बुधवार, 3 नवंबर 2021

आपराधिक न्यायिक व्यवस्था में ‘‘आमूलचूल परिवर्तन’’ का समय नहीं आ गया है?

हमारी आपराधिक दांडिक न्याय व्यवस्था मुख्य रूप से आपराधिक दंड संहिता 1973 एवं भारतीय दंड संहिता 1860 पर ही निर्भर है, जो हमारे देश में ब्रिटिश भारत के समय से चली आ रही हैं। यद्यपि दंड प्रक्रिया संहिता 1861 को वर्ष 1973 में बदलकर नई दंड प्रक्रिया संहिता 1973 लागू की गई। परन्तु भारतीय दंड संहिता 1860 की ही चली आ रही है। हमारी न्यायिक दंड प्रणाली का मूल सिद्धांत है, न्याय न केवल सहज, सरल, सुलभ व शीघ्रताशीघ्र मिलना चाहिए, बल्कि ऐसा होते हुये दिखना भी चाहिए। अर्थात वास्तविकता के साथ परसेप्शन का भी होना अत्यंत आवश्यक है। क्या वर्तमान में ऐसा हो रहा है? दोनों ही बातें हमारी वास्तविकता व परसेप्शन न्याय से काफी दूर हो गई है, खासकर आम लोगों से तो न्याय बहुत ही दूर हो गया है। और हम अब भी ‘‘लकीर के फकीर‘‘ बने हुए हैं। प्रसिद्ध फिल्मी कलाकार, सेलिब्रिटी शाहरुख खान के ‘‘लख्ते जिगर शहजादे‘‘ आर्यन खान के साथ दो अन्य अभियुक्त को आज जमानत स्वीकृत होने पर यह प्रश्न कौंधना स्वाभाविक है।

पिछले 25 दिनों से जेल में बंद आर्यन को मुम्बई उच्च न्यायालय ने आज जमानत पर छोड़ने  के आदेश दिए । एक जमानतीय अपराध जैसा कि विस्तृत तर्क किया गया जिसमें जमानत देने के अधिकार कानूनी रूप से एनसीबी के जांच अधिकारियों के पास ही थे, लेकिन निचली अदालत से लेकर सत्र न्यायालय तक ने आर्यन के जमानत आवेदन को, तथ्यों को देखते हुये उसे जमानत योग्य न मानकर आवेदन अस्वीकार कर दिया था। अंततः मुम्बई उच्च न्यायालय ने देश के नामी गिरामी क्रिमिनल वकील सतीश मानशिंदे, अमित देसाई सहित वकीलों की फौज के साथ पूर्व अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी के 3 दिन लगातार बहस करने के बाद, आज जमानत आवेदन न्यायालय ने सुनवाई के दौरान ही अचानक स्वीकार कर ली। अचानक इसलिए कि तीन दिनों तक चली बहस में जब लगभग सायं 4.45 बजे अभियोजन के वकील की बहस समाप्त हुई, तब प्रत्युत्तर में डिफेंस वकील के तर्क पूर्ण होने के पूर्व ही माननीय न्यायाधिपति ने प्रकरण आदेश बंद कर फिर अचानक जमानत दिये जाने का निर्णय दिया। विस्तृत आदेश दूसरे दिन देने के बात कही। प्रश्न यह है, इस देश के कितने शहजादे, कितने नागरिक ऐसे ‘‘अंगूठी के नगीने‘‘ हैं, जो ऐसे जमानतीय अपराधों में जहाँ न तो ड्रग्स का सेवन पाया गया और न ही खरीदी और न ही पजेशन पाया (तथापि कंस्ट्रक्टिव पजेशन का आरोप अभियोजन द्वारा जरूर लगाया गया) वहाँ जमानत पाने के लिए मुकुल रोहतगी जैसे महंगे वकीलों की सेवा प्राप्त करने की क्षमता रखते हैं। अन्यथा सामान्य व वरिष्ठ वकील भी निचली दोनों अदालतों में जमानत पाने में असफल रहे। 

महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि प्रकरण में आरोपी जमानत पाने योग्य थे, तो लम्बी चौड़ी वकीलों की फौज की बहस की आवश्यकता क्या जरूरी थी। सामान्य रूप से अभी तक की प्रचलित प्रक्रिया में माननीय न्यायाधीश का कार्य केस डायरी को देखकर, दोनों पक्षों के तर्क सुनने के बाद आदेश पारित करना होता है। परन्तु यदि प्रकरण में केस डायरी के पढ़ने के बाद न्यायाधीश यह प्राथमिक निष्कर्ष पर पहुंच जाते हैं कि प्रकरण में जमानत दी अथवा नहीं दी जानी चाहिये! तब लम्बी चौड़ी बहस के बजाए क्या न्यायाधीश का यह दायित्व नहीं होना चाहिये कि वह जमानत देने या न देने के निर्णयक प्रांरभिक निष्कर्ष पर पहंुचने पर उनके दिमाग में उत्पन्न किन्ही शंकाओं, स्पष्टीकरण व ‘‘प्रश्नों’’ पर वे संबंधित वकीलों से सीधा उत्तर मांगकर महत्वपूर्ण न्यायिक समय की बचत नहीं की जा सकती है? ‘‘कुएं में बांस डालने की‘‘ क्या जरूरत? साथ ही यह पद्धति के विकसित होने पर न्यायालयों में बड़े बड़े वकीलों की सामान्यतया आवश्यकता भी नहीं पड़ेगी? इससे लोगों को सस्ता न्याय मिल सुलभ हो सकेगा।

एक जमानतीय अपराध में 25 दिन जेल में रहना अवैध रूप से अभियुक्त के स्वतंत्रता के अधिकार का हनन होना ही कहलायेगा। अवैध रूप से जेल में बंद किये गये व्यक्ति के ‘‘कांटों पर लेट कर गुजारे‘‘ दिनों को उच्चतम न्यायालय कैसे वापिस ला सकता है? ‘‘गतः कालो न आयाति‘‘ अर्थात ‘‘गया समय वापस नहीं आता‘‘। न्याय व्यवस्था पर यह प्रश्न बार-बार उठता है। क्योंकि जमानत एक अधिकार है, और रिफ्यूजल (अस्वीकार) अपवाद। यह न्याय सिद्धांत स्वयं उच्चतम न्यायालय ने कई बार प्रतिपादित किया है। यद्यपि उच्च न्यायालय में एएओं अनिल सिंह का कथन यह कि एनडीपीएस एक्ट के तहत जमानत कोई नियम नहीं है। बावजूद इसके 25 दिन की गैरकानूनी रूप से जेल में बंदी एक नागरिक के स्वतंत्रता के अधिकारों के हनन के लिए कोई व्यक्ति नहीं, हमारी न्यायिक व्यवस्था ही जिम्मेदार है। यह आपको मानना ही पड़ेगा कि ‘‘कानून जनता के लिये है, जनता कानून के लिये नहीं‘‘। इसलिए इस व्यवस्था पर आमूल-चूल परिवर्तन करने की आवश्यकता आ गई है। 

तुलसीदास जी ने कहा है- ‘‘कष्ट खलु पराश्रयः‘‘ अर्थात ‘‘पराधीन सपनेहुं सुख मांही‘‘ अतः उच्चतम न्यायालय एवं सरकार की ओर इस बात पर गंभीर रूप से विचार किए जाने की आवश्यकता है। जमानत की प्रक्रिया व आपराधिक जांच की प्रक्रिया व गिरफ्तारी के विषय में व्यापक परिवर्तन कर एक नई क्रांतिकारी व्यवस्था (मैकेनिज्म) डेवलप करने की न्याय के प्रति विश्वास बनाए रखने के लिए और एक नागरिक की संविधान द्वारा प्रदान की गई स्वतंत्रता अधिकार की वास्तविक सुरक्षा के लिए नितांत आवश्यक है। जमानत आदेश के बाद जेल से छूटने में 2 दिन लग जाने के कारण जेल मैन्युअल में सुधार की बात भी सामने आई है । प्रस्तावित सुधार के संबंध में एक सुझाव आगे दे रहा हूं।

