शुक्रवार, 24 जुलाई 2020

कहीं माननीय न्यायाधीपति ने गलती तो नहीं कर दी?

उच्चतम न्यायालय की तीन जजों की खंडपीठ ने राजस्थान हाईकोर्ट के ‘निर्देश’ के विरूद्ध स्पीकर द्वारा उच्चतम न्यायलय में दायर याचिका पर सुनवाई करते हुये हाईकोर्ट के उस निर्देश पर रोक लगाने से इंकार कर दिया, जिसमें स्पीकर को 18 बागी विधायकों के खिलाफ कार्यवाही करने से रोक दिया गया था। उक्त सुनवाई के दौरान जस्टिस अरूण मिश्रा ने एक बहुत ही अहम बात कही कि ‘‘असहमति की आवाज को लोकतंत्र में दबाया नहीं जा सकता है‘‘ ‘‘ऐसे तो लोकतंत्र ही खत्म हो जायेगा।’’ न्यायालय का कार्य निश्चित रूप से कानून व उसमें निहित वास्तविक भावनाओं की मर्यादाओं की रक्षा करना है। लेकिन जब तब कभी किसी व्यक्ति या संस्था द्वारा दुराशय के अभिप्राय से अपने अधिकार क्षेत्र व अधिकारों का दुरूपयोग कर कानून में सेंध लगाने का प्रयास किया जाता रहा है। तभी न्यायालय हस्तक्षेप कर मार्गदर्शन करता है। शायद इसी दृष्टिकोण से मानननीय न्यायाधीश ने उक्त बहुत ही गंभीर, लेकिन महत्वपूर्ण टिप्पणी की है। जो भविष्य के लिये देश की नजीर/कानून बन जाती है, क्योंकि यह देश की सर्वोच्च न्यायिक संस्था, उच्चतम न्यायलय द्वारा की गई टिप्पणी है। 
लेकिन यदि हम यहाँ इसके दूसरे पहलू (पक्ष) को भी देखे तो, जरूर यह महसूस होता है कि, शायद माननीय न्यायाधीश अरूण मिश्रा का ध्यान उस दिशा की ओर नहीं जा पाया, जिसकी ओर मैं आपका ध्यान अवश्य आर्कषित करना चाहता हूं। याद कीजिये! सर्वप्रथम 18 विधायकों के तथाकथित पार्टी विरोधी कार्य करने के कारण अयोग्य ठहराने हेतु कांग्रेस विधायक दल के मुख्य सचेतक द्वारा स्पीकर के समक्ष एक याचिका दायर की गई थी। उक्त याचिका पर स्पीकर ने कारण बताओं सूचना पत्र जारी कर याचिका में दिये गये तथ्यों के संबंध में जानकारी देने हेतु 18 विधायकों से सिर्फ जवाब माँगा गया था। जवाब आने के पूर्व तक, स्पीकर की मानसिकता (माईड़ सेट) क्या थी, या जवाब आने की स्थिति में वे क्या निर्णय लेने वाले थे, इसकी ‘वैधानिक कल्पना‘ बिल्कुल भी नहीं कि जा सकती है। तब कानूनी रूप से यह नहीं कहा जा सकता कि स्पीकर सचिन पायलट एवं अन्य विधायकों को अयोग्य ही ठहराकर ‘‘असहमति की आवाज‘‘ को दबाने का प्रयास कर रहे होते। (जिसकी आशंका शायद जस्टिस मिश्रा के दिमाग में हुई थी) देश के ‘‘न्यायिक इतिहास‘‘ मेें शायद यह पहली बार हुआ है कि, जब स्पीकर के नोटिस पर, प्रतिवादी (सामने वाले) का जवाब आने के पूर्व ही, तथा साथ ही स्पीकर द्वारा कोई आदेश पारित करने के पूर्व ही न्यायालय द्वारा स्पीकर को कोई कार्रवाई करने (आदेश पारित करने) से रोक दिया गया है। निश्चित रूप से यह स्पीकर के अधिकार क्षेत्र व अधिकारों को सीमित करता है। उच्चतम न्यायालय द्वारा पूर्व में दिए गए निर्णयों के विरुद्ध (विपरीत) उक्त आदेश है। उच्चतम न्यायालय ने यह सिंद्धान्त प्रतिपादित स्पष्ट रूप से किया है कि विधानसभा अध्यक्ष की कार्य संस्कृति/कार्य प्रणाली न्यायिक समीक्षा की विषय वस्तु नहीं हो सकती है। सिर्फ उनके द्वारा पारित आदेशों को ही न्यायिक समीक्षा की जा सकती है। 
यदि यह माना जाता है कि, स्पीकर वास्तव में स्वतंत्र रूप से कार्य न कर मुख्यमंत्री के एजेंट के रूप में कार्य करते हुए सचिन पायलट की असहमति की आवाज को दबाने से रोक रहे हैं तो, ठीक इसके विपरीत सचिन पायलट भी तो अपनी राजनीतिक चालो को चलकर कांग्रेस पार्टी में अपने बने रहने के स्टैंड की पूर्ति मात्र ही तो कर रहे हैं? क्या उनका उक्त ‘‘राजनैतिक कदम‘‘ दल बदल विरोधी कानून से बचने के लिए पार्टी विरोधी कार्य करने के बावजूद उसे असहमति की आवाज का रूप देकर दल बदल कानून में सेंध लगाने का प्रयास नहीं है? इस उत्पन्न वास्तविक परशेप्सन (अनुभूति) को भी जस्टिस अरूण मिश्रा को देखना चाहिये था, जो शायद दुर्भाग्यवश/भूलवश नहीं देखा जा सका। अतः उक्त आदेश आधा अधूरा सा है। न्यायालय को दोनों कार्य अर्थात, असहमति की आवाज को दबाने से रोकने के साथ साथ, दल विरोधी कानून की पेचीदगियों के चंगुल से बचने के प्रयास पर भी रोक लगानी चाहिये था, जो दुर्भाग्यवश नहीं हो पायी।
