सोमवार, 7 अगस्त 2023

न्यायालय के निर्णय को ‘‘समझने की समझ’’ बनाइए/बढाइये।

भूमिका। 

हम कई बार महत्वाकांक्षी होने के कारण राजनीतिक महत्व के कुछ एक न्यायिक निर्णयों पर ‘‘ऑन द फेस’’ (मुख पर) निर्णय की गहराई तक विस्तृत रूप से विषय के अंदर तक जाए बिना इतनी तत्परता से अपनी भावनाएं, प्रतिक्रियाएं व्यक्त कर देते हैं, जो निर्णय में लिखी गई बातों से पूर्णतः मेल खाती नहीं है। ठीक उसी प्रकार जैसे किसी समाचार की हेडलाइंस या ब्रेकिंग न्यूज के अंदर लिखी/पढ़ी गई पूर्ण समाचारों के तथ्यों से सामान्यतया उस तरह से मेल नहीं खाती हैं, जैसी हेडलाइंस में बताई या दिखाई जाती है। यदि ऐसा ही तत्परता, तीव्रता के साथ जीवन कर्तव्य के दूसरे क्षेत्रों में भी हम अपना लें, तो हम स्वयं को, समाज को व अंततः देश को सुधार ही लेंगे। अतः पारखी बनाएं, गुड़ियों की कमी नहीं, पारखियों की कमी है।

प्रकरण के तथ्य
13 अप्रैल 2019 को कर्नाटक के कोलार में एक चुनावी सभा में ‘‘मोदी उपनाम’’ के संबंध में की गई कथित विवादित टिप्पणी को लेकर गुजरात के पूर्व मंत्री एवं सूरत पश्चिम क्षेत्र के विधायक पूर्णेश मोदी (जो स्वयं मोदी उपनाम का प्रयोग करते नहीं रहे है, भूटाला उपनाम है व मोध वनिका समाज के हैं) ने राहुल गांधी के खिलाफ आपराधिक मानहानि का मुकदमा सूरत के मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी हरीश हसमुख भाई वर्मा के न्यायालय में दायर किया था। इस पर निम्न न्यायालय ने राहुल को दोष सिद्धि (कनविक्शन) पाकर अधिकतम प्रावधित दो वर्ष की सजा सुनाई।
वो जब्र भी देखा है तारीख़ की नजरों ने,
लम्हों ने ख़ता की थी सदियों ने सजा पाई!
इस दोषसिद्धि एवं अधिकतम दो साल की सजा आदेश के विरुद्ध सत्र न्यायाधीश में अपील की गई, जहां मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी द्वारा 30 दिनों के लिए रोकी गई सजा को तो अपील की सुनवाई तक ‘‘रोक’’ दिया गया, परन्तु दोषसिद्धि पर स्टे नहीं दिया गया। इस कारण से राहुल की लोकसभा की सदस्यता लोकसभा स्पीकर द्वारा कानूनी प्रावधानों के अनुसार परंतु 26 घंटे के भीतर तुरंत-फुरंत आनन-फानन में समाप्त कर जल्दबाजी का एक ‘‘नया इतिहास’’ बना दिया गया। सत्र न्यायाधीश के आदेश के विरूद्ध उच्च न्यायालय में अपील की गई, जहां भी 125 पेज के लंबे चौड़े आदेश द्वारा अस्वीकार कर दी गई। इस आदेश के विरूद्ध प्रस्तुत अपील में उच्चतम न्यायालय ने राहुल गांधी द्वारा चाही गई सहायता देते हुए निम्न परीक्षण न्यायालय के ‘‘दोषी’’ पाये जाने के निर्णय पर स्थगन आदेश जारी कर दिया।
राजनैतिक प्रतिक्रियाएं एवं न्यायालीन टिप्पणी
उच्चतम न्यायालय के उक्त स्थगन आदेश पर जिस तरह की मीडिया रिपोर्टिंग, तथा दोनो राजनीतिक पार्टियां कांग्रेस व उसकी विरोधी पार्टी भाजपा की जिस तरह की प्रतिक्रियाएं आ रही है, वह राजनीतिक अर्थों से ज्यादा प्रभावित होकर तथ्यों से कम मेल खाती है। इसके साथ ही यह भी लगता है कि उच्चतम न्यायालय ने निर्णय देने में सुनवाई के दौरान जो रिमार्क  (टिप्पणियां) किए है, उसमें कहीं न कहीं अनजाने में कुछ ऐसी गलती हुई है, जिनका प्रभाव अंततः राहुल गांधी की सजा व दोषसिद्धि के विरुद्ध की गई अपील की सुनवाई पर सुनवाई करने वाले न्यायाधीश पर पड़ सकता है। कैसे! आइए, इन सब की चर्चा आगे करते हैं।
