शनिवार, 26 सितंबर 2020

‘कोरोनाः ‘गैर जिम्मेदारों का ‘‘बेताज बादशाह’’। द्वितीय भाग

 क्रमशः गतांग से आगे : द्वितीय भाग 

‘‘शासन’’ ‘‘प्रशासन’’ ‘‘स्वास्थ्य योद्धा’’ "मीडिया" एंव "नागरिकगण" कटघरे में?  

अब ‘तंत्र’ के द्वारा शासित व्यक्तियों अर्थात नागरिकों की बात कर लें। वैसे तो अभी तक कोविड-19 की कोई दवाई नहीं बन पाई है। सभी परीक्षण चरण (स्तर) पर हैं। उपरोक्त वर्णित तीनों सावधानियां ही इसकी एहतियाति दवाइयां हैं ,जो रोग को आने से रोक तो सकती हैं। परन्तु रोग हो आने पर उसका इलाज नहीं कर सकती हैं। ये सावधानियां लगभग निशुल्क ही है। मास्क व सैनिटाइजेशन पर सामान्यतया 100 रू. महीने से ज्यादा का खर्चा नहीं है। अर्थात ‘‘न हींग लगे न फिटकरी, रंग चोखा आये’’। इसके बावजूद कोरोना वायरस के इस तेजी से बढ़ते संक्रमण का मुख्य वास्तविक कारण तंत्र का शासक पक्ष नहीं बल्कि तंत्र द्वारा शासित हम आम नागरिक गण ही है। हम स्वस्थ बने रहने के लिए उक्त नगन्य खर्चीली सावधानियों को नहीं बरत पा रहे हैं। तो उसके लिए जिम्मेदार कौन? वैसे पढ़ने, लिखने, सुनने में उक्त  सावधानियां बरतना जितनी आसान दिखाई पड़ती है, कार्य रूप में परिणित करने पर उतनी है, नहीं! उसका कारण हमारे जीवन में मात्र अनुशासन की कमी का होना ही है। हर समय हमें उपरोक्त सावधानियां बरतने का ध्यान नहीं रह पाता है और कहीं न कहीं ‘जाने अनजाने’, ‘चाहे अनचाहे’ हमसे लापरवाही हो ही जाती हैं। चूंकि देश में इस समय हर जगह ‘‘रैकेट‘‘ (ड्रग्स) की ही चर्चा हो रही है, तब ‘‘कोरोना रैकेट’’ पर चर्चा क्यों न कर ली जाए। आखिर कोरोना रैकेट है क्या? आपको यह जानकर सुनकर आश्चर्य नहीं होता है कि जैसे ही किसी व्यक्ति की कोरोना रिपोर्ट पॉजिटिव  आती है, उसकी हैसियत (स्टे्टस) स्वास्थ्य कर्मियों के बीच अचानक बढ़ जाती है? और तेजी से बढ़ते कोरोना संक्रमण की संख्या के समान उसके इलाज का खर्च बढ़कर प्रतिदिन का सामान्यतया चालीस पचास हजार से लेकर एक डेढ़ लाख रूपये तक पहुंच जाता है। वह भी तब, जबकि कोरोना की अभी तक कोई गोली, इंजेक्शन या वैक्सीन नहीं है, जिस पर कोई पैसा खर्च हो। यही कोरोना रैकेट है। सामान्य सर्दी, जुकाम, खांसी होने पर डॉक्टरों के पास जांच करवाने जाने पर वे आपको भर्ती कर कोरोना टेस्ट करवाते हैं। और आमतौर पर कोरोना की रिपोर्ट पॉजिटिव ही आती है। चार-पांच दिन के बाद आपको अस्पताल से छुट्टी भी दे दी जाती है। और आपको घर में ही ‘क्वारन्टाइन’ होने के लिए कहा जाता है। वैसे तो डॉक्टरों के पास आजकल कोविड-19 के मरीजों को छोड़कर अन्य बीमारियों के मरीजों को देखने का समय ही नहीं है। फिर भी यदि आप अन्य बीमारियों के चलते अस्पताल में भर्ती हैं और यदि आपकी कोरोना रिपोर्ट पॉजिटिव आती है, तो तुरंत आपको दूसरे कमरे में शिफ्ट कर दिया जाता है और आपके समस्त चार्जेस दो तीन गुना बढ़ा दिए जाते हैं। अभी तो हालत यह है कि कई अस्पतालों में दो-दो लाख रूपये लेकर अग्रिम बुकिंग कराई जा रही है। उक्त स्वास्थ्य इलाज की बातें जो  उल्लेखित की हैं, वह विभिन्न लोगों से हुई चर्चा पर आधारित हैं।  

