बुधवार, 30 मई 2012

‘‘आम‘‘ लोग ‘‘खास‘‘ कब से हो गये?



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                    जब से पेट्रोल के भाव में 7.50 रू. की बढ़ोतरी पेट्रोलियम कम्पनियों द्वारा की गई है तब से पूरे देश में हाहाकार मचा हुआ है, जो स्वाभाविक है। लेकिन जिस तरह से प्रिंट एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया द्वारा राजनैतिक दलों सामाजिक एवं गैर राजनैतिज्ञो व अन्य व्यक्तियों द्वारा इस बढ़े हुए पेट्रोल के दाम पर प्रतिक्रिया व्यक्त की जा रही है वह बहुत कुछ भौंडी और सतही होकर मूल समस्या पर न तो केंद्रित हो रही है और न ही उसका कोई समाधान कारक और सम्भव होने वाला हल उक्त समालोचनाओं में परिलक्षित होता है। सबसे पहले बात टीवी चैनल्स पर हो रही प्रतिक्रिया पर ही ले ले। लगभग सभी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने देश के विभिन्न क्षेत्रों में कारो में बैठे हुए, पेट्रोल पम्पो पर खड़ी गाड़िया और द्विवाहनी वाहनों में बैठे हुए लोगो की प्रतिक्रियाएं यह कहते हुए दर्शाई कि पूरे देश में ‘आम लोग‘ परेशान हो गये है। मैने जो आम आदमी देखा है और जिसकी आम आदमी के रूप में पहचान है उसके दर्शन टीवी पर बिरले ही हुए है और सुनने को मिले है। झुग्गी झोपड़ी वाला, निम्न आयवर्ग वाला, फुटपाथ, गांव में रहने वाला कृषक सार्वजनिक परिवहन प्रणाली में चलने वाला आम आदमी इत्यादि किसी व्यक्ति की प्रतिक्रिया का सामान्य रूप से देखने को नहीं मिली जिससे यह लगे कि पेट्रोल के मुद्दे से आम आदमी परेशान है। वास्तव में यदि बिना किसी राजनैतिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो पेट्रोल के मूल्य की वृद्धि का कोई सीधा सम्बंध ही नहीं है आम लोगो से। वह इसलिए कि कार रखने वाले व्यक्ति आम आदमी तो है ही नहीं और आज भी भारत जैसे देश में स्कूटर, मोटर सायकल, रखने वाले व्यक्ति यदि ‘‘खास‘‘ नहीं है तो ‘‘आम‘‘ भी नहीं है। यदि भारत की प्रति व्यक्ति औसतन आय और ‘गरीबी‘ के पैमाने (जिसकी आलोचना निरंतर रूप से हो रही है) को ध्यान में रखा जाए तो निश्चित रूप से वे व्यक्ति उक्त सीमा से ऊपर उठकर है और इसीलिए पेट्रोलियम उत्पादो में से सिर्फ पेट्रोल की कीमत बढ़ने से आम व्यक्ति की जेब में सामान्यतः कोई असर नहीं हुआ है। हां यदि डीजल की दरों में बढ़ोतरी होती तो निश्चित रूप से डीजल का प्रभाव न केवल किसानों पर पड़ता, बल्कि पब्लिक ट्रांसपोर्ट के कारण और ट्रक एवं रेलवे में उपयोग में आने के कारण उसका अप्रत्यक्ष प्रभाव आम आदमी के जीवन स्तर पर अवश्य पड़ता। एक बिल्कुल सामान्य व्यक्ति के दैनिक जीवन में उपयोग में आने वाली आवश्यक वस्तुओं, खाद्यान्य, सब्जी, कपड़ा इत्यादि में बेतहाशा वृद्धि होने पर उसके चेहरे पर उत्पन्न दर्द व उत्पीड़न को मीडिया ने शायद ही जनता के सामने पेश किया हो। इस प्रकार ‘कार‘ वाले व्यक्तियों को मीडिया ने ‘आम‘ बनाकर सरकार का देश के भीतर व राष्ट्र का अर्न्तराष्ट्रीय स्तर पर सिर ऊंचा रखने में अवश्य सहायक सिद्ध हुई। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि मात्र इस आधार पर पेट्रोल की बढ़ोतरी को उचित कहा जा सकता है।
