मंगलवार, 29 सितंबर 2020

‘‘गिरता चरित्र‘‘ क्या हमें ‘‘चरित्रवान‘‘ बनने का संदेश देगा?

        
‘‘कोविड-19’’ सेे कमोबेश पूरा विश्व  संक्रमित है; कहीं हम से कम, तो कहीं ज्यादा। परन्तु हमारे देश में शासन व प्रशासन के विभिन्न अंगों के साथ लगभग संपूर्ण तंत्र ‘‘कोरोना काल’’ में जिस तरह से कार्य कर रहे हैं, वह स्थिति निश्चित रूप से शोचनीय, चिंताजनक और एक सीमा तक निंदा जनक भी है। ‘‘राम मंदिर निर्माण’’ के रास्ते चलकर ‘‘रामराज्य’’ लाने की कोशिश करने वाली एकमात्र पार्टी, वर्तमान सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा को आखिर हो क्या गया है? क्या इसे हम मात्र कोविड-19 का अस्थाई प्रभाव कह कर टाल सकते हैं? अथवा समस्त क्षेत्रों के ‘तंत्र’ में हो रही गिरावट को रोकने के बजाय भाजपा सिर्फ राजनीति के चलते कहीं उसमें सहायक तो सिद्ध नहीं हो रही है?
जब मैं भाजपा को जिम्मेदार ठहराता हूं, तो कुछ लोग मुझसे कहते है कि आप कई बार अपनी पृष्ठभूमि के विपरीत चले जाते हैं। तब मैं यही कहता हूं कि मैं किसी के खिलाफ नहीं जाता हूं; अपनी नीर क्षीर विवेक से सिर्फ उपलब्ध तथ्यों का ही विश्लेषण करने का प्रयास मात्र करता हूं। चूंकि जब कभी तथ्य आपके विपरीत होते है, तब शायद आपको ऐसा लगता होगा। परन्तु आपकी बात तब ही सही हो सकती है, जब मैं गलत तथ्यों को अथवा तथ्यों को गलत रूप से प्रस्तुत कर विश्लेषण करू। वैसे एक बात और! उक्त आरोप में ही उत्तर भी निहित है। अर्थात मैं भाजपा की बात इसलिए करता हूं कि, वर्तमान में कांग्रेस अप्रासंगिक व अप्रभावी होती जा रही है। अतः किसी भी क्षेत्र में देश की स्थिति को सुधारने के लिये कांग्रेस की चर्चा करना मात्र समय की बर्बादी ही है। यद्यपि भाजपा के पास विराट व्यक्तित्व वाले नेतृत्व के साथ-साथ विशाल बहुमत भी है, परंतु दुर्भाग्यवश प्रखर प्रभावी सोच रखने वाला विपक्ष वर्तमान में लगभग नगण्य सा हो गया है। जबकि कांग्रेस के स्वर्णकाल अर्थात वर्ष 1952 से लेकर ऐतिहासिक अभूतपूर्व बहुमत (वर्ष 1984) के समय तक, विपक्ष नगण्य होने के बावजूद गंभीर विषयों पर सार्थक व बुलंद आवाज करने वाले समस्त क्षेत्रों के जानकार विपक्षी थे। इसलिये  आम नागरिकों की आकाक्षांओं एवं आशाओं की पूर्ति का केंद्र भाजपा उपरोक्त सुविधाजनक स्थिति मैं होने के बावजूद जब कोई आवश्यक जनहितकारी कदम नहीं उठा पाती है, तब उसे सचेत करना ही मात्र एक विकल्प रह जाता है। आइए! विषय पर आते है और आगे देखते हैं, आखिर हो क्या रहा है। 
