शुक्रवार, 14 जुलाई 2023

दादा स्वामी प्रसाद लोधी की पुण्यतिथि पर ‘‘भावपूर्ण’’ श्रद्धांजलि कार्यक्रम!

             ‘बुंदेलखंड के गौरव’’

बुंदेलखंड के गौरव, पूर्व विधायक, पूर्व अध्यक्ष नागरिक आपूर्ति निगम और देश की तेजतर्रार साध्वी नेत्री मध्य प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री एवं पूर्व केन्द्रीय मंत्री सुश्री उमा भारती अब ‘‘दीदी माँ’’ (जैन मुनि आचार्य विधानसभा की आज्ञानुसार) के बड़े भाई दादा स्वामी प्रसाद लोधी की ‘‘पांचवीं पुण्यतिथि’’ भोपाल में खचाखच भरे रविंद्र भवन में अत्यंत शालीनता के साथ मनाई गई। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, प्रदेश भाजपा अध्यक्ष विष्णु दत्त शर्मा, अनेक मंत्रीगण, विधायकगण कुछ अन्य प्रदेश से आये नेतागण, सहित बुंदेलखंड की माटी से अनेक प्रशंसक उक्त कार्यक्रम में उपस्थित होकर शब्दांजलि (श्रद्धांजलि) देकर भागीदारी की। उक्त कार्यक्रम में मुझे भी मंचासीन होने का सौभाग्य मिला। इस सफल गंभीर, गरिमामय आयोजन के लिए आयोजकों से लेकर भागीदारों तक समस्त बधाई के पात्र हैं।

मध्यप्रदेश की खासकर बुंदेलखंड की धरती पर ‘‘दादा’’ एक राजनीतिज्ञ ही नहीं, बल्कि आध्यात्मिक क्षेत्र में बहुचर्चित नाम ‘‘स्वामी प्रसाद लोधी’’ है, जिन्हें लोग ‘‘दादा’’ के नाम से सम्मान पूर्वक बुलाते थे। उक्ति है कि ‘‘परोपकाराय सतां विभूतयः’’ अर्थात सज्जनों की विभूति परोपकार के लिये होती है। दादा ने अपने नाम को जीवन में पूर्णतः कर्मों द्वारा धरातल पर उतार कर सत्य सिद्ध किया। कैसे! 

‘‘स्वामी प्रसाद लोधी’’ का प्रथम शब्द ‘‘स्वामी’’ मतलब निश्चित रूप से आत्मसम्मानी होने के कारण दादा स्वयं के ही स्वामी नहीं थे, बल्कि उससे भी ज्यादा वे उस जनता के भी स्वामी बन गये थे, जिनके बीच में कर्तव्य परायणता व जनता के बीच जमीन पर उतर कर वास्तविक कार्य करने के कारण उस जनता का जो उन्हे बेहद भरपूर प्यार व आशीर्वाद मिला, जिसका आनंद ‘‘गूंगे के गुड़ समान’’ वर्णनातीत है। जिसके कारण वे मध्यप्रदेश की विधानसभा में भी पहुंचे। इस प्रकार वे लोकतंत्र में जनतांत्रिक मूल्यों द्वारा जनता के द्वारा दिये गये प्यार, मान, सम्मान के कारण व जनता ने उन्हें अपना ‘‘स्वामी’’ बना लिया। वह जनता का दिया गया अधिकार ही था, जिसके फलस्वरूप ‘‘परमहंस’’ कोटि के ‘‘स्वामी’’ होकर भी उनमें कभी भी ‘अहम’ भाव वाले ‘‘स्वामी’’ की भावना नहीं आयी। उन्होंने तो आध्यात्म का बुनियादी सूत्र ‘‘असतो मा सद्गमय’’ थामा हुआ था कि असत्य से सत्य की ओर चलो, ‘‘सत्य को जानो, वह तुम्हें मुक्त करेगा’’। इसीलिए वे ‘‘आत्मसम्मान’’ की भावना लिये हुए ‘‘स्वामी’’ बने। 

