बुधवार, 4 अगस्त 2021

आखिर! ‘‘राजनीति‘‘ में (कु) ‘‘नीति‘‘ के गिरने का ‘‘क्रम’’ ‘‘कब’’ व ‘‘कहां’’ जाकर रुकेगा?


पश्चिम बंगाल के आसनसोल लोकसभा क्षेत्र के भाजपा सांसद, पूर्व केंद्रीय मंत्री और 90 के दशक से 12 भाषाओं में फिल्मी गीत-संगीत की दुनिया के प्रसिद्ध और लोकप्रिय गीतकार बाबुल सुप्रियो की सोशल मीडिया ‘‘फेसबुक‘‘ पोस्ट के माध्यम से ‘‘राजनीति‘‘ से ‘‘सन्यास’’ लेने और लोकसभा से एक महीने के भीतर इस्तीफ़ा देने के निर्णय की अचानक जानकारी मिली। हाल में ही हुए केंद्रीय मंत्रिमंडल के चिरप्रतीक्षित पुनर्गठन में अप्रत्याशित उनसे लिये गये इस्तीफे (शायद केंद्रीय मंत्री रहते हुये टाॅलीगंज विधानसभा से हुई हार) के कारण अपमानित व आहत होने, और पश्चिम बंगाल भाजपा के नेतृत्व से मतभेदों के चलते, भाजपा की पश्चिम बंगाल में हुई बड़ी जीत के दावों के विपरीत हुई हार के परिणाम आने से व्यथित होकर (क्योंकि वे स्वयं को मुख्यमंत्री पद का दावेदार मानते थे) बाबुल सुप्रियो ने उक्त कदम ‘‘निराशा‘‘ में उठाया है, राजनीतिक दृष्टि से प्रथम दृष्टया ऐसा माना जा सकता है।‘‘अशांतस्य कुतः सुखम्‘‘।

सोशल मीडिया में पोस्ट ड़ालते हुए बाबुल सुप्रियो ने कहा कि वह सामाजिक कार्यों (समाज सेवा) के लिए ही राजनीति में आये थे। लेकिन कहते हैं न कि ‘‘असफलता में ही सफलता की कुंजी छुपी होती है‘‘। अतः अब वे यह महसूस करते हैं कि बगैर राजनीति के या राजनैतिक दल के सदस्य रहे बिना भी, सामाजिक कार्य व लोगों की सेवा की जा सकती है। इसीलिये वे राजनीति को ‘‘अलविदा‘‘ कह रहे हैं। संसद सदस्यता से एक महीने के भीतर इस्तीफा दे देंगे वे न तो कोई दल बना रहे हैं और न ही किसी अन्य पार्टी में जा रहे हैं। (वे जानते हैं कि ‘‘भेड़ जहां जायेगी वहीं मुंडेगी‘‘। अचानक अनपेक्षित रूप से घटित पूरे घटनाक्रम को विरोधी पार्टी तृणमूल कांग्रेस ने तो इसे ‘ड्रामा’ क़रार कर दिया है। वस्तुतः बाबुल सुप्रियो का उक्त कथन अर्धसत्य है, क्योंकि ‘राजनीति‘ से ‘‘नीति‘‘ अलविदा तो बहुत पहले हो चुकी है, इसलिये उसे छोड़ने का प्रश्न कहां पैदा उत्पन्न होता है। जहां तक राजनीति की मुख्य ताकत व पहचान ‘‘राज‘‘ (सत्ता) की बात है, राजसत्ता का प्रतीक वह मंत्री पद भी छीना जा चुका है। अब मात्र सांसद रह जाने के बावजूद पार्टी में भी उनकी ‘सत्ता‘ का प्रभाव न्यूनतम रह गया है। अतः वे सिर्फ सांसद पद ही छोड़ सकते हैं, जिसको कार्यरूप देना अभी बाक़ी है।

