मंगलवार, 27 जून 2023

मीसाबंदी’’ ‘‘परिवार’’ का ‘‘आभासी सम्मान’’! अथवा ‘‘कोरी राजनीति’’?

उक्त शीर्षक कड़वा और अप्रिय लग सकता है, लेकिन  वास्तविकता तो बेशक यही है। "अप्रियस्य च पथ्यस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभ:"। देश का काला अध्याय, काल, 25 जून का रहा, जब संविधान व लोकतंत्र को कानूनी अमला पहन कर निलंबित कर पहली बार (उम्मीद करनी चाहिए यह प्रथम और आखिरी अवसर ही होगा) आपातकाल लागू कर देश को अचंभित कर दिया गया था। ‘‘मीसाबंदियों’’ की उत्पत्ति की जनक रही यही ‘‘आपातकाल’’ था। जिनके अविरत संघर्ष, त्याग, तपस्या और बलिदान से वस्तुतः मीसाबंदी भाजपा की नींव के महत्वपूर्ण व मजबूत पत्थर है, जिस पर जनसंघ से जनता पार्टी के रास्ते होते हुए भाजपा, खड़ी होकर आज इस मुकाम पर पहुंची है कि विश्व की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी बन गई है। यद्यपि इस यात्रा में वर्ष 1984 के आम चुनाव में  संसद में मात्र दो सीटों तक सिमट जाने की भारी असफलता भी जुड़ी हुई है। तथापि उसका कारण पार्टी की विफलता न होकर ‘‘इंदिरा गांधी की शहादत’’ थी।       
आपातकाल का पर्यायवाची बन चुका ‘‘दिन 25 जून’’ को भाजपा के एक पदाधिकारी का फोन आया कि भाजपा कार्यालय पर मीसाबंदी एवं उनके परिवारों का सम्मान कार्यक्रम रखा गया है। लगभग 25 वर्षों बाद अचानक एकाएक उक्त फोन आने पर सुखद आश्चर्य हुआ। "अतिस्नेह: पापशंकी अत्यादर: शंकनीय"।  क्योंकि इसके पूर्व मुझे पार्टी कार्यालय में नहीं बुलाया गया था। मैंने उनसे कहा कि मीसाबंदी का कार्यक्रम तो कई बार हुआ है, परंतु आपने आज पहली बार बुलाया है। तब उनका यह जवाब था कि प्रदेश कार्यालय से निर्देश हैं कि प्रधानमंत्री मोदी सरकार के 9 वर्ष की उपलब्धियां के उपलक्ष में मीसा बंदियों व उनके परिवारों को भी सम्मानित किया जावे। उक्त ‘‘नीतिगत आमंत्रण’’ के लिए धन्यवाद।
परंतु प्रश्न फिर यह पैदा होता है कि क्या यह वास्तव में ‘‘सम्मान’’ है? कुछ समय पूर्व ही मैंने ‘‘विश्व रक्तदान दिवस’’ पर बैतूल में आयोजित रक्त क्रांति ‘‘सम्मान कार्यक्रम’’ के संबंध में एक बहुत ही विस्तृत लेख लिखा था। तकनीकी रूप से वह प्रशासनिक कार्यक्रम होने के बावजूद अप्रत्यक्ष रूप से भाजपाई लोगों ने ही लीड ली थी, जिस कारण से मंच पर कांग्रेसी प्रतिनिधि दिखाई नहीं दिए थे। उक्त लेख को समाज के हर वर्ग ने तथ्यात्मक रूप से सही पाते हुए समर्थन भी किया था। मुझे लगता है पार्टी के पदाधिकारियों ने शायद या तो उस लेख को पढ़ा नहीं या गरिमामय पूर्ण सम्मान कार्यक्रम करने की जो न्यूनतम आवश्यकता है, उसकी आज भी पूर्ति करने की जरूरत नहीं समझी गई। स्थानीय पार्टी नेताओं ने इसे पार्टी का एक एजेंडा मानकर उसकी पूर्ति करने की मात्र औपचारिकता कर दायित्व से इतिश्री कर ली, जैसे कि "आंख फेरे तोते की सी बातें करे मैना की सी", इसलिए मैंने उक्त कार्यक्रम में शरीक होकर अपमानित होना उचित नहीं समझा। 