-:सुझावः-

आपको याद होगा माननीय उच्चतम न्यायालय ने अपने एक लैंडमार्क निर्णय में एक नागरिक की गिरफ्तारी की दशा में पुलिस ज्यादती को रोकने के लिए जांच अधिकारी को क्या-क्या कार्रवाई व सावधानी बरतनी चाहिए, उस संबंध में व्यापक दिशानिर्देश दिए थे, जिसके देशव्यापी प्रचार प्रसार के समाचार पत्रों के माध्यम से करने के निर्देश भी साथ ही जारी किए गए थे। इस प्रकार यह एक अलिखित नियम उच्चतम न्यायालय द्वारा गिरफ्तारी के संबंध में बनाए गए। अपराध घटित होने पर एफ आई आर दर्ज होने के बाद एक आरोपी को गिरफ्तार कर मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश कर आगे जांच हेतु पुलिस या न्यायिक रिमांड मांगा जाता है, यह हमारी सामान्य न्यायिक प्रक्रिया है। वास्तव में मजिस्ट्रेट का यहां पर यह दायित्व होता है कि प्रस्तुत केस डायरी में उल्लेखित तथ्यों व साक्ष्यों के आधार पर अभियोगी को रिमांड पर दिया जाए अथवा नहीं। लेकिन वास्तविकता में यह एक अलिखित प्रक्रिया पद्धति सी बन चुकी है कि पुलिस द्वारा रिमांड मांगने पर मजिस्ट्रेट मेकेनिकल तरीके से प्रायः बिना माइंड को एप्लाई किये रिमांड दे देते हैं। यदि इस स्टेज पर मजिस्ट्रेट केस डायरी का गहन अध्ययन कर रिमांड आदेश पारित करें तो, मैं यह मानता हूं कि निश्चित रूप से 90प्रतिशत प्रकरणों में रिमांड की बजाए मजिस्ट्रेट को आरोपी को पुलिस कस्टडी से छोड़ने के आदेश देना पड़ेगा। बिना कस्टडी के अधिकांश मामलों में जांच की जा सकती है। और जहां आरोपी जांच में सहयोग नहीं कर रहा है, तब पुलिस उसे पुनः गिरफ्तार कर उस आधार पर मजिस्ट्रेट से रिमांड मांग सकती है। 

यही रवैया (एटीट्यूड) जमानतों के मामले में भी निचली अदालतों का होना चाहिए। लेकिन दुर्भाग्यवश वर्तमान में न्यायालय में ऐसा परसेप्शन पैदा हो गया है कि प्रायः निचली अदालतें जमानत देने में हिचक करती हैं और वे स्वयं कोई निर्णय का भागी न बनकर टालने की दृष्टि से जमानत आवेदन को अस्वीकार कर देती है। इस हिचक का एक कारण एक तरह का एक परसेप्शन का उत्पन्न होना भी है, जहां निचली अदातलों द्वारा जमानत देने पर उन पर अनावश्यक शंका की उंगली न्याय से जुड़े क्षेत्रों में उठ जाती है और तब उच्च न्यायालय भी संरक्षण प्रदान करने के बजाए शंका की आंतरिक जांच में लग जाता है। निचली अदालतों द्वारा अस्वीकार किये गये जमानतों के प्रकरणों में 95 प्रतिशत मामलों में उच्च न्यायालय में जमानत हो जाती है। तथापि इस प्रक्रिया में महीनों लग जाते हैं और एक नागरिक को न्यायिक प्रक्रिया के दोष के चलते स्वतंत्रता का अधिकार छीना जा कर उसे अवैध रूप से जेल में रहना होता है। जब केस डायरी में उपलब्ध तथ्यों व साक्ष्यों के आधार पर ही निर्णय होता है व उच्च न्यायालय जमानत दे सकती है, देती है, तब उन्हीं तथ्यों के आधार पर निचली अदालतें अर्थात मजिस्ट्रेट (सिवाय सुनवाई के क्षेत्राधिकार को छोड़कर) और सत्र न्यायाधीश जमानत क्यों नहीं दे सकते हैं और क्यों नहीं देते हैं, यह एक बड़ा भारी प्रश्न न्याय क्षेत्र में काम करने वाले न्यायविदो और कानून मंत्रालय के सामने होना चाहिए? क्योंकि यहां तक विद्ववता का प्रश्न है वकीलों से लेकर न्यायाधीशों तक की कमोवेश उन्नीस-बीस ही होता है। तथापि अनुभव के आधार पर उनकी विद्धवता में बढ़ोतरी अवश्य होती है। 

