सोमवार, 6 जुलाई 2020

क्या कांग्रेस ‘‘(राज)’’ ‘‘नीति’’ ‘‘(राज)’’ की ‘‘वापसी’’ तो नहीं हो रही है?


रेलवे बोर्ड़ के चेयरमैन ने अप्रैल 2023 तक 'पीपीपी मोड़' द्वारा 109 जोड़ी प्राइवेट ट्रेन के संचालन के निर्णय की जानकारी दी है। साथ ही यह भी कहा गया कि ‘‘मेक इन इंडिया’’ के तहत इससे लगभग 30,000 हजार करोड़ रूपये का निवेश भी मिलेगा। यद्यपि इसके साथ ही यह भी दावा किया गया है कि, रेलवे का "निजीकरण" नहीं किया जा रहा है। मात्र 5 प्रतिशत ट्रेन ही निजी संचालन द्वारा चलेगीं। लेकिन रेलवे को निजीकरण के रास्ते में ले जाने के लिए, क्या यह एक बड़ा कदम नहीं है? क्या इससे कोई इंकार कर सकता है? इसके पूर्व देश की पहली निजी रेल 26 अगस्त 2019 को ‘‘तेजस एक्सप्रेस’’ नई दिल्ली से लखनऊ मार्ग पर चली। इसके पूर्व वर्ष 2016 में ट्रेनों में विज्ञापनों के लिये निजी क्षेत्र को खोलकर प्रथम बार रेलवे के निजीकरण का संकेत दिया जा चुका है।  
लेख आगे बढ़ाने के पूर्व, मैं आपको 29 वर्ष पीछे ले जाना चाहता हूं। वर्ष 1991 में जिनेवा में "गैट" (व्यापार एवं तटकर संबंधी सामान्य समझौता) जिसके डाइरेक्टर जनरल ‘‘आर्थर डंकल’’ के नाम से एक प्रारूप (मसौदा) सहमति के लिए प्रस्तुत किया गया था। जो  "विश्व व्यापार संगठन"(डब्ल्यूटीओ) का आधार बना ।उसका अघोषित उद्देश्य तीसरी दुनिया के गरीब मुल्कों को आर्थिक नव उपनिवेशवादी गुलामी में जकड़ना था। ‘‘डंकन प्रस्ताव’’ की कुछ महत्वपूर्ण शर्ते भारत देश के हितों के विरूद्ध होने के कारण, भाजपा ने उस पर दस्तखत न करने के लिए तत्समय कांग्रेस सरकार पर दवाब बनाने के लिये, जोर शोर से पूरे देश में तीव्र आंदोलन चलाया था। तब यह कहा गया था कि, इस ‘‘डंकन प्रस्ताव’’ पर यदि भारत ने हस्ताक्षर कर दिये तो, हमारा देश ईस्ट इंडिया कंपनी के सामान पुनः गुलाम हो जायेगा व हम अपनी ‘‘आर्थिक सम्प्रभुता’’ खो देगें। ‘‘गैट’’ के माध्यम से ‘डंकन प्रस्ताव’ लागू होने पर ‘‘पेंटेट कानून’’ (बौद्धिक सम्पदा अधिनियम) जो किसानों के हितो की रक्षा करता है सहित, विदेशी पूंजी निवेश, उद्योग, खेती, बैंकिग, बीमा, आयात-निर्यात, स्वास्थ्य शिक्षा, हस्तशिल्प उद्योग इत्यादि क्षेत्रों में देश के हितों पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। अंततः डंकन प्रस्ताव पर कांग्रेस सरकार ने 15 दिसम्बर 1994 को दस्तखत कर दिये। इस प्रकार भारत सहित कुल 117 देश इसके सदस्य बनें। परन्तु वर्ष 1994 से लेकर आज तक 'डंकन'  के कारण भारत कितनी ‘‘गुलामी’’ में पंहुचा,भाजपा बतलाने को तैयार नहीं है? न ही अटल जी की सरकार,और न हीं मोदी सरकार ने उक्त डंकन अनुबंध से वापस हटने की कभी कोई चर्चा आज तक नहीं की! क्यों? आश्चर्यजनक रूप से भाजपा ने देश की आर्थिक दुर्दशा व बदहाली के लिए  डंकन अनुबंध को कभी भी आज तक जिम्मेदार नहीं ठहराया। क्यों?