इसका प्रत्यक्ष व्यक्तिगत अनुभव मुझे तब हुआ, जब दादा बैतूल में श्री रुक्मणी बालाजी मंदिर के एक कार्यक्रम में बुलाये गये थे। तब कुछ अप्रिय विवाद की स्थिति के हो जाने के कारण उन्होंने मुझसे कहा ‘‘राजू तुरंत यहां से चलना है’’ तेरी गाड़ी में ही चलूंगा ‘‘मैं यहां भोजन भी नहीं करूंगा’’। यह सदाचार रूपी वह स्वाभिमान ही था, जिसे उन्होंने ‘‘अनुल्लंघनीयः सदाचारः’’ के नियम का पालन करते हुए जीवन पर्यंत तक बनाए रखा। यह एक साधना थी, ‘‘हथेली पर सरसों जमाने जैसा कारनामा’’ नहीं, शायद इसी कारण वे कई बार विवादास्पद भी बने। इस स्वाभीमान स्वाभिमानी प्रवृत्ति के कारण ही वे ‘‘बेबाक’’ व्यक्ति कहलाते थे। जहां एक ओर उन्होंने अपनी पार्टी के राजनीतिक विरोधी दिग्विजय सिंह की ‘‘भागवत कथा’’ भी की और दूसरी ओर उन्होंने राजनीतिक रूप से कांग्रेस का विरोध भी किया।

 जब वे जनता के प्यार के अधिकारों के ‘‘स्वामी’’ हो गये, तब उन्होंने ‘‘स्वामी प्रसाद’’ का दूसरा शब्द ‘प्रसाद’ को भी जीवन में सत्य सिद्ध किया। यहां ‘‘प्रसाद’’ क्या है? जनसंघ व भाजपा से जुड़े रहे चार भाई व दो बहनों के भाई, स्वामी प्रसाद लोधी का सबसे बड़ा ‘‘प्रसाद’’ उम्र में उनसे 15 वर्ष छोटी उनकी प्रिय बहना का लालन पालन किया, जिनके माता-पिता बचपन में ही छोड़कर चले गये थे। पिताजी उमाजी की डेढ़ वर्ष की अल्पायु के समय ही छोड़ गये थे। तब दादा ने ही ‘‘उमा’’ के प्रति माता-पिता का कर्तव्य निभाया। इस तरह से ईश्वर प्रदत उमा जी के ‘‘प्राकृतिक व्यक्तित्व’’ को ‘‘उजला कर’’, चमका कर समाज, प्रदेश व राष्ट्र के लिए प्रस्तुत किया। दादा के व्यक्तित्व गढ़ने के इसी आशीर्वाद के कारण ही राजमाता विजयाराजे सिंधिया के अनुरोध पर सन्यासी (साध्वी) बनी उमाजी श्री राम जन्मभूमि आंदोलन के साथ हिन्दुत्व की धारा की सबसे बड़ी वाहक व ‘‘आकाश पर दिया जलाने वाली’’ एक पहचान बन गई। ‘‘रामलला घर आएंगे मंदिर वहीं बनाये जाने’’ का नारा सुश्री उमा भारती ने ही दिया था। इस बात को दीदी सुश्री उमाश्री भारती भी मानती है कि उनके व्यक्तित्व को गढ़ने में ईश्वर के साथ यदि किसी एक व्यक्ति का सबसे बड़ा योगदान है, तो वे उनके भाई स्वामी प्रसाद लोधी ही हैं। इस प्रकार उनके कर्मों का प्रसाद देश को साध्वी उमाश्री भारती के रूप में मिला। 

