शनिवार, 24 अक्तूबर 2020

प्रधानमंत्री का संबोधन! कार्य रूप में कितना ‘‘परिणित‘‘!


कोरोना (कोविड-19) के संबंध में प्रधानमंत्री का राष्ट्र के नाम संबोधन कॉफी आवश्यक व अपेक्षित भी था। यद्यपि प्रधानमंत्री प्रारंभ से ही इस मामले में स्वयं तो काफी गंभीर, चिंतित व आवश्यक कदम उठाने में सक्रिय रहे हैं। परन्तु बात घूम फिर कर वहीं आ जाती है कि, उनके संबोधन के उपदेशों और निर्देशों का क्रियान्वयन से ‘‘लगाव‘‘ या ‘‘दूरी‘‘  उनके सहयोगी और अनुयायियों से लेकर आम जनता के बीच में कितनी है? सबसे बडा प्रश्न यही हैं। और प्रधानमंत्री जी ने इस अंतर को समाप्त करने के लिए ‘‘भावुक अपील‘‘ के अलावा कौन से कड़े कदम उठाने के संकेत दिये हैं? जिसका नितांत अभाव दिखाई देता है। कोरोना पर यदि वास्तव में प्रभावी व जल्द नियंत्रण पाना है तो, आज की परिस्थितियों में कोई नया कदम उठाने का नहीं, बल्कि उठाये गये कदमों को दृढ इच्छाशक्ति के साथ पूर्ण रूप से धरातल पर उतारने की आवश्यकता है, जिसकी कमी अभी भी परिदर्शित हो रही है।

प्रधानमंत्री जी ने नागरिकों को संबोधित करते हुए एक महत्वपूर्ण संदेश दिया,‘‘जब तक दवाई नहीं तब तक ढिलाई नहीं‘‘। लेकिन यह उक्ति तभी सार्थक हो सकती है, जब सरकार स्वयं भी ‘ढिलाई‘ न बरते। अर्थात प्रधानमंत्री उक्त संदेश को स्वयं के मंत्रिमंडलीय सहयोगी, पार्टी के वरिष्ठ नेतागण, मुख्य मंत्रीगण व उनके मंत्रिमंडलीय साथियों पर प्रभावी व सार्थक रूप में लागू करेंगे, तभी उनके संदेश का असर अन्य दूसरे व्यक्तियों व आम जनता पर प्रभावी रूप से पड़ेगा। क्योंकि आम नागरिक तो हमेंशा ही दिशा निर्देशों के लिए अपने नेतृत्व की ओर टकटकी निगाहों से देखता रहता है। परन्तु जब नेतृत्व उन निर्देशों का पालन स्वयं ही नहीं कर रहा हों, जिसका पालन करने का निर्देश वे अपने अनुयायियों को देते हैं, तब वे अनुयायी उनका कितना पालन करेंगे, यह स्पष्ट रूप से समझ में आता हैं। 

‘सावधानी हटी दुर्घटना घटी‘ ‘उक्ति‘ हम प्रायः ट्रकों के पीछे लिखी हुई देखते हैं, जो वर्तमान ‘‘कोरोना‘‘ के संदर्भ में सटीक बैठती है। और प्रधानमंत्री जी का अपने संबोधन में ‘‘ढिलाई‘‘ से आशय भी इसी सावधानी के हटने से है। पर आप देख रहे हैं कि भाजपा के केन्द्रीय मंत्रीगण, मुख्यमंत्री गण व उनके सहयोगी मंत्री, पार्टी के वरिष्ठ नेता गण सहित अनेक राजनैतिक पार्टियों के नेतागण, मंत्रीगण कोरोना काल में कोविड-19 से पीड़ित होते जा रहे है। यद्यपि प्रधानमंत्री ने स्वयं कोरोना के संदर्भ में बरती जाने वाली सावधानियों के समस्त मापदंडों का पूर्ण पालन किया है। परन्तु पार्टी के नेतागण व अधिकांश अनुयायी पालन नहीं कर रहे हैं, तो फिर आम जनता के लिए उक्त संदेश कैसे प्रभावशाली होकर कार्य रूप में परिणित हो सकता है? क्योकि यह तो मानना ही होगा कि आवश्यक सावधानियों के संबंध में दिये गये निर्देशों का अनुपालन न करने के कारण ही ये सब ‘‘माननीय‘‘ कोविड 19 से संक्रमित हुए हैं। इन सब संक्रमित ‘‘मान्यवरों‘‘ के विरूद्व महामारी या आपदा प्रबंध अधिनियम के अन्तर्गत ‘‘प्राथमिकी‘‘ दर्ज क्यों नहीं की गयी? क्या राजनेताओं का यह कहना तो हैं नही कि षड़यन्त्र के तहत उनके विरोधी जबरदस्ती "आवश्यक दूरी" को खत्म कर "बल पूर्वक" सम्पर्क कर उन्हे संक्रमित कर रहे हैं? यदि ऐसा है तब ऐसे महानुभावों के विरूद्व प्राथमिकी दर्ज क्यों नही की जाती हैं? क्या कानून का उल्लंघन आम नागरिकों व महामहिमों में कोई अन्तर करता है? क्योंकि देश में लाखों व्यक्तियों के विरूद्व उपरोक्त अधिनियम के अंतर्गत जुर्माना लगाया गया हैं व कुछ के विरूद्व प्राथमिकी भी दर्ज की गई हैं।