उपरोक्त संपूर्ण कथन (या कथा?) अपने आप में एक प्रकार की कूटनीतिज्ञ राजनीति लिये हुए है और शायद आज की ‘‘राजनीति‘‘ इसी को कहते हैं। व्यक्ति जीवन से तो अलविदा जरूर होता है, लेकिन अधिकांशतः व्यक्ति राजनीति को पूर्ण रूप से अलविदा नहीं कह पाते हैं। राजनीति का मतलब सिर्फ पार्टी राजनीति ही नहीं होती है, बल्कि राजनीति, सामाजिक, धार्मिक क्षेत्र में व यहाँ तक कि फिल्मी गीत-संगीत के क्षेत्र में भी होती है, जहाँ से बाबुल सुप्रीयो राजनीति में आ कर वहीं वापिस जा रहे हैं। ‘‘साझे की हंडिया को चैराहे पर फूटने से बचाने के लिये‘‘ भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे.पी. नड्डा के द्वारा सार्वजनिक रूप से बाबुल सुप्रीयो से उक्त निर्णय पर पुनर्विचार हेतु की गयी अपील के प्रत्युत्तर में दो दिन बाद बाबुल सुप्रियो की जे.पी. नड्डा से हुई मुलाक़ात के बाद आया उनका यह बयान गौरतलब है कि वे ‘‘अब लोकसभा से इस्तीफा तो नहीं दे रहे हैं, लेकिन राजनीति से दूर रहेंगे‘‘। मूल पोस्ट में लिखी बात कि ‘‘वे हमेशा बीजेपी का हिस्सा रहेगें‘‘ को बाद में हटा दिया। बंगाल बीजेपी के अध्यक्ष दिलीप घोष का कथन कि क्या उन्होंने इस्तीफ़ा दे दिया? तथा यह उनका निजी फैसला है, जो कि भाजपा राष्ट्रीय अध्यक्ष नड्डा के स्टैंड के प्रतिकूल है। वर्तमान भारतीय राजनीति की यही ‘‘विशिष्टता‘‘ तो ‘‘शेष‘‘ रह गयी है।

बाबुल सुप्रियो ने अपने सन्यास व इस्तीफ़े के लिये दिये गये कारणों से राजनीति में एक नया अध्याय जोड़ दिया है। सामान्यतया सामाजिक और राजनीतिक कार्य व कार्यकर्ता  अलग-अलग होते हैं, परिभाषित होते हैं व अपनी पृथक-पृथक पहचान लिये होते हैं। परंतु यहां पर तो फिल्मी ‘‘गीत-संगीत‘‘ का क्षेत्र छोड़कर ‘‘सामाजिक‘‘ कार्य करने के लिये ही तो बाबुल सुप्रीयो ‘‘राजनीति‘‘ में आये। जबकि अधिकांशतः अन्य नेतागण तो प्रायः देश सेवा के लिये राजनीति में आने का ‘दावा‘ करते है। गोया, सामाजिक कार्य करने के लिए राजनीति की सीढ़ी चढ़ना जरूरी है? इस ‘‘गलत‘‘ बात को ‘‘सही‘‘ समझने में बाबुल सुप्रियो को 7 साल लग गये। (उन्होंने वर्ष 2014 में भाजपा के प्लेटफाॅर्म से राजनीति में पदार्पण किया था)। यह तो वही बात हुई कि-                  