उच्चतम न्यायालय की निम्न अदालत को प्रभावित कर सकने वाली ‘‘परिहार्य’’ टिप्पणियां
सर्वप्रथम, उच्चतम न्यायालय ने बहस के दौरान विपरीत दिशाओं में जाने वाली दो प्रमुख बातें कही। प्रथम राहुल गांधी को दिये गये अधिकतम सजा पर यह महत्वपूर्ण प्रश्न चिन्ह लगाया कि इस अधीनस्थ न्यायालयों और उच्च न्यायालय का लम्बा आदेश होने के बावजूद भी अधिकतम सजा का कोई कारण नहीं बतलाया, सिवाय अवमानना के एक मामले (राफेल) में शीर्ष अदालत ने चेतावनी दी है, का संदर्भ दिया है। यही प्रश्नचिन्ह शीर्ष न्यायालय के स्थगन आदेश देने का आधार भी बना। दूसरी तरफ राहुल गांधी के अवमानना वाले बयान को लेकर यह गंभीर टिप्पणी भी की कि, ‘‘इसमें कोई संदेह नहीं कि बयान ठीक नहीं था’’ और नसीहत देते हुए कहा, ‘‘ऐसे मामलों में सार्वजनिक जीवन के व्यक्ति से सार्वजनिक भाषण देते समय सावधानी बरतने की उम्मीद जताई जाती है’’। इस प्रकार उच्चतम न्यायालय ने कहीं न कहीं परोक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से राहुल गांधी के बयान को एक तरह से गलत माना है। वास्तव में यह राहुल गांधी की मूल लड़ाई के उसी बयान के बाबत है, जिसके बारे में उन्होंने शपथ पत्र पर बार-बार यह कहा कि ‘‘मैं माफी नहीं मांगूंगा’’।
‘‘अधिकतम सजा’’ पर प्रश्नचिन्ह?
इसी प्रकार जब उच्चतम न्यायालय यह कहता है कि दो साल की अधिकतम सजा क्यों दी? इसका कारण नहीं दिया; यह कहते हुए न्यायालय ने कहा कि, यदि दो साल में एक महीने कम की सजा दी जाती तो, सदस्यता नहीं जाती। यह कहकर उच्चतम न्यायालय ने कहीं गलती तो नहीं की? क्योंकि इसका एक अर्थ यह भी निकाला जा सकता है कि निम्न न्यायालय ने दो साल की सजा दी है इसलिए, ताकि राहुल गांधी की सदस्यता समाप्त हो जावे। तर्क के लिए यह मान भी लिया जाए, ‘‘उच्चतम न्यायालय के अनुसार यदि जज 1 साल 11 महीने की सजा दे देते या 1 दिन कम की’’, तब दूसरे पक्ष द्वारा क्या यह प्रश्न नहीं उठेगा कि न्यायाधीश ने आशय पूर्वक अभियुक्त को बचाने के लिए 1 महीने अथवा 1 दिन की सजा कम कर के दी? उच्चतम न्यायालय के  अधीनस्थ न्यायालयों से उम्मीद करता है कि वे संदर्भ (कांटेक्टस) के बाहर जाकर अपनी बात न रखें। तब कहीं न कहीं (यही बात) उच्चतम न्यायालय पर भी लागू होती है कि वे संदर्भ के अंदर रहते हुए इस तरह के रिमार्क न करे जो कहीं न कहीं निम्न अदालतों पर भार स्वरूप उनके दिल-दिमाग पर भारी न हो जाये, जो अंततः निष्पक्ष न्याय को कहीं न कहीं प्रभावित कर सकते हैं। क्योंकि उच्चतम न्यायालय की टिप्पणियों का अधीनस्थ न्यायालय पर असर होता है, जो अस्वाभाविक नहीं है।
‘‘ओबिटर डिक्टा’’ (प्रासंगिक उक्ति)! अनावश्यक!
