शुक्रवार, 30 जुलाई 2021

राजद्रोह कानू़न (भा.द.स. की धारा 124ए) की ‘‘आवश्यकता‘‘ ‘‘आज’’ भी है व ‘‘आगे‘‘ भी रहेगी!


अभी हाल में ही माननीय उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने सरकार के हरिद्वार जिले में बूचड़खानों पर प्रतिबंध लगाने के फैसले की संवैधानिकता पर प्रश्न उठाते हुये टिप्पणी की ‘‘क्या ‘‘नागरिकों को अपने भोजन चुनने का अधिकार है या राज्य ही फैसला करेगां‘‘? न्यायालय ने एक तरह से राज्य सरकार के जनहितकारी निर्णय लेने के ‘‘अधिकार’’ पर ही प्रश्न चिन्ह उठा दिया। इसके एक कदम और आगे जाकर नीति आयोग के मुख्य कार्यकारी अधिकारी अमिताभ कांत तो यहां तक  कहते हैं कि पर्यटक क्या खाना पीना चाहते हैं? यह उनका ‘‘निजी‘‘ मामला है, राज्य यह तय नही कर सकते हैं। जब माननीय न्यायालय, कार्यपालिका/शासन से उक्त प्रश्न कर सकती है, तब एक साथ (साइमलटेनियसली) यह प्रश्न भी उत्पन्न होता है कि सरकार के जनहित के किसी मुद्दे पर तथाकथित रूप से असफल होने या बताने पर चुनी हुई सरकार का कोई निर्णय जनहितकारी है अथवा नहीं, यह तय करने का अधिकार वास्तव में उन्हे चुनने वाले लोगो अर्थात मतदाताओं पर ही छोड़ देना उचित होगा ? उच्च/उच्चतम न्यायालय को सिर्फ कार्यपालिका के आदेश व विधायिका द्वारा पारित कानून की संवैधानिकता, वैधानिकता व न्यायिक समीक्षा ही करनी चाहिए। अंतर्निहित असाधारण शक्तियों का प्रयोग असाधारण स्थितियों में ही करना चाहिए। हमारे संविधान में कार्यपालिका, न्यायपालिका व विधायिका तीनों के कार्यक्षेत्र का यह विभाजन स्पष्ट रूप से दर्शित होता है। अन्यथा क्या यह संदेश नहीं जायेगा कि न्यायपालिका शासन मौके-बेमोके चलायेगी? 

यह विषय इसलिये उत्पन्न होता है कि स्वतंत्र भारत की न्यायपालिका के इतिहास में हमने अनेकों/सैकडों बार यह देखा है कि माननीय न्यायालयों द्वारा राज्यों व केन्द्रीय शासन के विरूद्ध लगातार ऐसी टिप्पणियां या आदेशध्निर्देश पारित किये जाते रहें है, जो कि न्यायिक क्षेत्राधिकार से जुड़ी कम वरण कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र में अनावश्यक हस्तक्षेप लिये हुई ज्यादा दिखती हैं, ऐसा परसेप्शन विगत कुछ समय से ज्यादा बन रहा हैं। जैसे कावड यात्रा पर रोक, बकरीद पर छूट, किसान आंदोलन के चलते स्वप्रेरणा से चार सदस्यीय समिति का गठन, कोविड़-19 की पहले दौर में अप्रवासीय श्रमिकों को वापसी का आदेश, दीपावली पर सीमित डेसीबल व कम प्रदूषण फैलाने वाले पटाखों की रात्रि मात्र 8 से 10 बजे के बीच फोड़े जाने की समय सीमा बाधंना, सार्वजनिक स्थानों में रात्रि 10ः00 बजे के बाद ‘डीजे‘ बजाने पर प्रतिबंध, 10 किलो हट्ज से ज्यादा के साउंड सिस्टम पर प्रतिबंध, डीजल/पेट्रोल के बदले सी.एन.जी. का उपयोग आदि अनेकोंनेक ऐसे विषय हैं, जिनका संबंध नागरिकों की खुशहाली, समृद्धि, स्वस्थ जीवन, तथा अच्छे व उज्जवल भविष्य से है। इन पर जनोंमुखी निर्णय लेने का अधिकार सिर्फ चुनी हुई सरकार को ही है। 

