बुधवार, 15 सितंबर 2021

‘भाजपा ने गुजरात में भूपेंद्र पटेल को मुख्यमंत्री पद पर नियुक्त कर इतिहास रचा‘‘।

गुजरात के मुख्यमंत्री विजय रुपाणी का अचानक इस्तीफा जितना  आश्चर्यचकित लिया हुआ निर्णय रहा, उससे भी कहीं ज्यादा अचंभित करने वाला और बिल्कुल ही नाटकीय, अनेपक्षित,अप्रत्याशित निर्णय उनके उत्तराधिकारी के चुनाव के रूप में केन्द्रीय पर्यवेक्षक कृषि मन्त्री नरेंद्र सिंह तोमर द्वारा ‘‘दादा‘‘ (अपने लोगों के बीच में भूपेंद्र पटेल दादा नाम से ही लोकप्रिय है) भूपेंद्र पटेल की मुख्यमंत्री के रूप में नियुक्ति की घोषणा करने पर हुई। वैसे भाजपा इस तरह के निर्णय के लिए जानी जाती रही है। पूर्व में भी भाजपा हाईकमान ने मुख्यमंत्रियों के चुनाव में कुछ इसी तरह के चैकाने वाले निर्णय सफलतापूर्वक लिए हैं। 

वास्तव में भाजपा ने आगे आने वाले विधानसभाओं के चुनावों में सत्ता व्यवस्था विरोधी भावना (एंटी इनकंबेंसी) तथा महामारी कोविड-19 से लड़ने की अव्यवस्था से उत्पन्न असंतोष से लड़ने के लिए चुनाव पूर्व मुख्यमंत्रियों को बदलने की नई नीति को अपनाया है, जिसकी सफलता का आकलन तो आगामी आने वाले विधानसभा चुनावों के परिणाम पर निर्भर करेगा। वैसे तो इस नीति का आंशिक सफलतापूर्वक क्रियान्वयन असम चुनाव मे देखने को मिल चुका हैं। जहां हुये आम चुनाव में पदासीन मुख्यमन्त्री सर्वानंद सोनोवाल को मुख्यमन्त्री पद के उम्मीदवार के रूप में घोषित न कर नयें व्यक्ति के मुख्यमन्त्री पद पर आने के अवरोध को रणनीति के तहत हटाया गया। फिर विधानसभा चुनाव में जीत के बावजूद पदासीन मुख्यमन्त्री को जीत का सेहरा बांधने की बजाय एक दूसरे प्रभावशाली व्यक्ति हिमंता बिस्वा सरमा जो कि कुछ समय पूर्व ही कांग्रेस से भाजपा में आये थे, को मुख्यमन्त्री पद पर आरूढ किया। 2012 में उत्तराखण्ड में आम चुनाव के तुरन्त पूर्व, भूतपूर्व मुख्यमन्त्री मेजर जनरल भुवन चन्द्र खण्डूरी को पुनः मुख्यमन्त्री बनाया गया। विधानसभा के आम चुनाव के पूर्व इस तरह की मुख्यमंत्री बदलने की सोच या कवायद सिर्फ कम्युनिस्ट पार्टी में हो सकती है। कांग्रेस पार्टी सहित किसी भी पार्टी में इस तरह के साहसिक निर्णय की कल्पना ही नहीं की जा सकती है, कार्यरूप देना तो दूर की बात हैं। हां, कांग्रेस में ऐसा होना संभव है, तभी जब ऐसा व्यक्तित्व ‘‘गांधी‘‘ जैसी पारिवारिक पृष्ठभूमि लिए हुये हो। 

