मंगलवार, 7 फ़रवरी 2023

‘‘विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में ‘लोकतंत्र’ की लोकतांत्रिक तरीके से हत्या’’?

दिल्ली देश का एकमात्र प्रदेश है, जो राज्य होने के बावजूद भी उसे अन्य राज्यों के समान पूर्ण राज्य का दर्जा व अधिकार नहीं है। बावजूद इसके दिल्ली में जो कुछ भी घटित होता है, उसकी ‘तरंग’ देश भर में चली जाती है। अरविंद केजरीवाल की ‘‘खांसी’’ से लेकर उनकी ‘‘अंगूठी के नगीने’’ उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया की तथाकथित गिरफ्तारी व स्वास्थ्य मंत्री संत्येन्द्र जैन से संबंधित सूचनाएं मीडिया में अन्य सूचनाओं की तुलना में भारी पड़ जाती रही हैं। यह बात केजरीवाल के मुख्यमंत्री बनने के बाद से हम देख रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के बाद मात्र मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ही मीडिया का सबसे बढ़िया प्रयोग/उपयोग/दुरूपयोग कर रहे हैं। मीडिया उनके लिए ‘‘कलम तोड़ कर’’ रख देता है। इसीलिए दिल्ली में हो रही प्रत्येक घटनाएं चाहे वे राजनैतिक हो अथवा सामाजिक या अन्य कोई, देश की स्थिति पर उसका तुलनात्मक रूप से प्रभाव ज्यादा ही पड़ता है।
4 दिसम्बर को दिल्ली नगर निगम के हुए चुनाव को दो महीने से ज्यादा का समय व्यतीत हो गया है। तीन बार मेयर के चुनाव के लिए बैठक आहूत किये जाने के बावजूद दिल्ली राज्य चुनाव आयोग मेयर का चुनाव कराने में असफल रहा है। 250 सदस्यीय दिल्ली नगर निगम में हुए चुनाव में भाजपा की 104 सीटों तुलना में आप को 134 सीटें प्राप्त होकर स्पष्ट रूप से बहुमत प्राप्त होने के बावजूद मेयर का चुनाव न हो पाना क्या लोकतंत्र के खतरे की घंटी को नहीं दर्शाता है? लोकतंत्र के पक्षधर, भागीदार व उसे मजबूत बनाये रखने वाला प्रत्येक व्यक्ति तथा ‘तंत्र’ के लिए यह एक बेहद चिंतनीय विषय होना चाहिए। क्योंकि यह तो एक नया ‘‘प्रतीक’’ है। परन्तु कही ऐसा न हो कि एक दिन यह ‘‘प्रतीक’’ नगर निगम से आगे बढ़कर विधानसभा व लोकसभा में भी बनकर परिपाटी न बन जाए? तब शायद स्थिति को संभालना मुश्किल हो जाएगा।
भाजपा का यह आरोप हास्यास्पद सा लगता है कि आप पार्टी चुनावी हार के डर से (स्पष्ट रूप से बहुमत प्राप्त होने के बावजूद) हुड़दंग लीला कर रही है और चुनाव नहीं होने दे रही है। यह आरोप उस स्थिति में है जब अभी तक एक भी पार्षद ने पार्टी को नहीं छोड़ा है। ‘‘अल्पमत’’ में होने के बावजूद भाजपा सांसद हंसराज हंस व पार्टी के कई नेता व पदाधिकारी यह दावा कर रहे है कि भले ही ‘‘अंगारों पर पैर रखकर बने’’ ‘‘मेयर भाजपा’’ का ही होगा। जबकि आप पार्टी भी यही आरोप भाजपा पर लगा रही है। मामला उच्चतम न्यायालय में भी गया। बावजूद इसके वह जनता जिसने अपनी समस्याओं के हल के लिए जिन प्रतिनिधियों को चुनकर भेजा है, उनसे वह आस लगाई हुई है। वह ‘‘टुकुर-टुकुर तमाशा ए अहले जम्हूरियत’’ देख रही है। परन्तु उस आस की अवधि मेयर के पद पर निर्वाचित व्यक्ति के पदस्थ न होकर एक-एक दिन कम हो रही है। जब लोकतंत्र में ‘‘संघे शक्तिः कलौयुगे’’ को नकारते हुए चुने हुए व्यक्ति को सत्ता का स्थानांतरण आसानी से नहीं हो पा