इन शासनादेशों की गुणवत्ता पर न्यायिक हस्तक्षेप या कोई आदेश न होने पर सरकार को आदेश/निर्देश देना उचित नही कहा जा सकता हैं। वैधानिक न्यायिक समीक्षा का यह विषय नही हैं। शासन के जन विरोधी, गलत, अलोकप्रिय निर्णय या ‘‘अनिर्णय‘‘ की स्थिति में जनता अगले चुनाव में ‘‘सबक‘‘ सिखा देगीं। तब प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि आखिर कार्यपालिका के अधिकारों की रक्षा के लिये माननीय न्यायालयों से ‘‘कौंन‘‘, ‘‘कैसे‘‘ व ‘‘किस प्रकार‘‘ प्रश्न कर सकेगा? जिस प्रकार न्यायपालिका अधिकार पूर्वक अबाध व निर्बाध रूप से आसानी से अन्य तंत्रों से प्रश्न पूछ लेती है? 

विगत समय सेवानिवृत्त मेजर जनरल एस.जी. बोम्बतकरे की याचिका पर विचार करते माननीय उच्चतम न्यायालय ने राजद्रोह के अपराध व संबंधित धारा 124ए पर कुछ बिन्दु उठाते हुये गंभीर टिप्पणियां की।बिंदुवार इसकी विस्तृत विवेचना  आगे की जा रही है। ब्रिटिश जमाने से वर्ष 1860 से चली आ रही भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए (राजद्रोह) पर माननीय उच्चतम न्यायालय ने यह कहकर कि अब इसकी जरूरत ही क्या है? उसके अस्तित्व पर ही एक ‘‘प्रश्न चिन्ह‘‘ लगा दिया? माननीय उच्चतम न्यायालय को निश्चित रूप से उसकी संवैधानिक वैधता पर पुर्नविचार (‘‘विचार‘‘ तो न्यायालय पूर्व में ही केदारनाथ सिंह मामले में कर, वैध ठहरा चुकी है) करने का अधिकार तो है। परन्तु जहां तक राजद्रोह की धारा 124ए की आवश्यकता व उपयोगिता का प्रश्न है, यह बात, (मुद्दा-कार्य विषय) जनता द्वारा चुने गये व्यक्तियों अर्थात विधायिका ही तय करेगी, न्यायपालिका नहीं ? 

अभी तक कमोवेश लोकतंत्र के तीनों स्तम्भ का प्रत्येक खम्बा क्षेत्राधिकार को लेकर परस्पर एक दूसरे का सम्मान करता चला आता रहा है। यही देश के लोकतंत्र व संविधान की ‘‘खूबी व खूबसुरती‘‘ भी है। उच्चतम न्यायालय ने सरकार से यह पूछा कि अंग्रेजों ने स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन को दबाने के लिए इस औपनिवेशिक राजद्रोह कानून का प्रथम (दुरू)उपयोग वर्ष 1870 में बाल गंगाधर तिलक व तत्पश्चात महात्मा गांधी इत्यादि जैसे अन्य कई स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों, नेताओं के खिलाफ किया था। आजादी के लगभग 75 साल बाद भी इस कानून की क्या जरूरत है? अनेक गैरजरूरी कानूनों को खत्म करते हुये सरकार की नजर इस कानून के खातमें पर क्यों नहीं गई? ऐसे कानूनों को जारी रखना दुर्भाग्यपूर्ण है।