‘‘शब को मय ख़ूब सी पी, सुब्ह को तौबा कर ली,   

  रिंद के रिंद रहे, हाथ से जन्नत न गयी‘‘।

राजनीति को ‘‘टा टा‘‘ करके सांसद बने रहने का उनका पुनर्निर्णय शायद देश की राजनीति को क्या एक ‘‘नई दिशा‘‘ नहीं देगा? उन्होंने एक और नया शिगूफा दिया कि बिना राजनीतिक रूप से सक्रिय रहे वे अपनी संसदीय जिम्मेदारी का निर्वहन करते रहेंगे। जबकि सालों राजनीति के रंग में डूबे व समाहित हो जाने के बावजूद अनेक नेता गण अपनी संसदीय जिम्मेदारी पूर्ण व अच्छी तरह से निभा नहीं पाते है। अभी तक तो देश की लोकतंत्रीय प्रणाली की राजनीति में दलीय और (बहुत कम) निर्दलीय राजनीति का ही बोलबाला व वर्चस्व रहा है। राजनीति को ‘‘बाय बाय‘‘ कह, सन्यास ले कर संसदीय राजनीति की पारी को पूर्ण करना कहीं, राजनीति की एक ‘‘नयी थ्योरी‘‘ को तो ईजाद नहीं कर रही है? ‘‘संसद सदस्य‘‘ के ‘‘सन्यासी‘‘ हो जाने पर वह दलगत राजनीति के पचड़े से दूर हो जायेगा। क्योंकि ‘‘पराधीन सपनेहुं सुख नाहीं‘‘। व्यक्तिगत स्वार्थ या स्वार्थ भावना से परे रहकर वह सिर्फ और सिर्फ देश के लिये ही सोचेगा व तदनुसार कार्य करेगा, जिससे देश मजबूत होगा, और समाज सेवा का कार्य चलता रहेगा। (जैसा कि बाबुल सुप्रीयो ने कहा है)। निस्संदेह व्यक्ति से परिवार व उससे आगे बढ़ते हुए परिवार से समाज और अंततः समाज से ही देश का निर्माण होता है। 

यदि देश में अपनायी गयी संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली के अंतर्गत लोकसभा व राज्यसभा के समस्त 795 संसद सदस्य तथा विधानसभाओं और विधान परिषदों के सभी सदस्यगण भी ‘‘सन्यास की इस नयी राजनीति‘‘ व संसदीय राजनीति को अपना लें तो, संसद में जो ‘‘गतिरोध‘‘ अभी चल रहा है, वह न केवल समाप्त हो जायेगा बल्कि भविष्य में भी ऐसी स्थिति उत्पन्न नहीं होगी और ‘‘चोर उचक्का चैधरी, कुटनी भई प्रधान‘‘ वाली दलगत राजनीति के चलते देश के स्वास्थ्य व विकास पर जो विपरीत प्रभाव पड़ रहा है, उसकी भी समाप्ति हो जायेगी और देश तेजी से विकास, समृद्धि उन्नति और खुशहाली की ओर बढ़ेगा। ‘‘अंधेरों को कोसने से बेहतर है चि़राग़ रौशन करना‘‘। इसलिये ‘‘चैरिटी बिगिन्स एट होम‘‘ की तर्ज पर इस नयी सन्यास की राजनीति के सिद्धांत को अपनाकर अन्य सम्मानीयों को भी रास्ता दिखाने के लिए न केवल बाबुल सुप्रियो धन्यवाद के पात्र हैं, बल्कि जे.पी. नड्डा को भी धन्यवाद अवश्य दिया जाना चाहिये, क्योंकि उनसे मुलाकात के बाद ही बाबुल सुप्रियो ने लोकसभा से अपने इस्तीफे के निर्णय को बदला तो जरूर, परंतु राजनीति से दूरी बनाये रखने के अपने पूर्व निर्णय को बरक़रार रखते हुए।

परिणामस्वरूप अंत में, मोहम्मद रफ़ी (फिल्म नीलकमल वर्ष 1968) व बाद में सोनू निगम का गाया यह ‘गीत’ ‘‘बाबुल की दुआएँ लेती जा, जा तुझको सुखी संसार मिले’’, दिल से बाहर आकर गुनगुनाने की इच्छा जागृत होने लगी। परन्तु जिनकी जुबान पर शायद यह गीत था, परिस्थितियों के घटनाक्रम को देखते हुए इसे शायद अपने दिल में ही उतार लिया?। घर से निकलने के बाद भी दुनिया की किसी भी महिला से उसका बाबुल कभी नहीं छूटता। सुप्रियो से उनका ‘राजनैतिक बाबुल’ छूटना सामान्यतः हमारी समग्र राजनीति और विशेषकर भाजपा की कार्यप्रणाली का ज्वलंत उदाहरण है। संभव है कि उनके हटने के असली राज (अगर कोई हैं तो) कुछ समय के बाद सामने आयें।


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