बुधवार, 7 जून 2023

‘‘इलेक्ट्रानिक मीडिया’’ द्वारा महिला पहलवानों की ‘‘अस्मिता’’ को तार-तार करने का प्रयास!

क्या यह कानून का मजाक नहीं है अथवा कानून का खौफ व डर खत्म हो गया है बृजभूषण शरण सिंह ‘‘पीडि़ताओं के शिकन भरे चेहरों’’ की तुलना में एक ‘‘सिर झुकाये’’ अपराधी का चेहरा की बजाए जिस ‘‘बॉडी लेंगवेज’’(शरीर की भाषा) के साथ मीडिया के विभिन्न प्लेटफार्मस् पर दभींय गॅर्वान्मुक्त मुस्कराहट के साथ महिलाओं पर तंज पूर्वक हंसते हुए धूम रहा है। जिस कानून, उच्चतम न्यायालय द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत एवं सब नागरिक बराबर है के संवैधानिक सिद्धांत के अनुसार एक सामान्य नागरिक की हैसियत से झेल रहे यौन शोषण के आरोपों के तहत कभी का गिरफ्तार कर जेल भेज दिया जाना चाहिए था। परन्तु मीडिया तो उसे ‘‘हाथों-हाथ’’ झेल रहा है। क्या यह सभ्य समाज पर एक ‘तमाचा’ नहीं है? अमित शाह से अचानक हुई रात्रि में मुलाकात के बाद कई मीडिया हाउसेस ने खुद को ‘‘सुरक्षित कर’’ सूत्रों के हवाले से ‘‘प्लांट न्यूज’’ ब्रेकिंग न्यूज के रूप में यह समाचार बार-बार प्रसारित किया कि पहलवानों द्वारा आंदोलन समाप्त कर दिया गया है। नाबालिग ने शिकायत वापस ले ली है। धारा 164 के अंतर्गत मजिस्टेड के समक्ष पुनः बयान हो गये है। उक्त समाचार शाम आते-आते तक पहलवानों द्वारा किये गए ट्वीटों से ‘‘सफेद नहीं काला झूठ’’ सिद्ध हो गया। परन्तु बेशरम मीडिया ने तथाकथित सूत्र के हवाले से दिये गये गलत समाचारों के लिए पहलवानों से लेकर देश से माफी तक नहीं मांगी, न खेद व्यक्त किया। शायद इसलिए कि वे समाचार प्रसारित न कर एजेंडा चला रहे थे, जो चल गया। एक बार बंदूक से निकली गोली वापस नहीं आती है।

‘‘एजेंडा मीडिया’’ के बीच अपना दायित्व संजीदगी से निपटने के लिए निश्चित रूप से ‘‘द इंडियन एक्सप्रेस’’ बधाई का पात्र है। पेपर शुरू से लेकर आज तक महिलाओं की आन, बान व सुरक्षा के लिए दिन-प्रतिदिन घट रही संबंधित घटनाओं को प्रमुखता से छापा है। अंततः परिणाम स्वरूप कुछ मीडिया हाउसेस, राजनेताओं व सत्ताधारी दल की कुछ महिला नेत्रियों को भी इन महिला पहलवानों का पक्ष लेना पड़ रहा है। आपको याद होना चाहिए, यह वही इंडियन एक्सप्रेस ग्रुप है, जिसका हिन्दी संस्करण जनसत्ता तथा द स्टेट्समैन आपातकाल में देश के नागरिकों को सही न्यूज मिलने का एक बड़ा माध्यम बना था। जहां जनसत्ता ने विरोध स्वरूप अपना संपादकीय पेज खाली छोड़कर काला पेज छापा था। दिल्ली में घटी वीभत्स साक्षी हत्या कांड को लेकर नारी शक्ति को लेकर मीडिया ने टीआरपी के चलते बहुत बवाल किया। परंतु देश को विश्व में सम्मान दिलाने वाली मेडल लाने वाले अंतरराष्ट्रीय महिला पहलवानों के साथ हुए यौन शोषण की आवाज उठाने की जरूरत नहीं समझी, सिर्फ इसलिए कि अपराधी सत्ताधारी पार्टी का महत्वपूर्ण सांसद (जिसे सरकार का समर्थन प्राप्त है) होकर सरकार से करोड़ों रुपये का विज्ञापन पाने वाले न्यूज चैनल कैसे हिम्मत कर सकते है?