      एक न्यायाधीश जो ट्रायल मजिस्ट्रेट है, के आदेश को उच्चतम न्यायालय स्थगन आदेश देकर रोक देता है और उस प्रक्रिया में बहस के दौरान कुछ ऐसे कथन कह देता है, जो कहीं न कहीं केस की कमजोरी अथवा मजबूती को इंगित, प्रकाशित करती है, तब उस निम्न न्यायाधीश से एक पद बड़े ‘‘सत्र न्यायाधीश’’ के लिए उन कमेंट्स को नजरअंदाज कर उससे प्रभावित हुए बिना निष्पक्ष होकर प्रकरण पर विचार करना अधीनस्थ जजों के लिए इतना आसान नहीं होता है। ‘‘तलवार के साये में भला कौन चैन से रह सकता है’’। न्यायालय की भाषा में उच्चतम न्यायालय की इस प्रकार की टिप्पणी को ‘‘ओबिटर डिक्टा’’ कहा जाता है, जो एक लैटिन शब्द होकर उसका अर्थ ‘‘अनुषांगिक’’, ‘‘प्रासंगिक उक्ति’’ होता है। इसका व्यवहारिक प्रभाव उच्चतम न्यायालय के निर्णय देने के समान होता है। तथापि रेशों-डिसेंडी (निर्णय का औचित्य) समान कानूनन बंधनकारी नहीं होता है। तथापि यह तकनीकी कानूनी स्थिति है। इसलिए उच्चतम न्यायालय को इस तरह की टिप्पणियों से बचना चाहिए। अतः इस दृष्टि से उच्चतम न्यायालय ने राहुल गांधी के मोदी सरनेम के संबंध में दिए गए बयान के प्रति जो रिमार्क किया है, वह कहीं न कहीं सत्र न्यायाधीश पर बोझ होकर कही वे उस आधार पर उन्हें अवमानना का दोषी न मान कर सिद्ध दोषी करार न कर दे, इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है। क्योंकि ‘‘चतुर के चार कान नहीं होते’’, वह दो ही कानों से सुन कर ‘‘जैसी बहे बयार पीठ तब तैसी’’ कर लेता है। यद्यपि अपीलीय न्यायालय स्थगन आदेश जारी करते समय यह जरूर निर्देश देते है कि अधीनस्थ न्यायालय गुण-दोष के आधार पर मामले पर विचार करेगी।
‘‘कांग्रेस/भाजपा की प्रतिक्रियाएं।’’
राहुल गांधी प्रतिक्रिया स्वरूप यह कहते है ‘‘सत्य की जीत होती ही है। मुझे क्या कहना है, इसको लेकर मेरे मन में स्पष्टता है’’। लेकिन इस जीत के अवसर पर वे वह ‘‘स्पष्टता’’, ‘‘स्पष्ट’’ (व्यक्त) नहीं करते हैं। कांग्रेसी भी मिठाई बांट कर जीत का जश्न मना रहे है, क्यों न मनाएं मनाए? ‘‘घर का देव, घर के पुजारी’’। परंतु उन्हे इस बात पर विचार करना चाहिए कि राहुल गांधी दोषमुक्त या सजा से बरी नहीं किए गए हैं, जैसा कि मीडिया के कुछ क्षेत्रों में भी कहा अथवा ‘‘कहलवाया’’ जा रहा है। विपरीत इसके उच्चतम न्यायालय ने दोषसिद्धी (कन्विक्शन) को स्थगित करते समय जो उक्त टिप्पणी की है, कहीं वह राहुल के लिए चिंता की लकीर तो नहीं बन जायेगी? फिलहाल यह भविष्य के गर्भ में छुपी है। कांग्रेस व अखिलेश यादव की यह प्रतिक्रिया कि भारतीय जनता पार्टी की ‘‘साजिश बेनकाब’’ हो गई है, बहुत ही हास्यास्पद है। क्या तीनों अधीनस्थ न्यायालयों के निर्णय भाजपा की साजिश और षड्यंत्र अनुसार हुए हैं? जो सरासर न्यायपालिका की कानूनी मानहानि ही नहीं, बल्कि अपमान भी है। इसी प्रकार भाजपा के सांसद मनोज तिवारी का संसद परिसर में राहुल गांधी पर कटाक्ष करते हुए दिये गए बयान से स्वयं उनकी ही बेइज्जती हुई है, जब वे यह कहते हैं कि राहुल गांधी ने सुप्रीम कोर्ट में माफी मांग ली होगी, (जो सत्य से परे है) तभी तो सजा पर रोक लगी है। यदि पहले ही माफी मांग लेते तो इतनी बेइज्जती नहीं होती?