आपदा प्रबंधन अधिनियम 2005 और महामारी रोग अधिनियम 1897 सहपठित धारा 188 भादंवि संशोधित 2020, के अंतर्गत जारी किये गये समस्त आदेश, निर्देश, एसओपी, सावधानियों, चेतावनियों इत्यादि का पालन, शासन और प्रशासन ‘‘ढिलाई‘‘ से नहीं, बल्कि पूरी कानूनी शक्ति और दृढ इच्छा शक्ति के साथ न केवल ‘‘ढीठ जनता‘‘ पर लागू करे, बल्कि स्वयं के अर्थात शासन प्रशासन के स्तर पर भी उसको पूर्ण रूप से लागू करवाये। तभी प्रधानमंत्री का नागरिकों को दिया गया उक्त संदेश सार्थक व उपयोगी सिद्ध होगा जो राष्ट्रहित, समाज हित, पारिवारिक हित एवं स्वयं नागरिक के हित में है। 

वर्तमान में हम देख रहे हैं कि कोरोना से संबंधित सावधानियों के बाबत समस्त निर्देशों का खुल्लम खुल्ला उल्लंघन सभी स्तरों पर हो रहा है। अर्थात कानून लागू करने वाली शक्तियां शासन और प्रशासन तथा जिन पर कानून लागू किया जा रहा है, अर्थात आम नागरिक गण। इसलिए तो यहां यही कहावत चरितार्थ होती है कि ‘‘इस हमाम में सब नंगे हैं‘‘। ऐसी दशा में समस्त स्तरों पर हो रही ढिलाई को रोकेगा कौन? एक तरफ सरकार ने  ‘‘कोरोना‘‘ के कारण अत्यंत सावधानी बरतने के चलते महामारी व आपदा प्रबंधन कानून के अंतर्गत आम नागरिक की व्यक्तिगत, सामाजिक, धार्मिक और व्यवसायिक गतिविधियों को अत्यंत सीमित कर दिया है। जिसे जनता जनार्दन ने चाहे-अनचाहे, कम-ज्यादा स्वीकार कर लिया है, जैसे धार्मिक स्थलों, शादी-ब्याह, अन्य सामूहिक कार्यक्रम, बाजार, माॅल, सार्वजनिक स्थान, परिवहन इत्यादि पर आंशिक प्रतिबंध, वर्क टू होम का प्रावधान आदि। बावजूद इसके, आम नागरिक वे सब आवश्यक सावधानियां नहीं बरत रहे है, जिसके लिए उक्त (जिन्हे मजबूरी में स्वीकारा, लेकिन कमरतोड़) प्रतिबन्ध लगाये गये हैं। सरकार तथा न्यायालयों का भी सावधानियां बरतने और प्रतिबंध लगाने के संबंध में दृष्टिकोण कितना अतार्किक व अव्यवहारिक है? जिसे किसी भी रूप में उचित और सही नहीं ठहराया जा सकता है। 

चुनावी सभाओं, राजनीतिक रैलियों व राजनैतिक गतिविधियों में संख्या पर (पूर्ववर्ती लागू सीमा के अलावा) कोई प्रतिबंध नहीं।लेकिन धार्मिक, सार्वजनिक स्थलों में जाने में संख्या का प्रतिबंध जरूर है। इससे भी बड़ा सवाल यह उत्पन्न हो रहा है कि बिहार विधानसभा के आम चुनाव के साथ देश में हो रहे उप चुनावों में कोरोना के लिए बरती जाने वाली आवश्यक सावधानियों का पूरी उद्दंडता और बेशर्मी के साथ मंच पर बैठें उन व्यक्तियों के सामने, जिनका कर्तव्य व जवाबदेही ही इन नियमों का पालन करवाने की है, तथा प्रशासनिक अधिकारी गण जो चुनावी सभाओं का प्रबंधन देख रहे हैं, के समक्ष खुलेआम मखौल, और धज्जियां उड़ायी जा रही हैं। ‘‘जब सैंया भये कोतवाल तो डर काहे का"',यह कहावत पूरी तरह से यह चरितार्थ होती दिख रही है। सरकार की ‘आंख में उंगली डाल कर दिखाने‘ के बाद भी उसे यह सब क्यों दिखायी नहीं दे रही है?एक भी प्राथमिकी किसी के द्वारा और किसी के विरुद्ध दर्ज नहीं की गयी है। इन सबके सहित मीडिया के ठीक सामने भी कोरोना के समस्त "प्रोटोकॉल" की धज्जियां उड़ रही हैं। मीडिया ने भी यहां कर आगे आकर जनहित के अपने इस दायित्व को पूरा नहीं किया, जिसका वह चिल्ला चिल्ला कर दावा करता रहता है। परंतु प्रधानमंत्री जी का ध्यान इन कमिंयों की ओर नहीं गया, यह दुर्भाग्यपूर्ण है। इससे भी ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि चुनाव आयोग आज नागरिकों को अपने पूर्व में जारी दिशा निर्देशों का स्मरण करा कर, उससे पुनः अवगत करा कर, पालन करने का अनुरोध तो कर रहा है, परन्तु स्वयं उल्लघंन का संज्ञान लेकर अपने निर्देशों के पालनार्थ कोई कार्यवाही नहीं कर रहा है। चुनाव आयोग की इस असहाय स्थिति देख कर आज पूर्व चुनाव आयुक्त स्वर्गीय टी एन शेषन की याद तरोताजा हो जाती है।

