मंगलवार, 31 अगस्त 2021

‘‘निजीकरण’’ की ओर बढ़ती सरकार! ‘‘स्वयं’’ का ‘‘निजीकरण’’ कब करेगी?


वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने वर्ष 2021-22 के बजट में ‘‘एसेट्स मोनेटाइजेशन इनिशिएटिव’’ पर काफी जोर दिया था, जिसे कार्य रूप में परिणित करने के लिये 23 अगस्त को ‘‘नेशनल मोनेटाइजेशन पाइपलाइन". (एनएमपी) (राष्ट्रीय मुद्रीकरण पाइपलाइन) योजना लांच की। वित्तमंत्री ने ‘‘देश की पूंजी’’ "सरकारी सम्पत्ति" को विदेशी क्षेत्रों सहित "निजी क्षेत्रों" को  "लीज" पर देकर आगामी 4 वर्षो में लगभग 6 लाख करोड़ आय की योजना की परिकल्पना की घोषणा की। इनमें बिजली से लेकर राष्ट्रीय राज मार्ग, रेलवे, पेट्रोलियम पाइप लाइन, टेलीकॉम, खनन (माइन्स), एयरपोर्ट, पोर्ट, वेयरहाउस, स्टेडियम जैसे बुनियादी ढ़ाचे (कुल 8 मंत्रालय) शामिल है। किसी भी स्थिति में सम्पत्ति का “स्वामित्व“ सरकार के पास ही रहेगा। सिर्फ "अन या अडंर-यूटिलाइज्ड़ एसेट्स" (बेकार पड़ी अथवा कम उपयोग की गई सम्पत्ति) को ही निजी क्षेत्रों को देगी। तय निश्चित समय सीमा के पश्चात ’अनिवार्य’ रूप से दिया गया सम्पत्ति का प्रबंधन (कंट्रोल) निजी क्षेत्र को वापस सरकार को करना होगा। 

 सहसा ही यह विश्वास नहीं होता है कि क्या यह उस भाजपा का निर्णय है, जो "जनसंघ से लेकर भाजपा' तक के सफर में, सत्ता में आने के पूर्व तक, वर्ष 1991 में पी.वी. नरसिम्हा राव की कांग्रेसी सरकार से प्रारंभ की गई निजीकरण व आर्थिक उदारीकरण की नीति केे सख्त खिलाफ थी। वर्ष 1991 में स्थापित “स्वदेशी जागरण मंच“ जिसे “संघ“(राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) का "आर्थिक विभाग" भी कहा जाता है, के माध्यम से “पर उपदेश कुशल बहुतेरे“ की तर्ज पर भाजपा ने  स्वदेशी आंदोलन कर इस नीति का पुरज़ोर विरोध किया था। "डंकन प्रस्ताव" के भाजपा के राष्ट्रव्यापी विरोध को लोग अभी तक भूले नहीं है। यद्यपि भाजपा जब पहली बार केंद्र की सत्ता में आयी थी, अर्थात अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रीत्व काल में भी निजी व विदेशी विनिवेश की नीति का समर्थन किया गया था। तथापि भारतीय मजदूर संघ के संस्थापक व स्वदेशी जागरण मंच के जनक दत्तोपंत ठेंगड़ी का बाजपेयी जी की सार्वजनिक उपक्रमों के निजीकरण की नीति को लेकर उनसे गहरे मतभेद थे।  

 देश की सम्पत्ति सार्वजनिक संस्थानों और प्राकृतिक संशाधनों को निजी हाथों में लम्बे समय के लिए चलाने के लिये ‘लाभ हानि’ सहित सौंपने की नीति को ’निजीकरण’ जो अब एक “राजनैतिक गाली“ व असुविधाजनक शब्द का रूप ले कर “मुन्नी से भी ज़्यादा बदनाम“ हो चुकी है, के बदले “लीज व मुद्रीकरण“ का ’नामकरण’ देकर सरकार उसे “जायज, उचित व आवश्यक’“ ठहरा रही है। तथापि वित्तमंत्री ने इस संपूर्ण मुद्रीकरण को "निजीकरण" मानने से स्पष्ट रूप से इंकार किया है। परन्तु बुनियादी ढ़ाचे के निर्माण के लिए इसे एक महत्वपूर्ण “वित्त पोषक“ जरूर बतलाया है। 51 प्रतिशत एफडीआई से लेकर एयरपोर्ट, रेलवे का निजीकरण का भाजपा पूर्व में विरोध कर चुकी है। कल्पना कीजिए कि “अंधे पीसें कुत्ते खांय“ की तर्ज पर आज लाल किला और रेलवे का आंशिक रूप से निजीकरण की ओर बढ़ाया गया कदम, यदि कांग्रेस सरकार के द्वारा उठाया गया होता तो, भाजपा देश में कितना बड़ा हंगामा खड़ा कर देती? 

