मंगलवार, 21 जून 2022

हिंसा का ’समर्थन न’ करने के बावजूद आंदोलन हिंसात्मक ?

 'अग्नीपथ' के विरोध में "अग्निवीरों’’ द्वारा ‘अग्निपथ’ पर बिहार!

देश की सुरक्षा के लिए नौजवानों के लिए (14 जून) सेना में भर्ती हेतु नई प्रक्रिया ’अग्निपथ’ योजना (जो पूर्व में हर आफ ड्यूटी का ही रूप है) के अंतर्गत ’अग्निवीर’ बनाए जाने योजना की घोषणा होते ही अगले ही दिन ’बिहार’ जो देश के कई ’अहिंसावादी’ राष्ट्रीय आंदोलनों की जननी व अग्रणी रहा है, में ’हिंसावादी’ विरोध प्रदर्शन प्रारंभ होकर उपद्रव, तोड़फोड़, लूटमार आगजनी प्रारंभ हो गई, जो देश के कई भागों में धीरे-धीरे विस्तारित होती गई। कई राजनीतिक दलों एवं नेताओं द्वारा हिंसा का समर्थन न करते हुए आंदोलनकारियों की मांग का समर्थन करते हुए उनसे शांतिपूर्ण आंदोलन की अपील की गई। यह भी कहा गया हिंसा किसी समाधान का रास्ता नहीं है। सरकारी संपत्ति को नुकसान नहीं पहुंचाया जाना चाहिए। कानून हाथ में नहीं लिया जाना चाहिए। लेकिन ‘‘घर घाट एक करने के’’ बावजूद आंदोलन का हिंसात्मक रूप कमोबेश बरकरार है।

महत्वपूर्ण प्रश्न यह पैदा होता है कि आंदोलन को हिंसात्मक स्वरूप कौन दे रहा है? क्या स्वयं आंदोलनकारी हिंसात्मक रुख अपनाए हुए हैं? यह प्रश्न इसलिए उत्पन्न होता है कि यदि आंदोलन स्वस्फूर्त है, तब प्रायः इन आंदोलनकारी युवकों ने इस हिंसा का विरोध क्यों नहीं किया और न ही ऐसा कोई बयान उनकी तरफ से अभी तक आया हैं। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि यह आंदोलन बिना कोई नेता के नेतृत्व विहीन है। सरकार को भी यह देखना आवश्यक होगा कि आंदोलन में सभी लोग क्या वे युवा (या उनके परिवार के लोग) हैं जो सेना में भर्ती होना चाहते हैं और जिनके हित अग्निपथ योजना से अहित हो रहे है, अथवा अन्य अवांछनीय तत्व भी हैं। तब विपक्ष पर राजनीति करने के सरकार के आरोप को ज्यादा बल मिल सकता है। यदि आंदोलन विपक्ष द्वारा योजनाबद्ध रूप से निर्मित, प्रेरित या उत्प्रेरित व पोषित है, जैसा कि आंदोलन प्रारंभ होने के बाद से ही सत्ता पक्ष, विपक्ष पर लगातार आरोप लगाते आ रहा है, यह कहकर कि देश के युवाओं को विपक्ष गुमराह कर रहा है। तब ऐसी स्थिति में विपक्ष अपनी हिंसा में अपनी असलिगंता को मजबूती देने के लिए स्पष्ट रूप से क्यों नहीं घोषणा करता है कि यदि आंदोलन का हिंसात्मक रूप जारी रहेगा तो विपक्ष युवकों के इस आंदोलन का समर्थन तब तक नहीं करेगा जब तक हिंसा जारी रहेगी। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार विपक्ष ताल ठोक कर यह कहता है कि वे हिंसा का समर्थन किसी भी स्थिति में नहीं करते हैं।

वैसे हिंसा के लिए विपक्ष को जिम्मेदार ठहराने वाली भाजपा व उनकी सरकारें इस तरह की स्थितियों से निपटने में सिद्धहस्त उनकी सरकारें (जैसे बुलडोजर मुख्यमंत्री योगी नाथ) हिंसाई उपद्रवियों पर बुलडोजर कार्रवाई करने के नाम पर ‘‘गिन गिन कर पैर’’ क्यों रख रही हैं, यह एक बड़ा प्रश्न है? उत्तर प्रदेश के कई भागों में ‘‘अग्निपथ योजना’’ के विरोध को लेकर हिंसात्मक आंदोलन हुए। परंतु बुलडोजर मुख्यमंत्री योगी ने अभी तक उस तरह की कोई जवाबी बुलडोजर कार्रवाई नहीं की और न ही मंशा दिखाई, जैसा कि उत्तर प्रदेश में कुछ समय पूर्व हुए दंगों के समय की गई थी। क्या दोनों घटनाओं की हिंसा में अंतर है? या अंतर बनाया जा रहा है? आखिर हिंसा ’हिंसा’ ही होती है। इस तरह की ’दोहरी नीति’ अपनाई जाने से ही ओवैसी जैसे विवादास्पद व्यक्तियों की ‘‘आंखों में सरसों फूलने लगती है’’, और अनचाहे ही उन्हें अपनी नेतागिरी चमकाने का अवसर व बल मिल जाता है।

