गुरुवार, 28 नवंबर 2024

‘‘बटोंगे (वोट) तो कटोंगे’! ‘‘बाटेंगे तो काटेंगे’।

‘‘बाटेंगे (नोट) तो जीतेंगे-हारेंगे’’।


भूमिका
इस महीने के प्रारंभ से ही चुनाव प्रचार के अंतिम चरण व मतदान के समय तक उक्त नारे और उससे उत्पन्न जवाबी नारे ही मीडिया व चुनावी परिवेश में छाए रहे। देश की राजनीति खास कर चुनावी राजनीति में नारों का क्या महत्व है, और उनके अर्थ, अनर्थ व द्विअर्थी मतलब (मैसेज) कैसे होते हैं, इसको थोड़ा समझने का प्रयास ‘‘नारों की टाइमिंग’’ के साथ करते हैं।
‘‘योगीनाथ उवाच’’।र प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने एक आक्रमक बयान दिया ‘‘राष्ट्र से बढ़कर कुछ नहीं हो सकता और राष्ट्र कब सशक्त होगा, जब हम एक रहेंगे, नेक रहेंगे, बटेंगे तो कटेंगे, आप देख रहे हैं ना, बांग्लादेश में देख रहे हो ना, वह गलतियां यहां नहीं होनी चाहिए’। इस कथन में शामिल ‘‘बटेंगे तो कटेंगे’ ने एक नारे का रूप लेकर राजनीति की धुरी मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के आस-पास केंद्रित हो गई, जिस कारण चुनाव में योगी की मांग बढ़ गई l इसे आगे समझने का प्रयास करते हैं।

नारे की अलग-अलग व्याख्या

उक्त नारे का शाब्दिक अर्थ गलत कहां है? उक्त नारे में योगी आदित्यनाथ ने न तो धर्म का जिक्र किया है और न ही जाति का जिक्र किया है। तब फिर उक्त नारे को धर्म व जाति से जोड़कर ‘‘बयानवीर लोग क्यों अर्नगल बयानबाजी’’ आरोप-प्रत्यारोप के दौरान कर रहे हैं? इसका मात्र एक कारण शायद यह दिखता है कि चूंकि उक्त प्रारंभिक बयान में योगी द्वारा बांग्लादेश का उल्लेख किया गया है, जहां पर अल्पसंख्यकों (हिन्दुओं) पर प्रधानमंत्री शेख हसीना के सत्ता से हटने के बाद से अत्याचार काफी बढ़े है, शायद उस चिंता के संदर्भ में इस बयान को अल्पसंख्यक व बहुसंख्यक के बीच एक नैरेटिव बनाने का प्रयास ‘‘वोट’’ की राजनीति के चलते किया जा रहा है। प्रारंभ में योगी आदित्यनाथ के बयान को एक सिरे से भाजपा के अनेक नेताओं व मीडिया ने लपका। लेकिन शैनेः शैनेः उक्त बयान से कुछ नुकसान, खासकर ‘‘अल्पसंख्यकों’’ के एकजुट होने के चलते, समय-समय पर उसमें परिर्वतन किया गया। प्रधानमंत्री ने असम के मुख्यमंत्री के बयान को आगे बढ़ाया ‘‘एक रहेंगे तो सेफ रहेगें’ । बागेश्वर धाम के पंडित धीरेन्द्र शास्त्री ने योगी आदित्यनाथ का समर्थन करते हुए कहा, ‘‘बटेंगे तो चीन व पाकिस्तान वाले हमें काटेगें’’। तथापि उन्होंने जात-पात व भेदभाव को समाज के लिए जहर बताते हुए हिन्दू जागरूकता बढ़ाने व ‘‘कट्टर हिन्दु’ बनने की अपील की। परन्तु उसी सांस में वे यह भी कहते है कि हमें ब्राह्मण, वैश्य, कास्थ से पहले ‘‘हिन्दुस्तानी’’ (हिन्दु नहीं) बनना होगा। क्योंकि धर्म के नाम पर बंटवारे को खत्म करना ही रामराज की स्थापना का पहला कदम होगा। तब फिर कट्टर हिन्दु बनाने का आव्हान क्या ‘‘अंर्तविरोध’’ नहीं है? उक्त बयान के नुकसान की आशंका को देखते हुए एनडीए के समर्थन वाली पार्टीयां ही नहीं, बल्कि भाजपा के एक-एक करके नेता बयानों से अपने को उक्त नारे से अलग-थलग कर रहे हैं, जैसे अजीत पंवार, एकनाथ शिंदे, पंकजा मुंडे, नीतिन गडकरी, राजनाथ सिंह, उत्तर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री ब्रजेश पाठक व केशव प्रयाद मोर्य आदि। वैसे आज कल हमारे देश मेें कट्टरता के साथ ‘‘कट्टर’’ शब्द की भी कट्टरता के साथ शोर ‘‘कट्टर ईमानदारी, ‘‘कट्टर हिन्दु’’ कट्टर देशभक्त नारों का हो रहा है? नारे  के अर्थ का अनर्थ कैसे निकाला जाता है, इसका उदाहरण ‘‘एक रहेंगे तो सेफ रहेगें’’ के संदर्भ में राहुल गांधी के ‘‘तिजोरी’’ के साथ दो उद्योगपतियों पर किया गये कटाक्ष व व्याख्या से समझा जा सकता है।

नारों की महत्वता, प्रभाव, परिणाम!