वैसे कुछ राजनीतिक टीकाकार और विपक्ष भाजपा के इस कदम को 2017 में आनंदीबाई पटेल को मुख्यमंत्री पद से हटाने के बाद पाटीदार समुदाय में उत्पन्न असंतोष को दूर करने की कवायद भी ठहरा रहा है। निश्चित रूप से इस कदम के द्वारा पटेल समुदाय के असंतोष को दूर करने का प्रयास अवश्य किया गया है। लेकिन यदि सिर्फ यही एकमात्र कारण होता, तो गुजरात जैसे महत्वपूर्ण प्रधानमन्त्री व गृहमन्त्री के गृह राज्य के मुख्यमन्त्री जैसे महत्वपूर्ण पद के लिए तब फिर राजनीति के नए-नए नवाचार भूपेंद्र पटेल की बजाए उपमुख्यमंत्री नितिन पटेल को बनाते, जो आनंदीबाई पटेल के बाद भी एक स्वाभाविक सशक्त दावेदार थे, और आज भी विजय रुपाणी के इस्तीफे के बाद सर्वाधिक सशक्त दावेदार राजनीतिक क्षेत्रों में न केवल माने जा रहे थे, बल्कि स्वयं नितिन पटेल ने भी अप्रत्यक्ष कथित रूप से मुख्यमंत्री बनने की अपनी इच्छा व्यक्त की थी, जो सामान्यतया भाजपा में नहीं की जाती है। बावजूद इसके नितिन पटेल को मुख्यमन्त्री बनाने से न तो यह चौकाने वाला निर्णय कहलाता या ठहराया जाता और न ही यह भाजपा की राजनीति की नई प्रयोगशाला का ‘‘प्रयोग‘‘ कहलाता, जो वर्तमान में भाजपा कर रही है और आगें करना चाहती है।  ‘नामी‘ व्यक्ति के ‘बदनाम‘ होने की संभावनाए के रहते "गुमनाम" भूपेन्द्र पटेल (जो नेता चुनने के लिये बुलाए गई विधायक दल की बैठक में सबके पीछें की लाईन में बैठे थें), को आगे लाने का एक कारण यह भी हो सकता हैं। वैसे "संघ दृष्टि" से लाइन के सबसे पीछे बैठा व्यक्ति को संख्या की गणना करने के कारण उसकी अहमियत सबसे सामने बैठे "अग्रेसर" के ठीक पीछे बैठें दूसरे नम्बर के व्यक्ति से ज्यादा होती हैं। (ऐसा ही गुजरात में भी घठित हुआ।) भाजपा हाईकमान का उक्त निर्णय इस बात को पुनः सत्यापित करता है कि सरकार और संगठन के किसी भी पद पर बैठा हुआ नेता सिर्फ एक ‘‘कार्यकर्ता‘‘ ही है जिस प्रकार ‘‘संघे शक्तिः कलौ युगे‘‘ के मार्ग पर चलने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का एक ‘‘स्वयंसेवक‘‘ होता है। 

देश के राजनीतिक इतिहास में यह शायद पहला अवसर है, जब एक ऐसे व्यक्ति को सीधे मुख्यमंत्री पद पर आसीन किया जा रहा है जो न तो पहले कभी मंत्री रहे हैं और जो मात्र 4 वर्ष पूर्व वर्ष 2017 में मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल के राज्यपाल पद पर नियुक्ति किए जाने के  कारण इस्तीफा देने से उत्पन्न रिक्त स्थान उपचुनाव में ऐतिहासिक (एक लाख सत्रह हजार से भी ज्यादा ) मतों से जीतकर पहली  बार विधायक बने। इससे भी बड़ा एक उदाहरण महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे का आपके सामने है, जो कभी विधायक  नहीं बने, बल्कि सीधे मुख्यमंत्री बने। परंतु दोनों में मूल-भूत अंतर यह है कि उद्धव ठाकरे हिंदू सम्राट शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे के राजनैतिक उत्तराधिकारी होने के नाते  शिवसेना पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष होने के कारण सिर्फ महाराष्ट्र में ही नहीं बल्कि देश में उनका एक स्थापित नाम और उनकी स्थापित पार्टी है। एक उदाहरण अन्ना आंदोलन से उत्पन्न पूर्व नौकरशाह अरविंद केजरीवाल का भी हैं। उन्होनें नवंबर 2012 में एक नई पार्टी ‘आप‘ बनाकर 2 साल के भीतर ही विधानसभा चुनाव जीतकर कांग्रेस के सहयोग से बनी सरकार के सीधे मुख्यमन्त्री बनें। वर्ष 1982 में प्रसिद्ध तेलुगू फिल्मी कलाकार पद्मश्री एन टी रामाराव ने भी सर्किट हाउस में हुए अपने अपमान से आहत होने पर एक नई पार्टी तेलगु देशम पार्टी का गठन कर 9 महीने के अन्दर ही विधानसभा के आम चुनाव में बहुमत प्राप्त कर सीधे मुख्यमन्त्री बनें। जबकि भूपेंद्र पटेल के साथ इस तरह की कोई पारिवारिक पृष्ठभूमि नहीं रही है और न ही ‘‘काम बोलता है‘‘ अथवा ऐसी अलंकृत राजनैतिक पहचान रही है। वे राजनीति में सिर्फ ‘‘कारपोरेशन‘‘ अहमदाबाद महानगर पालिका की स्टैंडिंग कमेटी के चेयरमैन तक ही सीमित रहे हैं। यद्यपि पूर्व में ऐसे कुछ उदाहरण अवश्य मिल सकते है, जो विधायक होने के बाद मंत्री बने बिना सीधे मुख्यमंत्री बन गए। जैसे मध्यप्रदेश में सुंदरलाल पटवा, शिवराज सिंह चौहान, हरियाणा में मनोहर लाल खट्टर ,बिहार में राबड़ी देवी, और अभी हाल में ही उत्तराखंड में नियुक्त किए गए पुष्कर सिंह धामी आदि।

