बुधवार, 13 अप्रैल 2011

अन्ना हजारे के अनशन के बाद उसमें निहित अर्थ/अनर्थ



अंतत: पूरे राष्ट्र ने राहत की सांस ली जब केंद्रीय सरकार और सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे के बीच समझौता हो गया और अन्ना हजारे ने एक आम भारतीय की प्रतीक बिटिया के हाथ (किसी सेलेब्रिटी के हाथ नही) नींबू का पानी पीकर अनशन समाप्त किया। अन्ना हजारे की पांच मांगो मे से सरकारी गजट अधिसूचना जारी करने की अंतिम मांग उनके द्वारा छोड़ देने के बावजूद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने मसौंदा समिति की केंद्रीय गजट मे अधिसूचना जारी कर न केवल बडप्पन का परिचय दिया बल्कि एक अच्छा माहौल बनाने के संकेत भी दिये। इसलिये स्वामी अग्रिवेश ने प्रधानमंत्री को इस बात के लिये धन्यवाद भी दिया। यद्यपि अनशन समाप्त होने से एक अध्याय समाप्त जरूर हुआ लेकिन इसने कई नये अध्यायों को व आयामो को जन्म दिया है जिसमें कुछ भविष्य के गर्त में छुपे है और कुछ तुरंत परिलक्षित हुये है जिनका विवेचन आगे किया जाना आवश्यक है।
                        स्वतंत्र भारत के इतिहास में यह पहला आंदोलन हुआ जिसमें बगैर किसी देशव्यापी संगठन के, हजारों व्यक्तियों के सदस्य (मेम्बर) हुए बिना एक रालगेन सिध्दी (अन्ना के गांव) के व्यक्ति अन्ना के आव्हान पर तीव्र गति से पूरे देश में अन्ना द्वारा प्रारम्भ में अपने मात्र कुछ सैकड़ो सहयोगियों के साथ जंतर मंतर,दिल्ली मे प्रारम्भ किये गये एक अनशन को विराट जनक्रांति का रूप प्राप्त हो गया। प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से जन मानस की अधिकांश भागीदारी इस मूवमेंट के साथ हो गई जिसने इस मिथक को भी तोड़ा है र्कि अकेला चना भाड़ नहीं फोड सकर्र्ता । यह अन्ना का पहला आंदोलन नहीं था। वे इसके पूर्व भी इसी भ्रष्टाचार के मुददे से लेकर कई अन्य मुद्दो पर महाराष्ट में आंदोलन चला चुके है (वैसे सबसे प्रथम अहिंसक आंदोलन भारत मे सन १८११ मे बनारस मे हुआ था) लेकिन तब वे मूवमेंटस आंदोलन की जनसामान्य के अधिकाधिक जनसंख्या तक नहीं पहुंच सके के जैसा कि आज इस आंदोलन में हुआ है। इसका सबसे बड़ा कारण  यही है कि जनता वास्तव में भ्रष्टाचार से इतना तंग आ चुकी है कि आज जब अन्ना हजारे ने पुराने मुद्दे को उठाया तो जनता उससे दो कदम आगे की सोचने लगी। अन्ना हजारे ने लोकपाल विधेयक लाने का जो मुद्दा उठाया उससे भ्रष्टाचार समाप्त होने वाला नहीं है और न ही अन्ना ने ऐसी कोई बात कही है। उनके द्वारा तो मात्र राजनैतिक भ्रष्टाचार पर प्रभावी अंकुश लगाने के उद्देश्य से जन लोकपाल बिल की मांग की गई थी। जब कोई कड़क कानून बनता है तो उसके डर का नागरिक पर इतना दबाव बना रहता है कि वह उक्त अपराध करने की चेष्टा न करें। कानून की मंशा भी यही होती है। लेकिन यह धारणा भी गलत है क्योंकि क्या कानून बन जाने से अपराध