याद कीजिए! जब देश में प्रथम बार वर्ष 1991 में नरसिम्हाराव व तत्पश्चात मनमोहन सिंह की सरकार के कार्यकाल में एफडीआई (विदेशी प्रत्यक्ष निवेश) द्वारा आर्थिक सुधारों की बुनियाद रखी गई थी। तब भी भाजपा ने 'पानी पी-पी कर कोस कर' यह कहकर कि देश की अर्थव्यवस्था विदेशी कंपनियों की गुलाम हो जायेगी, कितना विरोध किया था, सब जग जाहिर है। यह कहा था कि, सरकार सरकारी उपक्रमों को निजी हाथों में सौपकर बेचकर, अपने निजी दोस्तों को उपकृत कर रही है। यद्यपि तब तो एफडीआई की अधिकतम सीमा 50 प्रतिशत रखी गई थी। लेकिन आज क्या हो रहा है? आज निवेश की अधिकतम सीमा के प्रतिबंध के बिना ही देश में एफडीआई के माध्यम से तेजी से निवेश लाया जा रहा है। मनमोहन सिंह की सरकार ने  टेलीफोन विभाग, विद्युत मंडल (राज्यों में) जो पूर्णतः सरकारी विभाग थे, को तोड़कर कई निगमों में कंपनी बनाकर परिवर्तित कर दिया था। इसी तरह ‘‘मनरेगा," "आधार" व ‘‘जीएसटी’’ कांग्रेस सरकार लायी थी। लेकिन उक्त हर नीति का तत्समय भाजपा ने पुरजोर विरोध किया था और एक "जिम्मेदार जागृत विपक्ष" के रूप में या तो उसे लागू ही होने नहीं दिया या उसे उसी रूप में पूरी तरह से लागू नहीं होने दिया। "शाइनिंग इंडिया" का नारा देकर भाजपा अब क्या कर रही है?.... और क्यों?   
‘‘जीएसटी’’ की बात ही कर लीजिए! तत्समय भाजपा के विभिन्न प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों (वर्त्तमान प्रधानमंत्री जो तत्समय मुख्यमंत्री थे सहित) ने विरोध किया था और आज उसे पूरे सिद्दत के साथ लागू किया गया। यद्यपि 'एक देश एक दर' की जो मूल अवधारणा थी, वह व्यवहार में नहीं उतर पाई। कांग्रेस ने जब वर्ष 2005 में ‘‘मनरेगा’’ (राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गांरटी योजना) को लागू किया था, तब भी भाजपा ने विरोध किया था। बल्कि वर्ष 2015 में तो प्रधानमंत्री की हैसियत से नरेन्द्र मोदी ने 27 फरवरी को लोकसभा में ‘‘मनरेगा’’ को कांग्रेस की 'विफलताओं' का जीता जागता "स्मारक" बतलाकर मजाक उड़ा कर उसे कभी बंद न करने की बात की थी। लेकिन उसी 'मनरेगा' का बजट हर साल बढ़ाया जा रहा है। बल्कि कोराना काल में तो इसे गरीबों की आवश्यकताओं की पूर्ति का सफलतापूर्वक साधन बनाया गया है। आधार कार्ड़ को भी लागू करते समय भाजपा ने उसका स्वागत तो नहीं किया था? लेकिन बाद में एक कदम आगे बढ़ाकर कानून पारित करवाकर 12 जुलाई 2016 को उसे एक कानूनी आधार दिया। आज वह समस्त सूचनाओं का आधार केन्द्र बना हुआ है। वर्ष 2012 में कांग्रेस के मन में एयर इंडिया के निजिकरण के आये विचार को भाजपा के ‘‘क्रोध’’ ने उसे मन में ही "दफन" कर दिया गया था। 