उच्चतम न्यायालय का खत्म किये गये अन्य अनुपयोगी कानूनों की समाप्ति की बात का यहां पर उल्लेख करना महत्वपूर्ण होकर स्वयं न्यायालय को ही संवैधानिक सीमा में बांधता है। वह ऐसे कि, जहाँ केन्द्र द्वारा पूर्व में जो भी कानून अनुपयोगी मानकर समाप्त किये गयेे थे, वे न्यायालीन निर्देशों/आदेशों के तहत नहीं, बल्कि इस संबंध में आयी रिपोर्ट के बाद अनुपयोगी व व्यर्थ होने के कारण ही समाप्त किये गये थे। मोदी सरकार के पूर्व लगभग 1300 पुराने व व्यर्थ कानून को समाप्त किया गया तो मोदी सरकार ने इन 6 सालों में लगभग 1500 निरर्थक कानूनों को खत्म किया। माननीय उच्चतम न्यायालय ने यह उल्लेख कर वस्तुतः धारा 124ए की वर्तमान में औचित्य, आवश्यकता व उपयोगिता पर ही प्रश्न चिन्ह लगाकर उसे समाप्त करने की ओर साफ इंगित किया है। यह ठीक उसी प्रकार से है या इसे उस तरह से समझिये कि जब वर्ष 1971 में लागू ‘‘मुन्नी से भी ज्यादा बदनाम‘‘, कुख्यात,‘‘मीसा’’ कानून (आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था अधिनियिम) को आपातकाल के हटने के बाद वर्ष 1978 में उस मीसा कानून के दुरूपयोग से भुगतती जनमानस व उनके चुने गये नुमाइंदों (जिन्हे बाद में लोकतंत्र के प्रहरी मानकर पेशन देना भी चालू किया गया) की जनता सरकार ने समाप्त कर दिया था। उसे जारी रखना जरूरी नहीं समझा गया। परन्तु वास्तव में यह प्रश्न तो राजनैतिक प्लेटफार्म पर होना चाहिए था। दुर्भाग्यवश न्यायालय ने इस पर ‘‘लीड़‘‘ ले लिया। यद्यपि देश के गृहमंत्री भी पूर्व में ब्रिटिश जमाने के दुर्भाग्यपूर्ण कानूनों को समाप्त करने की बात कह चुके है। तथापि विश्व के कई देशों में आज भी राजद्रोह का कानून लागू है। यद्यपि ब्रिटेन में जहां यह कानून बना था, वर्ष 2009 में समाप्त कर दिया गया।

राजनैतिक कारणों से बडे पैमाने पर इस धारा के दुरूपयोग के और सरकार की जवाबदेही तक तय नहीं है, तथा इसके अनुपयोगी होने के कारण उच्चतम न्यायालय की धारा 124ए के भारतीय दंड संहिता 1860 में बने रहने के अस्तित्व पर विचार करने की धारणा ही, संविधान द्वारा कार्यपालिका, न्यायपालिक व विधायिका के बीच खींची गई लक्ष्मण रेखा की सीमा का उल्लघंन व संविधान की भावना के प्रतिकूल प्रतीत होती दिखती है। 

एक बात स्पष्ट है! जब भी कोई कानून किसी विशेष उद्देश्य या अपराधों को रोकने के लिये बनाया जाता है या बना हुआ है, तो न केवल उस कानून के दुरूपयोग की आशंका सिर्फ उसके निर्माण के समय ही नहीं, बल्कि हमेशा बनी रहती है और कमोवेश थोड़ा बहुत दुरूपयोग होता भी रहता है। जैसा कि कहा जाता है-‘‘देयर इज नो रोज विदाउट ए थ्रोन‘‘। परन्तु उसके दुरूपयोग को रोकने व चाबूक लगाने का कार्य कार्यपालिका के साथ-साथ न्यायपालिका का भी होता है, जो वह अवश्य करती चली आ रही है। जस्टिस डी वाई चन्द्रचूड़ व एम.आर.शकर की खण्ड़ पीठ ने एक प्रकरण में कानून की प्रक्रिया का दुरूपयोग कर दर्ज की गई एफ.आई.आर. रद्द कर दी। परन्तु संबंधित कानून जिनके तहत उक्त दुरूपयोग हुआ था को रद्द नहीं किया। सोलिस्टर जनरल तुषार मेहता ने भी स्वयं सरकार द्वारा इस धारा के दुरूपयोग को रोकने की बात कही है। 