‘‘परिर्वतन’’ का नारा देकर सत्ता में आने के बाद सिर्फ कुर्सी पर बैठे "चेहरों" का ही परिर्वतन हुआ है। सरकार की ‘नीति-रीति’ तो वही रहती है। चूंकि "कुर्सी" पर ‘‘सत्ता’’ की मजबूत पकड़ होती है, इसलिए वर्तमान में कुर्सी पर बैठा शासक कुर्सी को नहीं, बल्कि कुर्सी (सत्ता) अपने ऊपर बैठे ’शासक’ को अपने अनुकूल करती है।‘‘सत्ता’’ (कुर्सी) का यही सबसे बड़ा चरित्र होता है। अंततः लोकतंत्र में कुर्सी ही महत्वपूर्ण होती है। इस प्रकार लोकतंत्र के नाम पर जनतंत्र द्वारा जनता के साथ इसी तरह से मजाक होता रहेगा। इसलिये यदि आप ‘‘एनडीए’’ सरकार की तुलना ‘‘यूपीए’’ से करे तो, यूपीए सरकार की जो प्रमुख महत्वपूर्ण नीतियां थी, जिनका “एनडीए“ ने (विपक्ष में रहते हुये) विरोध किया था, वही नीतियां अब एनडीए के लिये “पवित्र गाय“ बन चुकी हैं, और कमोवेश वे सब नीतियों के ऊपर का "लेबल, रंग" बदलकर नया "रेपर" लगाकर लगभग वे ही नीतियां एनडीए सरकार ने लागू की है। इसीलिए कई लोगो को यह भ्रांति (कनफ्यूजन) भी है कि कहीं एनडीए यूपीए पार्ट-3-4 तो नहीं है? 

मुद्दा यहाँ फिलहाल मुद्रीकरण का है। वित्तमंत्री सीतारमण सहित सरकार के नुमाइंदे बार-बार स्पष्ट रूप से यह कहते-कहते थक चुके हैं कि सम्पत्तियों का स्वामित्व सरकार के पास ही रहेगा। कुछ समय के लिए निजी संस्थानों को सिर्फ "लीज" पर दिया जायेगा। और  लीज की निश्चित  समयावधि के समाप्त होने के पश्चात  प्रबंधन वापिस सरकार के पास आ जायेगा। " विक्रय व लीज" मैं निश्चित रूप से तकनीकि रूप से भारी अंतर है। परन्तु व्यवहार में 30-40-50 साल की लम्बी अवधि की लीज देकर "सम्पत्ति का हस्तातंरण" ठीक वैसे ही हैं, जैसा कि सरकार नजूल जमीन को लीज पर 30 से 90 वर्ष के लिये देती है, जिस पर पट्टेदार स्थायी निर्माण कर लेता है व कभी भी सरकार पुनः प्रवेश (री एंट्री) नहीं करती है। लम्बे समय तक अचल-चल सम्पत्ति के उपयोग उपभोग कर पट्टेदार द्वारा मुनाफा कमाने के बाद उस सम्पत्ति की क्या कंडीशन (स्टेटस) रह जायेगी, इसकी कल्पना करना बमुश्किल नहीं है। वैसे भाजपा प्रवक्ता उक्त कदम उठाने के पक्ष में न्यूनतम सरकार अधिकतम शासन (मिनिमम गवर्नमेंट और मैक्सिमम गवर्नेंस) के सिंद्धान्त को उद्धत कर रहे हैं। परंतु सरकार यह बतलाने को तैयार नहीं है कि जिन संपत्तियों से "निजी क्षेत्र" मुनाफा कमाएंगे सरकार उनसे "मुनाफा कमाने" में क्यों असफल रही है? रोग का सही इलाज "तंत्र" बदलने में नहीं बल्कि तंत्र को सुधारने में है।