स्वतंत्र भारत के पिछले 75 वर्षों में किसी भी आंदोलन के संबंध में सत्ता व विपक्ष की परस्पर भूमिका, भागीदारी व नीतिगत रोल में प्रायः कोई बदलाव नहीं आया है। हां सत्ता-विपक्ष में बैठे चेहरों का परस्पर बदलाव जरूर हुआ है, जैसे कि ‘‘एक तवे की रोटी, क्या पतली क्या मोटी’’। इसी कारण से आज भी वर्तमान आंदोलन के संदर्भ में सत्ता-विपक्ष के बीच आरोप-प्रत्यारोप का दौर ’देश हित’ के नाम पर ’देश हित को एक तरफ (साइड)’ में कर ’राजनीति’ चमकाने के लिए चल रहा है। वैसे भी भाजपा ने विपक्ष खासकर कांग्रेस पर  गंभीर आरोप लगाया है कि वह ’राष्ट्रनीति’ के बजाय ’राजनीति’ कर रही है। राष्ट्र नीति से राजनीति शब्द कब अलग हो गया, इसका पता देश की जनता को चल ही नहीं पाया। अब चंूकि राजनीति एक गाली सूचक शब्द हो गई है, बदनाम हो गई है और भाजपा उक्त आरोप लगाकर बदनाम ’राजनीति’ शब्द पर मोहर लगा रही है। तब आश्चर्य की बात यह है कि जिस राजनीति के मैदान में खेल कर, राजनीति कर, जीत कर, राजनेता बनकर उक्त बयान देने में सक्षम व प्राधिकृत हुए हैं, उसी का निरादर कर रहे हैं, यह तो वही बात हुई कि ‘‘बाप से बैर, और पूत से सगाई’’!! इस स्तर पर यह भी सोचने की गहन आवश्यकता है कि आखिर राजनीति नैतिक मूल्यों रहित होकर उसका स्तर इतना क्यों गिर गया कि आज सही स्वच्छ और ईमानदार आदमी न तो राजनीति में आना चाहता है और यदि आ भी जाए तो उसके सफल होने की संभावनाएं भी लगभग निरंक ही होती है। इसके लिए राजनीति में अंदर तक घुसे हुए, डूबे हुए राजनेता ही सिर्फ जिम्मेदार नहीं है, बल्कि जनता भी उतनी ही दोषी है जिनके सहारे ये नेतागण राजनीति कर पाते हैं।

सरकार, यहां तक कि सेना की तरफ से यह कहां जा रहा है कि नौजवान युवाओं को बहकाया, बरगलाया, भड़काया जा रहा है। ऐसी स्थिति में सबसे बड़ा प्रश्न यही उत्पन्न होता है, क्या ऐसे बहक जाने वाले युवकों को सेना में भर्ती किया जाना देश हित में होगा? इस पर गंभीरता से विचार नहीं किया जाना चाहिए? बिना तथ्यों व जांच के मुद्दे का सामान्यीकरण कर इस तरह के कथनों से बचना चाहिए।

एक बात और! स्वतंत्र भारत के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है, जब भारत सरकार की सेना में भर्ती की अग्निपथ योजना के संदर्भ में युवाओं के राष्ट्रव्यापी आंदोलन के चलते युवाओं को समझाने के लिए तीनों सेनाओं के वरिष्ठ अधिकारीगणों ने मीडिया के सामने आकर अग्निपथ योजना के विभिन्न गुणों और फायदों को देश के नौजवानों के सामने रख उन्हें समझाने का प्रयास किया। परंतु साथ ही आंदोलन को भी गलत ठहराया। जबकि उक्त कार्रवाई की जिम्मेदारी, योजना बनाने से लेकर पूरी तरह से कार्यान्वित करने तक का अधिकार क्षेत्र केंद्रीय शासन, रक्षा मंत्रालय व गृह मंत्रालय का है। भारत सरकार की उक्त सैनिक भर्ती नई नीति नीति ’अग्निपथ’ में किसी भी प्रकार की संशय या गलतफहमी को दूर करने के लिए रक्षा मंत्री, रक्षा सचिव या सेना के मीडिया प्रवक्ता (पीआरओ) अथवा अधिकतम जब तीनों सेनाओं के चीफ सीडीएस पद निर्मित किया गया है, तो सीडीएस ने स्पष्टीकरण देना चाहिए था। तथापि जनरल विपिन रावत की मृत्यु के बाद फिलहाल सीडीएस का पद रिक्त है। अतः पुरानी व्यवस्था अनुसार चीफ आफ स्टाफ कमेटी अर्थात आर्मी चीफ के द्वारा स्पष्टीकरण दिया जाना चाहिए था। परंतु धमकी भरे अंदाज में आंदोलित नवयुवको पर दबाव बनाने के लिए एयर मार्शल व वाइस एडमिरल सहित चार वरिष्ठ सैनिक अधिकारियों को सरकार ने कैमरे के सामने पत्रकार वार्ता में बैठाला और यदि उन्होंने स्वयं स्पूर्ति से पत्रकार वार्ता आयोजित की है तो यह एक बड़ा गंभीर मामला है जो उनका क्षेत्राधिकार या कर्तव्य नहीं है।  

