गुरुवार, 25 मई 2023

लोकतंत्र की सर्वोच्च नीति निर्धारण करने वाली संस्था ‘‘संसद के मनमंदिर’’ के उद्घाटन में भी ‘‘नीति’’ नहीं ‘‘दलगत राजनीति’!

‘‘राष्ट्रपति की बजाय प्रधानमंत्री से उद्घाटन कराने का एकमात्र उद्देश्य शायद यही हो सकता है कि राष्ट्रपति मात्र ‘‘संवैधानिक’’ प्रमुख हैं। जबकि ‘‘सत्ता’’ (पावर) की शक्ति का केंद्र बिंदु ‘‘प्रधानमंत्री’’ है। संसद पूरी विधायिकी की शक्ति की एकमात्र केंद्र बिंदु है। इसलिए विधायिका और कार्यपालिका का शक्तिपुंज ‘‘प्रधानमंत्री’’ से संसद भवन का उद्घाटन करा कर विश्व में यह संदेश देना हो सकता है कि, जितनी हमारी संसद सर्वशक्तिमान है, उतने ही हमारे प्रधानमंत्री भी लोकतंत्र होने के बावजूद लोकतांत्रिक रूप से सर्वशक्तिमान हैं। खासकर उस स्थिति को देखते हुए जहां-तहां राष्ट्रपति के बाबत यह कहा जाता रहा है कि, वे एक ‘‘रबर स्टैंप’’ मात्र रह गए हैं।’’

सर्वोच्च शक्ति प्राप्त ऐसी संसद का भवन या सबसे बड़ा ‘मन’ ‘‘मंदिर’’ जहां मन मोहने वाले वातावरण में बैठकर देश के सांसद देश के लिए भी जनता के मन को भाने वाले कानून बना पाएंगे, जो 862 करोड़ रुपए से अधिक की लागत से 21वीं सदी की समस्त आधुनिक सुविधाओं से युक्त भविष्य के अगले 100 वर्ष की आवश्यकताओं की दृष्टि को ध्यान में रखते हुए भव्यतम भवन बना है। इसका उसका उद्घाटन 28 तारीख को देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हाथों होना है। 

देश की एक और महत्वपूर्ण उपलब्धि और खुशी के बीच दुर्भाग्यवश अधिकतर विरोधी पक्ष जिसमें कांग्रेस के नेतृत्व में 21 पार्टियां शामिल है, ने उद्घाटन का विरोध करने का मजबूत डंडा (झंडा नहीं) गाड़ दिया है। विपरीत इसके एनडीए के 16 दलों के नेताओं ने विपक्षी दलों से अपने रुख पर पुनर्विचार करने का लिखित अनुरोध किया है। संविधान का अनुच्छेद 60 और 111 का सहारा लेकर विपक्षी दलों द्वारा यह कहा जा रहा है कि लोकतंत्र के इस मंदिर का उद्घाटन राष्ट्रपति द्वारा किया जाना चाहिए। जबकि वास्तव में इन दोनों अनुच्छेद का उद्घाटन अथवा उसकी प्रक्रिया से कोई लेना देना नहीं है। अनुच्छेद 60 राष्ट्रपति द्वारा शपथ का उल्लेख करता है, तो अनुच्छेद 111 किसी विधेयक में राष्ट्रपति की स्वीकृति का उल्लेख करता है। तथापि अनुच्छेद 79 में यह अवश्य कहा गया है की ‘‘भारत संघ’’ के लिए संसद होगी जिसमें ‘‘राष्ट्रपति’’ और दो सदन शामिल होंगे। संसद या विधान सभा के भवनों के उद्घाटन के संबंध में क्या संवैधानिक, कानूनी स्थिति है, अथवा अभी तक की क्या परिपाटी रही है, इसको यदि आप समझ लेंगे, तब ही आप समझ पाएंगे की प्रधानमंत्री द्वारा किए जाने वाले संसद भवन की उद्घाटन की स्थिति कितनी जायज अथवा नाजायज है?

निश्चित रूप से अनुच्छेद 87 के अनुसार राष्ट्रपति संसद की दोनों सदनों को आहूत कर सत्र के पहले दिन संबोधित करता है। इसलिए वह सदन के नेता के रूप में श्रेष्ठतम प्रधानमंत्री की तुलना में उच्चतम स्थिति में है। परंतु साथ में इस बात को भी आपको ध्यान में रखना होगा कि राष्ट्रपति दोनों सदनों में से किसी के भी सदस्य नहीं होते हैं, जबकि प्रधानमंत्री का होना अनिवार्य है। (अपवाद स्वरूप छः महीने की अवधि को छोड़कर) अतः जिस संसद के राष्ट्रपति सदस्य नहीं है, उसके भवन का उद्घाटन उनसे न कराने से राष्ट्रपति की गरिमा गिरती, जैसा कि विपक्ष का आरोप है, यह तथ्यात्मक और संवैधानिक दोनों रूप से उचित नहीं जान पड़ता है।

दूसरा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी प्रथम व्यक्ति नहीं है, जो संसद भवन का उद्घाटन करने जा रहे हैं। इसके पूर्व वर्ष 2017 में तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष और उपाध्यक्ष की उपस्थिति में ‘‘संसद भवन एनेक्सी विस्तार भवन’’ (जिसकी आधारशिला तत्कालीन उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी और लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने रखी थी), का उद्घाटन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा किया गया था, तब कोई विरोध नहीं हुआ था। ‘‘पार्लियामेंट लाइब्रेरी’’ की आधारशिला तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने और इसके पूर्व ‘‘पार्लियामेंट हाउस एनेक्सी’’ की आधारशिला का उद्घाटन अक्टूबर 1975 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने किया था। यही नहीं वर्ष 2009 में असम के नए विधानसभा भवन का शिलान्यास मुख्यमंत्री ने, मार्च 2010 में यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी जो किसी भी संवैधानिक पद पर नहीं थी, द्वारा तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के साथ तमिलनाडु के नए विधानसभा परिसर तथा दिसंबर 2011 में मणिपुर के नए विधानसभा भवन, वर्ष 2019 में बिहार विधानसभा का उद्घाटन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने तथा वर्ष 2020 में सोनिया गांधी ने छत्तीसगढ़ के नए विधानसभा भवन का शिलान्यास किया गया था। इन सब कार्यक्रमों में महामहिम राष्ट्रपति अथवा राज्यपाल को प्रायः आमंत्रित नहीं किया गया था। 