मुझे जो जानकारी प्राप्त हुई, तदनुसार सम्मान कार्यक्रम के लिए प्रदेश कार्यालय ने किसी भी नेता को भोपाल से या अन्य कहीं से नहीं भेजा गया है। निश्चित रूप से भाजपा कार्यालय में जिले के नेता गण, पदाधिकारी मीसाबंदियों व परिवारों को सम्मानित करने के लिए मंचासीन थे, जिन्हें उस कुर्सी में पहुंचाने का एक बड़ा योगदान स्वयं इन्हीं मीसाबंदियों को है। इसमें शक-ओ-शुबहा की कोई गुंजाइश नहीं होना चाहिए।  
     वर्ष 1971 में ‘‘गरीबी हटाओ नारे’’ की आंधी में कांग्रेस की बड़ी जीत के बाद वर्ष 1974 में जेपी की (समग्र) संपूर्ण क्रांति आंदोलन के कारण लौह महिला इंदिरा गांधी की कुर्सी डगमगाने के कारण आपातकाल लागू किया गया था। तब देश भर में हजारों लोग मीसा कानून (आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था अधिनियम) में ‘‘निरोधक’’ (बंदी) रखे गए। हजारों परिवार बर्बाद हो गए थे। ऐसे मीसा बंदियों के समर्पण, तप, त्याग, बलिदान व कड़ी मेहनत के फलस्वरूप ही जिले के पदाधिकारी गण विभिन्न पदों पर आज विराजमान है। तब फिर उनके हाथों ही उन्हे पदों पर बैठालने वाले मीसाबंदियों का सम्मान कैसे? यह कुछ अटपटा सा नहीं लगता है, कि "अंडे सेवे कोई बच्चे लेवे कोई"! निश्चित रूप से इन मीसा बंदियों की आहुतियांे के फलस्वरूप सामान्य कार्यकर्ता भी जिले से लेकर प्रदेश व देश के नेता बने हैं। परन्तु बुद्धि-विवेक को थोड़ा सा तो घुमाइए। "अक़्ल का घर क्या इतनी दूर है"?
एक गुरु-शिष्य अथवा एक शिक्षक-विद्यार्थी के बीच जो संबंध होते है, लगभग उसी तरह के वे ही संबंध मीसाबंदी, परिवार व पार्टी कार्यकर्ताओं के बीच हैं व होने चाहिये। जब गुरु अथवा शिक्षक के प्रयास से शिष्य या शिक्षार्थी उच्च स्थान जैसे आचार्य या बड़ा नेता, उद्योगपति या किसी भी क्षेत्र में विशिष्ट स्थिति प्राप्त कर सम्मान का हकदार हो जाता है या बना दिया जाता है। तब उस गुरु व शिक्षक को असीम, आत्मीय सुख, शांति मिलना लाजमी है। और वह गुरु-शिक्षक भी शिष्य-विद्यार्थी की प्रगति से अपने को सम्मानित, गौरवान्वित महसूस करते हैं, समाज में सिर ऊंचा कर चलते है। इसी प्रकार चेला (शिष्य) विद्यार्थी गुरूओं व शिक्षकों के प्रति सम्मान जताते हुए अपने गुरु शिक्षकों को गौरवान्वित महसूस करते देख संतोष महसूस करते है। पर आपने कभी देखा ऐसा कि शिष्य या विद्यार्थी का अपने गुरु-शिक्षक का सम्मान करने का अवसर? कोई भी शिष्य या विद्यार्थी यही चाहेगा कि उसके गुरु या शिक्षक का सम्मान उनसे भी बड़ी सम्माननीय सम्मानित व्यक्तियों द्वारा हो, तभी तो वह वास्तविक सम्मान कहलायेगा? यही स्थिति व भावना मीसाबंदियों को सम्मान करने की होनी चाहिए थी, जो नहीं थी। "कमर का मोल होता है, तलवार का नहीं"। अर्थात ताक़त तलवार में नहीं बल्कि उसे बांधने वाले में होती है।
