सोमवार, 5 जून 2023

क्या देश की ‘‘आत्मा’’, ‘‘जमीर’’, ‘‘नैतिकता’’ ‘सुस्त’ ‘सृप्त’ होकर ‘‘विलोपित’’ तो नहीं हो रही है?

देश को स्वाधीन हुए 75 वर्ष पूरे हो चुके हैं। अमृतकाल मना रहे देश में ‘‘अमृत’’ की ‘‘घनघोर’’ वर्षा हो रही है? या कराई जा रही है, ऐसा एहसास देश का मीडिया जनता को करने का प्रयास कर रही है। इन 75 वर्षो में देश की पहचान क्या सिर्फ 21वीं सदी की ओर तेजी से बढ़ते हुए ‘‘विकास के पंखे’’ के साथ होना चाहिए? प्रश्न अटपटा सा लग सकता है, ‘अप्रगतिशील’ लग सकता है, प्रतिगामी लग सकता है। परन्तु प्रश्न उत्पन्न तो होता है। वह इसलिए कि जिस देश की ‘संस्कृति’, ‘सभ्यता’ अति प्राचीन होकर जहां सर्वकालीन ‘सर्व समय’ महिलाओं का मान-सम्मान और उनकी ‘‘शुचिता’’ बनाए रखना प्रत्येक नागरिक का एक कर्तव्य बोध होकर जिम्मेदारी होती रही है और आमतौर पर वह सहर्ष स्वीकार भी की जाती रही है। वहां किन्हीं नागरिकों द्वारा गाहे-बगाहे (यद्यपि हाल के वर्षो में यौन अपराधों की घटनाएं बढ़ी हैं) उक्त जिम्मेदारी का उल्ल्घंन किये जाने पर जिम्मेदार शासन में स्थापित कानून के तहत बल्कि आवश्यकता होने पर नये कानून भी बनाये जाकर (जैसे निर्भया कांड के बाद) महिलाओं की ‘‘आन बान और शान’’ की रक्षा के लिए निश्चित रूप से आवश्यक कार्रवाई होती रही है। फिर चाहे सरकार किसी भी विचारधारा की रही हो, पार्टी की रही हो, गठबंधनों की रही हो अथवा अल्पमत की रही हो।

यौन शोषण की घटनाएं न तो देश में पहली बार हो रही है और न ही अंतिम बार। बल्कि प्राचीन काल से होती चली आ रही हैं। निश्चित रूप से ऐसी घटनाएं न हो, यह दायित्व ‘परिवार’, ‘समाज’ व तत्पश्चात लोकतंत्र में चुनी हुई सरकार का होता है। इस दायित्व को मजबूत ‘‘तंत्र’’ के माध्यम से पूर्ण इच्छाशक्ति से निभाने के बावजूद यौन शोषण की घटनाएं को अंजाम दिया जाता रहा है। लेकिन ऐसी घटनाएं घटित होने पर अभी तक का अनुभव ‘अपराधी’ को ‘सरकार’ और ‘तंत्र’ द्वारा कानूनी प्रक्रिया द्वारा कानून की सूली पर लटका दिया जाने का रहा है। यह सरकार का मूलभूत संवैधानिक व सामाजिक दायित्व व कर्तव्य है, इससे कोई इंकार नहीं कर सकता है। क्योंकि ‘‘कड़े गोश्त के लिये पैने दांतों की जरूरत होती है’’। यौन अपराधियों से निपटने का उक्त ‘'आपराधिक न्यायशास्त्र’’ को आज देश की उन गौरव अंतर्राष्ट्रीय मेडल दिलवाने वाली महिला पहलवानों के साथ हुए यौन शोषण के मामले के परिपेक्ष में बृजभूषण सिंह जैसा दरिंदों को सामने रख कर विचार करें, घोर निराशा, कौफ्त, क्रोध से ग्रसित शमशाद होकर सर झुक जाता है। क्या देश की आन बान शान की प्रतीक महिला पहलवानों के साथ हुए यौन शोषण के अपराधों से हुए "घावों" का ऐसा तथाकथित "उपचार" देश को स्वीकार है?
