मंगलवार, 2 मई 2023

‘‘आनंद’’ ‘‘सर्वानंद’’ ‘‘परमानंद’’! विहारे, बिहारी "मोहन आनंद"।

बिहार के बाहुबली पूर्व सांसद आनंद मोहन जिन्हें एक आईएएस पदस्थ डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट (जिला दंडाधिकारी जी कृष्णैया) की हत्या के आरोप में आजीवन कारावास की सजा दी गई थी, जो 14 वर्ष से अधिक समय से जेल में थे। बिहार सरकार ने जेल मैनुअल में बिहार कारा हस्तक 2012 के नियम 481(आई) मैं संशोधन कर जिसके द्वारा सरकारी सेवक की हत्या को अपराध की श्रेणी से हटा कर सजायाफ्ता आनंद मोहन को अन्य 27 दोषियों के साथ रिहाई कर दी। निर्जीव (डिफंट) बिहार पीपुल्स पार्टी के नेता रहे और राष्ट्रीय जनता पार्टी के नेता आनंद मोहन सिर्फ एक बाहुबली ही नहीं हैं, बल्कि उनकी पत्नी लवली आनंद भी सांसद रही है, और बेटा चेतन आनंद बिहार विधानसभा का सदस्य हैं। इससे ज्यादा महत्वपूर्ण बात वे राजपूत समाज के लोकप्रिय प्रभावशाली बाहुबली राजनेता है। खासतौर पर राजपूत वर्ग में उनकी काफी अधिक पकड़ रुतबा व लोकप्रियता है। आनंद मोहन प्रसिद्ध स्वतंत्रता संग्राम सेनानी राम बहादुर सिंह के परिवार से आते हैं। इस परिवार ने जेपी आंदोलन में भी सक्रिय रूप से भाग लेकर आपातकाल को भी भोगा है। बिहार में राजपूत वोटरों की आबादी छः से सात प्रतिशत है। सूबे में 30 से 35 विधानसभा सीटों और 6 से 7 लोकसभा सीटों में गहरी पकड़ है। इस पकड़ का ही कारण यह है कि "सुशासन बाबु" कहे जाने वाले नीतीश कुमार को अब शायद सुशासन नहीं शासन चलाने में ही दिक्कत हो रही है, क्योंकि "हंस थे सो तो उड़ गए कागा भय दीवान"। आगे शासन में आने की उम्मीदें, संभावनाएं कहीं धूमिल लग रही होगी, तभी तो पुनः शासन पर आने की उम्मीदों को सुनिश्चित करने के लिए "अंतड़ियों को बल खोलने में लगे हैं"। इसी क्रम में बाकायदा नियम में परिवर्तन कर कानूनी जामा पहनाकर उनके साथ खड़े होकर फोटो सेशन कर एक नये शासन या कहे कुशासन का संकेत दिया है। ‘सुशासन’ तो "लुप्त" ही हो गया है।

इससे यह तथ्य हमेशा की तरह पुनः सिद्ध हो जाता है कि राजनीति के इस हमाम में समस्त राजनीतिक पार्टियां नंगी है। इस मामले में भी बिहार में कांग्रेस एक सहयोगी दल है, सरकार में हिस्सेदारी बनाये हुए है, सत्ता की मलाई चख रही है। कांग्रेस एक तरफ तो गुजरात में अगस्त 2022 में बिलकिस बानो के सामूहिक बलात्कार हत्या के के अपराध में आजन्म कारावास सजा पाए सजायाफ्ता 16 अपराधियों को गुजरात सरकार द्वारा केंद्र सरकार की सिफारिश व सहमति पर इसी तरह से छोड़े जाने पर हुल्लड़ व हंगामा मचा देती हैं, तो वहीं दूसरी ओर बिहार में सत्ता की मलाई चखने के बदले अपना मुंह राजनैतिक शुद्धता के मुद्दे पर सिल लेती है। परन्तु सत्ता का स्वाद चखने के लिए बेशर्मी से बार-बार मुंह खोल देती हैं। स्थिति यहीं तक नहीं रूकती है। भाजपा जो एक तरफ नीतीश कुमार को इस निर्णय को लेकर कटघरे में खड़ा करने का प्रयास करती हुई जनता को वह नीतीश कुमार की इस गलत नीति का विरोध करते हुए दिखना भी चाहती है। परंतु साथ ही यह भी नहीं दिखना चाहिए कि वह आनंद मोहन का सीधे विरोध कर रही है। इसी कारण से भाजपा के प्रमुख नेतागण उसी स्वास में यह कह जाते है कि हमें आनंद मोहन की रिहाई से व्यक्तिगत रूप से कोई परहेज नहीं है, लेकिन नीतीश कुमार ने जो किया वह गलत किया। बतौर नीतीश कुमार भाजपा के नेता पूर्व मंत्री सुशील मोदी ने 2 महीने पूर्व यह कहा था कि यदि राजीव गांधी के हत्यारे को रिहा किया जा सकता है, तो आनंद मोहन को रिहा करने में समस्या क्या है? भाजपा इस रिहाई के मामले में भारी दुविधा में है। कारण स्पष्ट है ! 34 ऊंची जाति (सवर्ण एवं राजपूत) के विधायक भाजपा के ही हैं। भाजपा के बड़बोले, बयानवीर केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह के बयान पर जरा गौर कीजिए। "बेचारा आनंद मोहन को नीतीश ने बलि का बकरा बना दिया है। उसकी रिहाई पर किसी को आपत्ति नहीं है"। इसी को कहते हैं "गुड़ खाएं और गुलगुले से परहेज"। यानी एक साथ मीठा कड़वा खाने का अनर्थक प्रयास किया जा रहा है। परन्तु ‘‘न माया मिली न राम’’ जैसी स्थिति पैदा हो रही है। 

