सोमवार, 27 अप्रैल 2020

क्या राष्ट्रीय लॉक डाउन की विस्तृत समीक्षा किए जाना, ‘समय’ की आवश्यकता नहीं है?

सामयिक सुझाव
देश में राष्ट्रीय लॉक डाउन लागू किए एक महीना व्यतीत हो गया है। लेकिन केन्द्रीय स्वास्थ्य विभाग व देश का मीडिया लाकडाउन के बाद देश में कोरोना की औसत वृद्धि दर में कमी को दर्शाकर जनता को एक तरह से भ्रमित कर रहा है। एनडीटीव्ही ने बाकायदा ग्राफ के माध्यम से औसत वृद्धि दर लाकडाउन की अवधि में कम दर्शाने की कोशिश की है। स्वास्थ्य विभाग ने लॉक डाउन के लगभग दो हफ्ते बीत जाने के बाद नियमित प्रेसवार्ता में कहा था कि यदि लॉक डाउन न किया जाता तो देश में 18 लाख से ज्यादा संक्रमित मरीज हो जाते। 
हमारे देश में कोरोना का प्रथम मरीज केरला प्रदेश में 30 जनवरी को पाया गया था। देश में जब 24 मार्च को लॉक डाउन लागू किया गया, तब मात्र लगभग 520 कोरोना संक्रमित रोगी थे। 30 जनवरी से 24 मार्च तक कोरोना संक्रमित मरीजों की संख्या बहुत ही धीरे-धीरे एक एक दो-दो करके ही बढ़़ती रही। लॉक डाउन के प्रथम सप्ताह में कोरोना मरीजों की संख्या में वृद्धि का औसत प्रतिदिन का लगभग पैंतीस चालीस का था। उसके बाद 2 सप्ताह तक लगभग 100 का औसत रहा। फिर लगभग 500-600 का औसत रहा और अभी पिछले हफ्ते से 1200 से ज्यादा का औसत आ रहा है।  न केवल मरीजों की संख्या 23000 को पार कर गई, बल्कि देश में हॉटस्पॉटों की संख्या में भी तेजी से वृद्धि हुई है। लेकिन संक्रमित मरीजों की गणना को आधार दिन, तारीख, सप्ताह या महीने को अपनी सुविधानुसार लेकर आकड़ो के खेल के जादू से  कोरोना मरीजों की संख्या में वृद्धि दर में कमी का दावा सफलतापूण भ्रमित कर किया जा रहा है। लाकडाउन के पूर्व तक 50 दिन में कुल 520 व्यक्ति संक्रमित हुये जबकि लाकडाउन की 30 दिन की अवधि में 22000 संक्रमित रोगी की वृद्धि हुई में वृद्धि की दर से मतलब है (जो वास्तविकता को दर्षित नहीं करती है) या कुल मरीजों की कुल संख्या से मतलब है। आकड़े आपके सामने है। यह ठीक उसी प्रकार है जब भाजपा दिल्ली के चुनाव में बुरी तरह हारने के बावजूद उसका यह दावा कि उसने पिछले चुनावों से ज्यादा वोट पाये है। यदि यह वृद्धि की दर कम है तो फिर लाकडाउन समाप्ति पर गंभीरता से विचार क्यों नहीं किया जाता। मतलब साफ है, जिस कोरोना की बीमारी का एकमात्र इलाज लाक डाउन कर (ह्यूमन) डिस्टेंस (सोशल डिस्टेंस) के साथ अन्य आवश्यक सावधानियाँ बरती जा कर ही संभव है, वह उद्देश्य वर्तमान में लॉक डाउन के बावजूद सफल होता नहीं दिख रहा है। फिर सरकार नागरिक और स्वास्थ्य सिपाही (डॉक्टर, नर्स, स्वास्थ्य कर्मी) कोरोना को रोकने के लिए और क्या करें यह एक चिंता का विषय है।  