देश की राजनीति में स्वतंत्रता के बाद से ही नारों का बड़ा योगदान रहा है। याद कीजिए! वर्ष 1965 में लाल बहादुर शास्त्री ने सैनिको व किसान के लिए दिया अराजनैतिक नारा ‘‘जय जवान जय किसान’’ वर्ष 1967 के चुनाव में कांग्रेस को फायदा मिला। वर्ष 1971 में इंदिरा गांधी ‘‘गरीबी हटाओं’’ का नारा देकर सत्ता पर आरूढ़ हो गई थी। गरीबी हटी या नहीं, यह शोध का विषय हो सकता है, परन्तु गरीब वर्ग जरूर संख्या में बढ़ गया व क्रय क्षमता में और कम हो गया। वर्ष 1977 में ‘‘इंदिरा हटाओं देश बचाओ’’ नारा सफल रहा। वर्ष 1984 में ‘‘ना जात पर, न पात पर, मोहर लगेगी हाथ पर’’ का नारे देकर ऐतेहासिक विजय प्राप्त करने वाली कांग्रेस, समय का चक्र ऐसा चला कि वर्तमान कांग्रेस नेतृत्व आज जातिवादी गणना को जोर-शोर से चुनावी मुद्दा बना रहा है। तत्पश्चात वर्ष 1990 में मंडल और कमंडल के आमने-सामने आने से नारा दिया गया ‘‘जो हिन्दू हित की बात करेगा, वही देश पर राज करेगा’ के जवाब में ‘‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी भागीदारी। वर्ष 1996 में ‘‘अबकी बारी अटल-बिहारी’ नारा भी सफल रहा। इसी वर्ष ‘‘जांचा, परखा, खरा नेतृत्व’ नारा खरा उतरा। वर्ष 1998 ‘‘सबको परखा बार-बार, हमको परखो एक बार। ‘‘अटल-अडवानी कमल निशान, मांग रहा है हिन्दुस्तान नारे हावी रहे। वर्ष 2004 के चुनाव में "कांग्रेस का हाथ आम आदमी के साथ" नारे ने विजय श्री दिलाई। वर्ष 2014 में ‘‘अबकी बार मोदी सरकार, अच्छे दिन आने वाले है, ‘‘हर-हर मोदी घर-घर मोदी’’ नारे सफल रहे। वर्ष 2022 के उत्तर प्रदेश के चुनाव में योगी आदित्यनाथ ने नारा दिया था ‘‘80 बनाम 20’ अब इस नारे के नये संस्करण के रूप में शायद उपरोक्त नारा दिया गया। गृहमंत्री अमित शाह के शब्दों में जहां तक बांटने की बात है, वह कांग्रेस का काम है लोगों को जातियों में बांटती है, समाज को बांटती है और काटने की बात तो सबसे ज्यादा दंगे महाविकास अघाड़ी व कांग्रेस सरकार में हुए हैं।

बाटोंगें (नोट) तो जीतोगें कोई नया नेरेटिव नहीं।

अब इस नारे में एक नया मोड़ आ गया है, जब भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव विनोद तावड़े की उपस्थिति में (व्यक्तिगत उनसे नहीं) 9 लाख से अधिक की जप्ति विरार की एक होटल से की गई, जिसकी बुकिंग भाजपा द्वारा कराई गई थी। यह आरोप लगाया गया कि 5 करोड़ रूपये उक्त होटल में बंटने के लिए तावड़े लेकर आये थे और उक्त रूपये कुछ लिफाफों के माध्यम से महिलाओं को बंट गये और शेष बचा रूपया बंटने के पहले बहुजन विकास पार्टी के विधायक हिन्तेद्र ठाकुर द्वारा पुलिस से शिकायत करने पर जप्त किये गये। साथ में कुछ डायरी की भी  की गई। इन नोटों की जप्ती के कारण अब उक्त नारा में पुनः एक मोड़ आ गया ‘‘बांटोंगे तो ‘‘जीतोंगें या हारोंगें’। ‘‘वोट जिहाद’’ ‘‘नोट जिहाद’ में बदल गया। बांटने-बटने का यह खेल इस चुनावी परिणाम को किस दिशा की ओर ले जायेगा, यह तो 23 तारीख को ही पता चल पायेगा।