ऐसा कभी भी नहीं हुआ है कि सिर्फ दुरूपयोग के आधार पर कानून ही न बनाया जाये और न ही ऐसा संभव है। ‘‘जूं के ड़र से गुदड़ी नहीं फेंकी जाती‘‘। बने हुये कानून के औचित्य पर दुरूपयोग के आधार पर प्रश्नवाचक चिन्ह नहीं लगाया जा सकता है। माननीय मुख्य न्यायाधीश का उक्त धारा की संवैधानिकता परखने के पूर्व ही, इस तरह की विस्तृत असहमति वाली टिप्पणियों से अंतिम रूप से आने वाले निर्णय की निष्पक्षता पर आंशका के बादल स्वयंमेव उभर जाते है, ऐसा ‘‘संशयात्मा विनश्यति‘‘ रूपी परसेप्शन बनना ठीक नहीं है। जिस प्रकार माननीय न्यायालय कानून के दुरूपयोग पर चिंता व्यक्त कर रहा है, उसी प्रकार सुप्रीम कोर्ट के अधिकारों के दुरूपयोग को भी लेकर क्या चिंता उत्पन्न नहीं होती या नहीं होना चाहिए?

उक्त कानून के औचित्य पर उच्चतम न्यायालय ने एक और आधार पर प्रश्न उठाया है कि इस कानून (वास्तव में धारा 124ए) के इतिहास में जाने पर तथ्यात्मक रूप से न्यूनतम मामलों में ही सजा हुई है। मतलब तो फिर इस आधार पर आज के कई अपराधिक कानून व उनकी विभिन्न धाराएं कहीं नहीं ठहरती है, जैसा बलात्कार के मामलों में सजा का प्रतिशत मात्र 30 प्रतिशत के आसपास है। ‘‘एनसीआरबी’’ के अनुसार हमारे देश में अपराध की सजा की दर आधे  से भी कम है। तब क्या उन सबका भी ‘‘विलोपन’’ हो (समाप्ति) जाना चाहिये? फिर ‘‘मुंहबंद कुत्ता क्या शिकार करेगा‘‘? सूचना प्रौद्योगिकी कानून की धारा 66ए के दुरूपयोग का उदाहरण देते समय माननीय उच्चतम न्यायालय शायद यह भूल गयी कि उक्त अधिनियम की धारा 66ए को स्वयं न्यायालय ने श्रेया सिंघल बनाम भारत संघ के मामले में असंवैधानिक घोषित किया था। जब कि इसके विपरीत स्वयं उच्चतम न्यायालय धारा 124ए को संवैधानिक रूप से वैध घोषित कर चुका है। 

उच्चतम न्यायालय ने पूर्व में सरकार से भिन्नता रखने व असहमति के विचार को राजद्रोह नहीं है, यह स्पष्ट रूप से निर्धारित कर, निर्णित कर उसके दुरूपयोग की आशंका को स्वयंमेव दूर (निर्मूल) कर दिया था। तब उसे समाप्त करने की सोच ही क्यों उत्पन्न होनी चाहिये? जैसे कि तुर्की की एक कहावत है कि ‘‘कड़े गोश्त के लिये पैने दांत होना जरूरी है‘‘, अतः क्या देश की एकता, अखंडता, सुरक्षा, संप्रभुता व समरसता के लिये आज भी द्रेशद्रोह की धारा 124ए की आवश्यकता नहीं है? खासकर आज भी हमारे ‘‘तंत्र‘‘ में जासूसी से लेकर दुश्मन देशों के प्रति प्रेम लिए देशद्रोह की भावना फलफूल कर दीमक की तरह तंत्र को ख़ोखला करने का प्रयास करते रहते है, तब उन्हे रोकने के लिये देशद्रोह कानून की मौजूदगी जरूरी है। (एक फारसी कहावत के अनुसार ‘‘तुख्मे मुर्ग दुज्द, शुतुर दुज्द मीशे‘‘ अर्थात यदि मुर्गी का अंडा चुराने के लिये कानून नहीं है तो उसे चुराने वाला अंततः एक दिन ऊंट की चोरी जरूर करेगा)। हाँ ब्रिटिश जमाने की देशद्रोह की धारा में स्वाधीन भारत के सम्मान को चोट पहुुचाने वाली यदि कोई बात है, तो उसे अवश्य हटा देना चाहिये। 