यदि राष्ट्रपति के सर्वोच्च होने के आधार पर संसद का उद्घाटन उनसे कराने की बात विपक्ष कह रहा है, तो यह बात भी ‘‘अर्ध-सत्य’’ ही है। क्योंकि राष्ट्रपति पर "महाभियोग" संसद ही लगा सकती है। इस प्रकार इस स्थिति में संसद राष्ट्रपति से ऊपर सर्वोपरि हो जाती है। वैसे भी जिस राष्ट्रपति को संसद को भंग करने का अधिकार हो, तब उसके निर्माण अर्थात निर्मित भवन के उद्घाटन के लिए राष्ट्रपति को कैसे बुलाया जा सकता है? यदि ऐसा होता है तो वह प्रेमवत नहीं, बल्कि भय के भाव के कारण ही। वैसे यदि लोकसभा के स्पीकर की अध्यक्षता में और राज्यसभा के स्पीकर की विशिष्ट उपस्थिति में प्रधानमंत्री से उद्घाटन कराया जाता तो निश्चित रूप से ऐसी विवाद की स्थिति शायद बनती ही नहीं।

वैसे इस पूरे उद्घाटन कार्यक्रम का सबसे दुखद पहलू यह है कि आजादी के अमृत महोत्सव काल में हो रहे इस स्वर्णिम अवसर का ‘‘साक्षी’’ बनने  के लिए राष्ट्रपति को आमंत्रित ही नहीं किया गया है। मुझे नहीं मालूम है कि राष्ट्रपति को आमंत्रित करने के प्रोटोकॉल क्या है? राष्ट्रपति की अध्यक्षता में प्रधानमंत्री द्वारा उद्घाटन कराने पर प्रोटोकॉल आड़े आता है क्या? मुझे याद आता है, जब रजत शर्मा की इंडिया टीवी की "आप की अदालत" की 21वीं वर्षगांठ के जश्न "सिग्नेचर शोसी कार्यक्रम का उद्घाटन भाषण प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने दिया, तो वहीं उसी कार्यक्रम में राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने भी शिरकत की थी। सरकार के पास अभी भी समय है। यदि इस त्रुटि को उपरोक्त तरीके से सुधारा जाए, तो देश के लोकतंत्र की मजबूती के लिए एक बड़ा कदम होगा। तब विपक्ष को दाएं बाएं झांकने का अवसर नहीं होगा और उन्हें भी इस अवसर पर जन दबाव के चलते अपनी भागीदारी प्रदर्शित करनी ही होगी।

‘‘राष्ट्रपति की बजाय प्रधानमंत्री से उद्घाटन कराने का एकमात्र उद्देश्य शायद यही हो सकता है कि राष्ट्रपति मात्र ‘‘संवैधानिक प्रमुख’’ हैं। जबकि ‘‘सत्ता’’ (पावर) की शक्ति का वास्तविक केंद्र बिंदु ‘‘प्रधानमंत्री’’ है। संसद पूरी विधायिकी की शक्ति की एकमात्र केंद्र बिंदु है इसलिए विधायिका और कार्यपालिका का शक्तिपुंज प्रधानमंत्री से संसद भवन का उद्घाटन करा कर विश्व में यह संदेश देना हो सकता है कि जितनी हमारी संसद सर्वशक्तिमान है, उतने ही हमारे प्रधानमंत्री भी लोकतंत्र होने के बावजूद लोकतांत्रिक रूप से सर्वशक्तिमान है। खासकर उस स्थिति को देखते हुए जहां-तहां राष्ट्रपति के बाबत यह कहा जाता रहा है कि, वे मात्र एक रबर स्टैंप रह गए हैं।’’

विरोधी दलों द्वारा राष्ट्रपति के उद्घाटन न करने की बात को दलित आदिवासी महिला के अपमान से जोड़कर देखने से पहले विपक्ष को अपना गिरेबान में झांकना होगा। क्या द्रौपदी मुर्मू के राष्ट्रपति पद के चुनाव के समय उनके सर्वसम्मति से न बनने देकर बल्कि उनके खिलाफ उम्मीदवार उतारे जाने से क्या विपक्ष ने उनका मान बढ़ा दिया मान-मर्दन किया? आज की राजनीति गिरगिट से भी ज्यादा रंग बदलने वाली है। इसलिए आज की राजनीति को लिए आपको वस्तुतः गिरगिट शब्द की जगह नया शब्द का लाना होगा। राष्ट्रपति चुने जाने के बाद भी उनके राष्ट्रपति का अपमान गाहे बगाहे किया जा रहा है।

देश यह का दुर्भाग्य ही है कि लोकतंत्र का पवित्र मंदिर संसद भवन कुछ अदूरदर्शिता के चलते, बेवजह, अनावश्यक रूप से राजनैतिक अखाड़े का दंगल बन गया है जैसे एक और दंगल जंतर मंतर पर लगभग एक महीने से कुश्ती संघ और देश के ख्याति प्राप्त अंतरराष्ट्रीय कुश्ती पहलवानों के बीच चल रहा है।

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