चुनाव आयोग की अक्षमता।

एक बात तय है कि देश में चुनाव कराने का महत्वपूर्ण तंत्र ‘‘चुनाव आयोग’’ अपनी कार्यक्षमता व विश्वसनीयता न केवल खो चुका है, बल्कि निष्पक्षता से भी कोसो दूर है। चुनाव आयोग की निष्पक्षता व कार्यक्षमता के नाम पर आज भी टी एन शेषन को ही याद करते है। अन्यथा जो जप्ति एक पार्टी के विधायक की शिकायत पर हुई, चुनाव आयोग की मशीनरी के सर्विलांस के रहते उक्त पैसा कैसे, कब व कहां से आया चुनावी मशीनरी को मालूम ही नहीं पड़ा। यह एक अक्षमता व शोध का विषय है। इस ‘‘कैश कांड’’ ने एक बात तो सिद्ध कर दी कि यदि आप जागते रहेंगे तब न तो आपकी जेब कटेगी न ही दूसरों की जेब भरी जा सकेगी। समस्त राष्ट्रीय पार्टियां निष्पक्ष चुनाव आरोप-प्रत्यारोप करने के लिए सरकारी मशीनरियों पर ही निर्भर रहती है, स्वयं ‘‘बहुजन विकास आघाडी पार्टी’’ के समान ऐसी अनियमितताओं को रोकने के लिए जाग्रत व प्रयासरत नहीं रहती हैं। वे इस तरह की गैरकानूनी और आचार संहिता के उल्लंघन को रोकने का दायित्व सिर्फ संस्थाओं को की मानते है। शायद इसका कारण एक मात्र यह है कि ये समस्त राष्ट्रीय पार्टियां जब भी उन्हें मौका मिलता है, वे इस तरह की अवैधानिक कार्रवाइयों में संलिप्त रहती है। इसका मतलब साफ है। राजनीतिक पार्टियों अक्षरशः निम्न उक्ति का पालन करती है। ‘‘कांच के घर में रहने वाले दूसरों के घरों पर पत्थर नहीं फेंकते’’।

चुनावी परिणाम की संभावनाएं।

जहां तक परिणाम की बात है, चुनावी परिणाम का उंट किस करवट बैठेगा, यह बात बिना किसी विवाद के मान्य है कि जहां तक महाराष्ट्र का सवाल है, शरद पवार इस चुनाव के सबसे बडे़ अनुभवी और व्यापक आधार वाले नेता है, जो जोड-तोड़ की राजनीति में वर्तमान चाण्क्य अमित शाह से भी ज्यादा चाणक्य नीति में माहिर है। तभी तो वह तत्समय देश के सबसे समृद्ध राज्य महाराष्ट्र के सबसे कम उम्र के मुख्यमंत्री बन गये थे। देश की जनता कुछ अवसरों पर भावुक हो जाती है, जैसा कि हमने इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए चुनाव में एकतरफा जीत को देखा था। शरद पवार दीर्घायु हो, शतायु हो। परंतु उनका राजनैतिक जीवन का यह अंतिम पड़ाव है। जहां भावुक जनता शरद परिवार के नेतृत्व में ‘‘अघाड़ी’’ की सरकार बनाकर सम्मानपूर्वक बिदाई देने की संभावना की ओर दिखती है,  परिणाम स्वरूप शायद सुप्रिया सुले या उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्री बन सकते है।

शनिवार, 16 नवंबर 2024

(माननीय) ‘‘जज’’ को ‘‘जज’’ करने की ‘‘दुखद’’ स्थिति क्यों बन रही है?

मुख्य न्यायाधीश की सेवानिवृत्ति के पूर्व विवाद! अप्रिय स्थिति!क्यों?

भारत के 50 वें मुख्य न्यायाधीश माननीय डॉ. धनजय यशवंत चंद्रचूड़ का जैसे-जैसे सेवानिवृति का समय (10 नवम्बर) नजदीक आ रहा है, दिन-प्रतिदिन उनके बयानों, कथनों, कार्यो और निर्णयों से खुलासे पर खुलासे व परद-दार-परत जो स्थिति सामने आ रही है, उससे भारत के न्यायिक क्षेत्र से जुड़े समस्त व्यक्ति ही नहीं, बल्कि हर कोई एक सामान्य पढ़े-लिखे व्यक्ति द्वारा भी माननीय को ‘‘जज’’ करने की स्थिति बन रही है। मतलब जहां न्यायालय आरोपियों को ‘‘कटघरे’’ में खड़ा करता है, वहां माननीय न्यायाधीश स्वयं ‘‘जनता की अदालत’’ के कटघरे में आते/लाते दिख रहे हैं। प्रश्न यह है कि देश के इतिहास में शायद ऐसी स्थिति पहली बार बन रही है। ऐसा क्यों? वे ऐसे पहले व एकमात्र मुख्य न्यायाधीश है, जिनके पिताश्री वाय.वी. चंद्रचूड़ भी सर्वोच्च न्यायालय के स्वतंत्र भारत के इतिहास में सर्वाधिक अवधि लगभग 7.5 वर्ष के लिए मुख्य न्यायाधीश रह चुके हैं l डी वाई चंद्रचूड़ ने वर्ष 2018 में न्यायाधीश रहते अपने पिताजी के 41 वर्ष पूर्व के ‘‘निजता के अधिकार’’ (वर्ष 1976 एडीएम जबलपुर बनाम शिवाकांत शुक्ला) के निर्णय के विपरीत जाकर अनुच्छेद 21 के अंतर्गत उसे ‘‘मौलिक अधिकार’’ घोषित कर तथा दूसरा मामला भी वर्ष 2018 में ही व्यभिचार की धारा 497 के वर्ष 1985 के सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के विपरीत 158 वर्ष पुरानी धारा 497 को रद्द कर, अपनी निष्पक्षता, निर्भीकता व साहस का भी परिचय दिया है।

