मंगलवार, 15 मई 2012

माननीय उच्चतम न्यायालय का निर्णय मजहबी सिद्धांत को मान्यता



राजीव खण्डेलवाल
माननीय उच्चतम न्यायालय ने हाल में ही दिये गये निर्णय में केंद्रीय सरकार द्वारा हज यात्रा व्यय के सम्बंध में दी जा रही सबसिडी को गलत ठहराया है। माननीय न्यायालय ने अगले दस वर्षो में इस सबसिडी को क्रमबद्ध रूप से समाप्त करने के निर्देश भी दिये है। उक्त निर्णय के पूर्व में शाहबानों प्रकरण में दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के अन्तर्गत गुजारा भत्ता देने के निर्णय की याद ताजा हो जाती है। अभी हाल ही में उत्तर प्रदेश में पदोन्नति के मामले में उच्चतम न्यायालय का एक और महत्वपूर्ण निर्णय आया है जिसमें माननीय न्यायालय ने नियम 8 ए को निरस्त करते हुए पदोन्नति में आरक्षण के प्रावधान लागू नहीं होंगे यह निर्णित किया है। उक्त तीनों निर्णय लैण्डमार्क निर्णय है जो कमोबेस धार्मिक भावना व आरक्षण से सम्बंधित है जो देश की राजनीति में हलचल पैदा करने के लिए पर्याप्त है। लेकिन सबसे आश्चर्यजनक तथ्य जो आम नागरिक महसूस कर रहे है वह यह कि माननीय उच्चतम न्यायालय के हज यात्रा के निर्णय को आम मुस्लिमों एवं नेताओं ने स्वीकार किया है। इसके विपरीत शाहबानों प्रकरण में मुस्लिम नेताओं के विरोध के फलस्वरूप तुष्टीकरण की नीति के तहत उक्त निर्णय को शून्य करने के लिए संविधान संशोधन विधेयक संसद में पारित किया गया था। तत्कालीन केन्द्रीय राजीव गांधी की सरकार ने तब यह संशोधन तथाकथित धर्म निरपेक्षता के नाम पर किया गया था। लेकिन यह मानना कि माननीय उच्चतम न्यायालय के इस निर्णय को मुस्लिम जनता ने अपने धार्मिक अधिकार पर अतिक्रमण नहीं माना जैसा कि शाहबानों प्रकरण में माना गया था तो उसका कारण यह है कि पवित्र ग्रंथ कुरान शरीफ में इस बात का उल्लेख है कि ‘हज वही व्यक्ति जा सकता है जो सक्षम हो, जो स्वयं हजयात्रा का खर्चा उठा सकता हो। माननीय उच्चतम न्यायालय नें कुरान शरीफ की व्याख्या करने वाले ‘‘नबी की हदीस’’ को मान्यता दी (निर्णय के जो अंश मीडिया में प्रकाशित हुए है उससे ऐसा प्रतीत होता है पूरा निर्णय अभी तक उपलब्ध नहीं हो पाया है) इसलिए उक्त निर्णय का स्वागत किया गया। लेकिन एक बार हज सब्सिडी को गलत ठहराने के बाद उसे तुरंत लागू करने के बजाय 10 वर्ष में क्रमशः समाप्त करने के आदेश का औचित्य समझ से परे है। माननीय उच्चतम न्यायालय ने हज यात्रा को अपने उक्त आदेश में इस आधार पर गलत नहीं ठहराया कि इससे असमानता व भेदभाव की स्थिति उत्पन्न होती है। सरकार एक तरफ एक धर्म विशेष की धार्मिक हज यात्रा को तो सब्सिडी उनकी धार्मिक भावना के विरूद्ध होने के बावजूद दे रही है। लेकिन अन्य धर्मो की यात्राओं पर कोई सुविधाएं या सब्सिडी मांगे जाने पर भी नहीं दी जा रही है। यह भारतीय संविधान में दी गई समानता के अधिकार का उल्लंघन है। भारत विश्व का एकमात्र ऐसा देश है जो हज यात्रा में सरकारी सहायता के रूप में सब्सिडी दे रहा है। जबकि कोई भी मुस्लिम राष्ट्र या अन्य राष्ट्र अपने नागरिको को यह रियायत या अन्य किसी प्रकार की रियायत नहीं देता है। माननीय उच्चतम न्यायालय को उक्त मामले में इस बिन्दु पर भी विचार करना चाहिए था ताकि भविष्य में कोई भी सरकार धर्मावलंबियो के तुष्टीकरण के उद्देश्य मात्र से इस तरह की भेदभाव की व्यवस्था न कर सके।
                    वर्तमान में देश का जो राजनैतिक दृश्य पटल है उसे देखते हुए क्या भविष्य में संविधान संशोधन विधेयक माननीय उच्चतम न्यायालय के उक्त दोनो निर्णयों को शून्य करने के लिए संसद में नहीं आयेगा यह चिंता करना क्या जल्दबाजी होगी? इसका उत्तर अभी भविष्य के गर्भ में है, जिसका इंतजार करना होगा।

1 टिप्पणी:

  1. सरकार के द्वारा हज सब्सिडी के नाम पर मुसलमानो को बेवकूफ़ बनाया जा रहा है.... यह सब्सिडी नहीं बल्कि धौखा है... इस विषय पर मेरे विचार आप मेरे ब्लॉग पर पढ़ सकते हैं.

    धौखा है हज सब्सिडी

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