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"नजफ्गद के नवाब वीरू" के तिहरे (सतक के नजदीक)" की उपलब्धि आने पर संपूर्ण देश के साथ मेरी और से भी ह्रदय की गहराइयों से हार्दिक बधाईया।
"अरुणाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री, श्री एस.एम.कृष्णा का कथन की चीन द्वारा लद्दाख सीमा पर सड़क निर्माण कोई चिंता का विषय नही है।"
हमारे विदेश मंत्री का यह बयां की जब तक पकिस्तान २६/११ के दोसियो पर कोई कार्यवाही नही करता तब तक उसके साथ कोई बातचीत नही की जाएगी।"
"क्रिकेट" के साथ "राजनीति" का यह "घालमेल" आप कहेंगे क्यो ? इसका जवाब आपको आगे मिल जाएगा। पहले तो सहवाग के "तिहरे सतक (के नजदीक)" पहुँचने की बात पर चर्चा कर ली जाए।
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यह " तिहरा सतक (के नजदीक )" कोई ऐसे-वैसे गेंदबाज के विरुद्ध नही बल्कि विश्व क्रिकेट के सबसे प्रमुख एवं सफल गेंदबाज मुझैया मुरलीधरन जिसने विश्व क्रिकेट में सर्वाधिक विकेट (७९२) लिए है, के विरुद्ध बनाया है। सहवाग के इस रोद्र रूप पर श्रीलंकाई कोच श्री बेलिस का यह कथन संपूर्ण स्थिति को अपने आप स्पष्ठ करता है की "दुसरे दिन हमने योजना बदली, हमने अपने गेंदबाजो की लाइन एवं लेंथ में बदलाव किया, लेकिन वह जहा चाहे वही हमारे गेंदबाजो की धज्जिया उड़ा रहा था। यह उन दिनों में से एक था, जब हमें २० क्षेत्र रक्षको की जरुरत थी क्योंकि वह गेंद को शानदार ढंग से खेल रहा था।"
लेकिन इस सबसे ज्यादा शायद सबसे महत्वपूर्ण बात यह है की शायद अन्य समालोचक या तो उकता तिहरा सतक (के नजदीक) की चमक में अन्य तथ्य देख नही पा रहे है या इस "तिहरे सतक (के नजदीक )" के पीछे छुपे हुए उस वातावरण को भूल गए है वह यह की श्रीलंका के ३९३ रा के विशाल स्कोर से उत्पन्न हुए दबाव के बावजूद प्रारंभिक बल्लेबाज के रूप में भरी वातावरण के रहते, दबाव में आए बिना, व इससे भी ज्यादा कमर में दर्द के बावजूद पुरे होश-हवास में, चारो दिशावो में, चौके-छक्के मारकर "तिहरे सतक" के नजदीक" को पुरा किया जिसके लिए उनके द्वारा दिखाई गयी सहस एवं दृढ इक्षा शक्ति को मई नमन करता हु। 'वीरू' द्वारा विपरीत परिस्थितियों में दिखाए गयी इस सहस, अंगद सामान पी ज़माने वाली दृढ़ इक्षाशक्ति एवं ताकत की ही " हमारी भारतीय राजनीती" में भी आवश्कता है।
अब आप समझ गयी होंगे की मैंने क्यों प्रारम्भ में क्रिकेट व राजनीती के बीच सम्बब्ध मिलाने का प्रयास किया।
हमारे विदेश मंत्री जब यह कहते है की हम पाकिस्तान से तब तक कोई बातचीत नही करेंगे जब तक वह आतंकवादियों के विरुद्ध कोई कार्यवाही नही करता अर्थात सरकार द्वारा यह मानने के बावजूद की पाकिस्तान के यहाँ आतंकवादी केम्प चल रहे है, पाकिस्तान सरकार उन्हें शाह दे रही है जिसके फलस्वरूप ही २६/११ की मुंबई की घटना या इसके पूर्व मुंबई बोम ब्लास्ट या कश्मीर में कई आतंकवादी घटनाए हुई, लेकिन हम उसे रोकने के लिए कोई प्रभावी कार्यवाही नही करेंगे बल्कि वह कार्यवाही हम पाकिस्तान के 'विवेक' पर ही छोड़ देंगे और हम अपनी पुरी जिंदगी उसके "विवेक" को जगाने में ही लगा देंगे क्योंकि हमारे बातचीत न करने से वह आतंकी कार्यवाही बंद तो नही कर देगा ? उक्त कथन के द्वारा क्या हम पाकिस्तान को हमारे ऊपर आतंकी कार्यवाही करने का लाइसेंस असीमित अवधी के लिए तो नही दे रहे है ? क्योंकि जब तक हम अमेरिका के सामान दोषी व्यक्ति के विरुद्ध कार्यवाही करने की निश्चित समय तय कर चेतावनी नही देंगे तब तक पाकिस्तान अपनी हरकतों से बाज आएगा ऐसा सोचना वास्तविकता के विपरीत होगा। क्या हम उस सवैधानिक व्यवस्था के निवाशी नही है, जहा पर कोई नागरिक को अपराध करने पर कार्यपालिका को न्यायपालिका के मध्यम से उसे सजा दिला कर दोषी व्यक्ति को दण्डित कर पीड़ित व्यक्ति को मानसिक सांत्वना देने का अधिकार एवं कर्तव्य है, तब हम क्या उक्त अपराधी को वही छोड़ देते है, इस आशा के साथ की वह स्वयं अपराध न करे या अपराधी होने दंड स्वयं भुगते, तब हम