कुछ महत्वपूर्ण निर्णय।   

याद कीजिए! जब माननीय डी.वाई. चंद्रचूड़ ने मुख्य न्यायाधीश पद की शपथ ली। तब देश के न्यायिक प्रशासन व क्षेत्र में कई सुधारों की आशा उनके पूर्व के कई न्यायिक निर्णयों, कार्यो व बार-बेंच के प्रति व्यवहार से बनी थी। कुछ महत्वपूर्ण निर्णयों ‘‘विवाह का अधिकार’’, ‘‘अविवाहित महिलाओं का गर्भपात का अधिकार’’, ‘‘समलैंगिता अपराध नहीं’’, ‘‘टू फिंगर टेस्ट पर प्रतिबंध’’, सीएए, एनआरसी, बुलडोजर न्याय, सबरीमाला, भीमा कोरेगांव मामले इत्यादि से उक्त ‘‘परसेप्शन’’ बना। तथापि कुछ निर्णय ऐसे भी आये, जहां वे सरकार को बचाते हुए भी दिखे। वे तीन प्रमुख निर्णय चंडीगढ़ महापौर का चुनाव, (जहां चुनाव अधिकारी के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई) महाराष्ट्र की शिंदे सरकार को अवैध घोषित करने का निर्णय और चुनावी बांड को अवैध घोषित कर अवैध धन राशि के विरूद्ध कोई कार्रवाई न करने के निर्णयों के साथ कुछ हद तक संविधान की अनुच्छेद 370 (2) एवं (3) का खात्मा ऐसे मामले हैं, जिनके अंतिम परिणाम ठीक उसी तरह के हैं, जिस प्रकार किसी भवन निर्माण को सक्षम अथॉरिटी द्वारा समग्र जांच के बाद अवैध निर्माण और अतिक्रमित घोषित किया जाता है, परंतु परिणाम स्वरूप न तो उसे तोड़ा जाता है और न ही सरकार जनहित में अधिग्रहण करती है। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के संबंध में आज ही आया निर्णय को भी इसी श्रेणी में रखा जा सकता है। जहां एक तरफ 1967 के उच्चतम न्यायालय के अजीज बाशा के फैसले को पलट दिया। परन्तु वहीं दूसरी तरफ मुख्य मिथ्य वस्तु ‘‘अल्पसंख्यक दर्जे’’ पर निर्णय न देकर तीन सदस्यीय पीठ पर बाद में निर्णय लेने के लिए छोड़ दिया। जस्टिस लोया की मृत्यु की जांच का मामला भी कुछ ऐसा ही है।

स्थापित आचार संहिता का उल्लंघन?