घटना का दूसरा चिंताजनक पहलू ‘‘मीडिया’’ से लेकर सोशल मीडिया व समस्त राजनीतिक दल एक ही बात कह रहे है कि बृजभूषण शरण सिंह छः बार का चुना हुआ सांसद ‘‘माननीय’’ है। उत्तर प्रदेश के लगभग छः लोकसभा क्षेत्रों में वह दबदबा व प्रभाव रखता है। राजनीतिक हितों के कारण उसके विरुद्ध ठोस कार्रवाई नहीं हो पा रही है। कुछ राजनीतिक पंडितों की नजर में सरकार की ‘‘सेहत’’ विगत कुछ समय से शायद ठीक नहीं लग रही हैं। इसलिए एक-एक सांसद की कीमत (महत्व) होने के कारण सरकार उनको किसी भी तरह ‘‘टच’’ नहीं करना चाहती है, भले ही सांसद को ‘‘टच’’ करने का ‘‘पूरा अधिकार’’ दे दिया गया हो। सरकार निश्चित रूप से छुआछूत पर विश्वास नहीं करती है। इसलिए प्रत्येक नागरिक को छुआछूत दूर करने के लिए ‘टच करने का अधिकार’ होना चाहिए? फिर चाहे वह बृजभूषण का ‘‘बैड टच’’ ही क्यों न हो? इससे एक बड़ा गंभीर निष्कर्ष शायद यह निकलता है, जो बहुत ही चिंताजनक है कि, क्या जनता की नजर में एक नागरिक जो प्रभावी होकर रसूखदार राजनेता बन जाता है, का चरित्र व नैतिक मूल्यों से ज्यादा उसकी, दादागिरी, डॉनगिरी, बाहुबली, ‘जाति’ अथवा अकूट धन ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाती है? ‘‘प्रभुता पाई जाहि मद नाहीं’’। इस तरह का कोई ‘‘परसेप्शन या नोशन’’ बन जाता है। जैसा कि कहा जाता है, ‘‘परसेप्शन्स आर मोर इंपॉर्टेंट देन द ट्रुथ’’।

इस कारण से चुनावी राजनीति में वोटरों पर उसकी तथाकथित मजबूत पकड़ बने रहने के कारण राजनैतिक दलों की ‘‘मजबूरी’’ उन्हें हर हालत में अपने साथ बनाए रखने की होती है। यह मजबूरी राजनैतिक दलों से ज्यादा क्या उस जनता की लाचारी, कमजोरी व ‘‘अनैतिकता’’ को नहीं दर्शाती है? जिसके चलते ऐसा रसूखदार व्यक्ति अपनी दोनों जेबों में हजारों की संख्या में ‘जनता’ को रखने का दंभ, उसी जनता के ‘‘विश्वास’’ के आधार पर भरता हैं। जनता चुनाव में ऐसे व्यक्ति की जमानत क्यों नहीं जब्त करा देती है? चाहे उसका कद कितना ही बड़ा क्यों न हो? क्योंकि ‘‘पहाड़ से छाया तो वैसे भी नहीं मिलती है’’। ऐसा ‘‘परसेप्सन व नरेशन’’ वहां की जनता कब देगी? जब एक्शन होगा? कब होगा? क्या चुनाव से पहले इसका कुछ आभास सा होगा? जनता के नैतिक बल व नैतिकता को बढ़ाने के लिए स्वयं को शिष्यों द्वारा भगवान मनवाने, कहलाने वाले वे समस्त आध्यात्मिक धर्मगुरु, संत, महात्मा, महाराज, पंडित, स्वामी, समाज के ठेकेदार व स्वयं जनता का सेवक कहलाने वाले नेता कहां हैं? तब ऐसी जनता का ‘‘नैतिक स्तर’’ को गिरने से कौन रोकेगा? ये आध्यात्मिक गुरू देश में धूमधाम से अपने भक्तों, शिष्यों, अनुयायियों को धार्मिक ग्रंथों को सुनाते है, पढ़ाते है और आचार-विचार को सीखने के लिए प्रेरित करते है, वे सब ‘‘नैतिकता का एक पाठ’’ साथ में क्यों नहीं पढ़ाते हैं? जो बढ़ती अनैतिकता ही देश की विभिन्न समस्याओं का मूलभूत कारण है। क्या समाज सुधारक का दावा करने वाले ऐसे संतों का यह दायित्व नहीं है? विपरीत इसके पास्को एक्ट के विरूद्ध उसमें संशोधन के लिए व बृजभूषण शरण सिंह के समर्थन में अयोध्या में पांच जून को होने वाली संतो की ‘जन चेतना महारैली’ को इंडियन एक्सप्रेस में दर्ज दोनों प्राथमिकी में दिये गये के आधार पर यौन शोषण को विस्तृत जानकारी छपने के बाद बढ़ते राजनैतिक, सामाजिक व मीडिया के दबाव के चलते कुछ दिनों के लिए स्थगित करना पड़ गया। क्या ऐसी कार्रवाई उन संतों की भी बृजभूषण की श्रेणी में लाकर खडा नहीं कर देते हैं? ऐसे संत समाज पर शर्म आती है। अन्य आध्यात्मिक गुरुओं, संतों की उक्त संतों की इस तरह की हरकत पर ‘‘चुप्पी’’ भी क्या देश के प्रबुद्ध जागरूक नागरिक को भी ‘‘चुप्प’’ रहने का संकेत तो नहीं दे रही है?