यह तो विदित ही है, इस रोग की मारक दवा अंतिम रूप से नहीं बन नहीं पाई है। यद्यपि   भारत सहित पूरे विश्व के वैज्ञानिक इस दिशा में तेजी से प्रयास कर रहे हैं, और हमें शीघ्र ही इसमें सफलता मिलने की आशा हमें करना चाहिए। लेकिन तब तक क्या किया जाए महत्वपूर्ण प्रश्न यह है? कोरोना को संक्रमित होने से रोकने का एकमात्र इलाज अभी तक कुछ सुरक्षा व सावधानिओं के साथ फिलहाल लॉक डाउन को ही माना गया है। इसके अलावा अधिकतम टेस्ट ही इसका फिलहाल उपाय है। क्या यह सही नहीं है कि लॉक डाउन को सही तरीके से पूर्णतः अपेक्षित ढ़ग से सरकार द्वारा लागू नहीं किया जा रहा है तथा सही तरीके से समस्त नागरिकों द्वारा भी उसका पालन नहीं किया जा रहा है? जबकि प्रधानमंत्री ने यह स्पष्ट घोषणा की थी कि पूरे देश में पूर्णरूप रूप से पूर्ण लॉक डाउन लागू किया जा रहा है। 
यह लॉक डाउन जो व्यक्तिगत रूप से शून्य खर्चा लिए हुए है, लेकिन एक राष्ट्र की दृष्टि में यह फिलहाल सबसे महंगा इलाज सिद्ध हो रहा है। इस वैश्विक संक्रमित महामारी की बीमारी के कारण ही विश्व के अधिकांश राष्ट्रांे की आर्थिक गतिविधियां सुन्न सी पड़ गई है और विश्व एक गहरे आर्थिक संकट की और ढकेला जा रहा है, जो उक्त बीमारी के संक्रमण को रोकने के तरीकों के कारण ही है। इसीलिए विश्व के कई देश इस कोरोना के संक्रमित होने से रोकने के प्रयासों को लागू करने के समय ही साथ-साथ उससे पड़ने वाले ऋटणात्मक आर्थिक प्रभाव पर भी गंभीरता से विचार करने के लिए मजबूर हो गए हैं। अब आर्थिक दृष्टिकोण लेकर इस संक्रमित महामारी बीमारी का इलाज करने के तरीके खोजे जा रहे हैं। अमेरिका तो विश्व का पहला देश रहा है जब उसके राष्ट्रपति ट्रंप ने प्रांरभ में आर्थिक दृष्टि को ध्यान में रखते हुये लॉक डाउन लगाने से इंकार करते हुए पूरे देश में दो लाख से ज्यादा व्यक्ति की मृत्यु की आंशका तक बेहिचक व्यक्त कर दी थी। हम तो अपने देश में एक-एक व्यक्ति की जान बचाने के खातिर पूरी व्यवस्था की आहुति लगाए हुए हैं। ‘‘जान’’ जरूरी है लेकिन सिर्फ जान नहीं बल्कि जान के साथ ‘‘जहान’’ की भी आवश्यकता है जैसा कि प्रधानमंत्री जी ने स्वयं कहा था। क्या इसकी समीक्षा किए जाने की आवश्यकता का समय नहीं आ गया है? ऐसा लगता है कि इस संक्रमित बीमारी से निपटने के लिये लंबी लड़ाई लड़नी पड़ेगी और तब तक हमारा देश लाक डाउन से पड़ने वाले इस आर्थिक चोट को नहीं झेल पाएगा। इसलिए सरकार और नागरिकगण दोनों को इस मुद्दे पर अपने कार्य नीति आचार व व्यवहार के पुनरीक्षण किए जाने की नितांत आवश्यकता है।
यह बात आईने के समान स्पष्ट है कि देश के विभिन्न अंचलों में नागरिकगण लॉक डाउन का 100 प्रतिशत पालन नहीं कर रहे हैं, जो लॉक डाउन की पूर्ण सफलता की एक पहली आवश्यक शर्त है। आश्चर्य है देश ने प्रधानमंत्री के एक दिन के स्वस्फूर्ति जनता कर्फ्यू के आह्वान का लगभग पालन किया था, गले लगाया था। लेकिन तीन दिन बाद घोषित लॉक डाउन पुलिस तंत्र के डंडे की ताकत व ड़र के बावजूद भी पूरी तरीके से लागू नहीं हो पाया। इससे यह स्पष्ट है जनता को एक दिन के लिए तो स्वयं के घर में रखा जा सकता है, लेकिन लंबे समय तक नहीं। बार-बार देश का मीडिया भी जनता को यह दृश्य दिखा भी रहा है। तो फिर सरकार को क्या करना चाहिए?