याद कीजिए! जब भगवान श्री गणेश उत्सव की पारिवारिक पूजा में निमंत्रण पर देश के लोकप्रिय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी उनके घर गये। वहां परिवार के साथ भगवान श्री गणेश की पूजा करते हुए एक वीडियो प्रधानमंत्री के सोशल मीडिया ‘‘एक्स’’ पर हिंदी एवं मराठी भाषा में जारी करने के बाद से ‘‘माननीय’’ मुख्य न्यायाधीश लगातार विवाद के शिकार होते गये। वैसे प्रधानमंत्री द्वारा एक व्यक्तिगत निमंत्रित धार्मिक कार्यक्रम का वीडियो सार्वजनिक करना, बिलकुल गलत था। यदि यह सार्वजनिक नहीं होता तो ‘‘जंगल में मोर नाचा किसने देखा’’, और तब अनावश्यक विवाद पैदा ही नहीं होता। जब मुख्य न्यायाधीश एक प्रश्न के जवाब में यह कहते हैं कि प्रधानमंत्री की मेरे घर की यात्रा पूर्णतः नितांत निजी आयोजन था, तब फिर इसे ‘‘सार्वजनिक’’ करने के लिए क्या मुख्य न्यायाधीश की सहमति ली गई? तथापि बाद में भी अवसर मिलने के बावजूद भी मुख्य न्यायाधीश ने उक्त वीडियो जारी करने पर कोई आपत्ति नहीं की। तब फिर वह ‘‘शुद्ध निजी आयोजन’’ कैसे हो सकता है? जब वह सोशल प्लेटफार्म ‘‘एक्स’’ के माध्यम से ‘‘विश्वव्यापी’’ हो गया। एक के बाद एक बयान जैसे भगवान श्री राम जन्मभूमि विवाद मामले में उनके बयान ने आलोचना के क्षेत्र को और ‘‘विस्तार’’ दे दिया। यद्यपि इस संबंध में उन्होंने एक प्रश्न के संबंध में स्पष्ट किया कि ‘‘मैं एक आस्थावान व्यक्ति हूं; यह मेरा जीवन मंत्र है’’। इंडियन एक्सप्रेस की ‘‘अड्डा कांफ्रेस’’ में प्रधानमंत्री के साथ गणेश पूजा के संबंध में पूछे गये प्रश्न के उत्तर में देश ‘‘हैरान’’ हो जाता है, जब बकौल माननीय मुख्य न्यायाधीश, “मामले की सच्चाई यह है, जैसा कि मैंने कहा, सौदे इस तरह (ऐसी बातचीत के दौरान) कभी नहीं काटे जाते हैं। तो कृपया, हम पर भरोसा करें, हम सौदे में कटौती करने के लिए नहीं हैं’’। राजनीति में परिपक्वता होनी चाहिए। जजों पर संदेह करना व्यवस्था को बदनाम करना है। माननीय न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ के उक्त कथन का एक मतलब देश के नेताओं के साथ न्यायाधीशों का सौदा होता है, यह बात सिद्धांत, स्वीकार करते हुए ‘‘तरीका दूसरा’’ हो सकता है, एक अर्थ यह भी निकलता है। इसी कॉन्फ्रेंस में उन्होंने कहा कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता का मतलब हमेशा सरकार के खिलाफ फैसले देना नहीं है। जमानत के मुद्दे पर उन्होंने ‘‘ए टू जेड’’ (अर्नव टू जूबेर) तक को जमानत देने का हवाला दिया। परन्तु यहाँ  ‘‘एस’’ शरजील इमाम व ‘यू’ उमर खालिद का समावेश शायद संभव नहीं था।

माननीय मुख्य न्यायाधीश की निष्पक्षता के परसेप्शन पर दरार।

वास्तव में न्यायपालिका के संबंध में एक स्वीकृत विश्वव्यापी सिद्धांत यह है कि ‘‘न्याय सिर्फ मिलना ही नहीं चाहिए, बल्कि न्याय मिलते हुए दिखना भी चाहिए’’। यह तभी संभव है, जब न्यायाधीश कार्यावधि के दौरान कार्यपालन के संबंध में आचार संहिता का पूर्णतः पालन करे। निश्चित रूप से मुख्य न्यायाधीश के साथ प्रधानमंत्री की ‘‘गणेश पूजा’’ बकौल वकील प्रशांत भूषण ने हैरानी जाहिर करते हुए इसे आचार संहिता का उल्लंघन बतलाया। न्यायपालिका-कार्यपालिका के बीच एक सीमा तक दूरी बरतनी चाहिए। दूसरे, इससे न्याय के उक्त परसेप्शन पर कहीं न कहीं धक्का पहुंचा है। क्योंकि अधिकतर मामलों में केंद्र सरकार जिसके मुखिया प्रधानमंत्री होते है, एक पक्षकार होती है। यदि मुख्य न्यायाधीश अपने सहकर्मी एक-दो जजों या राजनेताओं को अपने साथ उक्त निजी आयोजन में रख लेते तो, ‘‘एकल भेट’’ होने से बनी उक्त शंका निश्चित रूप से नहीं उठती। आज के युग में ‘‘एक्शन’’ से ज्यादा ‘‘परसेप्शन’’ का महत्व होता है। न्यायाधीश निष्पक्ष हैं, कहीं न कहीं एक्शन के साथ इस परसेप्शन पर उक्त कृत्य से कुछ चोट पहुंची है।

साथी जज द्वारा आलोचना।

अभी हाल में ही निजी संपत्ति के संबंध में आये निर्णय जिसमें 46 वर्ष पुराने 1978 के निर्णय को उलट करने वाले निर्णय में आंशिक रूप से सहमत होने वाले जस्टिस बी.वी. नागरत्ना एवं सुधांशु धूलिया ने इस बात की आलोचना की है कि, उन्होंने 1978 के निर्णय देने वाले जस्टिस कृष्णा अय्यर पर अनावश्यक टिप्पणी की। देश के इतिहास में ऐसा पहली बार ऐसा हुआ था, जब जनवरी 2018 में चार वरिष्ठ जजों जे चेलमेश्वर, रंजन गोगोई, मदन भीमराव लोकुर और कुरियन जोसेफ ने (जिनमें से बाद में रंजन गोगोई मुख्य न्यायाधीश बने) मुख्य न्यायाधीश से कुछ अनियमितताओं पर बात करने के बाद संयुक्त पत्र लिखने के बाद कोई आशाजनक परिणाम न आने पर ‘‘लोकतंत्र को बचाने के नाम’’ पर बाकायदा प्रेस कांफ्रेंस कर मुख्य न्यायाधीश के कार्य पद्धति की आलोचना की थी। वर्तमान समय में जब देश की अनेक संवैधानिक संस्थाओं की स्वतंत्रता व संप्रभुता तथा संवैधानिक मूल्यों पर आंच आ रही हो, जैसे चुनाव आयोग, नियंत्रक और महालेखा कार, तब इन आंचों पर रोक लगाने वाला तंत्र उच्चतम न्यायालय ही इस आंच से झुलसने लग जाये, तो इस देश की संवैधानिक व्यवस्थाओं का क्या होगा? यह एक बड़ा प्रश्न है? जिस पर इस क्षेत्र से जुड़े समस्त बुद्धिजीवियों को गहनता से विचार करना होगा।

इतिहास कैसे याद रखेगा? माननीय मुख्य न्यायाधीश की चिंता।

माननीय मुख्य न्यायाधीश की यह चिंता जायज है कि इतिहास उन्हें कैसे याद रखेगा? क्योंकि व्यक्ति जब अपने कार्यों का सिंहावलोकन करता है, तब उसका अपने किये गए कार्यों के गुण-दोषों पर ध्यान जाता है। इस बात को ध्यान में रखते हुए माननीय चंद्रचूड़ के कुछ प्रशासनिक निणयों पर भी ध्यान डालिये! ब्रिटिश इंडिया जमाने की ‘‘न्याय की देवी की मूर्ति’’ में बदलाव, ‘‘संग्रहालय’’ के निर्माण का निर्णय (जिसके बहिष्कार करने का निर्णय उच्चतम न्यायालय बार संघ ने लिया) ग्रीष्मावकाश का नाम बदलकर ‘‘आंशिक न्यायालय का कार्य दिवस’’ व ‘‘अवकाश जज’’ को ‘‘जज’’, जजों के बैठने की ‘‘कुर्सी’’ बदली, ऐसे ही कुछ निर्णयों के द्वारा शायद ‘‘माननीय’’ स्वयं को इतिहास में दर्ज कराना चाहते हैं, जिसका मूल्यांकन भविष्य ही करेगा। कोर्ट पास, ‘‘ई-फाइलिंग’’ में सुधार, ‘‘लाइवस्ट्रीमिंग’’, डिजीटलीकरण, ‘‘पेपर लेस सबमिशन’’, ‘‘ए आई’’का प्रयोग जैसे कुछ तकनीकि सुधार की ओर कदम बढ़ाया। वरिष्ठ वकील एवं सर्वोच्च न्यायालय बार संघ के पूर्व अध्यक्ष दुष्यंत दवे की ‘नजर’ में तो मुख्य न्यायाधीश की विरासत को ‘‘नजर अंदाज’’ करना ही उचित है।

आज अंतिम कार्य दिवस पर भी 45 केस सुने। इस अवसर पर आने वाले सुनहरे भविष्य के लिए माननीय को शुभकामनाएं।

शुक्रवार, 8 नवंबर 2024

'‘दिया तले अंधेरा’’

दिये को प्रज्वलित करने का विश्व रिकॉर्ड। 

‘‘दिया तले अंधेरा’’ का सबसे नवीनतम उदाहरण अयोध्या में ‘‘दीप प्रज्वलित’’ का है। सबसे बड़ा हिन्दू त्यौहार ‘‘दीपावली’’ के शुभ अवसर पर लगभग 500 साल बाद ‘‘अयोध्या’’ के नवनिर्मित भव्य श्रीराम मंदिर परिसर में सरयू नदी के 55 घाटों में 25 लाख 12585 ‘‘दिये’’ (दीपक) प्रज्वलित कर नया ग्रीनिज विश्व रिकॉर्ड बनाया गया। साथ ही एक साथ 1121 अर्चकों के सरयू आरती का भी नया रिकॉर्ड बना है। इसके लिए हिन्दू समाज मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को बधाई प्रेषित कर रहा है। वैसे भी विश्व रिकॉर्ड बनाए जाने पर बधाई तो प्रेषित की ही जानी चाहिए। एक रिपोर्ट के अनुसार यह रिकॉर्ड बनाए जाने के लिए लगभग 91 हजार लीटर सरसों का तेल खर्च हुआ है। कुल खर्च का रिकॉर्ड उपलब्ध नहीं हो पा रहा है। उत्तर प्रदेश की योगी सरकार की ओर से वर्ष 2017 से प्रारंभ किए गए दीपोत्सव में लगातार वर्ष प्रतिवर्ष नये-नये रिकॉर्ड बनते रहे हैं। वर्ष 2017 में एक साथ 1.71 लाख दीपों का प्रज्वलन हुआ था। वर्ष 2018 में 3.01 लाख दीये, 2019 में 4.04 लाख दीये, 2020 के चौथे दीपोत्सव में 6.06 लाख दीप प्रज्वलित किए गए थे। इसके उपरांत 2021 में 9.41 लाख दीये, 2022 में कुल 15.76 लाख दीये और 2023 के सातवें दीपोत्सव में 22.23 लाख दीयों के प्रज्वलन का रिकॉर्ड बना था।