एक प्रश्न यहां उत्पन्न होता है कि वित्तमंत्री ने सरकारी-सार्वजनिक क्षेत्र की तुलना में “हमेशा“ समस्त निजी क्षेत्रों की कार्यकुशलता (एफिशिएंसी) को कैसे “बेहतर“ मान लिया? क्या अनिल अंबानी का उदाहरण सामने नहीं है? यदि वित्तमंत्री कार्यकुशलता पर यूएनडीपी द्वारा जारी पेपर्स का अध्ययन करती तो उन्हें यह ज्ञात हो जाता कि वोडाफोन-आइडिया जैसी टेलीफोन कंपनियां सहित अनेक प्रसिद्ध नामी निजि क्षेत्रों के संस्थान और उद्योगपति “एनपीए“ होकर दिवालियापन की स्थिति में आ गए हैं। अर्थात कार्यकुशलता, अक्षमता व कुप्रबंध की भागिता सार्वजनिक और निजी दोनों क्षेत्रों में है। लेकिन सरकार की प्राथमिकता गरीब जनता के आर्थिक हितों को संरक्षण देने के कारण होने से दोनों क्षेत्र की उक्त तुलना करना सही संदर्भित नहीं होगा। 

इससे भी बड़ा प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि सरकार ने जो आगामी चार वर्षो में आय का आंकलन सार्वजनिक किया है, (स्वामित्व बिना बेचे) क्या वह वास्तविकता के नजदीक है या उसका धरातल पर उतरना संभव है? इसका दूसरा अर्थ यह भी निकलता है कि आर्थिक तंत्र की बदहाली होने के कारण ही सरकार ‘तंत्र’ को चलाने से अपने हाथ खींच रही हैं। अर्थात “फटे कपड़े ग़रीबी आयी“। अतः सरकार यह निश्चित निष्कर्ष पर निश्चित रूप से पहुंच चुकी है कि इन संस्थानों द्वारा न तो लाभ कमाया जा सकता है और न ही लम्बे समय तक इन्हे लाभ में चलाया जा सकता है। इनके बेहतर आपरेशन व उपयोग के लिये व सरकार की अव्यवस्था के कारण हुई खस्ता आर्थिक हालात से निपटने का रास्ता उक्त मुद्रीकरण (निजीकरण) ही है। ताकि हम “पेपर पर मालिक बने रह कर मन के मोदक रूपी आत्म सुख“ पाते रहें।

दूसरा महत्वपूर्ण प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि निजिकरण की ओर बढ़ते इस रास्ते में “सामाजिक सुरक्षा“ का क्या होगा? सरकार हमेशा की तरह यह दावा अवश्य करेगी कि वह यह मुद्रीकरण की नीति लागू करते समय इन संस्थानों में कार्यरत कर्मचारियों के  हितों की सुरक्षा के लिए निजी क्षेत्रों पर व्यापक प्रभावी प्रतिबंध लगायेगी ताकि “शोषण व एकाधिकार“ न हो सके। इसकी विस्तृत जानकारी वित्त मंत्रालय ने जारी 196 पेजों की 2 पुस्तिकाओं में दी है, जिसमें उक्त पाइपलाइन में आने वाले क्षेत्रों और उनसे होने वाली संभावित आय की गणना भी की गई है। प्रश्न कड़क प्रभावी नियम-कानून बनाने का नहीं है, बल्कि हमेशा की तरह उसे कड़कता से प्रभावी रूप से लागू करने की समस्या का है। 

मुद्रीकरण की नीति की घोषणा करते समय एक ओर पहलु पर सरकार ने ध्यान नहीं दिया है कि उसके भी कुछ दायित्व व कर्तव्य ऐसे होते है, जहां आर्थिक लाभ-हानि की चिंता किए बिना जनता के प्रति अपने सामाजिक सरोकार को पूरा करने के लिए सरकार को आर्थिक (“अर्थ“के) अंकगणित को छोड़ते हुये कुछ आवश्यक कदम उठाने पडते हैं, जिसका आर्थिक बोझ आम जनों के हित में सरकार को वहन करना होता है। जो प्रायः निजी क्षेत्र लगभग बिल्कुल नहीं करते हैं। साफ है कि यह नीति इन संस्थानों में कार्यरत कर्मचारियों को तो “कसाई के खूंटे से बांधने के समान“ है। अतः इस योजना में सरकार कितनी सफल हो पायेगी फिलहाल इसका जवाब भविष्य के गर्भ में ही है। अच्छा सोचना, कल्पना करना और ऊंची उड़ान भरना गलत नहीं होता है। लेकिन यही सही भी तभी होता है, जब यह वास्तविकता के निकट हो, ताकि उसे धरातल पर उतारा जा सकें। अन्यथा मुंगेरीलाल के हसीन सपने के समान उसका भी यही हश्र होना लाजमी है।

