शनिवार, 18 फ़रवरी 2017

तमिलनाडु की घटना देश में ‘‘लोकतंत्र’’ की नई परिभाषा गठित करने जा रही हैं ?


 तमिलनाडु की पूर्व मुख्यमंत्री सुश्री जयललिता (अम्मा) की लंबी बीमारी के बाद स्वर्गवासी हो जाने के पश्चात् उत्पन्न हुई स्थिति का सामना महामहिम राज्यपाल तथा जिम्मेदार राजनैतिक पार्टियों व व्यक्तियों द्वारा जिस तरह से किया जा रहा हैं उससे एक नई राजनैतिक कल्पना की उत्पत्ति हुई हैं जिस कारण क्या लोकतंत्र व लोकतांत्रिक व्यवस्था को पुनः परिभाषित करने का समय तो नहीं आ गया हैं? यह यक्ष प्रश्न तमिलनाडु की वर्तमान स्थिति से उत्पन्न हुआ हैं। सुश्री जयललिता की मृत्यु के बाद से आज तक तमिलनाडु में इतना कुछ घटित हो गया हैं जो न केवल अकल्पनीय हैं, बल्कि भारतीय संविधान की व्याख्या, अर्थ, भावना व आत्मा के बिल्कुल विपरीत हैं। अपनी बीमारी के चलते जयललिता द्वारा तीसरी बार नियुक्त किए गये ओ.पन्नीरसेल्वम ने उनकी मृत्यु होने के बाद जयललिता की अंतरंग सखा (दोस्त) शशिकला नटराजन (चिन्नम्मा) के दबाव के चलते इस्तीफा दे दिया। यद्य्पि इस्तीफा देते समय ऐसा कोई दबाव का कथन पन्नीरसेल्वम् द्वारा नहीं कहा गया था। यह भारतीय लोकतंत्र में ही संभव हैं कि एक ऐसा व्यक्तित्व जो राजनीति में कभी सक्रिय न रहा हो और जिसने पार्टी के किसी पद रह कर सार्वजनिक, राजनैतिक जीवन व्यतीत न किया हो, सिर्फ और सिर्फ मुख्यमंत्री की मात्र अंतरंग सखा होने की योग्यता के रहते पार्टी का पूरा का पूरा नेतृत्व और कॉड़र (?) ‘‘अम्मा से चिन्नम्मा’’ बनी शशिकला के सामने समर्पण करके उन्हे अपना नेतृत्व सौप देता हैं। यह सब भारतीय लोकतंत्र में ही संभव हैं जहॉ राजशाही प्रणाली को भी लोकतांत्रिक प्रकिया का रूप में ढालकर लोकतंत्र की नई परिभाषा गठित की गई हैं। इसके पूर्व जानकी रामचंदन, चन्द्रबाबू नायडू, नवीन पटनायक, तेजस्वी यादव, अखिलेश यादव जैसे राजनैतिक व्यक्ति(?) परिवारवाद की राजशाही के रहते स्वीकार किये जाते रहे हैं। राजीव गांधी शायद पहिले ऐसे व्यक्ति थे जिनका राजनैतिक अनुभव शून्य होने के बावजूद ‘युवराज’ के कारण सिंहासनारूढ हुये। लेकिन परिवार के बाहर जाकर गैर परिवारवाद और गैर राजनीतिज्ञ व्यक्ति को मुख्यमंत्री पद के लिये नेतृत्व सौपने का देश के लोकतंत्र में यह पहला मामला हैं। वह ‘देश’ जो विश्व के लोकतंत्र का सबसे बड़ा ‘देश’ का दावा करता हैं। क्या यह लोकतंत्र पर तमाचा नहीं हैं?
देश के लोकतंत्र पर दूसरा तमाचा तमिलनाड़ु के गर्वनर के अभी तक का व्यवहार (नीति) हैं। सामान्यतः जब मुख्यमंत्री ने अपने पद से स्वेच्छा से इस्तीफा दे दिया था और राज्यपाल द्वारा उसे स्वीकार कर ने के पश्चात् और दूसरा नेता सर्व-सम्मति से पार्टी (एआईडीएमके) ने चुन लिया था जिसे बहुमत प्राप्त हैंे। तब उस व्यक्ति को उच्चतम् न्यायालय के निर्णय आने के पूर्व तक (जब शशिकला दोषी ठहराने जाने के निर्णय के कारण अयोग्य हो गई) मुख्यमंत्री पद की शपथ न दिलाने में संविधान के किस अनुच्छेद का सहारा ‘‘लाट साहब’’ ले रहे थे। जितनी तत्परता उन्होंने इस्तीफा स्वीकार करने में दिखाई, उतनी ही तत्परता शशिकला के नेता चुने जाने के बाद उन्हे शपथ दिलाने में क्यों नहीं की? राज्यपाल को संविधान यह अधिकार नहीं देता हैं कि वह शशिकला पर चल रहे मुकदमा के उच्चतम् न्यायालय के निर्णय आने की संभावना को देखते हुये व शशिकला का कोई राजनैतिक जीवन न होने के आधार पर (जैसा की मीड़िया के कुछ भाग में दिखाया जा रहा था) उन्हे शपथ दिलाने में देरी करेे। तीन दिन तक राज्यपाल का तमिलनाडु वापस न लौटना क्या किसी साजिश का ही हिस्सा हैं? इसके पूर्व जब भी किसी राज्य में इस तरह की स्थिति उत्पन्न हुई हैं, राज्यपाल स्थिति का जायजा लेने, सामना करने व तदानुसार निर्णय लेने के लिये तुरंत राजधानी लौटते हैं। 