मेरी दृष्टि में प्रथम तो सरकार को पूरे देश मे लॉक डाउन शिथिल कर सिर्फ घोषित देश के समस्त हॉटस्पॉटों में ताकत के साथ 100 प्रतिशत कर्फ्यू लागू कर कड़ाई से पालन करवाना चाहिए। शेष जिलों को लाक डाउन से मुक्त कर सामान्य दैनिक जीवन दिन-चर्या चलते देना चाहिए। इन मुक्त जिलों में जिले के भीतर समस्त गतिविधियां को सावधानी व सुरक्षा के साथ प्रारंभ करना चाहिये। कोरोना मुक्त जिले की सीमाओं से लगे जिले भी यदि संक्रमण मुक्त है जो इन सभी जिलों के बीच अंतर जिला मूवमेंट करने की भी अनुमति देना चाहिए। इससे दो संदेश स्पष्ट रूप से नागरिकों के बीच जाएंगे। प्रथम तो वे नागरिक गण जिनके द्वारा लॉक डाउन का पालन करने के इनाम स्वरूप उनके क्षेत्र में लॉक डाउन समाप्त किया जाकर उन्हें सामान्य जीवन जीने की छूट प्राप्त होगी, जिसके की वे अधिकारी हैं। इस कारण से स्वयं के स्वार्थ को देखते हुए व नैतिक व सामाजिक दबाव के कारण उन नागरिकों पर भी दबाव पड़ेगा कि वे 14 या 21 दिन उनके क्षेत्र में लागू कर्फ्यू का पालन कर अपने रहवासी क्षेत्र को भी हॉटस्पॉट से हटाकर सामान्य जिंदगी जीने की ओर आगे बढ़ सकेंगें। इस प्रकार जब लॉक डाउन का क्षेत्र कम हो जाएगा, तब सरकार के पास अतिरिक्त पुलिस फोर्स रहेगी जिसके द्वारा वह कर्फ्यू को सख्ती के साथ लागू करवा पायेगी। सरकार को इस पर गंभीरता से विचार कर इस दिशा में निर्णय लेना चाहिए। सरकार के पास उपलब्ध विशेषज्ञों से विस्तृत और गंभीर चर्चा कर आर्थिक व्यवस्था पर कम दुश दुश्प्रभावित करने वाले प्रयासों के साथ इस बीमारी का इलाज करें अन्यथा आगे 6 महीने से से 1 साल के बाद जब हम जागेंगे तब हमारे पास व्यवस्था सुधारने के लिए कोई प्रभावी सार्थक हथियार नहीं रहेगा और तब हमे यह कहना पड़ेगा ‘‘अब पछताए होत क्या जब चिडि़याँ चुग गई खेत’’। 
अंत में सरकार के समक्ष प्रवासी दिहाड़ी मजदूरों का मुद्दा सामने लाना आवश्यक है। जनता के बीच एक भावना घर कर रही है कि बड़े सक्षम लोगों को तो सरकार ने अपने खर्चे से विदेशों से भारत बुला दिया। कोटा में पढ़ने वाले सक्षम विद्याथियों को कुछ प्रदेशों सरकारी खर्चे पर वापस अपने-अपने प्रदेश बुला दिया। लेकिन दिहाड़ी प्रवासी मजदूर की हजारों की संख्या में होने के बावजूद उन्हे अपने राज्यों में वापिस नहीं जाने दिया जा रहा है। क्या गरीबो का कोई माइबाप नहीं है? वास्तव में जब केन्द्र व राज्य सरकारों इन मजदूरों के ठहरने व खाने पीने पर करोडांे रूपये खर्चे कर रही है, तब उनकी मांग को स्वीकार कर कोटा के छात्रों के समान ही क्रमशः चरणबद्ध तरीके से उन्हे उनके राज्य में छोड़ने का प्रबंध केन्द्र व राज्य सरकारे क्यों नहीं कर रही है? यह समझ से परे है। उनके वापिस अपने-अपने गांवों में पहुंच जाने पर सरकार की एक बड़ी धन राशि व्यय होने में भी बहुत कमी आ जायेगी। क्या उपरोक्त सिर्फ मजदूरों के लिये है छात्रों व विमान यात्रियों के लिये नहीं? लेख समाप्त करते-करते उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी की मजदूरों के वापसी के संबंध में एक कार्य योजना की घोषणा हुई है, जिसका न केवल हार्दिक स्वागत किया जाना चाहिये, बल्कि पूरे देश में इस ‘‘योगी माड़ल’’ को लागू भी किया जाना चाहिये। 

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