रहा है, तब निश्चित रूप से यह स्थिति लोकतंत्र के लिए कोई भी जिम्मेदार संस्था, तंत्र के लिए गहन चिंता का विषय बनना चाहिए। ध्यान आकर्षित करने के बावजूद उच्चतम न्यायालय भी स्थिति पर ध्यान नहीं दे पा रहा है? फौजी शासन या राजशाही से लोकतांत्रिक तंत्र को सत्ता के हस्तांतरण में आने वाली रुकावटों को तो समझा जा सकता है। परन्तु दिल्ली में वह स्थिति नहीं है। इससे यह समझा जा सकता है कि दिल्ली प्रदेश जो अपने आप में पूर्ण अधिकार प्राप्त स्वतंत्र प्रदेश नहीं है, वहां उपराज्यपाल केन्द्र सरकार के प्रतिनिधि के रूप में आरूढ़ है, जो संवैधानिक रूप से ‘‘बहुत कुछ’’ सत्ता के केन्द्र बिंदु है। तब ऐसी स्थिति में अरविंद केजरीवाल की दिल्ली सरकार के अधीन नगर निगम आगे कैसे स्थानीय प्रशासन चला पायेगा, यह एक बड़ा गंभीर विषय है। ‘कष्टः खलु पराश्रयः।
देश के इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ है, न ही ऐसा देखने को मिला, जैसा अभी दिल्ली में घटित हो रहा है। यह जरूर हुआ है कि हारी वाली पार्टी ने चुनाव जीतने वाली बहुमत प्राप्त पार्टी को तोड़कर, ‘‘लोकतंत्र की आंखों में धूल झोंक कर’’ यदा-कदा सत्ता की कुर्सी पर जरूर पहंुचने में सफल हुई है। परन्तु यह सब कुछ तय निर्वाचन तिथि के पूर्व ही तय हो जाता रहा था। परन्तु यहां पर तो तीन बार बैठक बुलाने के बावजूद आवश्यक ‘तोड़फोड़’ न हो पाने के कारण अभी तक निर्वाचन नहीं हो पाया है। यदि आप के इस आरोप को मान लिया जाये कि भाजपा तोडफोड करने के लिए समय प्राप्ति के लिए किसी न किसी बहाने चुनाव आगे बढ़ाकर चुनावी प्रक्रिया को अंतिम रूप देने में रूकावट पैदा कर रही है। तब ऐसी स्थिति में इसका तो अर्थ यही निकलता है कि राजनीति में नैतिकता ‘‘गूलर का फूल’’ हो गई है और दिल्ली नगर निगम में आप पार्टी में तोड़फोड़ होकर भाजपा का मेयर बनने की स्थिति में ही चुनाव हो पायेगा। यदि वास्तव में ऐसा होगा, तो वह दिन लोकतंत्र का ‘काला दिन’ के रूप में ‘हत्यारा दिन’ दर्ज होगा। जारी विद्यमान स्थिति में दिल्ली में दिन प्रतिदिन लोकतंत्र की हत्या का क्रम कब तक चलता रहेगा व चलाया जायेगा? अंततः दिल्ली नगर निगम के मेयर के चुनाव शांतिपूर्ण तरीके से संवैधानिक लोकतंात्रिक रूप से नहीं हो पा रहे है, तो आखिर इसके लिए जिम्मेदार कौन, यह एक बड़ा प्रश्न है? जिसका उत्तर ढुढा जाना चाहिए ताकि भविष्य में ऐसी स्थिति की पुर्नवृत्ति न हो।
इस देश में किसी भी उत्पन्न समस्या के हल के लिए, कोई आस्कमिक घटना, दुर्घटना, दंगा-फसाद, गोली कांड अथवा कानून व्यवस्था की स्थिति बिगड़ जाने पर जांच आयोग की स्थापना एक सामान्य मांग हो गई है जो एसटीएफ से लेकर मजिस्ट्रिेयल जांच, न्यायिक जांच, जांच कमेटी, जांच कमीशन आदि-आदि की होती रही है। क्या दिल्ली में मेयर के चुनाव तीन बार न होने की कोई जांच कराई जाएगी? निश्चित रूप से केन्द्रीय सरकार, उपराज्यपाल व मुख्यमंत्री जांच नहीं कराएंगे। तब मजबूरन उच्चतम न्यायालय को ही आगे आकर लोकतंत्र की हत्या करने की जांच के लिए अपने संवैधानिक विशेषाधिकार का प्रयोग करना ही चाहिए। 

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