प्रश्न यह भी पैदा होता है, जब अपनों की बीच जाया जाता है, तो वहां सम्मान कैसे? ‘‘घर की मुर्गी दाल बराबर होती है’’, यह मुहावरा क्या सम्मानित करने वालों को नहीं मालूम है? मीसाबंदी परिवार और पार्टी के पदाधिकारियों और कार्यकर्ता पारिवारिक सदस्य समान है। "उंगलियों से नाखून कभी अलग नहीं होते", क्योंकि जनसंघ से भाजपा बनी पार्टी वृहत पारिवारिक माहौल के कारण पारिवारिक पार्टी कहलाती रही। याद कीजिए! ‘‘पितृ पुरुष’’ कुशाभाऊ ठाकरे, ‘‘दृढ़ पुरुष’’ सुंदरलाल पटवा, संगठन के ताने-बाने गढ़ने वाले ‘‘पुरोधा’’ प्यारेलाल खंडेलवाल व कोष की व्यवस्था करने वाले ‘‘सौम्य’’ नारायण प्रसाद गुप्ता। इन सबके बीच समन्वय के रूप में काम करने वाले ‘‘हंसमुख’’ कैलाश नारायण सारंग की कार्यप्रणाली और सोमवारा स्थित तंग सीढ़ी से ऊपर जाकर कार्यालय में रहने वाले ‘‘बापू’’ को याद कर लीजिए। "गुणियों की कमी नहीं है पारखियों की कमी है"।निश्चित रूप से आप एक्शन की बजाय परसेप्शन, नरेशन और ब्रांडिंग लिए ऐसे सम्मान को भूल जाएंगे। यदि ऐसे सम्मान समारोह की जगह मीसा बंदी, परिवार, पदाधिकारीगण और कार्यकर्ताओं का मिलन समारोह आयोजित किया जाता तो यह तथाकथित सम्मान से ज्यादा अच्छा होता। क्योंकि तब मीसाबंदियों को यह महसूस होता कि वे अपने उस ‘‘पौधे’’ के ‘‘वट-वृक्ष’’बनते परिवार के बीच में आए हैं, जिनको उन्होंने सींचा है, पाला है और बड़ा किया है। "औरों को नसीहत और ख़ुद मियां फज़ीहत" उक्ति को साकार करने वाले सम्मान करने वाले नेता कम प्रदेश के मंत्री कमल पटेल से ही यह सीख ले लेते कि वे इस अवसर पर इटारसी में मीसाबंदी परिवार स्व. हरि वल्लभ सोनी के घर पहुंचे व उन्हे श्रद्धांजलि अर्पित की। यह सम्मान कार्यक्रम से भी ज्यादा सम्मान उस परिवार के लिए है। अतः वास्तविक रूप से यह सम्मान समारोह न होकर मात्र पेपर पर ही पार्टी के एक प्रोग्राम (कार्यक्रम) की बिना भावना व भाव भंगिमा के खानापूर्ति ही कहलाएगी? जैसे कि "आकाश बिना खंभों के खड़ा है"। वैसे भी आजकल पार्टी ‘‘प्रोग्रामिंग, ब्रांडिंग, परसेप्शन’’ में ही ज्यादा विश्वास करती है। 