अतः उच्च न्यायालय को जमानत देते समय इस बात को भी देखना चाहिए कि निचली अदालतों ने जमानत क्यों नहीं दी थी। और यदि मजिस्टेªट/सत्र न्यायाधीश ने अपने कर्तव्यों व दायित्वों व विवेक का सही ढ़ग से न्यायिक उपयोग नहीं किया है, तो उनके खिलाफ कड़ी टिप्पणी की जाकर उनके सर्विस रिकार्ड में वह दर्ज होनी चाहिये। उच्च न्यायालय को यह भी सुनिश्चित (एनश्योर) करना चाहिए की निचली अदालतें जमानत देने के मामले में सिर्फ और सिर्फ अपने न्यायिक विवेकाधिकार का न्यायिक प्रयोग ही करें, बाहरी परिस्थितियों या परसेप्शन से बिल्कुल भी प्रभावित न हो। निश्चित रूप से आप मानिए, तब अधिकांश जमानती प्रकरण निचली अदालतों में ही निपट जाएंगे और उच्च न्यायालय का जमानती कार्य का बोझ  भी कम हो जाएगा तथा त्वरित न्याय भी मिल सकेगा।

मीडिया खासकर इलेक्ट्रानिक मीडिया की इस प्रकरण के प्रसारण में अपनाई गई भूमिका पर आपका ध्यान आकर्षित करना अत्यंत आवश्यक है, ताकि यह स्पष्ट हो सके कि अब हमारे देश में मीडिया चौथा स्तम्भ (खम्बा) न रहकर मात्र एक शोपीस होकर व कुछ मामलों में स्वार्थ युक्त निश्चित एजेंडा लेकर चला हुआ है। आर्यन खान ने क्या खाया-पिया। किस रंग की कौन सी गाड़ी में वह जेल से घर गया। जीपीएस द्वारा उनके रास्ते भर की लोकेशन की रनिंग कमेंट्री क्रिकेट समान दी गई। आर्यन के जेल में बीते दिनों (दिवसों) को घंटों और मिनटों में परिवर्तित कर हेड लाइन बनाई गई। गनीमत है, कितने सेकंड आर्यन ने जेल में गुजारे, उसकी गणना बख्श दी गईं। और भी न जाने क्या-क्या? यह हमारे राष्ट्रीय न्यूज चैनलों (कुछ एक को छोड़कर) की राष्ट्रीय न्यूज की हैडलाइन व ब्रेकिंग न्यूज की बानगी है। इन समाचारों की दिनभर कमेंट्री चलाकर मीडिया देश की खराब होती न्यायिक प्रणाली व व्यवस्था, नशाखोरी, ड्रग्स इत्यादि महत्वपूर्ण मुद्दों पर सुधार लाने की कवायद के चलते मीडिया इस तरह का प्रसारण कर देश के प्रति अपने दायित्व का बखूबी निर्वाह कर अपने को सबसे बड़ा देश प्रेमी सिद्ध कर रहा है? आखिर मीडिया को हो क्या गया है? कम से कम प्रस्तुत मामले में ही मीडिया को आर्यन के पिताजी शाहरुख खान से ही सीख और सबक ले लेते? आर्यन की गिरफ्तारी से लेकर जेल से छूट कर उसके घर आने तक शाहरुख खान ने इलेक्ट्रॉनिक, प्रिंट या सोशल मीडिया तक में एक शब्द भी इस मामले में किसी भी पक्ष के लिये पक्ष-विपक्ष में नहीं कहा। यह उनकी परिपक्वता व उनकी मामले की प्रति गंभीरता को ही दर्शाता है। उक्त मामले की रिपोर्टिंग करते समय यही गंभीरता की आवश्यकता मीडिया से भी अपेक्षित थी।

चूंकि मैं स्वयं वकील हूं; अनुभव के आधार पर जो कुछ न्यायालय में घटित होते हुए मैंने देखा है, समझा है, सुना है, उनके आधारों पर ही मैंने उक्त सुझाव दिए हैं। अतः न्याय हित में वर्तमान में चली आ रही न्याय देने की प्रणाली में आमूलचूल परिवर्तन करने ही होंगे। और इसके लिए बार काउंसिल, ऑफ इंडिया कानून मंत्रालय के साथ-साथ उच्चतम न्यायालय को स्वयं संज्ञान लेकर कुछ न कुछ कदम अवश्य उठाना ही होगा।

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