देश की समस्त समस्याओं को सुशांत और सुशांत से संबंधित ‘रिया’ फिर ‘कंगना’ ‘दीपिका पादुकोण’ आगे शायद ‘करण जौहर’ और अब फिल्म उद्योग के ड्रग्स रैकेट तक सीमित कर भाजपा इसे क्या अपनी सफलता मान कर खुशफहमी पाले हुये है? या वास्तव में यह उसकी असफलता है? आखिर ‘‘सुशांत‘‘ को ‘‘शांत‘‘ क्यों नहीं होने दिया जा रहा है? शायद जब तक, महाराष्ट्र सरकार से लेकर बिहार सरकार का भाग्य ‘तय’ नहीं हो जाता? जबकि बेहद दुखद अवस्था में सुशांत ‘‘स्वर्गवासी‘‘ होकर स्वयं तो ‘‘शांत‘‘ हो गए (या कर दिये गये?) लेकिन वे जाते जाते ‘‘वर्तमान‘‘ को अशांत कर गए।
सुशांत प्रकरण में एक और अदभुत बात हुई है।कभी आपने सुना है,  पोस्टमार्टम या विसरा की  जांच रिपोर्ट देने के पूर्व  डॉक्टर्स और जांच एजेंसियों के बीच चर्चाओं का दौर होकर सहमति बनाने का प्रयास किया जाता है? जो सुशांत प्रकरण में एम्स के डॉक्टर्स व सीबीआई के बीच "विसरा" की जांच को लेकर की गई। फिलहाल सुशांत की आत्महत्या से लेकर हत्या तक की जांच का मामला एक तरफ रह  गया है, यानि कि ‘‘आये थे हरि भजन को, ओटन लगे कपास’’। जैसा कि स्वयं सुशांत के वकील ने सीबीआई पर आरोप भी लगाया है। सुशांत का खुद ड्रग्स का नशा करना और उसके फार्म हाउस में नशे (ड्रग्स) लेने से लेकर सप्लाई तक के मामले में एनसीबी की जांच में फिल्म उद्योग के बहुत से कलाकार एक-एक कर "रडार" पर आ रहे है, जिसने समाज के एक वर्ग में ‘‘तूफान‘‘ सा पैदा कर दिया है। फिल्मी कलाकार, लेखक, आलोचक और टीवी बहसों में बैठने वाले रजिस्टर्ड वक्ता, प्रवक्ता गण अब देश को यह समझाने में लगे हैं कि, सुशांत प्रकरण के कारण फिल्म उद्योग का यह एक घिनौना चेहरा आम लोगों के बीच सामने आया है। ‘‘दीपिका पादुकोण’’ जैसी प्रसिद्ध ग्लैमरस अभिनेत्री जिसे देश के लाखों युवा वर्ग अनुसरण करते हैं, के ड्रग्स स्कैंडल में नाम आ जाने से युवा वर्ग पर पर इसका कितना बुरा प्रभाव पड़ेगा, इससे चिंतित वक्ता, प्रवक्तागण मीडिया के प्लेटफार्म का उपयोग करके हमें उक्त आदर्श की बात समझाने का प्रयास कर रहे है।
आखिर आज हम कौन से समय में या किस युग में आ गए है? जिस सुशांत पर स्वयं ही उनसे जुडे़ हुये कुछ लोगो द्वारा ड्रग्स संबंधित आरोप लगाए जा रहे हो, जिसके फार्म हाउस में ड्रग्स की पार्टियां होती रही हो, और जो दो महिलाओं के साथ ‘लिव इन रिलेशन’ में रहता रहा हो, तब ऐसे ‘‘चरित्र‘‘ को मीडिया व बिहार की राजनीति का ‘‘आइकॉन‘‘ बना कर समाज को "चरित्र का आईना" दिखाने का प्रयास, क्या यह एक मजाक नहीं है, तो क्या है? दीपिका पादुकोण के तथाकथित कृत्य के कारण युवा वर्ग पर पड़ने वाले  बुरे प्रभाव को लेकर आलोचना करने वाले  क्यों यह भूल जाते हैं कि फिल्म उद्योग सिर्फ ड्रग्स सेवन का ही नहीं, बल्कि अश्लीलता, कास्टिींग काउचिंग, "भाई" व गैंगेस्टर से संबंध, पक्षपात, परिवारवाद आदि अनेक बुराइयों से भरा पड़ा हुआ है। और यह आज से नहीं है, काफी