अब ‘‘दादा’’ शब्द की व्याख्या कर ले! दादा शब्द के बहुआयामी अर्थ/रूप हमारे समाज में है। जहां एक ओर बडे भाई को दादा कहा जाता है, ‘‘पिताजी’’ के साथ ही ‘‘पिताजी के पिता’’ को भी ‘‘दादा’’ कहा जाता है, वृद्ध व्यक्ति को भी ‘‘दादा’’ कहा जाता है। वहीं दूसरी ओर कहीं बच्चों को भी दादा कहा जाता है। तथा अपनी बात को दृढ़ता के साथ रखने वाले व्यक्ति को भी ‘‘दादा’’ कहते हैं। यह हमारी संस्कृति की विशेषता व विविधता है। इस प्रकार स्वामी प्रसाद लोधी में दादा के समस्त अर्थो, गुणों का सम्मिश्रण था। इसलिए यदि यह कहा जाए कि स्व. दादा स्वामी प्रसाद लोधी का नाम जमीनी धरातल पर भी उतनी ही वास्तविक अर्थ लिये हुए है, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।  

अब ‘‘लोधी’’ शब्द का अर्थ भी समझ लेते है। ‘दादा’ चंद्रवंशी क्षत्रिय राजपूत जाति के वंशज ‘‘लोधी’’ होने के कारण ‘‘लोधी’’ शब्द की व्युत्पत्ति ‘‘लोध’’,लोधा  हैं, जिसका अर्थ साहसी व दृढ़ रचना व रक्षा करने में सामर्थ्यवान होता है। दादा ने ‘लोधी’ शब्द के उक्त अर्थ को भी कमोबेश अपनाया। 

व्यक्ति के आने-जाने का क्रम सृष्टि का अडिग, अटल नियम है। लेकिन कुछ व्यक्ति ऐसे होते है, जो इस पृथ्वी से जाने के बाद भी नहीं जाते हैं। मतलब! शरीर चला जाता है, लेकिन अपने कर्मों, कर्तव्य-निष्ठा और अपने जीवन में किये गये कार्यों के कारण वे कार्य इस सृष्टि से उन्हें ओझल होने नहीं देते है, बल्कि कार्यों के कारण उनकी याद हमेशा तरोताजा बनी रहती है और हमें प्रेरणा देती रहती है। एक व्यक्ति की जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि व सफलता यही होती है। कुछ लोग अपने जीवन काल में पद, सम्मान, स्वार्थ और अन्य कारणों से याद किया किए जाते हैं। लेकिन जीवन से मुक्ति हो जाने के बाद स्वार्थ व पद की समाप्ति हो जाने के कारण वे भुला दिये जाते हैं। परन्तु बिरले ही कुछ लोग ऐसे होते है, जो लोगों के बीच लम्बे समय तक यादों की स्मरण शक्ति में छाए रहते हैं। यह उनके जीवन की, जीवन लीला समाप्त हो जाने के बाद की उपलब्धि व सफलता है। कई बार विवादों में रहने के बावजूद दादा का जीवन आज उक्त बात को सिद्ध कर रहा है। राजनीति में आने के पहले वे कथा करते थे और राजनीति में आने बाद भी वह क्रम चलता रहा। क्योंकि वे मानते थे कि ‘‘हरि अनंत हरि कथा अनंता’’, और जानते थे कि ‘‘धर्महीन व्यक्ति बिना नकेल के घोड़े जैसा होता है’’। शायद इसी कारण अध्यात्म के साथ राजनीति को दादा ने जिया तो उसमें राज कम नीति ज्यादा रही, जिसका आज की राजनीति में नितांत अभाव है, बल्कि विपरीत स्थिति है। मतलब ‘‘नीति’’ नहीं सिर्फ ‘‘राज’’ ही है। दादा ने इसे अपने तरीके से जिया महसूस किया व व्यक्त किया। यही दादा की वास्तविक पहचान है। उनकी पांचवीं पुण्यतिथि पर कोटिशः नमन श्रद्धांजलि।

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