यहॉं तथ्य भी उल्लेखनीय हैं कि हमारे देश में यह पहली बार यह हुआ हैं कि मुख्यमंत्री के इस्तीफा को राज्यपाल द्वारा स्वीकार करने की कार्यवाही के पश्चात् मुख्यमंत्री का यह कथन की वे लोगो के कहने पर अपना इस्तीफा वापस ले सकते हैं जो न केवल असंवैधानिक हैं बल्कि अनैतिक भी हैं। इस्तीफा स्वीकार करने के बाद वापसी का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता हैं। यदि एक मुख्यमंत्री को इतनी सी भी समझ नहीं है तो उसे मुख्यमंत्री पद पर एक पल भी नहीं रहना चाहिए। य़द्यपि वे मुख्यमंत्री पद पर बहुमत के आधार पर पुनः दावा कर सकते हैं लेकिन इस्तीफा स्वीकृत होने के बाद इस्तीफा वापस लेने का अधिकार शून्य हैं।
वास्तव में राज्यपाल ने एक बहुमत प्राप्त व्यक्ति के मुख्यमंत्री बनने के अधिकार को अपनी अक्रमण्यता से मान्यता न देने का ही प्रयास किया हैं व दूसरे पक्ष को अपना दावा मजबूत करने केे लिये अप्रत्यक्ष रूप से अवांछित समय देने का प्रयास किया हैं। गर्वनर द्वारा एटॉर्नी जनरल से कानूनी राय  मांगना शायद इसी नीति का भाग मात्र रहा हैं। एटॉर्नी जनरल से राय तब मांगी जाती हैं जब किसी प्रकार का संवैधानिक संकट खड़ा हो गया हो। यहां तो राज्यपाल स्वयं संवैधानिक संकट पैदा करते हुये दिख रहे थे। 
अब उच्चतम् न्यायालय के निर्णय आने के बाद यह स्पष्ट हो गया कि शशिकला मुख्यमंत्री नहीं बन पायेगी। लेकिन प्रश्न अभी भी यही हैं कि गर्वनर बहुमत प्राप्त चुने गये नये नेता को मुख्यमंत्री बनने के लिए रास्ते में कब तक अवरोध पैदा करेगे और अपनी आहुति उस यज्ञ में देते रहेगंे। लेकिन इसका पटाछेप करते हुये अंत में आज ही उन्होंने ई पलनीसामी को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाकर लोकतंत्र को और गिरने से अतंतः रोक दिया हैं, जो कार्य उन्हे पहिले ही कर लेना चाहिये था। 
भारतीय लोकतंत्र की राजनीति का एक और गिरा हुआ उदाहरण यह भी है जो माननीय उच्चतम् न्यायालय के जयललिता के मामले में आये निर्णय की प्रतिक्रिया को देखकर अनुमान लगाया जा सकता हैं। माननीय उच्चतम् न्यायालय ने निचली अदालत द्वारा शशिकला व चार अन्य को दी गई सजा को (जिसे उच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया था) को सही मानते हुये उच्च न्यायालय के दोष मुक्ति के आदेश को निरस्त कर दिया और अतः जयललिता, शशिकला व अन्य दोेेेेेेे को दी गई सजा को बहाल कर दिया। जयललिता स्वर्गवासी हो गई, लेकिन अन्य के विरूद्ध सजा प्रांरभ हो गई। लेकिन अम्मा के उत्तराधिकारी के रूप मे पन्नीरसेल्वम का मुख्यमंत्री बनने का रास्ता साफ होते देख उच्चतम् न्यायालय के निर्णय की प्रतिक्रिया में उनके व समर्थको द्वारा खुशी का जिस तरह से इज़हार किया गया कि वे यह भूल गये कि उच्चतम् न्यायालय ने उनकी ‘नेत्री’ को दोषी माना हैं, न कि दोष मुक्त। लेकिन राजनीति में आगे बढ़ने की मंशा के आगे अनायास अनजाने में ही उक्त घटना से राजनीति का स्तर और गिर गया। तो क्या पन्नीरसेल्वम अपनी ‘नेत्री’ को दी गई सजा के विरूद्ध पुर्नविचार याचिका उच्चतम् न्यायालय में दाखिल करेंगे?
कुछ लोग तमिलनाडु़ की उपरोक्त घटना के संबंध में जरूर यह कह सकते हैं कि ‘‘लोकतंत्र’’ से ‘‘व्यक्तिवाद’’(तानाशाही) व ‘‘व्यक्तिवाद’’ से वापिस ‘‘लोकतंत्र’’ (‘अम्मा’ से चिन्नमा व चिन्नमा से ई पलनीसामी) की सफल वापसी यात्रा केवल भारतीय लोकतंत्र में ही संभव हैं। शायद यही ‘‘लोचा’’ ही भारतीय लोकतंत्र की ‘‘विशिष्टता’’ हैं।

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