पहले से ही है। क्या इतने सालों से इन तथाकथित समाज सुधारकों की आंखों पर पर्दा पड़ा हुआ था? तब इन्होनें ड्रग्स सेवन व अन्य बुराइयों के विरुद्ध आवाज क्यों नहीं उठाई? (तब बिहार चुनाव नहीं थे? और जब बिहार चुनाव थे, तब सुशांत जैसे प्रकरण नहीं थे?) क्या ‘‘लिव इन रिलेशन शिप‘‘ फिल्म उद्योग के कलाकारों या हमारे जीवन की नैतिकता को ऊंचा उठाती है? क्यों नहीं तथाकथित समाज सुधारक उक्त नैतिकता‘‘ को ऊंचा उठाने के लिए उन्हे ‘‘मेडल‘‘ प्रदान कर देते? क्योंकि आजकल खासकर फिल्म उद्योग मे तो हर चीज ‘‘प्रायोजित’’ ही तो होती है। 
धर्मेंद्र-हेमा मालिनी के बाबत किसी महिला या पुरुष कलाकार या बुद्धिजीव वर्ग व तथाकथित समाज सुधारको ने कभी आवाज नहीं उठाई? एक पत्नी के होते हुए बगैर विवाह-विच्छेद (तलाक) किये दूसरी शादी करना न केवल नैतिक मूल्यों की गिरावट है, बल्कि कानून का उल्लंघन होकर धारा 494 के अंतर्गत ‘‘द्विविवाह’’ का एक अपराध भी है। धर्मेंद्र ने पहली पत्नी के रहते हुए बगैर तलाक लिए दूसरी शादी ‘‘ड्रीम गर्ल‘‘ हेमा मालिनी से की थी। धर्मेंद्र की पहली पत्नी के द्वारा शिकायत न करने के कारण वे अपराधिक अभियोजन से बच गए थे। देश के ये दोनों कलाकार अत्यंत लोकप्रिय होने के कारण इतने बड़े आइकॉन बन गए कि देश की जनता ने उन दोनों महान कलाकारों को देश की उस संसद में भेजा जहां कानून का निर्माण होता है। व्यभिचार (एडल्ट्री) जो धारा 497 के अंतर्गत एक घृणित सेक्स अपराध था,को उच्चतम न्यायालय ने अपने एक निर्णय द्वारा अवैध घोषित कर दिया था।वही संसद जिसने शाहबानो मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा घोषित निर्णय को संविधान संशोधन विधेयक पारित कर "शून्य" कर दिया था। लेकिन उक्त अवैध घोषित धारा 497 को समाज सुधार व भारतीय संस्कृति को बनाएं रखने के लिए शाहबानो प्रकरण के समान  पुनर्स्थापित नहीं किया।
फिल्मी कलाकारों के बीच जो नशे का सेवन हो रहा है, क्या वास्तव में देश, समाज और स्वयं व्यक्ति के लिए इतना नुकसानदायक है कि उसको खत्म करने का बीड़ा मीडिया और उसके पीछे खड़ी सरकार ने उठा लिया है? मीडिया के पीछे सरकार की बात इसलिए कहीं जा रही है, क्योंकि अधिकतर मीडिया हाउसेस में अंबानी के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष हस्तक्षेप का ज्ञान मीडिया के लोगो को है। और ‘‘अंबानी‘‘ को कौन चला रहा है, यह देश जानता है। इसीलिए मीडिया के बीच के ही कुछ लोग ‘‘गोदी मीडिया‘‘ कहने में परहेज नहीं करते हैं। इस प्रकार ड्रग रैकेट के विरुद्ध कार्रवाई कर ‘‘रामराज्य की स्थापना‘‘ की ओर एक कदम और बढ़ाने का दावा जरूर किया जा सकता है? परंतु ड्रग्स सेवन के विरुद्ध आवाज कितनी खोखली है, इसका अंदाजा आपको आगे लग जाएगा। 