वर्तमान प्रकरण में राजनीतिक रसूख के कारण हो रही वर्तमान धीमी कार्रवाई व अभियुक्त की अभी तक गिरफ्तारी न होने के बावजूद यौन शोषण के उक्त अपराधों की श्रंखला का उंगलियों पर गिने जाने वाले विरोध को देखते हुए लगता नहीं है कि यह वही देश है, जहां ‘‘जेसिका लाल हत्याकांड’’ से लेकर ‘‘निर्भया कांड’’ जिसने देश की अंतरात्मा तक को झकझोर दिया था। परिणाम स्वरूप भारतीय दंड संहिता की बलात्कार की धारा में संशोधन किए जाने के साथ नाबालिग के साथ किए गए यौन शोषण के अपराध के लिए नया पॉक्सो कानून तक बनाया गया था। शायद एक सिरे पर ‘‘अनाम निर्भया’’ की तुलना में नामी-गिरामी देश का नाम ओलंपिक विश्व खेलों में ऊंचा करने वाली महिला पहलवान है, तो वहीं दूसरा छोर निर्भया कांड के अनाम अपराधियों की तुलना में जनता का आशीर्वाद लेकर देश के लिए कानून बनाने वाली संसद का माननीय सदस्य होकर ब्रजभूषण सिंह शरण लोकतंत्र के मंदिर के अंदर बैठे 543 भगवानों में से एक भगवान है? वह इसलिए कि जब संसद को लोकतंत्र का मंदिर बतलाया गया है, तब मंदिर में तो भगवान ही बैठ सकते हैं?
यौन अपराधों से संबंधित कानूनों में संशोधन किए जाने के बाद ‘‘शायद बिल्कुल नहीं बल्कि निश्चित रूप’’ से देश की यह पहली अलौकिक, अविश्वसनीय घटना है, जहां यौन शोषण के अपराधी जिस पर पास्को कानून के तहत भी प्राथमिकी दर्ज है, गिरफ्तार कर तुरंत जेल भेजने की बजाय तथा उससे पूछताछ करने की बजाय उल्टे 3 महीनों से पीड़िताओं से ही पूछताछ की जाकर उन्हें मानसिक पीड़ा व तनाव से गुजरना पड़ रहा है। प्राथमिकी दर्ज होने के 40 दिन बीत जाने के बावजूद, गिरफ्तारी न होना सरे आम कानून की धज्जियां उड़ाना है। सरकार कहती है कि ‘‘पंचों का कहना सर माथे लेकिन परनाला तो यहीं गिरेगा’’। ‘‘अंधी गली के मुहाने पर खड़ी’’ सरकार; कानून अपना काम कर रहा है, जांच चल रही है, यह कहकर आत्ममुग्ध होकर ‘‘सिर झुकाए नहीं’’, बल्कि सिर ऊंचा कर सीना चाहे ‘‘कितने ही इंच का हो ताने’’ अपने साथी सांसद बृजभूषण सिंह का प्रत्यक्ष रूप से ‘‘मौन बचाव’’ व परदे की पीछे ‘‘सक्रिय बचाव’’ कर रही है। शायद इसलिए की वह अपराधी चुना हुआ उस संसद का सांसद है, जिसे ‘‘लोकतंत्र’’ में जनता चुनती है। अतः उसी लोकतंत्र से चुनी हुई निकली सरकार से आप उसी संसद के चुने हुए सदस्य के खिलाफ ‘‘नाउम्मीद कार्रवाई की उम्मीद’’ का विपरीत आचरण क्यों कर रहे है? यह तो ‘‘अंधे से रास्ता पूछने जैसा है’’। यह हास्यास्पद नहीं है की सरकार के खेल मंत्री और गृह मंत्री कह रहे हैं कि कानून को अपना काम करने दीजिए? आखिर कानून को काम कौन नहीं करने दे रहा है, खिलाड़ी अथवा उनके साथ सहानुभूति रखने वाले 140 करोड़ की जनसंख्या में से कुछ हजारों लोग या कानून का पालन करने और करवाने वाली "समस्त तंत्र"? क्या सरकार को यह बताने की जरूरत है कि ‘‘विकास रूपी पंखे से महिलाओं की अस्मत पर छाया हुआ कोहरा नहीं छंटता है’’?