समाप्त हो गये है। भ्रष्टाचार पर रोक के लिए देश में पहले सेे ही कई कानून है। भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम से लेकर भारतीय दंड संहिता में भ्रष्टाचार को एक बडा अपराध मानकर कड़ी सजा के विभिन्न प्रावधान है। लेकिन जिस प्रकार सैकड़ो कानून होते हुए समस्त तरह के गैर कानूनी, अनैतिक कृत्य को अपराध मानकर उनके खिलाफ फांसी से लेकर विभिन्न कड़ी सजा के प्रावधान होने के बावजूद न तो समाज-देश मे अपराध समाप्त हुए है और न ही उनकी संख्या कम हुई। इसलिए मात्र जनलोकपाल बिल के लोकपाल अधिनियम बन जाने से भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा या कम हो जाएगा यह सोचना बेमानी होगा और वास्तविक स्थिति से आंख मूंदने के समान होगा। 
                                   मैं बात उपर यह कह रहा था कि अन्ना हजारे जनता को राजनैतिक भ्रष्टाचारियों को सजा दिलाने की बात  कह रहे थे अन्य भ्रष्टाचारियों की बात नहीं की थी। लेकिन जनता उनके दो कदम आगे सोचकर कि समस्त प्रकार का भ्रष्टाचार समाप्त हो सकता है और इस कारण वह बिना किसी ''पीले चावल'' (आमंत्रण) के, बिना किसी के द्वारा मूवमेंट किये, स्वप्रेरणा से जनअभियान के रूप में पूरे देश की जनता अन्ना हजारे के साथ जुड़ गई जिससे एक प्रतिष्ठित विवाद रहित सामाजिक व्यक्ति ''अन्ना'' ''अन्नदाता'' के रुप मे उभर कर ''नायक'''' (अन्ना का प्रारंभिक जीवन नायक के रूप में सेना में कार्य करते हुए गुजरा है) से ''जननायक'' की श्रेणी में आकर ''लोकनायक'' जयप्रकाश की श्रेणी में गिनती होने लगी। शायद भविष्य में उससे आगे भी महात्मा गांधी की श्रेणी में वे गिने जाने लगें। यह उनके व्यक्तित्व की सज्जनता सहजता एवं सीधापन है कि उन्होने मीडिया से उनकी तुलना महात्मा गांधी से न करने को कहा। यह इस क्षण की सबसे बड़ी उपलब्धि है। लेकिन सिक्के के हमेशा दो पहलू होते है और मैं हमेशा इस सिद्धांत पर विश्वास करता हूं कि कोई भी व्यक्ति, संस्था या व्यवस्था सम्पूर्ण नही होती है। हर व्यक्ति में कुछ न कुछ गुण एवं अवगुण अवश्य होते है। जब अन्ना अनशन पर बैठे थे और जैसे जैसे कारवा बढ़ता जा रहा था तब उनके रूख और व्यवहार में जो परिवर्तन आ रहा था वह सामान्य व्यक्ति के लिए तो स्वाभाविक था लेकिन 'अन्ना' जैसे के लिए नहीं। 'अन्ना' का समझौता होने क ी पूर्व रात्रि में कहा गया कथन कि अगले चौबीस घंटे में सरकार को झुकना होगा ''दम्भ'' को प्रदर्शित करता है। उनके द्वारा मसौदा समिति में ५० प्रतिशत की भागीदारी, और अध्यक्ष पद पर दावेदारी बाद मे सह अध्यक्ष की मांग, उनके सहयोगियों का यह कथन कि अब हम जीत गये बातचीत के अंत में सरकार के प्रस्ताव पर उनका जवाब कि अगले दिन अनशन समाप्ति पर निर्णय देंगे लेकिन बाद में देर रात्रि अगले दिन सुबह १० बजे अनशन समाप्ती की घोषणा। तत्पश्चात पहिले अधिसूचना जारी हो फिर