मंगलवार, 16 जनवरी 2018

‘‘न्यायिक सक्रियता’’ ‘‘न्यायिक संकट’’ (क्राइसेस) में तो नहीं ?

बहुत पहले आपातकाल के समय स्वर्गीय जस्टिस पी.एन. भगवती ने एक नारा दिया था ‘‘प्रतिबद्ध न्यायपालिका’’ (कमिटेड़ ज्यूडिशियरी)। उसके बाद पिछले कुछ समय से जनहित याचिकाओं (पी.आई.एल.) के माध्यम व स्व-प्रेरणा से उच्च न्यायालयांे एवं उच्चतम् न्यायालय ने ऐेसे कई ऐतहासिक निर्णय जन हित में दिये हैं जिन्हे कुछ क्षेत्रों में कार्यपालिका एवं विधायिका के अधिकारो का उल्लघंन माना गया हैं। इन्हे न्यायिक सक्रियता कहा गया। आज निष्पक्ष न्याय के साथ-साथ न्यायिक सक्रियता भी स्वतंत्र भारत के न्यायिक इतिहास के (अब तक के सबसे बड़े) गहरे न्यायिक संकट में फंस गई हैं, जिसका (दुश्ः) परिणाम फिलहाल गर्भ में हैं। 
हमारा देश चार स्वतंत्र स्तम्भों (पैरो) पर खड़ा हैं। संविधान द्वारा प्रदत्त न्यायपालिका,  कार्यपालिका व विधायिका के तीन स्वतंत्र खम्भों के साथ चौथे स्वंतत्र स्तम्भ प्रेस के मजबूत कंधो पर हमारे देश की सम्पूर्ण व्यवस्था टिकी हुई हैं। तीनो संवैधानिक स्तम्भ स्वतंत्र होने के बावजूद परस्पर सहयोग के द्वारा ही देश को चलाने व आगे बढ़ाने का कार्य कमोवेश सफलतापूर्वक करते चले आ रहे हैं। इन चारो स्तम्भों में सबसे महत्वपूर्ण जिम्मेदारी संविधान ने न्यायपालिका को दी  हैं, जिसे यह अधिकार दिया गया हैं कि संविधान के किसी भी एक अंग का दूसरे अंगो (संस्थाओं) के साथ विवाद की स्थिति निर्मित होने पर उच्चतम् न्यायालय का निर्णय अंतिम व बंधनकारी (अन्य किसी भी मामलो की तरह) होता हैं। इसके साथ ही संविधान ने विधायिका को भी यह अधिकार दिया हैं कि यदि उच्चतम न्यायालय के किसी निर्णय से कार्यपालिका सहमत नहीं हैं, वह संसद में बिल लाकर उस निर्णय को पलट सकती हैं (जैसा कि राजीव गांधी के कार्यकाल में शाहबानो प्रकरण में हुआ था) बशर्ते वह संविधान की सीमा के भीतर हो व संविधान की भावना के विरूद्ध न हो। जैसा कि केशवानंद भारतीय के प्रकरण में भी माननीय उच्चतम न्यायालय ने सिद्धान्त प्रतिपादित किया हैं कि संविधान के बुनियादी ढ़ाँचा (बेसिक स्ट्रक्चर) से छेड़ छाड़ नहीं की जा सकती हैं। इस प्रकार अंततः वास्तविकता में अभी तक उच्चतम न्यायालय को ही सर्वोच्च मानने की व्यवस्था ही कार्यरत रही हैं। संविधान का सरक्ष्ंाक एवं लोकतंत्र का प्रहरी भी न्यायपालिका को ही माना गया हैं।
आज उसी उच्चतम न्यायालय के कोलेजियम में व्यवस्था परस्पर आपसी (मुख्य न्यायाधीश विरूद्ध चार वरिष्ठ न्यायाधीश) विवाद उत्पन्न होकर प्रेस कांफ्रेंस के माध्यम से प्रकट हुआ हैं जो अत्यंत खेद जनक और एक ऐतहासिक दुर्भाग्यपूर्ण घटना हैैं। आखिर यह कोलेजियम व्यवस्था क्या हैं। कोलेजियम उच्चतम न्यायालय की एक प्रशासनिक व्यवस्था हैं, जो मुख्य न्यायाधीश सहित कुल 5 वरिष्ठ जजो का एक समूह हैं, जिसका प्रमुख न्यायाधिपति (प्रथम होने के नाते) मुख्य न्यायाधीश होता हैं। कोलेजियम की एक जिम्मेदारी जजो की नियुक्ति के मामले में सरकार को सिफारिश भेजना भी होता हैं जो सामान्यतः सरकार स्वीकार कर लेती हैं। तबादलों के फैसले भी कोलेजियम करता हैं। यद्यपि विषयानुसार रॉस्टर अर्थात कार्यतालिका बनाने का विशेषाधिकार मुख्य न्यायाधीश के पास होता हैं, परन्तु चली आ रही परम्परा नुसार सामान्यतः मुख्य न्यायाधीश कोलेजियम के अन्य वरिष्ठ जजो की सहमति से ही कार्यो का बँटवारा करते रहे हैं। उक्त परम्परा का पालन नहीं हो पाने के कारण ही दो माह पूर्व चारो वरिष्ठ जजों ने मुख्य न्यायाधीश को पत्र लिखकर वेदना पूर्वक अपनी बात व्यक्त की थी। इसीलिए यह विवाद उत्पन्न हुआ हैं। चारो वरिष्ठ जजो ने इसी रॉस्टर प्रणाली को संाकेतिक रूप से कुछ विशिष्ट केसो के साथ जोड़कर विवाद को और गहरा कर दिया हैं। यद्यपि इस व्यवस्था के एक भाग ‘‘जिसके अंतर्गत जजो की नियुक्ति की सिफारिश की जाती हैं’’ को संसद में कानून पारित कर न्यायिक नियुक्ति आयोग बनाकर समाप्त कर दिया गया था। लेकिन उच्चतम न्यायालय द्वारा उक्त कानून को असंवैधानिक घोषित करके कोलेजियम व्यवस्था को पुनः बहाल किया। इसके बावजूद भी उच्चतम न्यायालय इस कोलेजियम व्यवस्था में सुधार चाहता हैं जिसके लिये सुझाव मागें गये हैं। 
किस न्यायाधीश को या न्यायाधीशों की किस बंेच को कौन सा प्रकरण दिया जाए (‘‘बेंच हंटिंग’’), इससे देश का लोकतंत्र कैसे खतरे में पड़ सकता हैं, जैसा कि चार वरिष्ठ जजों ने आरोप लगाया हैं, यह एक बडा प्रश्न हैं। जब तक यह तथ्य सामने नहीं आता हैं कि निर्णय देने वाली बेंच ‘‘न्यायपूर्वक निर्णय न देकर किसी प्रभाव मेें आकर निर्णय दे रही हैं’’ तब तक उनकी मंशा पर सांकेतिक रूप से निशाना लगाना/उठाना उचित नहीं होगा। वरिष्ठ न्यायाधीशो के उक्त कथन का (बिना कहे) साथ में यह अर्थ भी निकलता हैं कि वे मुख्य न्यायाधीश के साथ उन बेंचो के न्यायाधीशों के विवेक पूर्ण निर्णयों (न्याय) पर भी प्रश्नवाचक चिन्ह लगा रहे हैं जिन्हे मुख्य न्यायाधीश ने सुनवाई हेतु रॉस्टर से हटकर केस दिये हैं।  
सुप्रीम कोर्ट के चारो न्यायाधिपतियांे द्वारा विवाद के मुद्दो को प्रेस कांफ्रेस का सहारा लेकर सामने लाने की बात पर मत तीव्र विभाजित हो सकते हैं। इस प्रेस वार्ता से एक तरफ उच्चतम न्यायालय की गरिमा, प्रतिष्ठा, निष्ठा व निष्पक्षता की लगभग 70 सालो से खीची गई मजबूत दीवार पर ही एक दरार उत्पन्न हो गई हैं, जो कैसे दूर होगी, कैसे भरेगी, यह एक बड़ा प्रश्नवाचक चिन्ह उत्पन्न करती हैं? इन्ही वरिष्ठ न्यायाधीशों की नजर में उच्चतम न्यायालय में ‘‘सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है’’ं जिसको ध्यान में लाने के लिये उन्होने मुख्य न्यायाधीश को चिठ्ठी लिखी, व्यक्तिगत मुलाकात की, लेकिन उसके बावजूद न तो कोई सुधार हुआ और न ही इन न्यायाधीशो के मन में कोई सुधार की आशा की किरण ही जगी। शायद तभी मजबूरी में उन्होंने सब कुछ ठीक नहीं चल रहा हैं, की बात को सार्वजनिक किया हैं। लेकिन यह चरम कदम उठाने के पूर्व उनके पास तीन रास्ते और थे। एक महामहिम राष्ट्रपति से मिलकर अपनी व्यथा व्यक्त करते। दूसरा उच्चतम न्यायालय के अन्य समस्त (24) जजो के साथ बैठकर चर्चा कर अपनी बात समझाते और फिर  उनकी बात यदि सही मानी जाती तो उन समस्त न्यायाधीशो के साथ मिलकर मुख्य न्यायाधीश से मिलते। तीसरा अपने पद से इस्तीफा देकर प्रेस कान्फ्रेस करते व उसमें यह घोषणा करते कि वे स्वयं उच्चतम न्यायालय में उक्त मुद्दो (रॉस्टर व विशिष्ट केसो को) लेकर याचिका दायर करेगें। तब शायद उन पर न्यायपालिका को सेन्सेशन  (सनसनी) बनाने का आरोप नहीं लग पाता। बल्कि लाचारी में बेबश होकर सुधार लाने के लिये ‘‘अंतिम’’ हथियार को उठाकर न्यायालय के प्रति ‘‘धारणा’’ की रक्षा करने के लिये उक्त अप्रिय लेकिन साहसिक कदम उठाने के लिये वे सही ठहराये जाते। न्यायिक क्षेत्र से जुड़े व्यक्तियों और आम नागरिक के बीच उक्त मुद्दे को लाने का क्या यही एकमात्र सही तरीका था? प्रश्न ये भी है?