जनता द्वारा चुने गये विधायक गण जब सदस्यता समाप्त होने से बचने के लिये दलबदल विरोधी कानून में प्रावधित संख्या के निकट तक नहीं पंहुच पाये, तब निश्चित रूप से विधानसभा की सदस्यता बचाने के लिए उन 18 विधायकों को मजबूरन सार्वजनिक रूप से यह स्टैंड लेना पड़ा कि, वे कांग्रेस के ही सिपाही है, और कांग्रेस में ही रहेगें। निश्चित रूप से ये वे बहुमूल्य कांग्रेसी है, जिनका आतिथ्य भाजपा के हरियाणा के मुख्यमंत्री और राजस्थान के भाजपाई अतिथिदेवोः भवः भावना का पूर्ण पालन कर अपनी देशी संस्कृति का प्रदर्शन कर रहे है? असहमति की आवाज, परिवार के बीच, अंदर, और परिवार की बैठक में तथा मुखिया के सामने नहीं उठाई जा रही है? मतलब साफ है कि, जब घर का बच्चा अपनी किसी समस्या को लेकर घर में कोई बातचीत नहीं करना चाहता है, और विद्रोही तेवर लेकर घर के बाहर चला जाता है। और मुखिया के द्वारा उसको बार-बार वापिस बुलाने के बावजूद वह नहीं आता है। ऐसे में घर के मुखिया के हाथ में क्या रह जाता है? सिर्फ यह कहने के अलावा कि उसका लडका घर छोड़कर चला गया है, और उसके लिए घर के दरवाजे हमेशा खुले हुये है। वह जब चाहे वापिस आ सकता है। यही सब कुछ तो राजस्थान में घटित हो रहा है। अंतर यहां सिर्फ इतना है कि, परिवार व विद्रोही सदस्य के बीच खून का रिश्ता होता है, जो जीवन पर्यन्त रहेगा। इसीलिये उसकी वापसी की भी आशा जीवन भर बनी रहती है। लेकिन राजनीति में खासकर चुने हुये जनप्रतिनिधियों के मध्य 5 साल का ही संबंध होता है। इसीलिए विद्रोही नाराज नेता की एक निश्चित सीमा अवधि तक वापसी की राह जोटने के बाद, मजबूरी में उसको दल से निकाल देना ही राजनैतिक हित में होता है। राजस्थान में यही सब तो चल रहा है। 
देश के लोकतंत्र के बदलते हुये स्वरूप को देखिये! पहले जब भी कोई सरकार तथाकथित रूप से अल्पमत में आ जाती थी, तब विपक्षी दल द्वारा विधानसत्र बुलाकर बहुमत साबित करने की मांग की जाती थी, जो प्रायः अनसुनी कर दी जाती थी। इसके विपरीत आज सत्ता पक्ष विधान सभा सत्र बुलाकर बहुतम साबित करना चाहता है। केबिनेट के प्रस्ताव को राज्यपाल मानने के लिए बाध्य है। लेकिन अभी तक राज्यपाल द्वारा सत्र बुलाने के संबंध में कोई निर्णय नहीं लिया गया है और कांग्रेस विधायक गण राजभवन के प्रागण में धरना दे रहे है। यह लोकतंत्र का (दुरू) प्रयोग है? ‘‘यहां उल्टी गंगा बह रही है’’ जैसा कि राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने कहा है। जहां तक स्पीकर की निष्पक्षता को लेकर उनके कोर्ट जाने के सवाल पर जस्टिस अरूण मिश्रा ने प्रश्नवाचक चिन्ह लगाया है, उसे उचित नहीं कहां जा सकता है। उच्चतम न्यायालय ने ही यह सिंद्धांत प्रतिपादित किया है कि, याचिकाकर्ता जब तक सामान्य रूप से सुनवाई के युक्तिपूर्ण उपलब्ध अवसरों का सम्पूर्ण उपयोग नहीं कर लेता है, तब तक सामान्यतः उसे न्यायालय की शरण में नहीं जाना चाहिये। 18 विधायकों के पास सुनवाई का एक संवैधानिक अवसर स्पीकर के पास लंबित था। जिस पर स्पीकर ने नोटिस जारी करके सुनवाई प्रांरभ कर दी थी। लेकिन निर्णय नहीं हुआ था। तब ऐसी स्थिति में उस चलती संवैधानिक सुनवाई को बीच में ही समाप्त कर देना किस विधान के अंतर्गत है? समझ से परे है। यदि इसी सिंद्धान्त को लेकर आज राज्यपाल के सत्र बुलाने के अनिर्णय की स्थिति को माननीय उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी जाएं, तब माननीय उच्चतम न्यायालय का रूख क्या होगा? फिलहाल इसी के उत्तर में ही लोकतंत्र की व्याख्या टिकी हुई है।
 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

Popular Posts