बुधवार, 20 जुलाई 2022

उपराष्ट्रपति के पद पर जगदीप धनखड़ का चयन! मोदी का मास्टर स्ट्रोक।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की कार्यशैली की यह विशेषता रही है कि वे हमेशा देश के सामने ऐसा कुछ कर जाते है, निर्णय ले लेते है, जो प्रायः ‘‘भूतो न भविष्यति’’ मीडिया और राजनीतिक क्षेत्रों में चल रही चर्चाओं के विपरीत, ‘‘अचानक’’ व कुछ अलग हटकर होता है। उपराष्ट्रपति का चयन भी इसी शैली का परिणाम है। याद कीजिए! जब मुख्तार अब्बास नकवी का केंद्रीय मंत्रिमंडल से संवैधानिक बाध्यता के कारण इस्तीफा हुआ था, तब राजनीतिक क्षेत्रों में यह कयास लगाये जा रहे थे कि वे देश के अगले उपराष्ट्रपति होंगे। इस बात के कयास लगने में भी देश का पिछला इतिहास रहा है। खासकर कांग्रेस का जहां मुस्लिम तुष्टिकरण की ‘‘अंधा बांटे रेवड़ी’’ नीति के तहत राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति समय-समय पर बनाये जाते रहे है। अटलजी के समय डॉ. कलाम राष्ट्रपति चयनित किये गये थे। तथापि राष्ट्रपति डॉ.एपीजे अब्दुल कलाम को इस श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है, और न ही उनका चयन इस दृष्टि से हुआ था। 

अभी हाल ही में हुए उत्तर प्रदेश में रामपुर, आजमगढ़ के उपचुनाव में भाजपा की जीत और उससे भी महत्वपूर्ण विपक्षी मुस्लिम उम्मीदवार की हार ने भाजपा पार्टी को एक अवसर प्रदान किया। वे मुसलमान जिन्होेंने पार्टी पक्ष में मतदान किया, (‘‘घी का लड्डू टेढ़ा ही भला’’) विश्वास किया है, उसे बनाये रखने के लिए उन्हे कहीं न कहीं इनाम दिया जाये और यह इनाम निश्चित रूप से उपराष्ट्रपति पद के रूप में मुख्तार अब्बास नकवी के रूप में संभव थी, जो शायद होनी भी थी। परन्तु अचानक इस राजनीतिक परिदृश्य (सिरानियों), परसेप्शन को नरेन्द्र मोदी ने पलट दिया, ‘‘अंधों के सामने हाथी’’ जो उनकी कार्य करने की पद्धति की पहचान बन चुकी है। ममता जैसी तेज तर्रार और मोदी जैसे व्यक्तिव को चुनौती देने वाली मुख्यमंत्री को समय-समय पर जगदीप धनखड़ ने जिस तरह से कार्नर करने का लगातार प्रयास किया, उस कारण से वे निश्चित रूप से मोदी की नजर में चढ़े हुए थे। दूसरा कारण राजस्थान व हरियाणा में होने वाले चुनावों में (किसान आंदोलन) व जाटों के धावों को सहलाने के लिए भी उनका चयन करने में भी यह प्रमुख मुद्दा रहा है। ‘‘यत्नम् विना रत्नम् न लभ्यते’’। तीसरी शायद यह बात भी हो सकती हैं कि आदिवासी राष्ट्रपति के चयन में आदिवासी वोटों की राजनीति करने का  आरोप लगने के बाद मुस्लिम राजनीति करने के आरोप से बचने के लिए शायद नकवी का अंततः चयन नहीं किया गया। इससे स्पष्ट होता है, यदि मोदी को परिस्थितिवश किसी एक मुद्दे से पीछे हटना होता भी है, तो वह उससे बड़े मुद्दे को लपक कर अपने पीछे हटने वाले कदम का एहसास तक नहीं होने देते है। यह मोदी जी के कार्य करने की शैली भी है। 

वैसे भी देश में इस समय मोदी की नीति को सफल राजनीति में बदलने में महारत हासिल होने की शैली को चुनौती देने वाले नेता दूर-दूर तक नजर नहीं आते है। ‘‘यह सन्नाटा क्यों है भई’’। यह स्थिति वैसी ही हो गई जैसे इंदिरा गांधी के समय लगभग ऐसी ही स्थिति थी। परंतु तत्समय परिस्थितियों में एक बड़ा महत्वपूर्ण अंतर यह था कि इंदिरा गांधी के समय एक से बढ़कर एक धाकड़, साहसी, निडर, अनुभवी और विद्वान राजनीतिक विरोधी रहे, और इंदिरा गांधी को ‘‘ज्य़ादा जोगी मठ उजाड़’’ की स्थिति से निपटने में ज्यादा कौशलपूर्ण ताकत लगानी पड़ती थी। परंतु मोदी के लिए बड़ी राहत की बात यह है कि राहुल गांधी जैसे ‘‘अधजल गगरीनुमा’’ अधिकांश नेता ‘‘छलक छलक कर’’ इनसे लोहा लेने के लिए खड़े होने का मात्र आभास प्रदान करते हुए दिखते है। शरद पवार जैसे अनुभवी नेता अब उम्र की ढलान पर होने पर ‘‘ज्यों ज्यों भीगे कामरी, त्यों त्यों भारी होय’’ का प्रतीक बन गये हैं, ऐसे में उनका आभामंडल भी कम होते जा रहा है। 

अतः जब दबंग और मजबूत विपक्ष न हो, तब लोकतंत्र को जीवित रहने के लिए पार्टी का आंतरिक लोकतंत्र इतना मजबूत होना चाहिए कि पार्टी के अंदर ही एक प्रेशर ग्रुप बन कर वह सार्थक विपक्ष की भूमिका भी अदा करे। अर्थात सत्तारूढ़ पार्टी के सत्ताधीशो पर लगाम लगाने का काम करे! दुर्भाग्य से इस मामले में भाजपा, कांग्रेस से भी ज्यादा बदतर स्थिति में हैं, जहां आवाज ही नहीं है तो दबाने का प्रश्न ही कहा होता है। आखि़र ‘‘अरहर की टटिया में अलीगढ़ी ताले’’ कांग्रेस में किसी समय आवाज जरूर थी। इंदिरा गांधी के जमाने में चंद्रशेखर, मोहन धारिया, कृष्णकांत जैसे आवाज उठाने वाले धुरंधर युवा तुर्क नेता थे। उसके बाद वर्तमान में जी-23 का ग्रुप बना। परंतु उसकी आवाज को दबा दिया जाता या अनसुना कर दिया जाता है। लोकतंत्र में एक तंत्र को स्थापित करने की परिस्थितियां दिन प्रतिदिन भाजपा में बन रही है जो पार्टी के स्वास्थ्य के लिए बिल्कुल भी ठीक नहीं होगी। इतिहास इस बात को सिद्ध भी करता है। भविष्य क्या होगा? यह समय ही बतलायेगा। ‘‘दिल्ली भले ही दूर सही’’ फिर भी अच्छे भविष्य की कामना करते हुए।

2 टिप्‍पणियां:

  1. यथोचित, तात्कालिक सटिक टिप्पणी सराहनीय।

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  2. यह हर स्थिति में हम देखें तो ‌ यही पग
    पाते हैं कि मोदी जी का फैसला राष्ट्रपति चयन में भी ‌यही हुआ, जिन्हें पुरुष कार दिया उन हस्तियों का चयन, अभी राष्ट्रपति , उपराष्ट्रपति में भी इसी दूरदर्शीता प्रशंसनीय है।

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