कितना आवश्यक?

वर्तमान के रिकॉर्ड के साथ एक वीडियो भी वायरल हुआ है, जिसमें स्वास्थ्य कर्मचारी ‘दिये’ में बचे तेल को नदी में छोड़ रहे हैं। इसका महत्वपूर्ण कारण शायद यह रहा है कि पिछले वर्ष भी जब ऐसा ही विश्व रिकार्ड बनाया गया था, तब वहां के गरीब निवासियों केे ‘‘दिये के बचे तेल से’’ तेल इकट्ठे करने का वीडियो वायरल होने से सरकार को कहीं न कहीं शर्मिदगी उठानी पड़ी थी। बावजूद इसके इस वर्ष भी तेल इकट्ठा करने का वीडियो वायरल हुआ है। एक प्रश्न जरूर यहां उठता है कि क्या हमारा देश या कोई राज्य इस तरह के विश्व कीर्तिमान को बनाने के लिए हुए सरकारी या गैर सरकारी खर्च को वहन करने की क्षमता अथवा प्राथमिकता रखता वर्तमान में है? वह देश जिसके लोकप्रिय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का यह सपना हो कि हवाई चप्पल पहनने वाला व्यक्ति हवाई जहाज का सफर कर सके। वहां ऐसे व्यक्ति की जिंदगी की गाड़ी चलने में ही ‘‘तेल’’ निकला जा रहा है, ऐसी स्थिति में दिये की जगमगाती रोशनी से बने दिव्य नजारे के विश्व रिकॉर्ड के नीचे निर्धन जनता का दिए के बचे तेल को इकट्ठा करना रोशनी के ठीक नीचे अंधेरा नहीं तो क्या है? क्या इस स्थिति से कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न हमारे दिलों दिमाग में नहीं उठते हैं? वे क्या हो सकते हैं व समाधान क्या होने चाहिए? इसकी कुछ चर्चा आगे करते हैं।

धार्मिक आस्था के सार्वजनिक प्रदर्शन में आर्थिक व्यय पर अंकुश आवश्यक।

निश्चित रूप से हिन्दू समाज में धार्मिक आस्थाओं के उत्सव कुछ-कुछ अंतरालों से लगभग साल भर होते रहते हैं। ये हमारी धार्मिक आस्था के ‘‘प्रतीक’’ और ‘‘प्रदर्शन’’ भी है। इनमें भावनाओं का ‘‘अभिभूत दर्शन’’ कितना है, यह अलहदा बात है। प्रश्न यह है कि क्या इन आस्थाओं के सार्वजनिक प्रदर्शन की ‘‘वैभवता’’, ‘‘साधारणपन’’व ‘‘प्रतीकात्मकता’’ के बीच कोई ‘‘संतुलन’’ स्थापित किया जा सकता है, अथवा नहीं? इस ‘‘संतुलन’’ की आवश्यकता का एकमात्र कारण ‘‘आर्थिक धन के अपव्यय’’ को आर्थिक स्थिति के मद्देनजर रोकना है। एक वर्ग या कुछ लोग जरूर यह कह सकते है कि ‘‘आर्थिक अपव्यय’’ की ‘‘फिजूल बात’’ सिर्फ धार्मिक आस्थाओं के कार्यक्रम के संबंध में ही क्यों की जा रही है? क्या जनजीवन के अन्य क्षेत्रों में आर्थिक अपव्यय नहीं होता है? तर्क अपने आप में सही है, लेकिन पूर्ण नहीं है। ‘‘आर्थिक अपव्यय’’ का आधार सिर्फ धार्मिक प्रदर्शनों के लिए नहीं, बल्कि जीवन के समस्त क्षेत्रों के सार्वजनिक प्रदर्शन के साथ व्यक्तिगत कार्यक्रमों पर भी लागू होना चाहिए। और यदि वास्तव में यह ‘‘संतुलन की लक्ष्मण रेखा खींचकर’’ धरातल पर उसे उतार दिया जाये, तो यह आपका देश के प्रति ही नहीं, बल्कि स्वयं के प्रति भी एक बड़ा उपकार होगा।