 ‘कोरोना’ के लिये जो विभिन्न किट्स का उपयोग कर टेस्टिंग की जा रही है, (रैपिड टेस्ट, रियल टाइम पीसीआर टेस्ट, ट्रूनैट टेस्ट और सीबीएनएएटी टेस्ट, ऐंटीबॉडी टेस्ट, ऐंटीजेन टेस्ट) उन पर भी सरकार एवं भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद एकमत और दृढ़ नहीं है। जनवरी 20 में सिर्फ एक प्रयोगशाला थी, मार्च में  संख्या बढ़कर 121 हुई और अब 1,223 हो गई है। इस प्रकार प्रकार प्रयोगशाला की संख्या में बढ़ोतरी अदभुत है। टेस्टिंग प्रारंभ में मात्र कुछ सैकड़े प्रतिदिन की हो रही थी, उसमें भी लगातार तेजी से वृद्धि होकर आज प्रतिदिन 7-8 लाख के आसपास की हो रही है, जो भी एक बड़ी उपलब्धि है। इसी प्रकार सरकार ने टेस्टिंग किट का उत्पादन भी  उल्लेखनीय रूप से बढ़ाया है। इस प्रकार इन सब 'आवश्यक' वृद्धि के लिए सरकार बधाई की पात्र है। इस प्रकार उपरोक्त उल्लेखित सावधानियां  जो कि अपने आप में अपूर्ण है की तुलना में डाक्टरों के द्वारा उपयोग की जाने वाली पीपीई किट ही 100 प्रतिशत सुरक्षित सावधानी है, तब हम उसके उत्पादन की बात क्यों नहीं करते? "आवश्यकता ही आविष्कार की जननी है"। इस कोरोना काल में भी हमारे देश ने यही सिद्ध किया हैं। आवश्यकतानुसार  कोरोना टेस्टिंग किट व मास्क उत्पादन की संख्या में कई गुना वृद्धि की गई है। क्या हमारे वैज्ञानिक अनुसंधान कर सामान्यजन के उपयोग हेतु सस्ती व अधिक समय तक उपयोग की जाने वाली पीपीई किट का निर्माण नहीं कर सकते है?क्योंकि यह किट लम्बे समय तक नहीं पहनी जा सकती है। इसलिए उन नागरिकों का यह दायित्व हैै कि भीड़ भाड़ वाले इलाके में जहाँ जाना अतिआवश्यक हो, वहीं पर ही ‘किट’ पहन कर इसका उपयोग करें। जिस प्रकार कपडों के शोरूमों में कपड़े बदलने वाले 'चेजिंग रूम' होते है, ठीक उसी प्रकार भीड़ भीड़ वाली जगहों पर 'किट' पहनने के लिए भी चेजिंग रूम बनाये जाने चाहिए। ताकि लम्बे समय तक किट पहनने की जरूरत नहीं रहेंगी। ठीक इसी प्रकार वाहनों में भी ग्लास के स्लाइडिंग पार्टीशन लगाये जाने से 'सुरक्षित' रूप से अधिक संख्या में व्यक्ति बैठ सकते है। इन सब बातों पर भी सरकार को अवश्य ध्यान देना चाहिए, ताकि लोग कोरोना के साथ बैगर किसी भय के जीवन जीने की आदत ड़ाल सकें। वह इस कारण भी कि एक बार संक्रमित होने के बाद संक्रमित हुआ व्यक्ति पुनः संक्रमित नहीं हो सकता है , इसकी गांरटी फिलहाल कोई नहीं दे रहा हैं। बल्कि इसके 'विपरीत आशंका' व्यक्त की जा रही है। एक बात और! संक्रमित व्यक्ति की पहचान बताने या