अंत में न्यायपालिका जिसे ‘‘आपातकाल’’ में कमिटेड ज्यूडिशरी तक कहा गया था, ने  ‘‘न्यायिक सक्रियता’’ के चलते कई बार देश के नागरिक के हितार्थ आगे आकर संज्ञान लेकर कार्रवाई की है। परन्तु दुर्भाग्यवश प्रस्तुत यौन शोषण का मामला उच्चतम न्यायालय के समक्ष लाया जाने के बावजूद उच्चतम न्यायालय ने अपने न्यायिक कार्य को आंशिक पूर्ति ही की है। 40 दिन बीत जाने के बावजूद पॉक्सो एक्ट के तहत एफआईआर दर्ज होने के बावजूद गिरफ्तारी नहीं हुई। यह स्वयं उच्चतम न्यायालय द्वारा स्थापित कानून का खुल्लम-खुल्ला उल्लंघन है। यौन संज्ञेय अपराध के मामले में प्राथमिक जांच किए बिना ही तुरंत प्राथमिकी दर्ज न किए जाने पर भादस की धारा 166ए के अंतर्गत ड्यूटी पर तैनात पुलिस अधिकारी के विरुद्ध प्रकरण दर्ज किया जाना चाहिए था। छः महिलाओं की एक ही प्राथमिकी दर्ज करना तथा इंडियन एक्सप्रेस में एफआईआर के आधार पर छपे समाचार जिसमें विभिन्न जगहों पर 15 बार यौन अपराध घटित होना बतलाया गया है तब पृथक-पृथक 15 प्राथमिकी दर्ज न करना कानूनन गलत है। जब उक्त खामियां मामले में सुनवाई के समय जब न्यायालय के समक्ष थी, तब उच्चतम न्यायालय द्वारा इन कानूनी खामियों का कोई संज्ञान न लेना न्याय देने की दिशा की ओर बढ़ने का सूचक तो नहीं है? साथ ही यह बात भी समझ से परे है महिलाओं के वकील जब उच्चतम न्यायालय तक गये थे, तब न्यायालय ने मांगी गई प्रार्थना पूरी हो जाने के कारण प्रकरण की समाप्ति करते हुए यह निर्देश दिया था कि आवश्यक होने पर वे उच्च न्यायालय अथवा निम्न अदालत में किसी भी सहायता के लिए जा सकते है। तब उन वकीलों का अभी तक ब्रजभूषण सिंह की गिरफ्तारी न होने पर उच्च न्यायालय के पास न जाना समझ से परे है। मेरे एक पाठक ने उक्त अपराध की प्रतिक्रिया में जो लिखा है, रूबरू आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूं-
‘‘चूंकि एफआईआर न्यायालय के निर्देश पर दर्ज की गई है, अतः महिला पहलवान का कथन सत्य है। बृजभूषण कह रहे हैं, उन्होंने कुछ गलत नहीं किया है। अतः वे इसे सही मानते हैं। चूंकि दोनों सही है तथा सरकार ने बृजभूषण से इस्तीफा नहीं लिया है। यानी सरकार भी सही मान रहीं हैं। फिर समस्या क्या है?’’
‘‘अमित शाह चाणक्य ऐसे ही नहीं कहलाते है।’’
लेख पूर्ण करते हुए यह समाचार मिला है कि विगत दिवस देर रात्रि अमित शाह की पहलवानों से मुलाकात हुई है। किसकी पहल या माध्यम से, ज्ञात नहीं? परिणाम स्वरूप तीनों खिलाडियों ने रेलवे की नौकरी ज्वाइन कर ली है। अपुष्ट समाचारों के अनुसार चार्जशीट जल्दी पेश होगी। शायद बिना गिरफ्तारी के? आंदोलन वापस हुआ है या नहीं अस्पष्ट है। आंदोलन का आगे का स्वरूप कैसा होगा स्पष्ट नहीं। नाबालिग द्वारा आरोप वापस लिए जाने के समाचार भी मीडिया, सूत्रों के हवाले से दे रहा है। मतलब साफ है! जहां 40 दिन में अभियुक्त बृजभूषण का कम से कम पॉक्सो एक्ट के अंतर्गत चालान पेश होकर सजा होकर जेल में होना चाहिए था, जैसा कि राजस्थान में हुआ। वहां पीड़िताओं के मनोबल को तोड़ने के लिए उच्चतम न्यायालय व गृहमंत्री के ठीक आंख के नीचे "तंत्र" को पूरा अवसर प्रदान किया गया है, जिसमें वे अंततः सफल होते दिख रहे हैं।  गृहमंत्रीअमित शाह की "चाणक्य नीति" के साथ न्यायालय की "अनदेखी" का यह "गजब संयोग" कभी-कभी ही होता है। क्योंकि हर यौन अपराधी ब्रजभूषण सिंह शरण समान रसूख रखता भी नहीं है।
ऐसा लगता है कि 140 करोड़ जनता में कुछ गिनती के चुनिंदा लोग ही रह गये है, जिनका जमीर शायद मरा नहीं है। तब आप भी अपना जमीर बचाकर "बहुमत" के साथ रहने की "आदत" बना लीजिए?

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