अंतररास्ट्रीय मामले में जहा अंतररास्ट्रीय मामले में जहा अंतररास्ट्रीय कानून विद्यमान है, देश की अस्मिता को चुनौती देने वाले देशो पर क्यो कार्यवाही नही करते है। जिस प्रकार भारतीय संविधान में एक नागरिक को अपने स्वरक्षा का अधिकार है उसी प्रकार अंतररास्ट्रीय कानून में भारत को भी अपने आत्मसम्मान की रक्षार्थ दुश्मन देश पर हमला करने का अधिकार है इसके लिए भारत सरकार के अंतर्राष्ट्रीय कानून पढने की आवश्यकता नही, ज़रा सी नजर अमेरिका की तरफ़ देख लीजिये किस कानून के पालनार्थ है? वियतनाम से लेकर अब इरान तक के मामले में अमेरिका " सहवाग" प्रवृत्ति को ही अपना रहा है फ़िर हम क्यो राजनीती में "सहवाग" नही बन पा रहे है वह समझ से परे है।
जिस तरह सहवाग ने हर तरह की गेंद चाहे वो फुलटास हो, आफ ब्रेक हो, गुगली हो या कितनी ही भुमव्दर क्यो न हो, अपने शौर्य, पराक्रम के साथ "एकलव्य" सामान लक्ष को निर्धारित कर, प्रत्येक गेंद को सही दिशा देकर उक्त रनों का पहाड़, टीम के लिए खड़ा किया वैसा ही देश का राजनितिक नेतृत्व, दुश्मनों द्वारा फेंकी जा रही गुगली और घुमावदार बाल को क्यो नही, अपनी तीनो सेना के शौर्य पराक्रम जिसकी क्षमता में कोई संदेह नही है, के द्वारा देश की विदेश निति की, रक्षा निति की और आतंरिक दशा की गेंद को सुद्रढ़ करने के लिए सही दिशा नही दे पा रहा है इसीलिए यहाँ शीर्ष स्तर पर एक 'सहवाग' की आवश्कता है न की रिमोट से चलने वाले कटपुतली व्यक्तित्व की। यह देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा जिस तरह अमेरिका अपने रिमोट से कई देशो के शासनाध्यक्ष को चला रहा है अमेरिका की तरफ़ तुक-तुक निगाहे लगाये देखते रहता है।
जब हमारा पहाड़ जैसा "राहुल" द्रविड़ कई गेंदे बगैर खेले निकल देता है, लेकिन तब भी हमारे कुछ समीक्षक उसे मजबूत 'दीवार' कहते नही थकते है। देश की राजनीती का भी यह दुर्भाग्य है। देश में भी "राहुल " बगैर गेंद मारे कई जगह खड़े है और देश उनकी उपलब्धियों के लिए चिरोरी गिन रहा है। क्या बगैर खेले कुछ उपलब्धि कभी हो पाई है, इसीलिए यदि कुछ उपलब्धि प्राप्त करना है तो कुछ न कुछ अवश्य करना पड़ेगा और इसीलिए जब आज 'टेस्ट क्रिकेट' जो की पिछले कुछ समय से मरणासन्न की स्थिति में जा रहा है तब उसके गति देने सहवाग जैसे खिलाड़ीयो ने वनडे और टी-२० के गति के समान उसे पुन: वह गति प्रदान करने का प्रयास किया है तब यही राजनितिक दिशा की आवश्कता आज की भारतीय राजनीति के शीर्षस्थ लोगो से है।
विपरीत परिस्थितियों में 'अकेले' सहवाग "तिहरा सतक (के करीब )" पहुँच सकता है तब भारतीय राजनीती में विपक्षी दल क्यों नही 'वीरू ' बनकर वीरता नही दिखा सकते है यह भी एक प्रश्न है ? क्या यह सरकार का ही दायित्व मात्र है ? देश के अस्मिता के प्रति सजग होने का क्या सरकार के विपरीत खड़े समस्त दलों का भी उतना ही दायित्व नही है ? ठीक उसी प्रकार टीम के जब बल्लेबाज फेल हो जाते है तब गेंदबाज अपने सक्रियता, और सक्षमता को और पैनी कर टीम को वापस मैदान में ले आते है।
यदि क्रिकेट टीम की यह भावना भारतीय राजनीतिज्ञों में भी आ जाए तो वह दिन दूर नही जब न केवल "आजाद कश्मीर" भारत का पुन: अभिन्न अंग होगा बल्कि "अखंड भारत" की (हिंदूवादी संगठनो) की परिकल्पना भी पूर्ण होगा।
अंत में चूँकि यह लेख क्रिकेट से प्रारम्भ हुवा और क्रिकेट के प्रति श्रधेय स्वर्गीय प्रभाष जी का लगाव उनके जीवन के अन्तिम क्षण तक था यह सब हजारो भारतीय क्रिकेट प्रेमी जानते है जिनकी क्रिकेट पर त्वरित टिप्पणी के अतिरिक्त "कागत कोरे" (जनसत्ता) मन के अन्दर तक छू जाने वाली होती थी, का मैं भी हजारो भारतियों के साथ प्रशंसक रहा हु। यदि आज प्रभाष जी जीवित होते तो उनकी कलम अभी वीरू के "तिहरे सटक (के समीप)" से भी तेज होती जो "तिहरे सटक" में जो मात्र ७ रनों की कमी रह गयी की पूर्ति भी कर देती। आज इस अवसर पर मैं उन्हें सत-सत नमन कर यह लेख उनकी श्रद्धा में समर्पित करता हूँ।
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