‘‘एडॉप्ट ए हेरिटेज‘’ स्कीम के तहत ऐतिहासिक लाल किला को सरकार ने डालमिया ग्रुप को 25 करोड़ में सँवारने के लिए सौंप दिया है। यह ‘‘सँवारना’’ कितना अस्थाई या स्थाई होगा, भविष्य ही बतलायेगा। इस योजना के तहत ताजमहल के भी गोद लेने की प्रक्रिया पूरी की जा रही है। इसी प्रकार पोस्ट आफिस, टेलीफोन और विद्युत पावर प्लांट, सीईएल (सेंट्रल इलेक्ट्रॉनिक्स लिमिटेड), बीपीसीएल, एयर इंडिया, कोयला खदान और न जाने ऐसी कितने सरकारी संस्थाएँ,व उत्पादन इकाइयां है,जो हमारे देश के सामान्य व्यक्तियों के जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति उनकी क्रय क्षमता के अनुसार कर रही हैं। उनका भी निजीकरण किया जा रहा या उस ओर सोचा जा रहा है। इस प्रकार नरसिम्हाराव व मनमोहन सिंह की आर्थिक उदारीकरण की नीति पर ‘‘भाजपा का पूर्ण ठप्पा’’ लगाया जा कर उसे "वैध" किया जा रहा है। भाजपा (संघ) ने एक समय सरकारी विभागों के निजीकरण के खिलाफ देश में वैचारिक क्रांति लाने की दृष्टि से स्वदेशी जागरण मंच की स्थापना की थी। यद्यपि मंच द्वारा निजीकरण का लगातार विरोध किया गया,जो विरोध आज भी जारी है। लेकिन वह अब 'बेबस' ही रह गया है।
इससे यह स्पष्ट है कि, आज देश में वही सब नीतियों को आगे बढ़ाया जा रहा है, जिनका प्रार्दुभाव कांग्रेस की विभिन्न सरकारों ने किया था। तब भाजपा ने उठकर राष्ट्रहित में उन नीतियों का खुलकर विरोध किया था। जो ‘‘भाजपा’’ के रूप में ‘‘कांग्रेस की नीतियों की वापसी’’ आज बुलंदियों से दिख रही है, यह कहना कतई गलत नहीं होगा। मतलब एक समय कांग्रेस सरकार में इंदिरा गांधी ने निजीकरण (निजी क्षेत्र) का जो राष्ट्रीयकरण किया था, चाहे वह बैंक का मामला हो फारेस्ट प्रोड्यूस (जंगल उत्पाद लकड़ी, गोंद, चिरोंजी इत्यादि) के मामले हो या अन्य कोई, जैसा कि वर्ष 1971 में ‘‘गरीबी हटाओं’’ नारे का सूत्रापात कर उस दौर में किया गया था। चूंकि भाजपा अपने को कांग्रेस से अलग दिखाना चाहती है, (जैसे कि वह "शैशव काल" में दिखती थी) इसीलिए उसने नारा दिया था ‘‘पार्टी विथ डिफर्रेस’’ ‘‘सबको परखा हमको परखों’’। इस बात को सिद्ध करने के प्रयास में, भाजपा अवश्य यह दावा कर सकती है कि, कांग्रेस की उक्त राष्ट्रीयकरण की नीति के विपरीत आज वह निजीकरण की नीति अपना रही है और इस प्रकार वह कांग्रेस की नीति का अनुपालन नहीं कर रही है? लेकिन एक कदम जम्मू कश्मीर से संबंधित अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी करने के बाद निसंदेह वह  कांग्रेस से अलग अपनी प्रथक पहचान बनाए रखने का दावा जरूर कर सकती है।
वास्तव में ऐसा लग रहा है, यूपीए 1 व 2 के बाद, एनडीए 1 आया तो, जरूर कुछ परिर्वतन लगा। लेकिन जिस प्रकार यूपीए 2 भटक गया, उसी प्रकार एनडीए 2 कही अब ‘‘यूपीए 3’’ तो नहीं बन रहा है, यह चिंता का विषय है। इसीलिए स्वदेशी जागरण मंच को इस संबंध में साहस व मजबूती के साथ आगे आगकर विरोध करना चाहिए। लोकतंत्र में भारत जैसे देश में  नागरिकों के परस्पर जीवन स्तर में ‘‘असमानता’’ का अंतर बहुत बड़ा है। इसलिये सरकार को अपनी 65-70 प्रतिशत उक्त गरीब जनता को बिना मुनाफा की दृष्टिकोण के उनके हितार्थ विभिन्न योजनाएं चालू रखनी पड़ती है। क्या देश का निजी क्षेत्र इतना, उदारवादी, देश प्रेमी है, जो घाटे की स्थिति में भी जरूरत मंद उक्त 65-70 प्रतिशत जनता को उनकी क्रय क्षमता के अनुरूप उन्हे आवश्यक जीवन प्रणाली उपलब्ध करा सकेंगा? 