राष्ट्रनीति या आंदोलन का राजनीतिकरण हो रहा है, यह सिद्ध होना तो अभी शेष है, परंतु निश्चित रूप से उक्त प्रेस कॉन्फ्रेंस से सेना के राजनीतिकरण का एक हल्का सा प्रारंभिक आभास अवश्य पैदा होता है। जिससे हर हालत में बचा जाना चाहिए था। क्योंकि उक्त प्रेस कॉन्फ्रेंस में यह भी कहा गया कि आंदोलन के पीछे असामाजिक तत्वों के साथ-साथ कुछ कोचिंग संस्थाओं का हाथ है। अग्निपथ योजना वापिस नहीं ली जाएगी। इस तरह के आरोप लगाने व अग्निपथ योजना को वापस लेने का नीतिगत निर्णय का पूर्ण अधिकार भारत सरकार उनके मंत्रियों और पार्टी के पदाधिकारियों को है। सेना को नहीं। अतः इस ’चूक’ की गंभीरता को समझना होगा, ताकि भविष्य में इस तरह की पुनरावृत्ति न हो पाए और किसी को भी सेना पर उंगली उठाने का इस तरह का अवसर न मिल सके।

एक बात और! आंदोलन समाप्त करने के लिए ’अग्निपथ योजना वापस लिए बिना’ दूसरे विकल्पों व उपायों पर सरकार क्यों नहीं विचार करना चाहती है? आंदोलन का मुख्य आक्रोश का कारण प्रमुख रूप से वे युवा लोग हैं, जो पिछले दो-तीन सालों से सेना में भर्ती के लिए तैयारी कर रहे हैं, ट्रेनिंग ले रहे हैं। कुछ लोगों ने परीक्षा पास कर ली है। तो कुछ ने प्रथम स्तर को पार कर लिया है, तो कुछ के मेडिकल फिटनेस भी हो चुके हैं। कुछ लोगों ने इंटरव्यू भी पास कर लिया है और पिछले साल भर से उनको सर्विस सिलेक्शन बोर्ड द्वारा अगली कार्रवाई के लिए पत्र पर पत्र तारीख बढ़ाने के दिए जा रहे हैं। यदि ऐसे लोगों की अंतिम भर्ती पूर्व नियम व घोषणा अनुसार पूरी कर ली जावे तो इसमें सेना का नुकसान क्या है? अधिकतम आप यह मान लीजिए की यह योजना 6 महीने बाद लागू की जा रही है। कई आंदोलनकारी युवाओं ने कहा है की पुरानी योजना के साथ नई योजना समानांतर या विकल्प रूप में चलती रहे तो इसमें नुकसान कहां है? और यदि वास्तव में यह योजना पुरानी योजना से ज्यादा अच्छी है, फायदेमंद है, और देश हित में है, तो सेना में भर्ती होने वाले नौजवान इसे ही अपनाएंगे, पुरानी योजना को नहीं। सरकार को अपनी नई योजना की विश्वसनीयता पर विश्वास होना चाहिये। 

सरकार को इस समय कृषि कानून के समय अपनाई गई, किसी को ‘‘जूते के बराबर भी नहीं समझने’’ वाली अक्खड़ नीति से बचना चाहिए। यदि तत्समय केंद्रीय सरकार किसानों को न्यूनतम खरीदी मूल्य के कानूनी प्रावधान बनाने की गारंटी दे देती तो, आंदोलन खत्म हो जाता और तीनों कृषि कानून वापिस नहीं लेने पड़ते। भारत सरकार की किसी योजना, नीति या बनाए गए कानून के संबंध में प्रधानमंत्री ने अग्निपथ योजना का नाम लिये बिना सांकेतिक रूप से प्रथम बार यह स्वीकार किया है कि तात्कालिक रूप से कोई योजना अप्रिय लग सकती है, लेकिन समय के साथ उसका फायदा मिलता है। जब कोई सुधार लाया जाता है तो वर्तमान में कुछ फैसले अनुचित प्रतीत हो सकते हैं, लेकिन बाद में वे महत्वपूर्ण साबित होते है व राष्ट्र निर्माण में सहायक होते है। ऐसी स्वीकृति तीनों कृषि कानून, जीएसटी या नोटबंदी के समय नहीं की गई, बल्कि अभी की तरह यही कहा गया कि किसानों, व्यापारियों व आम जनता को ठीक तरह से कानून नहीं समझाया गया है, बल्कि बरगलाया गया है।

अंत में सरकार को पिछली घटनाओं से सबक लेकर खुले दिल दिमाग व मन से घटनाओं पर नज़र रखते हुये राज्यों की स्थिति पर विचार कर सहमति का रास्ता निकालने की आवश्यकता है। 


4 टिप्‍पणियां:

  1. आंदोलन में राहुल समर्थकों तथा नूपुर विरोधियों के शामिल होने से हिंसा की स्थिति बनी ।

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  2. बहुत अच्छा सारगर्भित प्रस्तुति

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