अनशन समाप्त होगा, ये समस्त तथ्य ऐसे है जो उनके व्यक्तित्व मेें निखार नहीं लाते है। लेकिन इसके विपरीत प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को सरकारी अधिसूचना जारी न करने की सरकार के मत को अन्ना द्वारा स्वीकार करने के बावजूद कपिल सिब्बल को अधिसूचना जारी करने के निर्देश देकर अन्ना के अनशन के समाप्ति पर खुशी जाहिर करते हुए इसे लोकतंत्र की जीत बताते हुए इसे लोकतंत्र के लिये शुभ बताया जिससे निश्चित रूप से प्रधानमंत्री ने अपना बड़प्पन दिखाकर अपने कद को तुलनात्मक रूप से ऊंचा उठाया। यही बड़प्पन अन्ना भी दिखा सकते थे क्येांकि यह युद्ध का मैदान नहीं जहां जीत या हार का प्रश्र हो। यह एक मुद्दे की मांग थी जिसे सरकार ने स्वीकार किया जो उसका कार्य और कर्तव्य था। अन्ना का यह बयान भी बेहद आपत्तिजनक है कि हमने ''काले अंग्रेजो'' की नींद उड़ा दी है। यह बयान उनकी शान के न केवल खिलाफ है बल्कि सोनिया व मनमोहन सिंह को अन्ना द्वारा लिखे गये पत्र की भावना के भी प्रतिकूल है। 
                          सरकार के पास जिस रूप में लोकपाल विधेयक लम्बित था वह वास्तव में बहुत मजबूत व प्रभावी नहीं था। इसलिए 'अन्ना' ने लोकपाल विधेयक की उन कमियों को दूर कर जन लोकपाल विधेयक के रूप में सरकार के पास भेजा था। जब अन्ना को उपवास के माध्यम से सरकार को किसी बात पर मजबूर करना ही था जैसे की सरकार अंतत: हुई तब अन्ना हजारे ने इस बात पर क्यों जोर नहीं दिया कि जिस रूप में हमने जन लोकपाल बिल आपको दिया है उसे वैसा का वैसा ही स्वीकार किया जाये और यदि इसके कोई प्रावधान गलत है तो उसे विशेषज्ञ समिति के माध्यम से जनता के  बीच लाया जाए। बजाय इसके कि लोकपाल विधेयक का निर्माण करने के लिए ५० फीसदी भागीदारी के साथ संयुक्त मसौदा समिति की मांग नागरिक समिति की नियत पर उंगली उठाने का मौका देती है। यदि सरकार की नीयत पर शंका की जाती है तो वह शंका आज भी बरकरार है। यदि आपको जन बल के दबाव के आगे गड़बडी करने की हिम्मत सरकार की नही होगी, यह विश्वास है तो समिति में भागीदारी के बिना भी जन लोकपाल विधेयक को कानून बनाने का दबाव सरकार पर सीधे डाला जा सकता था। इससे यह आशंका पैदा होने का कोई अवसर नही होता  कि अन्ना के सहयोगी किसी न किसी रूप में सत्ता की भागीदारी चाहते है। वास्तव में सत्ता का आकर्षण ही अलग होता है और इसलिए सत्ता की तुलना वेश्या से भी की जाती रही हैर्। सत्र्ता  का मतलब सिर्फ सरकार की सत्ता से ही नहीं र्है सत्र्ता  हमारे जीवन के प्रत्येक क्षेत्र से जुड़ी हुई है और उससे दूर रहना सामान्य व्यक्ति के लिए बहुत आसान नहीं है। 