क्या देश की राजनीति में नेताओं द्वारा पैदा किये गये उक्त दोहरेपन की नीति को प्रतिबंधित करने के लिए चुनाव आयोग और उच्चतम न्यायालय केंद्रीय सरकार को ऐसा निर्देश, आदेश अथवा अनुरोध या फिर सरकार के ध्यान में यह बात नहीं ला सकता है कि इस संबंध में कोई कानून बनाया जाए। खासकर उस स्थिति को देखते हुए जब उच्चतम न्यायालय हेट स्पीच के मामले में राज्य सरकारों को स्वयं ही आगे आकर संज्ञान लेकर प्राथमिकी दर्ज करने  के निर्देश देता है। इसी प्रकार ऐसे मामलों जहां किसी भी प्रकार की घटना, दुर्घटना, हत्या, दंगा, मॉब लिंचिंग बलात्कार आतंकी घटना आदि घटित होने पर यदि कोई पार्टी एक स्टैंड (रूख) एक राज्य में ले लेती है, तो उसे दूसरे राज्य में भी उसी तरह की घटना घटने पर उसे वही रुख अपनाना होगा। याने कि 'या तो चने चबा लो, या फिर शहनाई बजा लो"। उसे कानूनी रूप से बाध्यता होने के लिए आवश्यक कानून बनाने पर गंभीरता से विचार करना होगा। वैसे दोहरेपन की नीति का यह एक अकेला उदाहरण नहीं है। बल्कि यदि यह कहा जाए कि भारतीय राजनीति पूर्ण रूप से इस दोहरेपन की नीति से ही भरी हुई है, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। बात चाहे महंगाई की हो, पेट्रोलियम पदार्थ (पेट्रोल डीजल) की मूल्य वृद्धि की हो, चुनावी घोषणा पत्रों में मुफ्त देने की घोषणा हो (तेरी रेवड़ी परंतु मेरी जनता की जरूरत) आदि अनेकोनेक उदाहरणों से राजनीति भरी पड़ी है। जब हम एक देश, एक झंडा, एक संविधान, एक नागरिकता, एक सिविल संहिता, एक कर, एक राशन, एक आधार कार्ड की बात करते हैं, तब एक ही तरह की घटनाएं अलग-अलग प्रदेशों में घटित होने पर राजनीतिक पार्टियों की ऐसी घटनाओं पर क्रियाएं-प्रतिक्रियाएं पूरे देश में एक ही होनी चाहिए। "खरे सोने को कसौटी से डर कैसा"? वास्तव में यदि ऐसा हो गया, तो नेतागण दाएं बाएं नहीं हो पाएंगे और न ही जिम्मेदारी से भाग पाएंगे। यकीन मानिये!  राष्ट्रहित में, पार्टी हित या स्वार्थ से युक्त राज्य हित में नहीं, यह स्टैंड निश्चित रूप से सभी के लिए फायदेमंद है । अतः राजनीतिक पार्टियों के दोहरेपन (डबल स्टैंडर्ड) की नीतियों पर रोक लगाने के लिए एक सक्षम देशव्यापी कानून बनाए जाने की नितांत आवश्यकता वर्तमान मौजूदा परिस्थितियों को देखते हुए है। अब यह मत कहिएगा कि यह संविधान प्रदत बोलने के की स्वतंत्रता के मूल अधिकार का उल्लंघन होगा। संविधान में कोई भी अधिकार  एब्सोल्यूट (पूर्ण) नहीं है। प्रत्येक अधिकार उचित प्रतिबंधों के साथ है।

अंत में फिल्म "अमर प्रेम" में राजेश खन्ना पर फिल्माया गया यह गाना याद आ रहा है "लोग तो कुछ कहेंगे ही, लोगों का काम ही कहना है, छोड़ो बेकार की बातें..."।  हम आनंद मोहन सर्व आनंद ,परम आनंद  लिए कंठ तक डूबे हुए हैं, बिहार की समस्त राजनीतिक जनता को ह्रदय की गहराइयों से धन्यवाद।

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