एक और बात के लिए भाजपा हाईकमान को बधाई दी जानी चाहिए कि वे इस तरह के लिए गए अप्रत्याशित निर्णयों के फलस्वरुप परिवर्तन, राज्यों के शीर्षस्थ स्तर पर बहुत आसानी से कर लेते हैं। और पार्टी में किसी तरह का मुखर असंतोष, विरोध या विद्रोह नहीं हो पाता है, जैसा कि ऐसी स्थिति में अन्य किसी भी दूसरी पार्टी में हो तो, वहां विद्रोह पैदा हो जाता है। क्यों कि भाजपा का कार्यकर्ता ‘‘हाकिम की अगाड़ी और घोड़े की पिछाड़ी कभी नहीं चलता‘‘। जिन प्रदेशों में  कांग्रेस सत्ता में हैं, वहां किस तरह सिर फुटव्वल सड़क पर हाई कमांड के बार-बार समझौता करवाने के बावजूद ‘‘मैं भी रानी, तू भी रानी, कौन भरेगा पानी‘‘ की तर्ज पर चलती रहती है, यह सब देश देख रहा हैं। अतः देश की अन्य समस्त पार्टियों को भाजपा की इस ‘‘कला‘‘ को सीखने की आवश्यकता अपनी अपनी पार्टी के हितों को ध्यान में रखते हुए जरूरी है। आम चुनाव के पूर्व मुख्यमंत्री बदलने की परिवर्तन की इस नीति को भाजपा द्वारा अपना कर  चुनाव के पूर्व अभी तक चार-चार मुख्यमंत्री बदले गए, जिनसे अन्य पार्टियों को उक्त सबक मिलता है और उन्हे यह सीख लेनी  भी चाहिए। 

अब परिवर्तन की बयार का अगला नंबर निश्चित रूप से ‘‘माल कैसा भी हो, हांक ऊंची लगाने वाले‘‘ शिवराज सिंह चौहान पर आकर टिक जाता है। उत्तर प्रदेश के चुनाव के बाद मध्यप्रदेश में आम चुनाव के पूर्व नेतृत्व परिवर्तन होना अवश्यंभावी सा दिखता है। एक तो भाजपा अभी तक आम चुनाव में जाने के पूर्व मुख्यमंत्री बदलने की नई नीति अपना रही है, जिसके परिणाम स्वरूप बदलाव होना लाजिमी ही है। दूसरे शिवराज सिंह को वैसे भी 15 वर्ष से अधिक मुख्यमंत्री पद पर आसीन हुए हो चुके हैं। वर्तमान राजनीति के "मूड" को देखते हुए व भाजपा की "राजनीतिक उम्र सीमा" के बंधन की अपनाई गई नीति को देखते हुए, शिवराज सिंह का जाना ब्रेकिंग न्यूज नहीं होगी, बल्कि जब तक वे पद पर बने हुए है वह एक आश्चर्यजनक बात व ब्रेकिंग न्यूज अवश्य बनी रहेगीं। ‘‘आखिर काठ की हांडी को कितनी बार चूल्हे पर चढ़ायेगी‘‘ पार्टी? वैसे, मध्यप्रदेश में भी, ‘असम‘ जैसा सफल प्रयोग दोहराया जा सकता हैं। अंत में राजनीति का एक सर्वमान्य सिद्धांत हमेशा से यह रहा है कि वह हमेशा अनिश्चितताओ से भरी रहती है। भाजपा के इस कदम ने राजनीति को पहचान देने वाले इस चरित्र की पुनः पुष्टि ही की है।

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