क्योंकि यह चुनावी वर्ष है और 19 सालों में पहली बार भाजपा किसी आम चुनाव में कठिन परिस्थिति से गुजर रही है। "एक तिनके से हवा का रुख़ मालूम हो जाता है" तो लगातार विभिन्न सर्वेक्षण की विपरीत परिणाम की रिपोर्ट की आशंका के मद्दे-नज़र शायद ‘‘आटे दाल के भाव’’ याद आ जाने से अंत्योदय के सिद्धांत अनुसार अंतिम कोने में खड़ा व्यक्ति को भी पार्टी की मुख्यधारा में लाने के प्रयास के परिणाम स्वरूप ही अंतिम छोर में खड़े व्यक्ति को ही नहीं, बल्कि घर बैठाल दिए गए मीसाबंदी एवं परिवारों को मुख्यधारा में लाने का प्रयास के तहत शायद उक्त योजना बनाई गई होगी? पार्टी कार्यालय में हुए कार्यक्रम में शायद किसी व्यक्ति ने यह कहा भी कि ‘‘काश’’ हर साल चुनाव होते, तो कम से कम हमें हर साल बुलाया तो जाता है? प्रदेश भाजपा जब पार्टी के अन्य कार्यक्रमों के लिए जिले के बाहर के व्यक्तियों को प्रत्येक जिले में प्रमुख अतिथि के रूप में भेजने का कार्यक्रम सामान्यतया बनाती है। अच्छा होता तब वही व्यवस्था वह इस कार्यक्रम के लिए क्यों नहीं की गई? अभी मुख्यमंत्री ने मीसा बंदी की सम्मान निधि में जो बढ़ोतरी की घोषणा की है। शिवराज जी मीसाबंदियों की ‘‘मान’’‘‘देय’’ (सम्मान निधि) बढ़ाने की नहीं बल्कि उनके ‘‘मान’’, ‘‘सम्मान’’, ‘‘स्वाभिमान’’ और अभिमान की चिंता कीजिए? आपकी चिंताएं खत्म हो जाएगी? मीसाबंदी जिन्हें लोकतंत्र का प्रहरी कहा गया अथवा स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, शायद सम्मान निधि से ज्यादा सम्मान पाने की बजाए उनके योगदान को स्वीकार करने की इच्छा रखते हैं। इसका अभाव पार्टी में स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है। सम्मान को सम्मानित तरीके से भावनाओं से परिपूर्ण दीजिए! एक मैकेनिज्म (तंत्र) सामान नहीं।
मुख्यमंत्री ने मध्य-प्रदेश के मीसा बंदियों के हुए 26 तारीख के सम्मेलन में मीसा बंदियों को कुछ सुविधाएं देने की घोषणा की। जैसे सरकारी ऑफिसों को सम्मानजनक व्यवहार करने के लिए निर्देश जारी करना, परिचय पत्र, मुफ्त इलाज, विश्राम गृह व नई दिल्ली स्थित मध्यप्रदेश भवन में रूकने की सुविधा आदि। आपातकाल के लगभग 45 साल बाद स्वयं मीसाबंदी रहे मुख्यमंत्री शिवराज सिंह द्वारा लगभग 17 साल बाद उक्त बुनियादी सुविधाओं की घोषणा पूर्व में न कर अभी चुनावी वर्ष में ही क्यों की गई है। यह सवाल आपकी जेहन में क्यों नहीं आता है? धन्यवाद!

2 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सटीक और सही लेख

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  2. आदरणीय राजू भैया; मीसाबंदियों केपरिवार की पीड़ा/दुःख की भावना को आपने अपनी लेखनी द्वारा सशक्तता से प्रगट किया है.आपके द्वारा रखे गये सम्पूर्ण तथ्य मीसाबंदी परिवारों की टीस है. आपने बिल्कुल सही कहा है कि चुनावीवर्ष में यह तथाकथित सम्मान चुनावी कार्यक्रमों का ही एक भाग है जिसमें सद्भावनाओं का नितांत अभाव है. प्रदेश नेतृत्व को मीसाबंदियों के सम्मान की जानकारी देना ही प्रमुख लक्ष्य है.तथ्यात्मक लेख के लिये साधुवाद. दिलीप नासेरी.

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