दूसरी बात हमारे देश में जो भीड़ तंत्र है उसका यह प्रभाव होता है कि आदमी अपने स्वविवेक को खो देता है क्योंकि भीड़ में इतना आकर्षण होता है कि वह भीड को सत्ता का साधन मानकर स्वयं को सत्ता का सबसे बड़ा केंद्र मानने लगता है। अन्ना हजारे का अनशन समाप्ति के बाद इसे दूसरी आजादी का प्रारम्भ कहना इसी भीड़ तंत्र का प्रभाव है। आजादी इतनी सस्ती नहीं है। वास्तव में इस देश को दूसरी आजादी की आवश्यकता है क्योकि परिस्थितिया इतनी खराब है। लेकिन क्या इसे हम दूसरी आजादी कह सकते है। यह गम्भीर प्रश्र है और इसका जवाब गम्भीरता से देना होगा। पूरे देश में अन्ना के साथ इस देश की जनसंख्या का जो वह भाग जो अपने विचार व्यक्त करने की क्षमता रखता है। (लगभग ५० प्रतिशत) का अधिकांश भाग (लगभग ९० प्रतिशत) अन्ना के साथ इस मुद्दे के लिए बिना किसी बुलावे के खड़ा हेा गया  अर्थात देश की जम्हूरियत जाग गई लेकिन हमें इस पर विचार करना पड़ेगा कि वास्तव में  देश की जम्हूरियत किस उद्देश्य के लिए जागी है। क्या इसे सही दिशा देने की जरूरत है? और यदि वह दिशा दे दी गई तब इसे दूसरी आजादी को प्रारंभ कहा जा सकता है। महत्वपूर्ण प्रश्र यह पैदा होता है कि जो लोग पूरे देश में अन्ना के साथ खड़े हुए क्या वे वास्तव में भ्रष्टाचारियों को दंडित करना चाहते है भ्र्रष्टाचार को कम, समाप्त, करना चाहते है, उसके विरूद्ध खड़ा होना चाहते है और अंतत उसके लिए एक स्वयं की आहुति देने के लिए तैयार है। यदि इसका उत्तर प्रत्येक भारतीय ने दे दिया तो निश्चित रूप से दूसरी आजादी की क्रांति खड़ी हो जाएगी। ये करोड़ो हाथ जो खड़े हुऐ इसमें कितने ऐसे लोग थे जो दिल पर हाथ रखकर ईश्वर के सामने शपथ ले सकते है कि न तो वे भ्रष्ट है और न ही भ्रष्टाचार में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सहयोगी है। क्योंकि भ्रष्टाचार का मतलब यह नहीं है कि रिश्वत का लेन-देन। जो भी भ्रष्ट आचरण कर रहा है वह भ्रष्ट है। और भ्रष्ट आचरण का मतलब कानून के विरूद्ध काम करना। माननीय अन्ना यह एक चूक कर गये जब वे जंतर मंतर मे आये हजारो लोगो को इस बात की शपथ दिला सकते थे कि आज से हम किसी भी प्रकार का भ्रष्ट आचरण नहीं करेंगे और अपने जीवन को कानून की सीमाओं में रहकर जीने का पूर्ण सफल प्रयास करेंगे। फिर यह सिद्धांत छोडऩा होगा कि कानून की नजर में वह हर व्यक्ति निरअपराध है जब तक वह कानूनन् अपराधी घोषित नहीं होता। मेरे कुछ पत्रकार दोस्तो ने अन्ना हजारे के अनशन के दिन मुझे सलाह दी थी कि आप भी उनके समर्थन में बैठे क्योंकि आप भी सामाजिक कार्यो में अग्रणी रहते है यद्यपि मैंने उन्हे कहा कि मैं बैठूंगा लेकिन मैं साहस नहीं कर पाया। यद्यपि मेरा राजनैतिक और सामाजिक जीवन पूर्णत: बेदाग रहा है इस संबंध में कोई भी चुनौती स्वीकार करने के लिए मैं तैयार हूं। इसके बावजूद मैं आयकर, वाणिज्यिक कर के वकालत के जिस व्यवसाय में हूं उसमें कही न कहीं मैं अप्रत्यक्ष रूप से भ्रष्टाचार में सहयोगी हूं और इसलिए मेरा मन, मेरा आत्मबल मुझे उतना साहस नहीं दे पाया और मैं अनशन पर नहीं बैठ सका। जंतर मंतर पर जितने