यौन शोषण के अपराधों में लिप्त राजनेताओं व संतों के मामले में एक बात बड़ी कामन (सामान्य) है वह यह कि दोनों जगह वे माननीय, पूज्यनीय, श्रेष्ठ लोग जनता के बीच अपनी पैठ बनाने या बनाये रखने के लिए जनता के हितों के लिए कुछ कार्य जैसे स्कूल, अनाथालय, गौशाला, हास्पिटल तथा व्यक्ति रूप से गाहे-बगाहे समय-समय पर सहायता देते रहते है। इससे उनकी एक जनसेवक की छवि बनकर उस छवि की आड़ में उन्हें ‘‘महिलाओं की अस्मिता’’ से खेलने का ‘‘सुरक्षित अवसर’’ मिल जाता है। फिर चाहे वे बृजभूषण शरण सिंह हो या आसाराम बापू जैसे नामों की फेहरिस्त गुजरते समय के साथ बढ़ती ही जा रही है। संतों सहित सभ्य समाज के लिए यह भी चिंतनीय स्थिति है।  

अब देश की सेलिब्रिटीज की भी बात कर लेते हैं। खासकर खेलों के सेलिब्रिटीजों की। किसी भी खेल में जहां महिला खिलाड़ी है, और उस खेल संगठन के पदाधिकारी पुरुष होते है, वहां पर जैसा कि कुछ समय पूर्व फिल्म इंडस्ट्रीज में कार्य पाने के लिए ‘मीटू’ पर पूरे देश में बहस व चर्चा हुई थी, ठीक उसी तरह खेलों में भी आगे बढ़ने के लिए खेल संगठन के कुछ पदाधिकारियों की ‘‘गैर जायज मांगों’’ को मानना कई महिला खिलाड़ियों की अपने खेल जीवन को आगे बढ़ाने के लिए मजबूरी हो जाती है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता है। यह मजबूरी उनके लिए ‘‘अंगारों पर लोटने के समान’’ होती है। इसलिए खेल जीवन में राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जाना है, तो इन खेल संगठनों के पदाधिकारियों को नाराज करके अपवाद स्वरूप छोड़ कर खिलाडी आगे बढ़ नहीं पाते है, जिसका उल्लेख महिला खिलाड़ियों ने अपनी ‘‘प्राथमिकी’’ में भी किया है। इस कटु सत्य की आड़ में उन्हें कई बार जहर पीना पड़ता है। इसलिए हर कोई खिलाडी ऐसे पदाधिकारियों की काली करतूतों के विरूद्ध आवाज तुरंत अथवा सालों-साल तक नहीं उठा पाते हैं। जब इन महिला पहलवान के साथ अति हो गई और उन्होंने यह सोच लिया कि अति शक्तिशाली अध्यक्ष का विरोध करने के लिए अब खिलाडी जीवन को दांव पर लगाने के अलावा अब कोई चारा नहीं बचा है, तब उनकी हिम्मत बढ़ाने का कार्य अन्य खिलाड़ी सेलिब्रिटीज को क्यों नहीं करना चाहिए? जो आमतौर पर नहीं कर रहे हैं। यह इस बात को सिद्ध करता है कि हमारे खिलाड़ियों की नैतिकता खेल के चकाचौंध व आकर्षण के तले दब गई है। वक्त आ गया है, खेल, फिल्म व कला क्षेत्र के अन्य सेलिब्रिटीज अपने अंदर गिरेबान में झांके और इन महिलाओं की ‘‘सशक्त आवाज’’ बने। ताकि खेल संगठनों के पुरुष पदाधिकारी व कला फिल्मी क्षेत्रों के ‘रहनुमा’ भविष्य में अन्य लोगों के साथ इस तरह का दुराचार करने का कोई भी प्रयास करने की हिम्मत न कर सके, जो अंततः एक नजीर बन सकें।

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