देश से बड़ा कोई नहीं और देशद्रोह (राजद्रोह) से बड़ा कोई अपराध नहीं। क्या देश आंतकवाद से मुक्त हो गया है? क्या आंतकवादी का देशद्रोही से कुछ भी संबंध नहीं? आंतकवादी को आश्रय देना, आर्थिक सहायता देना देशद्रोह नहीं है? तब क्या सबसे बड़े अपराध के अपराधी को कानून समाप्त कर निरपराधी बना दिया जाए? वह भी उस स्थिति में जब विद्यमान अन्य किसी कानून में देशद्रोह को अपराध मानने की कोई व्यवस्था/धारा नहीं है। 

माननीय उच्चतम न्यायालय ने स्वयं 1962 में केदारनाथ सिंह विरूद्ध बिहार राज्य के मामलें में धारा 124ए को वैध ठहराया था। अर्थात स्वतंत्रता के पूर्व की दमनकारी धारा (जिसे न्यायालय अभी ठहरा रही हैं) को स्वतंत्रता के पश्चात भी उच्चतम न्यायालय ने न केवल वैध ठहराया, बल्कि उसकी अनुपयोगिता पर तत्समय भी कोई प्रश्न चिन्ह नहीं लगाया गया। यद्यपि असाधारण अवस्था में ही ‘‘विषस्य विषमौषधर्म‘‘ के समान उसके सीमित उपयोग के बाबत जरूर कहा गया। तब आज उच्चतम न्यायालय की राजद्रोह की धारा की समाप्ति पर उक्त टिप्पणी समयानुकूल नहीं है।

माननीय उच्चतम न्यायालय ने राजद्रोह को औपनिवेशिक बतलाते हुये उसके अस्तित्व के औचित्य पर टिप्पणी करते समय इस महत्वपूर्ण तथ्य की अनदेखी कर दी की दंड प्रक्रिया संहिता जिसे वर्ष 1861 में पारित और 1862 में लागू किया गया था के बिना भारतीय दंड संहिता (जिसके अंतर्गत ही राजद्रोह की धारा 124ए शामिल है) को कार्यरूप में परिणित नहीं किया जा सकता है, तो भारतीय गणराज्य की संसद ने 1973 में समाप्त कर दंड प्रक्रिया संहिता 1973 (स्वाधीन देश की आवश्यकता के अनुरूप) पारित कर नया कानून बनाया। लेकिन इसी (1861) के आसपास वर्ष 1860 में पारित भारतीय दंड संहिता को सरकार ने नया दंडात्मक कानून लाने की आवश्यकता महसूस नहीं की। भारतीय दंड संहिता 1860 विश्व की सबसे बड़ी दंडात्मक कानून है, यह जानकर शायद आपको भी आश्चर्य होगा।

अंत में फिल्म ‘‘जब प्यार किसी से होता है’’ में मोहम्मद रफ़ी-लता मंगेशकर का गाया लोकप्रिय गीत ‘‘सौ साल पहले मुझे तुमसे प्यार था, आज भी है और कल भी रहेगा‘‘ लेख की विषय वस्तु पर बिल्कुल सटीक बैठता है।

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