अंत में‘निजीकरण’ के संबंध में अपने  मध्य प्रदेश का भी एक उदाहरण आपके सामने रखना चाहता हूं। मध्य प्रदेश में बस के निजीकरण से उत्पन हुई बस चालन की स्थिति से आप भलि भांति वाकिफ है। आज एक महीने से ज्यादा समय बीत जाने के बावजूब भी निजी क्षेत्र का संगठन इतना बलवान व मजबूत है कि उनकी शर्ते पूरी नहीं होने के कारण वे बस का पुनर्चलन प्रारंभ नहीं कर रहे है। यदि बस का राष्ट्रीयकरण भाजपा सरकार (बाबुलाल गौर मुख्यमंत्री) के समय नहीं किया गया होता, तो मध्य प्रदेश राज्य परिवहन निगम अस्तित्व में रहता और आज यह दुर्दशा की स्थिति निर्मित नहीं हो पाती। 
एक चीज और जोड़ना चाहता हूं,, भाजपा के ‘‘कांग्रेसीकरण’’ होने के बाबत। मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व में चौथी बार मंत्रिमंडल के गठन में भी वही कांग्रेसी नीति अपनाई गई है, जिससे ‘‘नई पैंकिग’’ (भाजपा) में ‘‘पुरानी वस्तु’’ (कांग्रेस) आ गई है। मध्य प्रदेश का इतिहास गवाह है। वर्ष 1967 में श्रीमंत श्रीमती विजय राजे सिंधिया ने कांग्रेस को तोड़कर संयुक्त विधायक दल का निर्माण कर गोविंद नारायण सिंह  के नेतृत्व में ‘संविद’ सरकार का निर्माण किया गया था। जिसमें मेरे पूज्य पिता जी स्वर्गीय जीडी खंडेलवाल"जनसंघ" कोटे से मंत्री बनाए थे ।(तब जनसंघ की सरकार नहीं कही गई थी) आज सरकार  ‘‘संविद’’ के दूसरे प्रारूप में है। जहां कांग्रेसीयों व भाजपाइयों के दिल तो मिले नहीं, लेकिन विवेक व बुद्धि को सत्ता का फेवीकाल लगाकर एक ऐसा मजबूत जोड़ बनाया गया है, जो सत्ता की उष्ण की गर्माहट के बढ़ने की स्थिति में ही सहन न कर पाने के कारण ‘‘फेवीकाल’’ के पिघलने पर टूट सकती है। अन्यथा भाजपा का कांग्रेसीकरण चलता रहेगा। भाजपा की कांग्रेस मुक्त भारत की कल्पना व आशा के दौर में, उसकी वर्त्तमान कार्यपद्धति से तो यही मतलब निकलता है कि, कांग्रेसीयों से भले ही भारत मुक्त हो जाए, लेकिन कांग्रेस (एक विचार धारा) समाप्त न होकर भाजपा में लीन (विलय) होती जायेगी। तब इस विलय से भाजपा  स्वयं को बड़ा प्रथक अस्तित्व दिखाने की बजाए, भाजपा (विचार धारा के कारण) ‘कांग्रेस’ के रूप में दिखेगी। अर्थात हमें मूल भाजपा के ‘‘दर्शन’’ (दर्शन शास्त्र सहित) नहीं हो पायेगे? यह एक बहुत बड़ा चिंता का विषय वर्त्तमान भाजपा कार्यप्रणाली के देखते हुये, भविष्य का हो सकता है?

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