सुनवाई सिर्फ स्थगन आवेदन तक सीमित! प्रकरण के गुण दोष पर नहीं
 वस्तुतः उच्चतम न्यायालय के समक्ष प्रकरण गुण-दोष के आधार पर दोष सिद्धि व सजा  को लेकर सुनवाई के लिए नहीं था, बल्कि मात्र सिर्फ दोष सिद्धि के स्थगन को लेकर था। निम्न परीक्षण न्यायालय द्वारा दोष सिद्धी और दो साल की सजा में से दो साल की सजा को तो अपीलीय सेशन कोर्ट ने ही स्थगित कर दिया था। परंतु दोषसिद्धि को स्टे न करने के कारण द्वितीय अपील उच्च न्यायालय में की गई, जहां भी सफलता न मिलने पर उच्चतम न्यायालय में हुई उक्त अपील में दोषसिद्धि को भी स्टे कर दिया गया। केस की मेरिटस या डी मेरिटस (गुण-अवगुण) का कोई मुद्दा था ही नहीं। यह मुद्दा तो सत्र न्यायालय के समक्ष लंबित अपील में लडा जायेगा व वहां तय होगा। उच्चतम न्यायालय या कोई भी अपीलीय न्यायालय अपील के साथ प्रस्तुत स्थगन आवेदन पर स्टे आदेश देते समय सिर्फ इस बात पर ही विचार करता है कि सुविधा का संतुलन (बैलेंस ऑफ कन्वीनियंस) अपीलार्थी के पक्ष में है अथवा नहीं? ताकि स्टे न होने की स्थिति में उसे अप्राय्प नुकसान (अपूरणीय क्षति) न हो जाये, अन्यथा उसका अपील पेश करने का उद्देश्य ही व्यर्थ हो जाएगा। कानूनी और तकनीकी स्थिति यही है। प्रस्तुत प्रकरण में भी यही स्थिति विद्यमान थी, जहां स्टे न होने पर 6 महीने के भीतर संवैधानिक बाध्यता होने के कारण वयनाड लोकसभा क्षेत्र से उपचुनाव हो जाते, तब राहुल गांधी के अपील जीतने के बाद भी उनकी लोकसभा सदस्य बहाल नहीं की जा सकती थी।
‘‘आपराधिक न्यायशास्त्र’’ में परिवर्तन की आवश्यकता !
अवमानना का यह प्रकरण कहीं न कहीं इस बात पर ध्यान आकर्षित करता है कि  ‘‘आपराधिक न्यायशास्त्र’’ में यह परिवर्तन अवश्यसंभावी होना चाहिए कि जब न्यायालय एक तरफ आरोपी को दोषसिद्ध घोषित करके ही सजा दी जाती है, तब दोषसिद्धि (अर्थात मूल आधार) को स्टे किये बिना, सजा को स्टे कैसे कर सकते है? यह तो वही बात हुई कि ‘‘घर आये नाग पूजे नहीं, बाँबी पूजन जाय’’। जन प्रतिनिधित्व कानून की धारा 8 (3) में स्पष्ट लिखा है कि दोषसिद्धि होने पर ‘‘और’’ (एंड) दो साल से ऊपर की सजा होने पर सदस्यता स्वयमेव समाप्त हो जाएगी। ‘‘एंड’’ का अर्थ है, दोनों शर्तें की पूर्ति होने पर ही सदस्यता जाएगी। जब दो साल की सजा स्वयं निचली अदालत ने 30 दिन के लिए स्थगित कर दी थी, तब फिर प्रभाव में सजा का लागू न होना शून्य प्रभावी हो जाने से धारा 8 (3) की दूसरी शर्त का पालन न होने से सदस्यता समाप्त नहीं की जानी चाहिए थी? अतः यदि सजा के स्टे किया गया है, तो दोषसिद्धि भी स्वयमेव स्थगित हो जानी चाहिए, यह कानून बनाया जाना चाहिए। उच्चतम न्यायालय का यह अवलोकन (ऑब्जरवेशन) कि, अयोग्य करार दिए जाने से न केवल सार्वजनिक जीवन में बने रहने का उनका अधिकार प्रभावित हुआ, बल्कि मतदाताओं के अधिकार को भी प्रभावित किया है, जिन्होंने उन्हें अपने निर्वाचन क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने के लिए चुना था। एक बड़ा प्रश्न यह पैदा होता है कि क्या धारा 8 (3) की अयोग्यता का प्रावधान जिसे उच्चतम न्यायालय ने स्वयं लिली थॉमस मामले में धारा 8 (4) को असंवैधानिक घोषित करते हुए संवैधानिक माना था, क्या वह कानून गलत है?

1 टिप्पणी:

Popular Posts