अपव्ययो को कम कर गरीबी के स्तर को सुधारने की ज्यादा जरूरत है।

जब हम तेल दिए से नागरिकों द्वारा के बचे हुए तेल को एक घरेलू उपयोग के लिए इकट्ठा करते हुए देखते है, तब क्या हमारा मन तत्समय एक क्षण के लिए धार्मिक आस्था से हटकर नागरिक जीवन की उसे भयावत स्थिति पर द्रवित नहीं हो जाता है? यदि नहीं! तो हम मानवीय धर्म नहीं निभा रहे हैं और यदि हां तो हमे धार्मिक आस्था के खुले वैभव के प्रदर्शन पर अंकुश लगाकर एक प्रतीकात्मक लेकिन दृढ़ धार्मिक भावना का प्रदर्शन करना होगा। निश्चित रूप से हमारा यह कदम अप्रत्यक्षतः उस गरीब नागरिक के जीवन स्तर को ऊंचा उठाने की पूर्ति में अपनी जेब से खुद कुछ दिये बिना भी सहायक होगा। ‘‘रोटी कपड़ा और मकान’’ इस देश के नागरिकों की प्रथम मूलभूत जरूरतें हैं। धार्मिक आस्था के उक्त भावपूर्ण प्रदर्शन को उक्त जरूरतांे के बीच किस प्रकार से स्थान दिया जा सकता है, इस पर  गंभीरता से सोचने की आवश्यकता है। 

एकमात्र फायदा। 

वैसे एक तर्क जरूर दीपक जलाने के पक्ष में है। वह इससे आसपास के वातावरण में मौजूद बैक्टीरिया वायरस नष्ट होकर वातावरण शुद्ध होता है। परन्तु उक्त दीपोत्सव का यदि यही कारण है, तब दिल्ली में इसकी सबसे ज्यादा जरूरत है, जिसका एयर क्वालिटी 370 होकर जो विश्व का ‘‘सबसे बड़ा प्रदुषित शहर’’ लाहौर के एयर क्वालिटी इंडेक्स 394 से दूसरे नंबर पर है।

अपव्यय का प्रदर्शन और अंकुश पर एक कानून की आवश्यकता है। 

जरा अंबानी घराने की शादी को याद कीजिए! वैभवता का फूहड़ प्रदर्शन जिसे व्याभिचारी प्रदर्शन ही कहा जायेगा, प्रदर्शित हुआ। क्या इस आधार पर इसे उचित ठहराया जा सकता है कि यह उनका एक संवैधानिक नागरिक अधिकार है, जो अपनी आय की जेब से पैसे खर्च कर रहे है? मेरी अपनी मर्जी। बिल्कुल नहीं। यह तो गलत ही है। हमारे देश में शादी ब्याह व सार्वजनिक कार्यक्रमों के लिए आमंत्रितों की संख्या व भोज के लिए खाद्य आइटम्स की एक अधिकतम संख्या की एक निश्चित सीमा तय करने के लिए संसद में अभी तक 10 बार निजी विधेयक प्रस्तुत किए जा चुके हैं परंतु, वे आज तक कानून नहीं बन पाये। वैसे भी कानून का पालन होता कहां है इस देश में? या कितना होता है? ‘‘थूकना अपराध है’’। इसके उल्लंघन पर क्या कभी आपने कोई फाईन होते आज तक देखा है?

पूर्णतः सरकारी स्तर पर धार्मिक कार्यक्रमों का आयोजन! कितना औचित्यपूर्ण?

एक प्रश्न यहां पर यह भी उठता है कि उक्त पूरा कार्यक्रम सरकारी स्तर पर उत्तर प्रदेश सरकार ने जो संपन्न किया, वह कितना उचित है? सरकार का दायित्व किसी धार्मिक कार्यक्रम के क्रियान्वयन पर आवश्यक प्रशासनिक प्रबंध करना होता है न कि उस कार्यक्रम को बनाने से लेकर धरातल पर उतारने तक आवश्यक धन मुहैया करने का दायित्व होता है। इस पर प्रश्न उठाना राजनीति नहीं है। न ही इस पर किसी को राजनीति करना चाहिए। यदि कोई इस पर राजनीति करता है, तो निश्चित रूप से उसकी धार्मिक आस्था पर भी प्रश्न उठेगा ही। इसलिए इस मुद्दे को सिर्फ आर्थिक दृष्टिकोण से ही देखना चाहिए। 

अंत में ‘‘20 साल बाद फिल्म’’ का प्रसिद्ध गाने की प्रथम लाइन याद आ रही हैः- कहीं दीप जले कहीं...........?

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