                    26 जून 2010 से जब पेट्रोल उत्पाद का मूल्य निर्धारण सरकारी नियंत्रण से मुक्त हुआ है तब से मूल्य का नियंत्रण एवं निर्धारण कौन कर रहा है इस बारे में सरकार एक तरफ तो कहती है कि पेट्रोल के मूल्य पर उसका कोई नियत्रंण नहीं है और वे मूल्य निर्धारण के लिए स्वतंत्र है लेकिन क्या वास्तव में ऐसा है? हमनें यह देखा है कि जब-जब कम्पनियों के समुह ने मूल्य बढ़ाने की बात पर विचार किया तब-तब सरकार ने उस पर हस्तक्षेप किया और जब राजनैतिक परिस्थितियां ऐसी नहीं थी, चुनाव थे, संसद चल रही थी तब उन्होने कम्पनियों को मूल्य बढ़ाने से परिस्थितियों वश रोका। तत्पश्चात मूल्यो में वृद्धि की व उसका पूरा ठीकरा कम्पनियों पर थोप दिया गया। अंततः सरकारी कम्पनियों को दिशा निर्देशित और संचालित करने की जिम्मेदारी भी भारत सरकार की ही है जिन्हे वे अपने पेट्रोलियम मंत्रालय के माध्यम से संचालित करते है। पेट्रोलियम मंत्री श्री जयपाल रेड्डी का यह बयान कि डीजल व एलपीजी की कीमतो में फिलहाल वृद्धि नहीं की जाएगी जो न केवल उक्त बात को सिद्ध करती है बल्कि सरकार की दोहरेपन की नीति को ही दर्शाती है।
                    एक तरफ जब सरकार द्वारा सरकारी राजस्व में कमी होने के कारण बैलेंस ऑफ पेमेंट संतुलित न होने के कारण सब्सिडी को कम किये जाने के उद्वेश्य से यदि पेट्रालियम प्रोडक्टस के मूल्य बढ़ाये जाते है तो अन्य क्षेत्रों में सरकार द्वारा क्यों सब्सिडी प्रारम्भ या बढ़ाई जाती है। चाहे वह मुफ्त बिजली का मामला हो, शिक्षा का मामला हो या अन्य कोई भी। वास्तव में सरकार को इस मामले में एक दृढ़ नीति तय करनी होगी कि सिद्धांत रूप से किसी भी मामले में सब्सिडी या मुफ्त माल, सेवा न दी जाकर यदि सामाजिक न्याय की दृष्टि से आवश्यक हो तो मात्र आर्थिक आधार पर न कि जातीगत आधार पर आर्थिक सहायता जो आर्थिक रूप से पिछड़े है उनको उस समय तक ही दी जावे जब तक उनका आर्थिक पिछड़ापन दूर नहीं हो जाता और उनका आर्थिक रूप से उन्नत होने पर वह सुविधा समाप्त की जावे। लेकिन हमने यह देखा है कि सरकार ने जब भी किसी क्षेत्र में आर्थिक सुविधा, सब्सिडी या मुफ्त के नाम पर उपलब्ध कराई वह आज तक कभी वापस नहीं हुई। इसका मतलब साफ है कि आर्थिक सुविधा दिये जाने के बाद भी वह वर्ग आर्थिक रूप से स्वावलम्बी न होकर अक्रमण्य होकर उस सब्सिडी पर उसकी निर्भरता बढ़ती जा रही है। यह स्थिति हमारे देश को आगे ले जा रही है या पीछे यह चिन्तनीय विषय है। 
                    वास्तव में तेल कम्पिनियों को कितना घाटा हो रहा है या वे 2011 की वार्षिक रिपोर्ट के आधार पर भारी मुनाफे में है, तेल की वास्तविक लागत कितनी है इन सब पर पृथक से एक लेख लिखा जा सकता है। दूसरी बात देश के किसी संस्था ने, राजनैतिक पार्टी ने, समाज सुधारको ने या नागरिकों ने इस बात का कोई संकेत नहीं दिया कि इस पेट्रोल के बढ़ते हुए घाटे के पूल को कम करने में यदि महंगाई हम पर एक वार है तो क्या हम उसके उपभोग में कुछ प्रतिशत मान लीजिए 10 प्रतिशत की बचत करके अपना सहयोग नहीं कर सकते है? यदि आपको याद होगा? कि जब देश में अन्न का भारी संकट था तो तत्कालीन महापुरूषों ने सप्ताह में एक दिन उपवास रखने की सलाह दी थी। क्या हम किसी मुद्दे पर राजनीति से हटकर, सोचकर दूसरों पर आरोप और आशा की किरण की टकटकी देखने के बजाय स्वयं के बल के कुछ अंश की आहुति नहीं लगा सकते है? आज की परिस्थितियों में हमें इस पर गम्भीरता से विचार करना ही देशहित और स्वयं के हित में होगा।

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