लोग अन्ना के साथ खड़े थे क्या वे अपने दिल पर हाथ रखकर कह सकते है कि वे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कभी भी किसी भी प्रकार से भ्रष्ट आचरण से नहीं जुड़े रहे है। मैने अपने नगर के कुछ लोगों को अन्ना के समर्थन में खड़ा होते हुए देखा है लेकिन शायद बिरले ही होंगे जो यह कह सकते है कि उनसे किसी भी रूप में प्रत्यक्ष या अप्रत्क्ष रूप से कभी भी भ्रष्ट आचरण नहीं किया और शायद यही स्थिति उन करोड़ो हाथों की है जो खड़े हुए। लेकिन अन्ना हजारे को इस बात का श्रेय जरूर दिया जाना चाहिए कि उन्होने एक स्थिति पैदा कि की एक नागरिक यह विचार मंथन करके कि वह आज भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिए अपने आत्मबल को कितनी मजबूती प्रदान करके स्वयं को भ्रष्टाचार से कितना दूर रख सकता है। क्योंकि भ्रष्टाचार दो व्यक्ति के होने पर ही होता है। जैसा कि ताली दो हाथो से बजती है एक हाथ से नहीं। और इसलिए यदि एक पक्ष, हाथ स्वयं को कानून की सीमा के अन्दर अनुशासित रख ले तो निश्चित रूप से दूसरा पक्ष अकेला भ्रष्टाचार नहीं कर पाएगा। मैं सोचता हूं और प्रार्थना करता हूं कि वह दिन ईश्वर मेरे जीवन में भी शीघ्र लाये जब मैं इतना आत्मबल पैदा करलूं कि मेरे व्यवसाय में इस अप्रत्यक्ष सहयोग को समाप्त कर सकू तो उस दिन अन्ना के साथ खड़े होने का साहस कर सकूंगा।
                                दूसरी बात जो अन्ना ने कही कि प्रत्येक प्रदेश में संगठन बनाने की जैसा कि मैं पूर्व में भी कह चुका हूं और पूरे देश ने देखा है और अन्ना ने भी महसूस किया है कि बिना किसी संगठन के भी एक व्यक्ति आत्मबल के आधार पर जनता के मन को छू जानेवाली बात कहता है करता है तो पूरा देश उनके पीछे खड़ा हो जाता है। संगठन बनाना अपने आप में बुरी बात नहीं है। पर जब आदमी संगठन बनाता है तो वही सत्ता की लड़ाई प्रारम्भ हो जाती है और इसलिए देश में आज कई देशव्यापी मजबूत संगठन के खडे़् होने के बावजूद वे भी आज तक कई ज्वलनशील मुद्दे होने के बावजूद उन्माद की वह लहर नहीं पैदा कर सके जो अन्ना ने किया। जब तक आप मुद्दो की लड़ाई जो जनता के ह्दय के भीतर तक तक छू जाती है लड़ेंगे बिना किसी संगठन के देश आपके पीछे खड़ा मिलेगा ऐसा विश्वास कीजिए। और जो देश आज आपके पीछे खड़ा हुआ है उसे सही दिशा दीजिए। 
                                इसलिए आज इस बात का संकल्प लेने की आवश्यकता है कि हम अपने जीवन के चारो तरफ फैली किसी भी परिस्थितियों में भी भ्रष्टाचार को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सहयोग नहीं देंगे। तब यह देश की दूसरी आजादी होगी क्योंकि सभी समस्याओं की जड़ में मूल यही कारण है और इसीलिए गायत्री परिवार का यह विचार कि हम सुधरेंगे तो युग सुधरेगा सटीक व सामयिक है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

Popular Posts