ं जिस तरीके को अपनाया गया हैं, निश्चित रूप से उसने उच्चतम न्यायालय की न्याय व्यवस्था पर नागरिको की आस्था को डिगाने का ही प्रयास किया हैं। इससे भी बड़ा प्रश्न यह हैं कि क्या उक्त मुद्दे जो कि उच्चतम न्यायालय के कोलेजियम का आंतरिक मामला था, को इस तरह से सार्वजनिक रूप से लाना निहायत जरूरी व उचित था? विशिष्ट रूप से, क्या न्यायपालिका पर देश के नागरिको के भरोसे पर भी कहीं न कहीं दरार पैदा कर देना देश की न्याय व्यवस्था के लिये एक खतरनाक बात नहीं होगी? सब कुछ ठीक न होने की बात को लेकर न्यायपालिका के कोलेजियम को सुधारने के लिये चार वरिष्ठ जजों ने पद पर रहते हुये जो जज्बा दिखाया हैं उससे भी खतरनाक स्थिति (उनकी न्याय व्यवस्था के ठीक न होने की कल्पना से परे) संविधान के इस महत्वपूर्ण खंभे को ही कहीं चौथा खम्बा (मीडिया) हिला न दे, प्रश्न यह हैं?
अभी तक इस मामले में केन्द्रीय सरकार ने यह कहकर अपने को फिलहाल अलग थलग कर लिया हैं कि यह उच्चतम न्यायालय का अन्दरूनी मामला हैं। जब उच्चतम न्यायालय न्याय हित में देश हित में, नागरिको के हित में, संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकार एवं कर्त्यव्यो के तहत शासन की अंदरूनी स्थिति (कमियों) पर स्वयं या विभिन्न जांच एजेंसियों द्वारा जांच करवाता रहता हैं, निर्देश देता रहता हैं, तब ठीक वैसी ही स्थिति सर्वोच्य न्यायालय के भीतर उत्पन्न होने पर, सरकार भी मुख्य न्यायाधीश की सहमति से एक स्पेशल सीबाीआई जांच टीम का गठन करने के लिये एक कदम आगे क्यों नहीं बढाती हैं। ताकि वस्तु स्थिति दोनो पक्षों के सामने स्पष्ट हो जाए। चार वरिष्ठ  जजों के द्वारा गंभीर रूप से भ्रष्ट्राचार की स्थिति की ओर इंगित करने का प्रयास किया गया हैं जैसा कि मीडिया के कुछ क्षेत्रो में रिपोर्टिग हो रही हैं। चूकि यह एक अभूतपूर्व स्थिति हैं और ऐसी  स्थिति का हल भी एक अभूतपूर्व कदम उठा कर ही किया जा सकता हैं। शायद इसके लिये कुछ समय का इंतजार करना होगा? साथ ही प्रंधानमत्री को स्वयं आगे आकर कानून मंत्री को साथ में लेकर मुख्य न्यायाधीश के साथ कोलेजियम की मींटिग बुलाकर समस्त निहित मुद्दो पर चर्चा करने पर कुछ न कुछ हल अवश्य निकलेगा, और उच्चतम न्यायालय की छबि भी अक्षुण्ण रह पायेगी। न्यायालय की स्थिति न केवल न्यायपूर्वक होनी चाहिए बल्कि न्यायपूर्ण होते हुये दिखना भी चाहिए। वैसे ही, जैसे कि न्याय के लिए कहा गया हैं कि न्याय न केवल मिलना चाहिये बल्कि मिलते हुये दिखना भी चाहिए। अंत में इस मामले में किसी भी एक पक्ष को पूर्णतः स्वीकार करना व दूसरे पक्ष को अस्वीकार कर किसी भी पक्ष को बयान बाजी से आगे बचना चाहिए ताकि स्थिति और खराब न हो। 
कुछ मीडिया चैनलों ने जहां चार ‘‘न्यायाधीशों की प्रेस कांफ्रेस करने को’’ सनसनी फैलाकर जजों को कटघरे में खड़ा करने का प्रयास किया हैं, वहीं वे स्वयं इस मुद्दे पर लम्बी चौड़ी बहस कराकर मामले में स्थिति को और खराब कर रहे हैं। न्यायपालिका की गरिमा को बचाये रखने के लिये फिलहाल मीडिया को भी इससे बचना चाहिए।

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