शनिवार, 22 फ़रवरी 2014

उच्चतम न्यायालय का राजीव गांधी हत्या काण्ड में फासी को आजीवन कारावास में बदलने का निर्णय एक अवसाद!

राजीव खण्डेलवाल:
          माननीय उच्चतम न्यायालय ने राजीव गांधी हत्याकांड में अंतिम रूप से फांसी की सजा पाये गये अपराधियो को राष्ट्रपति द्वारा ‘‘दया याचिका’’ के देरी से निपटाने के आधार पर आजीवान कारावास देने का निर्णय देकर पूर्व मे 21 जनवरी को एक और दिये गये निर्णय की पुनरावृत्ति ही की है। माननीय उच्चतम न्यायालय ने पूर्व में न्यायिक सक्रियता के रहते हुए देश में कई  ऐसे ऐतिहासिक निर्णय दिये है जिससे कई बार राज्य व केन्द्रीय सरकारो को नये कानून व नियम बनाने पडे। कई बार उच्चतम न्यायालय के निर्णय निर्देश ही स्वयं कानून बनकर कानून की कमी की पूर्ति भी उन निर्णयो ने की है। नवीनतम निर्णय मुसलमानो के गोद लेने के अधिकार को पर्सनल ला के उपर तबज्जो देकर मान्यता देने का निर्णय इसी श्रेणी मे आता है। माननीय उच्चतम न्यायालय ने कई बार क्षेत्राधिकार से बाहर जाकर (ऐसा महसूस किया गया) ‘‘कानून की व्याख्या’’ से आगे जाकर, प्रदेश और केन्द्र सरकार को कई बार सामाजिक हित मे निर्णय देकर प्रदेश और केन्द्र सरकार को नागरिको के हित में ऐसा निर्देश दिये गये थे जो कि कानून बनाने के समान थे। इसके लिए उच्चतम न्यायालय कीे विधिक व अन्य क्षेत्रों मे कई बार इसी  आधार पर आलोचना भी की गई थी कि कानून बनाने का कार्य उच्चतम न्यायालय का नही है बल्कि उसका काम कानून की व्याख्या करना है।  और उसकी संवैधानिकता  पर निर्णय देना है। कानून बनाने का काम मात्र वास्तव में विधायिका का है।
         माननीय उच्चतम न्यायालय से यह अपेक्षा की जाती थी कि जिस देरी के आधार पर फांसी की सजा को आजीवन कारावास में बदला गया, दया याचिका के निर्णय की उस देरी के लिये कौन जिम्मेदार है? उसके खिलाफ चाहे फिर वह गृहविभाग हो, या महामहिम राष्ट्रपति का सचिवालय, उनकी जिम्मेदारी निश्चित की जाकर कार्यवाही किये जाने के न केवल निर्देश दिये जाने चाहिए थे। बल्कि समय बंद्ध दया याचिका पर निर्णय की समय सीमा तय करने के निर्देश भी केन्द्रीय सरकार को दिये जाने चाहिये थे। उच्चतम न्यायालय स्वयं भी दया याचिका के निर्णय की एक निश्चित समय सीमा तक कर सकती थी जो सीमा अभी किसी भी कानून नियम मे उपलब्ध नही है। जैसा कि माननीय उच्चतम न्ययालय ने पूर्व मे कई प्रकरणो मे कानून मे व्याप्त कमियो की पूर्ति करते हुये स्वयं पहल कर निर्णय देकर कानून बनाए है।   
          क्या उच्चतम न्यायालय इस मामले में सार्थक पहल करने से इसलिए बच रहा था कि मामला ‘महामहिम’ से जुडा है। कम से कम  केन्द्रीय सरकार और राष्ट्रपति सचिवालय में इस विषय को डील करने वाले संबंधित अधिकारियो के खिलाफ देरी से निर्णय के लिये कडी कार्यवाही करने की पहल, उच्चतम न्यायालय को अवश्य करनी चाहिए थी। जो हम अब भी उम्मीद करते है कि सुप्रीम कोर्ट मंे अन्य दया याचिका मे निर्णय मे देरी के आधार पर लंबित फांसी के प्रकरणो में आवश्यक निर्देश देकर सुधार करेगी। जबकि आम आदमी पार्टी के प्रवक्ता तक ने इलेक्ट्रानिक मीडिया बहस में महामहिम राष्ट्रपति को कांग्रेस का ऐजेन्ट तक कह दिया था जो कि वास्तव में दुर्भाग्यपूर्ण है। लेकिन उच्चतम न्यायालय से यह उम्मीद अवश्य की जाती है कि इस संबंध में आवश्यक और प्रभावशाली  आदेश निर्देश जारी करे कि दया याचिका पर निर्णय लेने में देरी के आधार पर फंासंी प्राप्त अपराधियो को सजा से मुक्ति न मिल सके। क्येाकि वास्तव मे उन्हे फांसी की सजा ही इसलिए दी गई थी कि उनका अपराध भी रेयरेस्ट से रेयरेस्ट अपवाद की क्षेणी में  आता है। फिर चाहे राजीव गांधी की हत्या का मामला हो, दिल्ली बम कांड का मामला हो या अन्य मामला। अन्यथा  देरी के आधार पर फांसी से छूट को यह एक अलिखित नियम बन जायेगा और दया याचिका पर निर्णय में विलम्ब करने का प्रयास भविष्य में भी किया जायेगा। अप्रत्यक्ष तरीके से कानून से बच कर फांसी से बचने का एक वैधानिक तरीका उच्चतम न्यायालय के इस निर्णय से अपराधी निकाल लेगे जो सर्वथा उचित नही होगा।   
(लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार एवं पूर्व नगर सुधार न्यास अध्यक्ष है)

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