न बताने के संबंध में भी सरकार दुविधां में है, जिसे तुरंत समाप्त किया जाना चाहिए। रेप पीड़िता समान  विक्टिम  की तरह  कोरोना  संक्रमित  व्यक्ति की पहचान को सार्वजनिक न करने का कोई औचित्य नहीं है। संक्रमित की पहचान आवश्यक रूप से बतलाई जानी चाहिये, ताकि अन्य जानकर व पड़ोसी सावधानी बरत सकें।                                                                                                                              'वायरस संक्रमित कोरोना काल' की कितनी "हितकर" "अहितकर" उपलब्धियां है? जिसके लिए यह बीमारी हमेशा याद की जायेगी। आइये उसकी भी चर्चा कर लें। प्रथम हमारी भारतीय हिन्दू संस्कृति में इंसान की मृत्यु होने के बाद 13 दिन का शोक और एकांतवास रखा जाता है और पूर्ण शुद्धि के बाद ही सामान्य जीवन दिनचर्या पुनः प्रारंभ होती है। ठीक उसी प्रकार कोरोना ने 14 दिन के लिए व्यक्ति को जीते जी वनवास, अवसाद और एकांतवास में ड़ाल दिया है। दूसरी हमारी संस्कृति में मानवीय संवेदनाओं के चलते घर के सदस्य, दोस्त, अड़ोसी-पड़ोसी या अन्य कोई भी परिचित के देहवसान पर हमें स्वाभाविक दुख होता है। सब व्यक्ति मिलकर अपनी संस्कृति के अनुसार अंतिम क्रिया कर्म कर दुख के वजन को कुछ कम करने का प्रयास करते है। अंततः समय ही सबसे बड़ी दवा होती है, जो इन घावो को भरती है। परंतु कोरोना काल की एक उपलब्धि यह भी है,और उसमें शासन की नीति का ज्यादा योगदान है कि, कोरोना से मृत्यु हो जाने के बाद आपको अपनी पुरानी प्रचलित संस्कृति के अनुसार न तो मृतक के अंतिम दर्शन हो पा रहे है, और न ही उसका अंतिम संस्कार कर पा रहे हैं। 13 दिनों की अंतिम यात्रा की धार्मिक प्रक्रिया हमारे हिन्दू धर्म शास्त्रों में बतलाई गयी है, लेकिन कोरोना के लिये वर्णित सावधानियों के पालनार्थ "उन क्रियाओं" पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया है। सावधानियां और ड़र के बीच एक ‘‘लक्ष्मण रेखा’’ निश्चित रूप से है। लेकिन सरकार, खासकर मीडिया इस 'अंतर' की बारीकी को समझने व समझाने के बजाय 'ड़र का खौंफ' पैदा कर रही है। इसी कारण से आम नागरिकों का बीमारी से लड़ने का 'अस्त्र' स्वालंबन, आत्मबल व आत्मविश्वास खत्म होते जा रहा है। जबकि इस बीमारी से लड़ने के लिये इन अस्त्रों की ही सबसे ज्यादा आवश्यकता है। इस बीमारी के साथ रहते हुये हम जीवन को ठीक उसी प्रकार ‘जी’ सकते है, जिस प्रकार  सड़क रेल हवाई  यात्रा दुर्घटना में मृत्यु दर लगभग 7.30 प्रतिशत (कोरोना की 1.9 प्रतिशत मृत्यु दर जो दुनिया में सबसे कम है की तुलना में) होने के बावजूद बिना ड़र के ट्रेन, बस और हवाई जहाज, जहां पर हम स्वयं चालक सीट पर नहीं बैठे होते है, तब भी यात्रा कर सामान्य जीवन जी रहे है। पूर्व में ‘सार्स’(एक्यूट रेस्पयरेटरी सिंड्रोम) बीमारी