इसका मतलब साफ है कि यदि कोराना से आम आदमी को बचना है तो, वह ‘जांच‘ कराने के बजाय अपने मोहल्ले में सुबह से शाम तक प्रतिदिन भीड़ भरी चुनावी सभाएं कराता जाये और वह ठीक उसी प्रकार से कोरोना से बच जायेगा, जिस प्रकार से बिहार में नेताओं की चुनावी सभाओं में सम्मिलित होकर लोग कोरोना वायरस से बच रहे हैं? क्योंकि सरकार की यह सोच तो है नहीं कि ऐसी मीटिंगों से लोग कोरोना वायरस से संक्रमित होंगे? और यदि ऐसा नहीं है तो, फिर अपने सामने होने वाले उल्लंघनों के विरुद्ध महामारी अधिनियम के अन्तर्गत कार्यवाही क्यों नहीं की जा रही है? 

‘‘न्यायिक सक्रियता‘‘ के बाद आज की स्थितियों में "न्यायालय" भी कई बार परिस्थितियों व घटनाओं का "जनहित" में स्वतः संज्ञान लेकर  संबंधित पक्षों को नोटिस देकर कार्यवाही प्रारंभ कर देते हैं, जिसका भी अभाव बिहार की चुनावी सभाओं में उमड़ती भीड़  के संबंध में न्यायालय की तरफ से दिखायी दे रहा है। जबकि न्यायालय अभी भी दुर्गा उत्सव के कार्यक्रम में 45-60 व्यक्तियों की अधिकतम सीमा तय करने या पंडाल के ‘‘नो एन्ट्री जोन‘‘ (जिसमें बाद में संशोधन किया गया) तक ही "सीमित" है। आश्चर्य तो इस बात का हैं कि मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री कोरोना के कारण लगी चुनावी सीमा पर रोक हटाने के लिए उच्चतम न्यायालय तक चले जाते हैं। लेकिन इस कारण  जीवन की निर्बाध गति पर लगी अवरोधो को हटाने के लिए न तो वे न्यायालय जाते है न ही स्वयं अवरोध हटाने का प्रयास करते हैं। मतलब साफ है, इस देश में ‘‘नीति‘‘ पर ‘‘राजनीति‘‘ तो प्रारम्भ से ही भारी है, लेकिन यह ‘‘राजनीति‘‘ "कोविड" पर भारी होकर यह कोविड को ही ‘डरा‘ देगी? बिहार के चुनाव में यह सिद्व हैं।

अतः स्पष्ट है कई मामलों में हमारे प्रधानमंत्री ने पूर्व में  सफलता पूर्वक कठोर और ठोस  निर्णय लेकर ‘‘राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय‘‘ स्तर पर अपने दृढ़ नेतृत्व की धाक जमाई है। इसके बावजूद कोविड-19 के संबंध में उनके निर्णय या तो सही नहीं रहे या सही समय पर नही लिये गये, या लिये ही नहीं गये। और जो कुछ निर्णय भी लिये गये तो  आम आदमी की मानसिकता को देखते हुये उन्हें लागू करने की आवश्यक दृढ इच्छा शक्ति का बुरी तरह से अभाव दिख रहा है। हम सिर्फ आंकड़ों के मायाजाल के माध्यम से देश में कोरोना काल से निबटने में तथाकथित सफलता को दर्शाने के लिए कभी जनसंख्या की तुलना में  संक्रमितो की कुल संख्या, संक्रमित होने की दर में सुधार होने के, कभी मृत्यु दर में सुधार होने के या कभी टेस्टिंग के बढ़ते आंकड़ों को लेकर विश्व के अन्य देशों की तुलना में घुमा फिरा कर सुविधानुसार जनता के बीच प्रस्तुत कर यह सिद्ध  करने में सफल रहे हैं, कि हमारा देश विश्व में तुलनात्मक रूप से कोविड-19 से काफी कम प्रभावित रहा है और हमारे देश में कोरोना से निबटने के लिए और इसकी रोकथाम के लिये तुलनात्मक रूप से बेहतर कदम उठाये गये हैं। निश्चित रूप से आंकडों के माया जाल की अपनी "अनुकूल प्रस्तुतियों" में हम विश्व में सर्वश्रेष्ठ हो सकते हैं, इसमें शायद कोई शक न हो। लेकिन यह ‘‘रोग‘‘ का सही उपचार व निदान नहीं है। 

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