नशा सिर्फ क्या ड्रग्स का ही होता है? भांग, गांजा, चरस, हैरोइन, स्मैक, ब्राउन शुगर, अफीम, हशीश, चिलम, सिगरेट, सिगार, हुक्का, शराब, पान, तंबाकू, बीड़ी, आदि न जाने कितनी चीजें लोग नशे के रूप में लेते हैं। सिर्फ फिल्म उद्योग के लोगों की ही ड्रग्स के नशे की बात क्यों की जा रही हैं? क्रिकेट, राजनीति, उच्च (एलीट) वर्ग (स्टेट्स के लिये) और न जाने कितने क्षेत्रों में यह रोग फैला हुआ है। जिस प्रकार मानसिक तनाव को दूर करने के लिये कुछ फिल्मी कलाकार ड्रग्स का सेवन कर रहे है। उसी प्रकार क्रिकेटर्स भी अच्छे परिणाम के लिये प्रतिबंधित दवाइयों का उपयोग करते है। क्या यह सब नशीली चीजें स्वास्थ्य के लिए हानिकारक नहीं है? लेकिन ऐसा लगता है कि इनमें से कई नशीले पदार्थ सरकार के लिए राजस्व का एक बड़ा साधन है। पैकिंग पर ‘‘स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है‘‘ लिखा हुआ एक रैपर चिपका दीजिए और फिर खूब ‘‘पीजिए’’ ‘‘धुआ छोडिये’’,‘‘गहरी सासें’’ लीजिये! और कहिये ‘‘दम मारो दम’’। आप ‘‘पीकर खुश‘‘ हैं क्योंकि आप ‘गम’ को पी रहे है और सरकार बिना पिए ही खुश है, क्योंकि सरकार को खजाने में भारी भक्कम पैसा मिलने से वह गमगीन नहीं है। और हम सबने यह देखा ही है ‘‘न बीबी न बच्चा’’, ‘‘न बाप बड़ा न मैया’’ ‘‘होल थिंग इज़ दैट कि भैया’’ ‘‘सबसे बड़ा रुपैया‘‘। 
सरकार का नशे के मामले में दो तरफा रवैया क्यों है ?एक तरफ कुछ नशीले द्रव्यों को कुछ वैधानिक चेतावनी के साथ विक्रय एवं उपयोग करने की अनुमति देती है, तो दूसरी ओर कुछ नशीली चीजों के विक्रय व उसके उपभोग पर प्रतिबंध लगाकर उसे एक अपराध घोषित करती है। इसी को कहते है ‘‘गुड़ खाए" और गुलगुलों" से परहेज़ करें’’। आखिर "नशा तो नशा" ही है। लगभग प्रत्येक नशा स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। हम देखते हैं, प्रत्येक वर्ष सिगरेट, तंबाकू से कैंसर व अन्य बीमारियां उत्पन्न होकर हजारों व्यक्ति मृत्यु के ग्रास बन जाते हैं। यदि कुछ दृव्यों को छोड़ दिया जाए तो, अधिकतर नशीली पदार्था के उपभोग से उपभोक्ताओं की आर्थिक बर्बादी ही होती है। और इस बर्बादी की ही कीमत पर सरकार अपनी जेब भरती है। यह कौन सा सामाजिक न्याय है? क्योंकि अंततः सरकार को भी तो नागरिकों के प्रति अपने जिम्मेदार होने का एहसास दिखाने के चलते इन व्यक्तियों के स्वास्थ्य और आर्थिक स्थिति पर करोडों रुपए आगे पीछे खर्च करने ही होते हैं। "आपदा को अवसर" में बदलने का एक मौका सरकार को "सुशांत" ने दे दिया है। उठाइये कदम और "अवसर" में बदलकर अपने कथन को तार्किक व वास्तविक तथ्यात्मक बल प्रदान कीजिये।

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