से 10 प्रतिशत, स्वाईन फ्लू से 4.5 प्रतिशत व ‘इबोला’ में इससे भी अधिक मृत्यु दर हमने देखी हैैैं। लेकिन तत्समय ऐसा ड़र न दिखाई नहीं दिया न महसूस किया गया। तीसरी सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि कोरोना की, यह है कि, यदि उक्त सावधानियां को पूर्ण रूप से पालन करके कोरोना से बचना है तो, निश्चित रूप से पूर्ण आत्म अनुशसित जीवन जीना ही होगा। तभी हम उक्त सावधानियां का पूर्ण रूप से पालन कर पायेगें और अपनी जीवन की रक्षा कर पायेगें। इस प्रकार कोरोना निश्चित रूप से एक नागरिक को मृत्यु के भय के कारण अनुशासित अवश्य ही बनायेगां। जब लॉकडाउन भी पूर्ण सफल सही विकल्प नहीं है जैसा कि नेशनल टास्क फोर्स के सदस्य रेड्डी ने माना है। तब सरकार देश की समस्त गतिविधियों को सामान्य रखकर देश के जिम्मेदार नागरिकों को जिम्मेदार होने का एहसास देने का मौका क्यों नहीं देना चाहती हैं? ताकि देश की प्रगति तो इस कारण से न रूक पाए। इस सबके बावजूद यदि नागरिकगण सावधानी नहीं बरतते है तो, उनको आत्महत्या धारा 309, आत्महत्या के लिये उत्प्रेरित करना धारा 306 और गैर इरादतन हत्या धारा 304 का दोषी तथा महामारी अधिनियम के उल्लघंन का दोषी मानकर भारतीय दंड सहिंता की धारा 188 में उनके विरूद्ध कड़ी कार्यवाही की जानी चाहिए। एक नागरिक के इस अपराधिक कृत्य के लिए 'सरकार' कैसे 'जिम्मेदार' ठहराई जा सकती है? इसलिए सरकार अनिश्चिताओं के आवरण से बाहर निकले और 'कोरोना' को अन्य बीमारियों के समान जीवन की 'आवश्यक बुराई' मानते हुए स्वयं पूर्ण सावधानी के साथ कार्य करें और जनता को भी करने की प्रेरणा दें। साथ ही स्वास्थ्य योद्धाओं का स्वागत व सम्मान करते हुये उनके ही बीच में मौजूद स्वास्थ्य सेवा में चल रहे रैकेट को समाप्त करने के लिए वर्तमान कानूनों में कड़े प्रावधान लाकर स्वास्थ्य सेवाओं पर कड़ी निगरानी रखें। चर्चा और सहमति बनाकर हर खर्चों की उचित "न्यूनतम" एमआरपी (अधिकतम खुदरा मूल्य) तय कर उसका "सार्वजनिक प्रदर्शन" अनिवार्य कर उसकी उचित कड़ी निगरानी करके उसको 'धरातल' तक लागू भी करवाएं। तभी हम इस मानव निर्मित कोरोना वायरस को यथासंभव एवं अधिकतम सफलतापूर्वक सामना कर पाएंगे। इस प्रकार प्रत्येक नागरिक 'सावधानियों' के साथ लेकिन बिना ड़र के जिंदगी "जी" सकेगा, जो उसका अधिकार एवं कर्तव्य दोनों है। "जितना ज्यादा आत्म  अनुशासित जीवन, उतनी ही ज्यादा सावधानियों का पालन और और उतना ही भय मुक्त जीवन"! कोरोना से निपटने की यही एक "संजीवनी बूटी" है। अंत में इस लेख का समापन इस निष्कर्ष के साथ  किया जा सकता है कि "कोरोना ने संवैधानिक तंत्र लोकतंत्र के शासक व शासित  (नागरिक गण) दोनों पक्षों को असफल और गैर जिम्मेदार सिद्ध कर दिया है"।

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