये परिवार/वंशवाद का मुखिया कैसे जिम्मेदार? जिस प्रकार राजतंत्र में ‘‘जैसा राजा वैसी प्रजा‘‘ होती है, उसी प्रकार प्रजातंत्र में ‘‘जैसी प्रजा वैसा राजा ‘‘होता है। ठीक वैसे ही जैसे लोकतंत्र में जनता फूलनदेवी, मुख्तार अंसारी, अतीक अहमद, राजा भैया, अमरमणि त्रिपाठी, हरिशंकर तिवारी, मोहम्मद शहाबुद्दीन, सूरजभान, आंनद मोहन, अनंत सिंह, पप्पू यादव आदि-आदि (सूची लंबी है) को चुन लेती हैं।

वैसे जब एक कार्यकाल के सिंद्धान्त को पार्टी अध्यक्ष पर लागू करके परिवावादी पाटी बनने से बचा जा सकता है तब यही सिंद्धान्त शासन पद (प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, नेता विपक्ष व फिर नीचे तक अन्य लोकतंात्रिक पदों पर) क्यों नहीं लागू कर परिवारवादी एवं व्यक्तिवादी दोनों शासन की बुराइयों से बचा जा सकें। प्रधानमंत्री ने गांधी परिवार पर निशाना लगाते हुए परिवारवाद का आरोप लगाकर कांग्रेस पार्टी को परिवार वादी पार्टी तक कह दिया। परन्तु उसी आरोप के साथ उन्होंने उसी परिवारवाद में शामिल व्यक्तिवादी अधिनायकवाद जो नेहरू-इंदिरा गांधी के लगभग 16-16 वर्षों के लम्बे कार्यकाल से पनपा, पर एक शब्द भी नहीं बोले। क्यों? भविष्य की दृष्टिगत करते हुये? शायद इसीलिए प्रधानमंत्री एक ही परिवार के अन्य सदस्यों के चुनाव लड़ने को परिवारवाद नहीं मानते हैं। वास्तव में अब यह समय आ गया है जब केंद्र की सत्ता पर व कई राज्यों में आरूढ़ भाजपा को इस दिशा में पहल कर ‘‘चौरिटी बिगन्स एट होम‘‘ का उदाहरण प्रस्तुत करती? लोकतंत्र के लिए विधायिकी व राजनैतिक पार्टी दोनों चक्को का मजबूत होना आवश्यक है, जो एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, जिन पर समान रूप से कार्यकाल की अवधि का सिंद्धान्त लागू किया जाना चाहिए। ताकि सिर्फ परिवारवाद से ही नहीं बल्कि व्यक्तिवादी अधिनायकवाद से भी बचा जा सकें। इसके लिये देशव्यापी विस्तृत चर्चा के बाद आम सहमति बनाकर संविधान में संशोधन किये जाने की आज के समय की मांग व आवश्यकता है।

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