 खराब तंत्र व्यवस्था के चलते सरकारी तंत्र और उस पर अप्रभावी, अदूरदर्शी व परिणाम विमुख सरकारी नीति व नियत्रंण के कारण यदि सरकार निजीकरण की ओर कदम बढ़ा रही है, जैसे कि “भेड़ अपने ही मूंड़े हुए ऊन का कंबल ओढ़े“ और वैसे ही मुद्रीकरण का आवरण ओढ़कर कदम उठाने का ही विकल्प मात्र यदि सरकार के पास "शेष" रह गया है। तब सरकार के स्वयं के शासन तंत्र (शासक) में तो उससे भी ज्यादा खराबियां हैं। अतः तब प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि जो सरकार स्वयं के शासन तंत्र की खराबी को दुरस्त करने में असफल रही है, जिस कारण उक्त मुद्रीकरण का निर्णय लेना पड़ रहा है। तब क्या सरकार में भी सुधार के लिये इसी नीति का अनुसरण करते हुये ‘‘सरकार’’ को निजी हाथों में सौंप नहीं देना चाहिये? थोडा इंतजार कीजिए! जब सरकार को इन संस्थानों को निजी क्षेत्रों में प्रबंधन में सौंपने का निर्णय लेने में काफी समय लगा है। तब “सरकार का मूल्यांकन“ करने में तो कई गुना समय ज्यादा लगेगा ही। शायद यह कार्य इस कार्यकाल में न हो पाये तो अगले कार्यकाल में तो जरूर हो जायेगा? क्योंकि यह बात तो तय है सरकार का स्वयं के तंत्र को भी मजबूत, सुदृण और पूर्णतः निरोगी होना सुदृढ़ शासन/प्रशासन के लिये आवश्यक है।

अंत में केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी ने पत्रकार वार्त्ता में राहुल गांधी की बार-बार देश बेचने की कही गई बात की आलोचना करते हुए उल्टे ही कांग्रेस सरकार के तीन निजिकरण के निर्णयों का  उद्धरण कर देश बेचने का प्रश्नवाचक चिन्ह उनकी दादी इंदिरा गांधी पर ही लाद दिया? यानी “हेड्स आई विन, टेल्स यू लूज़“!! तथ्यात्मक रूप से दागे गए प्रश्न “सही“ होने के बावजूद स्मृति ईरानी चतुराई से या यह कहें बेशर्मी से यह तथ्य छुपा गई कि तब कांग्रेस के उठाए गए उदारीकरण के उन कदमों पर तत्समय क्या भाजपा ने उसे देश हित में मान कर, ताली बजाकर पूरे देश में स्वागत किया था? संसद में प्रशंसा का प्रस्ताव लाया था? या तत्समय यूपीए नेत्री इंदिरा गांधी या कांग्रेसी प्रधानमंत्री की पीठ थपथपाई थी? तब क्या उक्त कदम के स्वागत के लिये स्वदेशी जागरण मंच का गठन हुआ था? स्मृति ईरानी भूल गयीं कि “कांच के घर में रह कर दूसरों पर पत्थर नहीं फेंके जाते“। यद्यपि कांग्रेस प्रवक्ता द्वारा “प्रति प्रश्न“ न किए जाने से स्मृति ईरानी को आगे स्पष्टीकरण देने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी और वे शर्मनाक (आकवर्ड) स्थिति का सामना करने से बच गई। राजनीति में सुचिता और  ईमानदारी का यह तकाजा है कि स्मृति ईरानी को यह जरूर बतलाना चाहिए था कि ततसमय भाजपा का विरोध "गलत" था और वैश्वीकरण की नीति सही थी, जिससे आज भाजपा समय की आवश्यकता अनुसार एक और अच्छे रूप में जनहित में जनता के सामने लायी है। इससे यह तो स्पष्ट हो जाता है कि नीति चाहे कितनी ही देश हित में हो, विपक्ष में रहने पर उसका विरोध करना भी शायद “देश हित“ ही कहलाता है। वर्तमान विनिवेश, विदेशी सीधा निवेश (एफडीआई), मुद्रीकरण, निजीकरण, आर्थिक उदारीकरण या आप उससे अन्य कोई भी नाम दे दें, राजनीति के चलते भाजपा कांग्रेस दोनों आमने सामने खड़े न हो कर “बर्ड्स ऑफ द सेम फ़ीदर फ़्लॉक टुगेदर“ के समान एक दूसरे के पूरक होकर, परंतु देश के हितों के विरुद्ध जरूर खड़े दिखते हैं।

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